इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका
एक उदास, अनमनी शाम का डूबता सूरज, अपने आख़िरी वक़्त में एक दम जर्द, और खामोश. इसके बाद जो अँधेरी रात आयेगी उसकी कल्पना करके ही जी डरने लगता है. साँय साँय करते सन्नाटों को चीरता झींगुर का तीखा स्वर. कैसी कटेगी यह डरावनी रात?
अपनी कहानी की उन पँक्तियों को लिखते हुए कितनी भीगी हुई थी मैं. लग रहा था कुछ दूरी पर एक भयावह स्वप्न खड़ा है जो कुछ देर में आकर मुझे ढक लेगा और फिर मेरा दम घुटने तक मुझे उठने न देगा.
मेरा जीवन एक दरार पड़ा आइना है जिसमें कुछ भी सम्पूर्ण नहीं दिखता - न मेरी तस्वीर और न औरों की. मैं जब भी स्वयं को इसमें देखती हूँ तो टूटी तस्वीरें दिखती हैं एक हँसती हुई और एक आँसुओं से भीगी हुई. सच तो यह है कि यहाँ हर आदमी की दो तस्वीरें हैं एक जो वह दुनियाँ को दिखता है और दूसरी जो अपने लिये होता है. पता नहीं क्यूँ इस तरह के विचार आज बार-बार मेरी आत्मा को झकझोर रहे थे? क्यूँ मन की सारी पीड़ायें पिघल कर बह जाना चाहती हैं, क्यूँ सारा अतीत आज मेरे सामने चित्रपट की तरह आ गया है. सच तो यह है कि मैं कभी भी इस अतीत को नकार नहीं सकी, हाँ कभी यह इतना सघन भी नहीं हुआ जितना आज है.
मैंने एक बार झटका देकर अपने आपको स्मृति के इस 'जाल' से मुक्त करना चाहा, हाँ "जाल' ही तो यह - यादों का अम्बार, जिसे कुरेदने पर राख और तपन के सिवा कुछ नहीं मिलता, कभी ढेर-से दहकते शब्द और कभी शब्दों की अर्थहीन राख. पता नहीं इन्सान फिर भी इस तीखे नुकीले सत्य को सहेज कर क्यूँ रखता है अपने पास? ढेर सारे ऐसे प्रश्न मैंने पहले पहल नहीं उठाये, ये प्रश्न हैं और रहेंगे और मनुष्य चाहे अनचाहे इनसे रूबरू होता रहेगा. मैं भी अनुत्तरित प्रश्नों के इस जाल में फंस चुकी हूँ इस छोर से उस छोर तक कहीं भी निकलने का रास्ता नहीं है आधी उम्र पार करने के पश्चात भी लगता है सब कुछ अभी अभी गुज़रा है और मैं आज भी इस कहानी के बीच खड़ी हूँ. यादों के खण्डहर में कई आवाज़ें, कई शक्लें और कई हादसे साफ़ होने लगते हैं.
भाभी किसी बात को लेकर भैया पर चिल्ला रही थी, आवाज़ सुन कर मैं दौड़ी हुई नीचे आई देखा - आँगन में भाभी का रौद्र रूप. भैया बार-बार उन्हें चुप कराने की कोशिश कर रहे थे, पर भाभी का पारा चढ़ता ही जा रहा था, मैं यह सब देख कर सहमी खड़ी थी, चुपचाप. आख़िर बात क्या थी मेरी कुछ भी समझ में नहीं आया, भैया बार बार कह रहे थे, "बस भी करो अब कितनी बार मना किया कि शर्मा जी के यहाँ मत जाओ, उनकी पत्नी ठीक नहीं है, उनसे हमारा क्या मतलब? जब शर्मा जी कभी हमारे घर नहीं आते तो तुम उनके यहाँ क्यूँ जाती हो? किस तरह आँखें नचा कर बात करती है शर्मा की बीबी, जब मिलती बस अपने बेटे की बात करती है और किसी की सुनती ही नहीं मुझे सख्त नफ़रत है उससे, एक तुम हो जब देखो हाँफ़ते हुए अन्दर चली गई. वातावरण इतना गम्भीर हो चुका था कि मैं भैया से आँख भी नहीं मिला सकी और चुपचाप ऊपर चली गई, फिर नीचे क्या हुआ मुझे पता नहीं.
मैंने शहर देखा तो कई बार, पर रहने के लिये पहली बार आई. इण्टर करने के बाद मैं बी. ए. करने के लिए भैया भाभी के पास आई, दाख़िला लिया और कॉलेज जाने लगी. मेरे लिए सब कुछ नया था. बड़ा-सा कॉलेज बड़े-बड़े कमरे, उनमें शानदार फ़र्नीचर. शानदार कपड़ों में लड़के-लड़कियाँ. सब कुछ गाँव से अलग. मेरे स्वभाव में जो गाँवपन था उसकी वजह से मेरा कोई दोस्त नहीं बन सका, मैं लगभग अकेली ही थी, इस बीच दो एक लड़कियों ने मुझसे बातें पूछी, फिर भी मैं लगभग चुप ही बनी रहती थी. मैं जो भी कॉलेज में देखती आकर भाभी से बताती थी. भाभी भी मेरी बातें ध्यान से सुनती और कई बार मुझे सलाह भी देती. मैंने देखा भाभी दिल की बहुत नेक हैं पर उन्हें गुस्सा बहुत जल्द आ जाता है, इसीलिये परिवार में किसी से उनकी पटरी नहीं खाई, मैं भाभी से काफी छोटी थी फिर भी हम दोनों दोस्तों की तरह रहते थे.
