अर्गला

इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका

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काव्य पल्लव

अरुणा राय

आईना

जिस समय
मैं उसे
अपना आईना बता रही थी
दरक रहा था वह
उसी वक़्त
टुकड़ों में बिखर जाने को बेताब सा
हालाँकि
उसके ज़र्रे-ज़र्रे में
मेरी ही रंगो-आब
झलक रही थी
पर मैं क्या कर सकती थी
कि वह आईना था
तो उसे बिखरना ही था
अब भी मैं उसकी आँखें हूँ
और हर ज़र्रे से
वे आँखें
मुझे ही निहार रही हैं
पर क्या कर सकती हूँ मैं
कि मैंने ही बिखेर दिया है उसे
कि अपनी हज़ार सूरतें
निहार सकूँ.

और दो दिल चाक हैं

चन्दन की दो डालियाँ

जब टकरायीं
तो पैदा हुई अग्नि

और लगी फैलने चहुँओर
खुशबू तो एक ही थी दोनों की

सो उसने चाहा कि रोके इस आग को
पर खुद को खोकर रही

उधर आग थी कि खाक होकर रही

अब न चंदन है न खुशबू है
चतुर्दिक उड़ती हुई राख है

और दो दिल चाक हैं.

हाथ में लेकर तुम्हारा हाथ

हाथ में लेकर तुम्हारा हाथ
मैंने तब ये जाना
आत्मा तक पसरने का द्वार है यह भी

आँख की तो
साख है यूँ ही
पर हृदय का द्वार
खुलता है हथेली से

हाथ में लेकर तुम्हारा हाथ
मैंने तब ये जाना

कैसे उमगते हैं परस पर
स्नेह के अंकुर
मानस पटल पर
झरते कैसे पुष्प पारिजात के
और खुशबू पसरती है
किस तरह निज व्योम में

हाथ में लेकर तुम्हारा हाथ
मैंने तब ये जाना

जागरण और स्वप्न की
संधि कहाँ है
किस तरह मनुहार करती हैं
परस्पर अंगुलियाँ
थमता है कहाँ पे जाकर
ज्वार अपने स्नेह का
हाथ में लेकर तुम्हारा हाथ

अभी तुमने वह कविता कहाँ लिखी है

अभी तुमने वह कविता कहाँ लिखी है
मैंने कहाँ पढ़ी है वह कविता
अभी तो तुमने मेरी आँखें लिखीं हैं, होंठ लिखे हैं
कंधे लिखे हैं उठान लिए
और मेरी सुरीली आवाज़ लिखी है

पर मेरी रूह फ़ना करते
उस शोर की बाबत कहाँ लिखा कुछ तुमने
जो मेरे सरकारी जिरह-बख़्तर के बावज़ूद
मुझे अँधेरे बंद कमरे में
एक झूठी तसल्लीबख़्श नींद में ग़र्क रखता है

अभी तो बस सुरमयी आँखें लिखीं हैं तुमने
उनमें थक्कों में जमते दिन-ब-दिन
जिबह किए जाते मेरे ख़ाबों का रक्त
कहाँ लिखा है तुमने

अभी तो बस तारीफ़ की है
मेरे तुकों की लय पर प्रकट किया है विस्मय
पर वह क्षय कहाँ लिखा है
जो मेरी निग़ाहों से उठती स्वर-लहरियों को
बारहा जज़्ब किए जा रहा है

अभी तो बस कमनीयता लिखी है तुमने मेरी
नाज़ुकी लिखी है लबों की
वह बाँकपन कहाँ लिखा है तुमने
जिसने हज़ारों को पीछे छोड़ा है
और फिर भी जिसके नाख़ून और सींग
नहीं उगे हैं

अभी तो बस
रंगीन परदों, तकिए के गिलाफ़ और क्रोशिए की
कढ़ाई का ज़िक्र किया है तुमने
मेरे जीवन की लड़ाई और चढ़ाई का ज़िक्र
तो बाक़ी है अभी.

अभी तुम्हें वह कविता लिखनी है, जानेमन.

© 2009 Aruna Rai; Licensee Argalaa Magazine.

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