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इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका

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अनुसृजन

रितु एम. जेराथ

स्त्री की आज़ादी का उदारीकरण / स्त्री संघर्ष का उदारवाद

कितनी बार गत बीते दिनों में ऐसा हुआ है कि आप टेलिविजन पर प्रोग्राम ढूँढ रहे हों और सामने स्क्रीन पर महिलाओं की नाचती हुई दृष्य जिनमें कि उनके बदन पर नाममात्र के कपड़े ही होते हैं दिख जाती है? कब पिछली बार समाचार पत्र के सिटी सेक्शन के पन्नों पर महिलाओं और उनके कपड़ों जो वे पहनती हैं ओ नहीं पहनती हैं, और उनकी यौन इच्छाओं के लेख पढ़े थे? क्या तुमने वह हिन्दी फिल्म का गाना सुना है जिसमें एक औरत यह गाती है की "मैं अपने बदन के प्रदर्शन से रात जवाँ करूँगी" ये सभी दृष्य नवीन शहस्त्राब्दी के नये भारत के हैं. कभी आपने इस बात पर गम्भीरता पूर्वक विचार किया है कि हमारे समाज को क्या हो रहा है? या आपने कभी स्वयं के विषय में कभी सोचा है. ज़रूर उम्रदराज हो रहा हूँ. विचार बिन्दु यहाँ यह है कि ये सभी छवियाँ आज कुछ नौजवान जो नव आधुनिकीकरण के शिकार हैं और उन्हें यह बदलाव बहुत माकूल नज़र आ रहा है, वे इसके साथ हैं.