मैं कभी कभी यह सोचकर हैरान होती थी कि आख़िर भाभी को अचानक इतना गुस्सा क्यों आता है? मुझे बहुत बाद में इस प्रश्न का उत्तर मिला. वास्तव मैं भैया की शादी को कई बरस बीत गए पर उनके घर में कोई सन्तान न हुई, भाभी और भैया ने डॉक्टरों से पता लगाया, इलाज भी कराया पर कोई लाभ न हुआ. भाभी को अब भी यकीन था कि वह माँ बनेगी, वे बदलाव एक आश्चर्य था. भाभी का विश्वास अब निराशा और हताशा में बदलने लगा था, उन्हें अब संसार निराशाजनक लगने लगा था, अब वे बहुत कम हँसती थी. किसी भी स्त्री के साथ बच्चा देख कर उन्हें दर्द होता था और थोड़े थोड़े दिनों बाद यह दर्द फूटता था - गर्म लावा की तरह.
सैकड़ों व्रत, दान, मन्नतों के बावज़ूद भी जब भाभी को सन्तान सुख न मिला तो उनके स्वभाव में तल्खी आ जाना स्वाभाविक था मैं अब धीरे धीरे इस सत्य को समझने लगी थी. मुझे याद है शादी के बाद भाभी जब पहली बार गाँव आई थी तो उन्हें देखकर सारे गाँव वाले उनकी खूबसूरती की बड़ाई कर रहे थे. गोल चेहरा, गोरा रंग, सुन्दर शरीर और बड़ी बड़ी चंचल आँखें. आज वह सब कुछ नहीं है, उनका शरीर समय से पहले ही बूढ़ा होने लगा है, कोमल देह पर शुष्कता हावी हो गई है, उनकी चंचल आँखें अब स्थिर होकर न जाने क्या ढूँढ़ती रहती है. कई बार घर के किसी एकान्त में भाभी को मैंने रोते हुये देखा. यह मेरे लिये असहनीय था पर मैं कर भी क्या सकती थी, हाँ मैं भाभी को भरपूर प्यार और सम्मान देती थी.
जब भाभी आई मैं बहुत छोटी थी, वे मुझे बहुत प्यार करती थी, मेरी चोटी बनाना, कपड़े बदलना, सब जैसी माँ अपने बच्चे का करती है, मुझे भी यह सब अच्छा लगता था, मैं पूरे समय भाभी के चारों ओर मंडराती रहती थी. मुझे याद है एक बार मैंने उनका एक शृंगार दान गिरा दिया था उसमें कई काँच की शीशियाँ टूट गई थी, माँ ने मुझे मारा तो भाभी ने मुझे गोदी में उठा कर कहा था - "बच्ची है माँ जी, कोई बात नहीं."
पर आज भाभी कितनी कर्कश हो गई थी, अपनी संतान एक नारी के लिए कितनी कीमती है आज मुझे समझ में आ रहा है. बड़ी बड़ी धँसी हुई आँखों में एक दर्द का समन्दर छिपाये भाभी घर के हर कोने को रूखी नज़रों से देखती थीं कई बार मैंने प्रयत्न किया कि उन्हें कुछ पढ़ने में लगाऊँ कोई और शौक उन में जगे पर ऐसा न हो सका. हर किसी से रुष्ट होना, नफ़रत करना अब उनका स्वभाव बन चुका था, मैं दुखी थी, क्या करूँ? उन पर दया भी आती थी, और कभी कभी गुस्सा भी, आख़िर संतान तो हज़ारों घर में नहीं हैं तो क्या गुस्सा और नफ़रत से कुछ हासिल हो जायेगा मैं सब कुछ सोच कर हार गई और इस स्थिति को भगवान पर छोड़ दिया.
सामने रहने वाले शर्माजी के घर दो प्यारे से बच्चे, मिसिज शर्मा, शर्मा जी और उनकी बूढ़ी माँ रहते हैं बहुत प्यारे लोग हैं, कभी एक आध बार मैं भी उनके यहाँ गई हूँ वास्तव में उनके बच्चों को देख कर कोई भी आकर्षित हुए बिना नहीं रहेगा, भैया को उनसे बेहद लगाव है, पहले भाभी उनसे इतना नहीं चिढ़ती थी, पर इधर न जाने क्यूँ भाभी को मिसेज शर्मा के नाम से ही क्रोध आने लगा ऐ. मैं भाभी की पीड़ा समझती हूँ पर यह नहीं समझ पाई कि शर्मा परिवार ने तो भाभी को कभी कुछ नहीं कहा फिर भी.... यह सब देख कर मैं जिस माहौल से आई मुझे अजीब लगा, पर अब मैंने अपने आपको इन परिस्थितियों में ढाल लिया था, अब मैं घर का थोड़ा काम काज निपटा कर अपने ऊपर के कमरे में पढ़ाई करने चली जाती थी. मेरी घर में किसी से बातचीत कम ही होती थी. दिन पर दिन पढ़ाई का बोझ भी बढ़ रहा था. भाभी जब तीखी होती तो मैं वहाँ से हट जाती थी. मुझे दुखी और परेशान देख कर भैया मुझे कहते सब ठीक हो जायेगा तुम मन लगा कर पढ़ो, मुझे भैया का बहुत सहारा था, शायद इसीलिये इस तनाव भरे वातावरण में भी यहाँ ठहरी थी, वरना छोड़ कर गाँव चली गयी होती.
रोज की तरह आज भी मैं तैयार हो कर कॉलेज जाने को जल्दी में थी, आज मुझे कुछ देर हो गई थी, मैंने नाश्ता नहीं किया और चलने लगी तो भैया ने कहा, "इति नाश्ता तो करले, क्या दिन भर भूखी रहेगी?" मैंने कहा, "नहीं भैया आज देर हो रही क्लास में टीचर आ जाते हैं तो बीच में अन्दर जाना अच्छा नहीं लगता." पता नहीं आज भाभी को क्या हो गया था, सुबह से ही उनका चेहरा उतरा हुआ था, वे अचानक बोलने लगी, "हाँ तुम्हीं तो ख़्याल रखते हो अपनी बहन का मैं उसे भूखा रखती हूँ." भाभी कभी ऐसी बात मेरे लिये नहीं कहती थीं, मुझे अजीब लगा. मैं चुपचाप नाश्ते के लिये बैठ गई और भाभी ने बड़े अनमने ढंग से लाकर नाश्ता मेरे सामने रखा. मैं नाश्ता करके इस भारी माहौल से बाहर निकल गई और तेज़ी से कालिज पहुँची. हिन्दी की क्लास में पहुँची तो तब तक कोई प्रोफ़ेसर आया नहीं था. थोड़ी देर बाद हमारे सर की जगह कोई और टीचर अन्दर आये और बोले, "आप सबको आश्चर्य हो रहा होगा मुझे देखकर, हाँ मैं मिस्टर दयाल की जगह कुछ दिन आप लोगों को पढ़ाऊँगा. दयाल साहब लम्बी छुट्टी पर गये हैं" हमें कोई फ़र्क नहीं पड़ता था, हाँ उनको देखकर मेरे मन में एक बात ज़रूर आई थी, कि ये सर कितने इम्प्रैसिव हैं. यद्यपि उनकी उम्र 35-40 रही होगी पर चेहरे पर विद्वता का तेज़ और आँखों में एक अजीब आकर्षक चमक थी. जब वे पढ़ाने लगे तो मैं उनके व्यक्तित्व की छाया में ढकने लगी. मुझे लगा प्रोफ़ेसर हो तो ऐसा. एक-एक शब्द नपा तुला, वाक्य प्रभावी और विषय की स्पष्टता; यह सब मुझे अन्दर तक उनका मुरीद बना गया. सच मैंने अपने अन्दर कभी किसी के बारे में इतना आकर्षण नहीं महसूस किया था. जाने-अनजाने मुझे लगने लगा कि नये सर पढ़ाते रहें और मैं पढ़ती रहूँ अनवरत, लगातर. उन्होंने जब कहा ठीक कल फिर यहीं से प्रारम्भ करेंगे तो सारी क्लास उनके प्रभाव में ढकी थी, एक सन्नाटा टूटा और वे चले गये. धीरे-धीरे हम लोग भी क्लास से बाहर आ गए, मरे मन में कई प्रश्न उठ रहे थे - नये सर कुछ दिन बाद चले जायेंगे? नये सर कौन हैं, कहाँ रहते हैं, कितने भव्य लग रहे थे सर - लम्बा कद, गोरा रंग, घुँघराले बाल, बड़ी-बड़ी चंचल आँखें और गम्भीर ओज़पूर्ण आवाज़. सब कुछ आकर्षक. उन्होंने अपना नाम डॉक्टर शेखर बताया था.
उस दिन पूरी क्लास डॉक्टर शेखर की गम्भीर आवाज़ और ओज़पूर्ण लेक्चर से प्रभावित थी. सब कुछ बेहद शान्त इससे पहले मैंने कभी अपनी क्लास में इस तरह की नीरवता नहीं देखी थी. मैं अपने बारे में क्या कहूँ, मैं तो डॉक्टर शेखर को सुनकर परास्त हो गई, अपने आप से परास्त. सच मुझे सर के व्यक्तित्व ने पूरी तरह ढक लिया था. इसके पूर्व में किसी व्यक्ति से इस तरह हारी नहीं थी. मेरे अन्दर उनके प्रति आकर्षण बढ़ता ही जा रहा था, यह क्या था - आकर्षण, प्रभाव या जादू कुछ कह नहीं सकती. मैं उन्हें सुन रही थी पर समझ में कुछ नहीं आ रहा था, ठगी-सी मैं एक स्वप्नलोक में पहुँच गई जहाँ मैं थी और मुझे जीवन की तस्वीर दिखाते डॉक्टर शेखर. कब उनका लेक्चर ख़त्म हो गया पता नहीं ही नहीं चला, मेरी सहेली ने मुझे झकझोरा, हम दोनों कमरे से बाहर आ गये.