पिछले एक दशक में ये सभी दृश्य और गहरे हो कर उभरे हैं. और इस भावना के साथ कि यदि आपको कुछ आपत्तिजनक दिखता है तो आप पुराने विचारों के हैं. ऐसा महसूस किया गया है कि ये सभी छवियाँ नव उन्मुक्त कामकाजी शहरी भारतीय नारी की है. जैसे कि मल्लिका शेरावत, एक प्रसिद्ध हिन्दी फिल्म स्टार जो उनमुक्त दृश्य देने के कारण प्रसिद्ध हो गई और जब उससे इस बाबत सवाल किया गया तो उन्होंने ये कहा कि आप कहाँ जी रहे हैं? यह सब आप सड़कों पर भी देखते हैं. लड़कियाँ छोटे कपड़े पहनती हैं, इसमें गलत क्या है? मुझे लगता है कि यह लड़की होने का विशेषाधिकार है जो हमें पुरूषों से अलग प्राथमिकता देता है. एक दूसरे साक्षात्कार में उसने कहा कि मैं देह प्रदर्शन के विषय में कभी भी किसी आलोचना से नहीं घबराती. मुझे लगता है कि सभी आलोचक किसी दूसरी दुनिया के हैं. मुझे छोटे अधोवस्त्र पहनने में कुछ भी गलत नहीं लगता. मैं उन सभी लड़कियों की सराहना करती हूँ जो छोटे कपड़े पहनती हैं और इस समाज में सहजता पूर्वक रहती हैं. हमें इस बदले आचार-व्यवहार की सराहना करनी चाहिए और बढ़ावा देना चाहिए. जब मल्लिका से यह पूछा गया कि "क्या यह देह प्रदर्शन समाज में एक भड़काऊपन को बढ़ावा दे रहा है?" तो उसका उत्तर था "सुन्दर शरीर ईश्वर का उपहार है. अगर मैं सुन्दर हूँ तो मुझे इस पर गर्व करने का अधिकार है. मुझे नहीं लगता है कि मुझे अपने आप को आडंबरपूर्ण और आकर्षक बनाए रखने में कुछ गलत है. वास्तव में मर्द मुझे देख कर अनियंत्रित हो जाते हैं." मल्लिका शेरावत के ये विचार किसी एक व्यक्ति के नहीं हैं. नई पीढ़ी के बहुत लोगों का भी यही विचार है. आपको प्रत्येक दिन इसी से मिलता जुलता वक्तव्य पड़ने को मिल सकता है. अभी दिल्ली के अग्रणी समाचार पत्र में दिल्ली के स्कूली बच्चों के ऊपर एक लेख था जिसमें एक चौदह वर्ष के बच्चे ने एक पार्टी दी थी और आमंत्रण पत्र में आमंत्रण का ड्रेस कोड लिखा था कि "जितना छोटा उतना अच्छा". इसी लेख में यह भी लिखा था कि एक अन्य प्रसिद्ध विद्यालय के बच्चे के जन्म दिवस की पार्टी में लड़कियों से मुजरा करने को कहा गया. जब इसके बारे में सवाल किया गया तो लड़के ने जवाब दिया 'यह रोमांचक है, आप को भी करना चाहिए. पिछली पार्टी में हमने लड़कियों सा ऐश्वर्या राय की तरह कजरारे नृत्य करवाए.' यह विचार युवा पीढ़ी तक ही सीमित नहीं है. उस बच्चे के पिता ने भी प्रत्युत्तर में यही कहा कि "एक दो ऐसा काम करने में कोई बुराई नहीं है. ऐसा तो नहीं था न कि वे मादक पदार्थ का सेवन कर रहे थे. ये सब तो वे मज़े के लिये कर रहे थे और उन लड़कियों के भी ऐसा करने में आपत्ति नहीं थी. कुछ दिवसों पूर्व ही अख़बार के एक लेख में अंतर्राष्ट्रीय मेले में काम करने वाली महिलाओं के वेतन मान के संदर्भ में उल्लेख था. जिसमें लिखा था कि वेतन कपड़ों के कम होने पर निर्भर था. जितने कम कपड़े उतना अधिक पैसा. यह इस विश्वास के साथ किया गया कि नारी देह के प्रदर्शन से उत्तम कुछ भी नहीं है जो ग्राहकों को आपके दुकान तक खींच सके. एक कार्पोरेट घराने के व्यवसायी के अनुसार 'यह एक व्यावसायिक नीति है जिसके तहत अधिक ग्राहक आकृष्ट हो सकें. ईमानदारी से कहूँ कि यही बिकता है. यह रोचक है कि इस व्यवसायिक प्रतिनिधि ने उन शब्दों को रखा. यह सत्य है कि आज अनेक व्यवसायिक निर्णय इसी बात पर लिये जाते हैं कि क्या बिकता है? यह सम्भवत: हमारी अर्थव्यवस्था के अचानक हुये उदारीकरण के कारण और हमारी भूमंडलीकरण की प्रक्रिया का एक हिस्सा है. और स्त्री का यह रवैया उदारीकरण का एक हिस्सा है जैसा कि मैंने कहा कि जिसे यह आपत्तिजनक लगता है उसे पुरातन पंथी और उदारीकरण विरोधी माना जाता है. जो इसके समर्थक हैं उसे आधुनिक माना जाता है. समय के साथ स्त्रियाँ अपने अधिकार को लेकर संघर्षरत और प्रयासरत हैं. देखा जाए तो रूस में भी स्थिति अलग नहीं नादेज़्ह दा, अज़्हगी ख़ीना, ओगोन्योक नामक पत्रिका के साथ काम करती हैं ने एक रपट में