इसके बाद मैं और मेरी दोस्त थोड़ी देर लाइब्रेरी में बैठे रहे, पर मेरा मन बहुत चंचल था, चारों ओर किताबें ही किताबें मुझे लगा इन किताबों के पीछे से निकलकर कोई अभी आयेगा और प्यार से मेरा नाम लेगा, मैं बार-बार इधर-उधर देख रही थी. सूनापन और बेचैनी बढ़ती जा रही थी, लिये वहाँ बैठना मुश्किल हो रहा था. सहेली से कटकर मैं घर के लिए चल पड़ी और कोई क्लास करने कि हिम्मत नहीं थी. घर पर पहुँचते ही भाभी ने पूछा, "आज इतनी जल्दी आ गई?" "हाँ भाभी आज और क्लास नहीं थी, छोटा-सा झूठ बोल मैं ऊपर अपने कमरे में चली गयी. लेटकर खुली आँखों से मैंने जो देखना शुरू किया वह अनोखा था - कोई कारण नहीं, परिचय नहीं, फिर भी डॉक्टर शेखर मुझे अपने से लगे, क्यों लगे? यह नहीं जान पाई पर.... यह सब क्या था? हज़ारों लोगों से हज़ारों दिन मिलने पर कभी कुछ नहीं हुआ और उनके एक दिन के लेक्चर से इतना कुछ? यह अनहोनी बात थी, मैंने अपने आप पर कन्ट्रोल करने का प्रयास किया, इसी प्रयास में मुझे नींद आ गई.
मेरी आँख खुली देखा भैया खड़े हैं, "क्या बात है इति? तबियत तो ठीक है? तेरी भाभी बता रही है कि... तुमने खाना भी नहीं खाया?" हाँ भैया सिर में दर्द था, और कोई बात नहीं आकर लेट गई, अब ठीक है. मैं भैया के साथ नीचे आ गई शाम हो गई थी. भाभी अपने काम में लगी थी, भैया ऑफ़िस का कोई काम निबटा रहे थे, मैं कुछ किताबें लेकर खाने की मेज़ पर बैठ गई, अब भी मेरा वही हाल था, रात हो गई, भैया भाभी के साथ खाना खाकर मैं फिर अपने कमरे में चली गई. मन अभी भी चंचल, उदास, बेचैन था, मन का घोड़ा बेलगाम दौड़ रहा था, दिशाहीन, उद्देश्यहीन, किधर जायेगा पता नहीं एक थकान के बाद में फिर नींद के आगोश में समा गई.
आज मैं सुबह जल्दी उठ गई न जाने मुझे किस बात की तेज़ी थी, हर काम जल्दी-जल्दी निबटाया, भाभी ने एक बार कहा भी कि आज तुम्हारी सुबह कुछ जल्दी हो गई. मैं चुप रही. मैं तैयार होकर समय से पहले ही बस स्टैण्ड पहुँच गई, बस आने में आधा घण्टा था, मैं एक ओर जाकर खड़ी हो गई, मैं बार-बार अपनी घड़ी देख रही थी. बस आई तो मैं हड़बड़ाहट में गिरते-गिरते बची सीट पर बैठे व्यक्ति ने अपने हाथों से मुझे सम्भाला, पर जब मैंने उसका चेहरा देखा तो स्तब्ध रह गई, मेरा शरीर रोमांचित हो गया, वे डॉक्टर शेखर थे. मैं सोच भी नही. सकती थी यह सब, एक सुखद आश्चर्य, मैं डॉक्टर शेखर के बगल में बैठी थी. यह संयोग ही था कि जिस व्यक्ति के बारे में सोचते-सोचते मुझे इतने घण्टे हो गये थे, वह मेरे साथ बैठा है. एक भीड़ में मैं उनकी छात्रा थी, उन्होंने मुझे पहचाना नहीं मैंने उन्हें बताया, "सर मैं आपकी क्लास में पढ़ती हूँ, इति नाम है मेरा. मेरी आशा के विपरीत उन्होंने जरा-सा सिर हिलाया और फिर खिड़की के बाहर देखने लगे. मुझे थोड़ी निराशा हुई, मैं उनसे ढेर सारी बातें करना चाहती थी, मैं बताना चाहती थी कि वो कितने अच्छे हैं, सब उन्हें बहुत प्यार करते हैं और मैं भी, हम सब चाहते हैं वे हमेशा हमें पढ़ाते रहें. थोड़ी देर चुप रहने के पश्चात मैंने पूछा, "सर क्या आप रोज़ इसी बस से कॉलेज जाते हैं? यह सवाल पूछकर मुझे लगा कि मुझे सर से इस तरह के सवाल नहीं पूछने चाहिये. उन्होंने संक्षिप्त सा उत्तर दिया, "नहीं कभी-कभी." थोड़ी देर बाद बस रुकी और मैं तथा डॉक्टर शेखर बस से उतर कर चले. मैं विभाग की ओर जाते हुए कई तरह के विचारों में घिरी थी, उसने एक विचार यह भी था कि मुझे डॉक्टर शेखर से उनके घर पर मिल कर अपनी पढ़ाई सम्बन्धी समस्याओं को सुलझाना चाहिये क्योंकि उनके पहले वाले हमारे प्रोफ़ेसर अच्छा नहीं पढ़ाते थे.
उस दिन भी डॉक्टर शेखर पढ़ाने आए, उन्होंने पढ़ाते हुए दो बार मुझे देखा भी पर उनमें कोई असामान्य हरकत नहीं थी, हाँ शायद मुझे लगा कि वो मुझे विशेष रूप से देख रहे हैं पर यह मेरा भ्रम ही था. उनके प्रति मेरे मन के भाव बेमतलब ही विकसित हो रहे थे. अपने प्रश्न अपने ही उत्तर, बात से बात और कई आशायें आशंकाएँ जन्म ले रही थीं. यह चिन्तनधारा कहाँ से जन्मी और कहाँ रुकेगी मुझे पता नहीं पर इधर मेरे व्यवहार से भाभी, भैया और मेरी सहेलियाँ परेशान थे. यद्यपि मैंने अपने मन की बातों से किसी को परिचित नहीं होने दिया, फिर भी मैं स्वयं से काफी परेशान थी, क्योंकि मेरी ज़िन्दगी में यह पहला भूचाल था जिसने मेरी पढ़ाई को एक हद तक प्रभावित किया. इस स्थिति में जीते हुए एक महीना बीत गया. अब मुझे इम्तहान का डर भी सताने लगा. प्रोफ़ेसर शेखर के विषय में सब कुछ जान लेने की मेरी इच्छा भी बलवती होने लगी.
मैं एक दिन लाइब्रेरी में बैठी थी, काफी वक़्त गुज़र गया, कॉलिज लगभग खाली हो चुका था, चंद सहपाठी ही वहाँ थे. मैं नोट्स बना रही थी तभी मेरे कानों में आवाज़ आई, "मिस इति". मैंने सिर उठाकर देखा डॉक्टर शेखर खड़े हैं. मैं हड़बड़ा कर खड़ी हो गई. वे पूछने लगे, "तुम घर नहीं गई, कोई डिफिकल्टी है क्या? मैं चाहती थी कि उनसे बहुत कहूँ पर मेरे मुँह से इतना ही निकला, "नो सर." मैंने वे बोले, "बहुत समय हो गया है, अब घर जाईये." "यस सर". मैंने अपना सामान समेटा और घर के लिए चल दी. मैं जाकर बस स्टैण्ड पर खड़ी हो गई, पीछे से एक टैक्सी में डॉक्टर शेखर आए, बोले, "चलो मैं तुम्हें घर छोड़ दूँ, मेरा घर भी वहीं है. बिना कुछ कहे मैं उनके पास टैक्सी में बैठ गई. हम दोनों ही चुप थे, मैंने साहस करके पूछा, "सर आपका घर कहाँ है. उन्होंने मेरी कॉपी पर अपना पता लिख दिया. घर आते ही मैं सर को नमस्ते कर टैक्सी से उतर गई. घर तक जाते-जाते मेरे मन में एक बात बार-बार उठ रही थी कि डॉक्टर शेखर के मन में एक बेचैनी सी थी, हो सकता है यह मेरा भ्रम हो मैं साफ नहीं कर सकती.
कई बार मन में आया कि उनके घर जाकर मिलूँ और अपनी पढ़ाई सम्बन्धी समस्याओं पर उनसे बात करूँ, पर हिम्मत नहीं हुई. और मैं क्या सिर्फ पढ़ाई के लिए वहाँ जाना चाहती थी? मेरा चोर मेरे मन को डराने लगता था, मैं सोचने लगती उनके घर में लोग और वो स्वयं भी क्या सोचेंगे? क्या मैं अपनी बातें कॉलेज में नहीं पूछ सकती, इसके लिये घर पर मिलने की क्या आवश्यकता है? इसी उहापोह में बहुत दिन निकल गए, मैं यह अवश्य कहूँगी कि उनकी प्रेरणा से मैं जी जान सा पढ़ाई में जुट गई, परीक्षाएँ हुईं, अब मैं गाँव जाने की तैयारी में थी.
इम्तहान के आख़िरी पर्चे के बाद ही मैंने सोचा था कि मैं डॉक्टर शेखर से मिलकर घर जाऊँगी, हिम्मत तो नहीं थी फिर भी मैं उनसे मिलने चल पड़ी, उनके दरवाज़े पर जाकर फिर सोचा क्या कहूँगी क्यूँ आई हूँ? मेरा उनसे कोई लम्बा या गहरा सम्बन्ध भी नहीं है, फिर भी मैंने दरवाजे पर दस्तक दी - एक खूबसूरत सम्भ्रान्त महिला ने किवाड़ खोले, "जी आप कौन?" मैं अपने प्रोफ़ेसर डॉक्टर शेखर से मिलने आई हूँ; उनकी स्टूडेण्ट हूँ इति." "आईये" मैंनेक चोटे से ड्राइंग रूम में बैठ गई. महिला भी मेरे पास बैठते हुए बोले, "इति जी! मैं उनकी बहन हूँ राधा, उनकी तबियत ठीक नहीं इसलिये उनके पास हूँ आजकल." मैंने कहा, "ठीक है तबियत ठीक नहीं है तो मैं चलती हूँ, लेकिन क्या हुआ है उन्हे.?" अन्दर से आवाज़ आई, इति को यहाँ भेज दो." मैं अन्दर आ गई, उन्होंने बैठने के लिए इशारा किया, उनकी आवज़ धीमी थी, चेहरे पर भव्यता थी पर थकान भरी. "कैसी हो तुम, परीक्षाएँ कैसी हुईं?" "ठीक हूँ परीक्षाएँ भी ठीक हो गईं. गाँव वापस जा रही