कहा जो स्त्रियों के लिए स्त्रियों के बने विभाग में दी गई थी कि सोवियत संघ के विघटन के बाद एक वास्तविक मुक्त प्रेस उभरी और रातों रात पत्रिकायें और समाचार पत्र कुकुरमुत्ते की तरह उग आये. जैसे जैसे बाज़ारी अर्थव्यवस्था का उदय हुआ वैसे वैसे स्त्री की छवि मुनाफ़े के रूप में उभरी अचानक महिला मॉडल्स और सौंदर्य प्रतियोगिताओं की छवि छापने वाले पत्र प्रतियोगिताओं की छवि छापने वाले पत्र अन्य के मुकाबले ज़्यादा बिके मैं उनके अधोवस्त्र में सौंदर्य से उद्धृत करना चाहती हूँ कि सौंदर्य प्रतियोगिताओं के समाचार और उन महिलाओं के साक्षात्कार जिन पत्र पत्रिकाओं में छपे उन्हें प्रतिष्ठित माना जाता है. कम्युनिस्टों के प्रावदा नामक पत्र में प्यूरीटनिज़्म के लिए प्रसिद्ध है, में एक लेख छपा था जूलिया कोरोचनिना के विषय में, जिसने ब्रह्माण्ड सुंदरी की उपाधि जीती. उसे एक सच्ची रूसी देशभक्त माना गया. आज टी. वी. के कार्यक्रम और पत्र पत्रिकाएँ उन युवाओं को केंद्रित करते हैं और ऐसे लेखों को स्थान देते हैं जिसमें कहा जाता है कि एक मॉडल कैसे बनें बज़ाय इसके कि विश्वविद्यालय में प्रवेश कैसे मिले. खूबसूरत महिलाओं के चेहरे पत्रिकाओं और टी. वी स्क्रीन को परिपूर्ण कर रहे हैं. टी. वी की उद्घोशिकाओं और प्रस्तोताओं ने सौन्दर्य के नये मापदण्ड गढ़े हैं. अजगीकीना उसी खबर में कहती हैं कि कामोद्दीपक चलचित्रों के प्रसारण मे टी. वी. पर बढ़ोत्तरी हुई है. यद्यपि उन्हीं के अनुसार स्थिति अभी स्थित है. अजगीकीना ही नहीं बल्कि रूस में अन्य स्त्री पत्रकार भी हैं जो स्त्री छवि की टीकाकार हैं. जैसे डोना ह्युगीस, सुइ ब्राइडर और रिबेका केय जिन्होंने इन स्रोतों का गहन अध्ययन किया है. उन्हें ऐसा महसूस होता है कि यह परिवर्तन पश्चिमी आडम्बर के आभात होने के कारण आया है जो महिला के शृंगार के सामान, उसके प्राकट्य और भूषाचार को तीव्र गति से कामोद्दीपक सामग्री में रूपांत्रित कर रहा है. डोना ह्यूगीस कहती हैं कि ये कुछ प्रभाव संयुक्त राज्य अमेरिका के टी. वी. धारावाहिक 'सान्ता बारबरा' का प्रभाव है. जहाँ अचानक रूसी स्त्री पर पश्चिम की चकाचौंध की छवि सौंप दी गयी है. संयोगवश यह सांता बारबरा उन सबसे पहले आयातित धारावाहिकों में से है जो भारतीय केबल चैनलों पर उदारीकरण की प्रक्रिया के बाद दिखायी जा रही है. 20 वीं शताब्दी की सबसे महानतम और प्रगतिवादी क्रांतियों में से एक है स्त्री की सामाजिक और बौद्धिक परिस्थिति का बदल जाना. 20 वीं शताब्दी उल्लेखनीय है कि स्त्रियों ने पुरुषों से पहली बार अपने अधिकार की माँग की है. सोवियत संघ ऐसे कुछ राष्ट्रों में से थे जिसने स्त्रियों के लिये राज्य नीति निर्धारित की थी. पश्चिम में स्त्री ने समानता 20 वीं शताब्दी के विभिन्न समयों में प्राप्त की. जिसमें ऐसा ही सबसे महत्वपूर्ण स्तंभ है स्त्री संघर्ष का जो 1969 में शुरू हुआ. जिसे यदा कदा नारीवाद का द्वितीय तरंग कहा जाता है कि इसका उद्भव 1960 के लोक अधिकार आंदोलनों में स्त्री सहभागिता से हुआ और नव वामपंथ वृद्धि के साथ. जिसका जोर दमन से मुक्ति था. इस आंदोलन का मुख्य मुद्दा न केवल समान वेतन था बल्कि समान बौद्धिक अधिकार भी. साथ ही साथ इसने बलात्कार, स्त्रियों के ऊपर हिंसा, कामोद्दीपक सामग्री और अन्य सांस्कृतिक मापदंडों के विरूद्ध प्रचार भी था. उदाहरण के लिये कामोत्तेजक भाषा जो स्त्री का शोषण करती है. स्त्री मुक्ति आंदोलन का एक अभिलेख स्त्री के गर्भपात के विषय में भी बात करता है जिसमें उसे हक़ है की अपने बच्चों की संख्या नियंत्रित करे और प्रत्येक स्त्री अपने शरीर की अधिकारी है. यह इस बारे में भी बात करता है कि महिलाओं को कैसे अभिसंचालित किया गया है स्त्री और माता की भूमिका में. और जो महिलाओं के वर्गीकरण के लिये सबसे महत्वपूर्ण बात है. उनके परंपरागत भूमिका के रूप में दूसरों का आप के प्रति उम्मीद और उनकी छवि केवल सेक्स वस्तु तक ही सीमित रहने का हक़ है.