हूँ, सोचा आपका आशीर्वाद लेती जाऊँ" उनके थके चेहरे पर हलकी सी मुस्कान आ गई, मुझे अच्छा लगा. "कल तुम गाँव चली जाओगी, इति तुम एक होनहार लड़की हो, तुम्हें बहुत आगे जाना है, मैं बहुत दिनों से तुम्हें पढ़ा रहा था, पर इतना ज़रूर समझा कि तुम्हारे अन्दर मेरे प्रति कुछ है, कुछ ऐसा जिसका कोई नाम नहीं हो सकता, जिसे नाम दिया भी नहीं जा सकता. "इतना कहकर डॉक्टर शेखर चुप हो गए, लग रहा था वे थक गए हैं. मैं थोड़ा सकपका गई, मुझे कुछ शर्म भी लगी, और यह भी लगा कि यह सब कितना सच है और कितना असम्भव. मैं चुप थी, डॉक्टर शेखर फिर बोले, "इति शायद तुम नहीं जनती कुच दिन पहले एक कार एक्सीडेण्ट हुआ था जिसमें मेरी पत्नी नहीं रही, मैं बच गया, पर अब पता चला मेरे मस्तिष्क में एक ऐसा क्लट है जो..." उनकी आवाज़ भीग गई वे फिर चुप हो गए, मैं सब समझ गई "इति मेरा एक बेटा है जो एक दिन आएगा, उसे बताया नहीं गया कि उसके पास अब माँ नहीं है. मैं बहुत बदनसीब हूँ. यादों के नुकीले सच छोड़कर मैं इस शहर में आया कि बेटे को अपने पास रखकर नये शहर में फिर से..." उनकी आँख के एक कोने से आँसू की एक बूँद बह गई. मेरे लिये यह वक्त का टुकड़ा असहनीय था. मैं कुछ भी करने लायक नहीं थी, कल्पना भी नहीं की थी कि जिस प्रोफ़ेसर को मैं एक भाग्यवान व्यक्ति समझकर चल रही थी वह इस दुनिया में इतना बेबस होगा. नियति की यह क्रूरता कितनी प्रबल है उस दिन एक शक्तिहीन पड़े विद्वान को देखकर मैं समझी. उस व्यक्ति को मैंने पहली बार क्लास में देखा, उस दिन से पता नहीं कब यह मेरे जीवन में चला आया. सच कई बार कोई अनजान किसी के जीवन में ऐसी जगह बना लेता है कि फिर उसे हटाना असम्भव हो जाता है. समझ लिया था कि मैं उनसे प्यार करने लगी हूँ. उस रोज़ यह अधूरी-सी दास्तान छोड़कर मैं घर चली आई बिना कुछ कहे बिना कुछ सोचे. दूसरे दिन मैं गाँव चली गई.
गाँव में छुट्टियों के दिन भी बेचैनी में ही गुजरने लगे, मैं आगे पढ़ना चाहती थी, घर वाले मेरी शादी करना चाहते थे. मेरी जिद स्वीकार कर ली गई, एम0 ए0 करने के लिये मैं फिर से भैया के पास आ गई. कॉलिज खुल गया था दाख़िले हो रहे थे. मैं कॉलेज गई और दाख़िला ले लिया. मेरे सभी सहपाठी मिले, पर मैं बेचैन थी किसी और के लिए. पता नहीं डॉक्टर शेखर कैसे होंगे. कई दिन उलझन में बीत गए मुझे उनके घर जाना चाहिए या नहीं. फिर मैंने निश्चय किया कि मैं ज़रूर उनसे घर पर जाकर मिलूँगी.
शाम को मैं भाभी से सहेली के घर जाने की बात कहकर डॉक्टर शेखर के घर की ओर चल दी, कई तरह के विचार, कई शंकाएँ मन में उठ रही थीं. पहुँच कर घर का दरवाजा खटखटाया तो, उनकी बहन ने ही दरवाज़ा खोला, "मैं इति." अन्दर आओ, कैसी हो?" "मैं ठीक हूँ, सर कैसे हैं?" वो खामोश रही, थोड़ी देर बाद बोली, "क्या कहूँ, किसी को कुछ नहीं पता, एक दिन चले गए फिर घर लौटकर नहीं आए." सुनकर मैं सन्न रह गई, यह अजीब घटना थी, इसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकती थी, मैं मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना करने लगी कि वो जहाँ भी हों ठीक हो., अपने छोटे-से बेटे के लिए. उनकी बहन की आँखों से आँसू बह रहे थे, देखकर बेहद उद्विग्न हो गई, नमस्ते करके मैं बाहर आ गई, मुझे चक्कर आ रहा था. किसी तरह घर पहुँची और अपने कमरे में जाकर लेट गई. मुझे तब होश आया जब भाभी ने आकर बड़े स्नेह से मुझे जगाया. मेरा चेहरा देखकर भाभी ने पूछा, "क्या हुआ तुम्हारी आँखें सूजी हुई हैं? किसी ने कुछ कहा क्या?" "नहीं भाभी यूँ ही जी भारी-सा था, माँ की याद आ रही थी." मैंने बात को टाला