पश्चिम के स्त्री अधिकार आंदोलन संक्षेप में यह कि 1: स्त्रियों को पूर्ण अधिकार है अपने शरीर के ऊपर 2: और उनके नकली खोखली सेक्स सिंबल वाली छवि के खिलाफ़ आवाज़ उठाने की ज़रूरत. समान स्थितियाँ महिला आंदोलनों में पढ़ी जा सकतीं हैं. रूस में भी और भारत में भी.

रूस का महिला आंदोलन काफी जटिल है. जब 1970 में क्रांति हुई थी, पहली बार पूर्ण आर्थिक, राजनैतिक और लैंगिक बराबरी का मुद्दा ऐतिहासिक मुख्य घोषणा पत्र में था. एक औरत अपने मर्द के साथ रहने को बाध्य नहीं रह गई थी या उसके सहभागी होने में अगर नौकरी बदले पर घर बदलना पड़े तो. संपत्ति का संबंध बदला गया था. महिलाओं को बराबर अधिकार भूमि अधिग्रहण करने का, घर के मालिक होने का और बराबर वेतनमान लागू करने के लिये. प्रसूति महिलाओं को जनन कार्य के लिये विशेष कानून बनाये गये जिसमें लंबे समय तक रात्रि में काम करना गर्भवती होने पर उन्हें स्वीकृत अधिकृत अवकाश और पारिवारिक भत्ता और शिशु देखभाल गृह की बात कही गई थी. गर्भपात को 1920 ई. में कानूनी मान्यता मिली थी, तलाक के नियमों को सरल बनाया गया था और विवाह का कानूनी अनुबंध भी प्रावधान में लाया गया था. स्तालीन के नेतृत्व में आने पर स्थितियाँ बदलीं. उसने कुछ नियमों को बदला जो मूल रूप से बोल्शेविकों द्वारा प्रतिपादित था जो स्त्री और पुरूष को पूरी जनता के अनुसार उसके प्रदर्शन की अनुमति देता था. ऐसे भी तर्क हैं कि सोवियत यूनियन ने वास्तव में साम्यवाद के नीचे बराबरी को हासिल किया. वास्तव में वहाँ एक पूरा भूमिगत महिलावादी आंदोलन जो 70 के दशक में महिलाओं के बेहतर भविष्य के लिये फैला हुआ था. इस आलेख का मतलब यह नहीं है कि सोवियत संघ के व महिलाओं के विघटन पर सफलता या असफलता पर तर्क वितर्क हो. विचारणीय बात यह है कि सोवियत यूनियन ने कम से कम कानूनी गारंटी बराबरी का अधिकार महिलाओं को देना सुनिश्चित किया था और महिलाओं को फैसले का चुनाव करने के अधिकारों के लिये लड़ाई भी लड़ी और उनके पतन के ख़िलाफ़ भी लड़ाई लड़ी गई थी. और भूमिगत आंदोलन के फैसले की वजह से ही उन्हें आगे अपने शरीर के नियंत्रण का और अपनी निजी ज़िंदगी का अधिकार मिला था.