समय का प्रवाह अपनी गति से बह रहा था, बिना किसी के दु:ख-सुख की चिन्ता किये, मैंने एम. ए. किया. मेरी शादी तय हो गई. उसका नाम रतन था, वह वकील था. सब कुछ योजना के अनुसार हो गया. मैं ससुराल गई तो रतन का बड़ा सा घर था, उसके घर में वह अकेला था. देखकर लगता था कि उसके परिवार के लोग सम्पन्न रहे होंगे. एक बार तो अजीब सा लगा, फिर दो-चार दिन में मैं इतने बड़े घर और अकेलेपन की अभ्यस्त हो गई. कुछ दिनों बाद एक शाम जब रतन घर आया तो दो, तीन दोस्त उसके साथ थे, मुझे अच्छा ही लगा. वो लोग ठीक ठाक लग रहे थे; मैंने उन्हें नाश्ता दिया, उनमें से एक मुझे कुछ अजीब नज़रों से देख रहा था, कुछ अटपटा सा लगा मैं अन्दर चली गई. वे लोग काफ़ी रात तक बैठे; मेरे लिए यह भी अजीब बात थी. खैर रात को मैंने रतन से जब पूछा तो उसने बताया कि ये सब बचपन के दोस्त हैं. दो तीन दिन बाद फिर वही हुआ, तीन लोग आए, अबकी बार उनके साथ शराब भी आई. मेरे संस्कार में यह सब देखना नहीं था. मैं कुछ डरी, पहली बार मुझे अपने भाग्य पर काले बादल दिखाई दिये. ये लोग पीने लगे. मैं वहाँ नहीं गई. मैं सोई थी, रतन ने मेरी पीठ पर हाथ रखा, हड़बड़ा कर मैंने लाइट जलाई तो देखा वह रतन नहीं था, मेरे होश उड़ गए, मैं चाहकर भी चिल्ला नहीं सकी, उसने मुझे धकेल कर बिस्तर पर गिरा लिया और मेरे शरीर.... मैंने पूरी ताकत लगकर उसे धक्का दिया और कमरे से बाहर जाने कि लिए दरवाज़ा ढकेला, पर वह बाहर से बन्द था और उसके बाद जो होना था वह हुआ, मेरे जीवन के इतिहास का सबसे घृणित पृष्ठ तैयार हो गया. मैं सुबह तक कमरे के एक कोने में बैठी सिसकती रही और वो नर पिशाच बेसुध मेरे बिस्तर पर खर्राटे भरता रहा. वह थी मेरे विवाह की एक स्याह परिणति.
सुबह हुई, दरवाज़ा खुला, रतन मिला, वह व्यक्ति चला गया, सूरज निकला, सब कुछ हुआ मेरे जीवन के उस अन्धेरे दिन में. मैं चुप थी. उस दिन मैंने कुछ नहीं किया. मेरा पति भी कुछ नहीं बोला, थोड़ी देर बाद वह घर से चला गया, जैसे रोज़ जाता था, जैसे कुछ हुआ ही न हो.
मैंने नारी के जीवन की कहानियाँ तो बहुत पढ़ी थीं, पर मैं स्वयं एक दुखद कहानी बन जाऊँगी यह कभी नहीं सोचा था. मैंने निर्णय लिया अपना सामान बाँधकर मैं उस घर से निकल गई जहाँ हज़ारों सपने लेकर किसी दिन आई थी. नियति के चक्र में कौन क्या पाता है उस दिन समझ में आया. मैं सबसे पहले भैया भाभी के घर आई. अन्दर आई, शाम हो चुकी थी. भाभी रसोई में थी, भैया भी थे. अचानक मुझे देखकर भाभी घबरा गई, मुझे गले से लगाया, मैं रोने लगी, वो मुझे भैया के कमरे तक ले आई, सुनकर भैया ने भी रोते हुए मुझे गले लगा लिया. उस रात मैं भैया, भाभी एक अजीब से अँधेरे में जागते रहे. मैं जो पीछे छोड़कर आई वहाँ अब कुछ शेष नहीं था, मेरे लिए. बात माता-पिता तक गई, उनकी समझ में कुछ नहीं आया वे पुराने विचारों के थे. उनके लिए पति परमेश्वर और पति का घर ही स्वर्ग था, पर भैया भाभी ने मुझे कहीं जाने नहीं दिया उस दिन लगा, भैया भाभी मेरे माँ-बाप हैं.
जीवन के इस मोड़ से मुझे एक नई राह की तलाश थी. मैं जल्द से जल्द अपने पैरों पर खड़ी हो जाना चाहती थी. मेरी इच्छा थी मैं सब कुछ छोड़कर इस जीवन को समाज सेवा में लगा दूँ. यूँ ही एक दिन मैं न चाहते हुए भी डॉक्टर शेखर के घर की ओर गई. वहाँ कोई नहीं था. घर के मालकिन ने बताया कि डॉक्टर शेखर लौटकर नहीं आये तो कुछ दिन बाद उनकी बहन भी चली गई. इस तरह मेरे लिए उस कहानी का भी अन्त हो गया, हाँ मन में यह प्रश्न ज़रूर उठा कि उनका बेटा कहाँ होगा, अब वह पाँच-छह बरस का हो गया होगा. इस बीच मैंने नर्सरी की ट्रेनिंग पूरी कर ली और नौकरी की तलाश करने लगी. कुछ दिनों बाद यहाँ के एक बहुत प्रसिद्ध स्कूल में नौकरी मिल गई, मैं खुश थी, भैया भाभी भी बहुत प्रसन्न थे. मैं पीछे का सब कुछ भूल चुकी थी.