भारत में महिलाओं को ऐतिहासिक रूप से शोषण और दमन किया गया है. यद्यपि बराबर की लड़ाई यहाँ थोड़ा पहले शुरू हो गई थी. महिलाओं की सक्रिय राजनीतिक भागीदारी आज़ादी के आंदोलन में महात्मा गाँधी के नेतृत्व करने की वजह से उभर कर सामने आयीं. उन्होंने अपनी आवाज़ मजबूती के साथ इस आंदोलन में मुखर हो कर उठायी. महिलाओं व स्त्री संगठनों की महत्वाकांक्षी राजनीतिक भागीदारी ने 1947 के बटवारे के सफर को तय किया. इस कार्य की क्षमता के असर ने महिलाओं के प्रभाव में परिलक्षित थे उनके राजनीतिक भागीदारी के साथ साथ काम करने को लेकर और इसने आधुनिक महिला आंदोलनों के आगे का मार्ग 1970 के बाद से प्रशस्त किया. 70 के दशक से ही कई महिला संगठन सामने आयीं और काफी गम्भीर मुद्दों जैसे- स्त्री हिंसा के ख़िलाफ़ लड़ाई, बराबरी के कानून के लिये, कन्या भ्रूण हत्या के ख़िलाफ़, शोषण और महिलाओं के वास्तुकरण / उपभोगताकरण अपने शरीर के ऊपर अपना अधिकार इत्यादि के लिये सक्रिय भूमिका निभाई.

जैसा कि हम देख सकते हैं कि अधिकांश महिलाओं का संघर्ष पूरे विश्व भर में समान मुद्दे उठाए हैं समय काल व परिस्थिति की ज़रूरतों के हिसाब से भिन्न भिन्न देशों में विशेषकर.......

जैसे भी वर्तमान मौज़ूदा दौर में एक सवाल उठता है कि उन्नति और सशक्तिकरण का यह संघर्ष महिलाओं को किस ओर ले जाता है भारत में समाचार पत्रों, टी. वी. और फ़िल्में जो प्रभावी सूचना के स्रोत हैं आज हमें नयी युग वाली महिलाओं का आदर्श बेंच रहे हैं और यह नवयुगी महिलाएँ उनके अनुसार उठे हुए उभारों से चित्रित की जा रही हैं और ये नवयुगी महिलाएँ चॉकलेट पटाखा आदि विशेषणों से विभूषित की जा रही हैं जिनके सफ़लता का तरीका है "अगर आपके पास है तो उसे प्रदर्शित करें." और जैसा कि अजगीकीना ने इंगित किया है कि रूस की मीडिया ठीक इसी प्रकार की नवयुगी छवि वाली महिलाओं को बेंच रहे हैं रूसी महिलाओं के बीच यह ऐसा इसलिए है कि दोनों मुल्क़ों की समाज की मुख्य धारा आज वर्षों से चल रहे स्त्री अधिकार आंदोलन के आदर्शों को ग्रहण किया है. एक खास दिशा इस आंदोलन को देने के लिए और तोड़ मरोड़ कर उदारीकृत अर्थव्यवस्था के ज़रूरत के हिसाब से ढाल दिया है. हमें ऐसा प्रतीत होता है कि एक पूर्ण गोलाकार चक्कर लगाते हुए हम फ़िर से एक बार वहीं पहुँच गए हैं जहाँ स्त्री का शरीर एक बार फ़िर से उपभोग की वस्तु बन गई है. और पुरुषों द्वारा देखने की. अंतर अब यह है कि महिलाएँ खुद अपनी इच्छाओं के हिसाब से अपने शरीर का इस्तेमाल कर रही हैं और जो चुनाव है वह ऐसा लगता है जैसे एक उपभोग की वस्तु को कैसे बेचा जाए जैसे वांछित वस्तु हो और बाज़ार के ज़रूरतों के हिसाब से कैसे पूरी हो सके और इस 359 डिग्री के मोड़ में महिलाओं का संघर्ष अपने आप में उदारवाद का शिकार बन चुका है.

© 2009 Ritu M. Jerath; Licensee Argalaa Magazine.

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