स्कूल में बड़े प्यारे-प्यारे बच्चे थे, मैं इनके बीच बहुत अच्छा महसूस कर रही थी. एक दो नये बच्चे आए मेरी प्रिन्सिपल ने उन्हें मेरी क्लास में भेजा था. बहुत प्यारे थे. उन्होंने मुझे प्रणाम किया. मैंने उनके हाथ से उनके कार्ड लिए और रजिस्टर पर उनका नाम लिखने लगी. एक का नाम लिखकर जब दूसरा कार्ड देखा तो उस बच्चे को देखती रह गई वह.... डॉक्टर शेखर का पुत्र था. एक सुप्त कथा फिर से जाग गई. उस बच्चे का नाम सुमन शेखर था, बिल्कुल अपने पिता की तरह वही नाक-नक्श, वही आँखें, वैसे ही बाल और वही गोरा रंग. यकायक मैंने उसे छाती से लगा लिया, उसे अजीब-सा लगा पर वह अच्छा महसूस कर रहा था. उस समय नाम लिखकर मैंने उसे क्लास में बैठा दिया, पर बार-बार मैं उसे देख रही थी, बीच-बीच में वह भी थोड़ा शरमाकर मुझे देख लेता था.
स्कूल ख़त्म होने पर मैंने सुमन को बुलाया, कमरे मैं और कोई नहीं था. मैंने उसे अपनी गोदी में बैठा लिया, पता नहीं कैसे वो भी चुपचाप बैठ गया, मैंने पूछा, "तुम्हारे पापा कहाँ हैं?" वह प्यारी सी आवाज़ में बोला, "पापा मम्मी को लेने गए हैं." "तुम किसके पास रहते हो?" "दीदी के." और कौन रहता है तुम्हारे साथ?" "बहुत सारे बच्चे है न दीदी के पास." उस दिन कोई और बात उससे नहीं हुई, मुझे पता चला वह अनाथालय में रहता है, यह मेरे लिये दुखद था. पर मैं भी विवश थी. मैं सुमन पर विशेष ध्यान देने लगी, वह भी मुझसे बहुत करीब आ गया, बात बात में मैं उसे कह देती थी, अगर, तुम्हें मैं अपना बेटा बना लूँ तो तुम मुझे अपनी मम्मी बनाओगे. वह बड़ी मासूमियत से गर्दन हिलाकर 'हाँ' कह देता था.
स्कूल में बच्चों के बीच मेरे दिन बीतते गए. सुमन अब मुझको माँ की तरह समझने लगा था, एक बार उसने कहा भी कि मैं अब तुम्हारे पास ही रहूँगा. पर मैं बात टाल गई, हालाँकि मन मेरा भी था उसको अपने पास रखने का, पर सब इतना आसान नहीं था, मैं भैया भाभी के साथ रह रही थी. एक दिन खाने की मेज़ पर बातों-बातों में मैंने भाभी से कहा, "भाभी मैं एक बात कहना चाहती हूँ पर डर लगता है." "डर किससे, मुझसे या भैया से?" मैं हँसकर बोली, "किसी से नहीं बस यूँ ही." भाभी मुस्कुरा रही थी, मुझे लगा वे कुछ और समझ रही थी. मैंने कहा, "भाभी स्कूल में एक प्यारा सा बच्चा है सुमन, उसके माता-पिता नहीं हैं अनाथालय से पढ़ने आया है, पढ़ने में और देखने में बहुत अच्छा है, वो मुझे अपनी माँ की तरह...." बहुत अच्छा है. मैं थोड़ा रुककर बोली, "भैया अगर आप लोग ठीक समझें तो हम उसको बेटा बनाकर ले आएँ." मैं थोड़ा घबरा रही थी. पर भैया भाभी को खुश देखकर मुझे वह पल बहुत कीमती लगा. और एक दिन पूरे विधि विधान के साथ हम सुमन शेखर को बेटा बनाकर अपने घर ले आए.
अजीब बात है जिस डॉक्टर शेखर से मैंने पढ़ने की प्रेरणा ली अब उसी का पुत्र मेरे जीवन का आधार बन गया. अब मैं भाभी की बेटी और सुमन शेखर मेरा बेटा था.
© 2009 Braj Kumar Mittal; Licensee Argalaa Magazine.
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नाम: ब्रज कुमार मित्तल
जन्म स्थान: मुजफ्फर नगर (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा: पी- एच. डी., इलाहाबाद विश्वविद्यालय
संप्रति: इलाहाबाद के प्रतिष्ठित महाविद्यालय ई. सी. सी. में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष एवं कला संकाय के डीन
प्रकाशित रचनायें: अनेकों रचनायें तमाम प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित; नाटक - चाणक्य और चाणक्य, यह सिंहासन अपना है, अपने अपने अंधेरे, यह क्या हो गया; दूरदर्शन से 'जेलर की डायरी से' धारावाहिक का प्रसारण.
कहानी संग्रह: पारदर्शी चेहरा.
सांस्कृतिक एवं कलात्मक गतिविधियाँ: साहित्य की तमाम विधाओं कहानी, नाटक, काव्य का मंचन.
संपर्क: हिन्दी विभाग, ई. सी. सी., इलाहाबाद.