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इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका

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सलाहकार की कलम से

गंगा प्रसाद विमल

अप्रैल 2009, संस्करण 1, अंक 2

इक्कीसवीं सदी में जिन नये विषयों की ओर गंभीरता से विमर्श आरम्भ हुआ है उनमें स्त्री विमर्श सबसे अधिक प्रासंगिक और महत्वपूर्ण विषय है. असल में भारतीय स्त्री विमर्श को पश्चिम से अलग कर देखना होगा. पश्चिम में नारी विमुक्ति जैसी धारणायें वस्तुत: वहाँ की परिस्थितियों से उपजी हुई धारणायें हैं जिनका सीधा संबंध अतिभोग और भौतिक समृद्धि के चरम सीमांत हैं. जबकि भारत में गरीबी, कुपोषण, अशिक्षा, अन्याय और अत्याचार का खेल धर्म परम्परा और कुलीनता की आड़ में चलता रहा है. आज भी इस कुचक्र का कोई रोक नहीं. शहरी औरतें भले ही बराबरी और आर्थिक विषमता तथा इससे जुड़े कुछ पश्चिमी से लगने वाले सवालों से आक्रांत हैं सामान्यत: स्त्री के प्रति भारतीय दृष्टि, विचार और गरिमा के स्तर पर पाखण्ड से भरी हुई है. ऐसे में एक बार फिर से इस सवाल को ठीक तरह जाँचना विमर्श की सकारात्मक शुरूआत है. औरत जितनी अधिक सतायी जाती है उसमें प्रतिरोध के स्वर उतने ही कम हैं, बल्कि नगण्य हैं. यह शोषण दैहिक, मानसिक और पशुवत शोषण है, दिखाई देता है. परन्तु संवेदना के धरातल पर वो दर्ज नहीं हो पाता.

हाल ही में स्त्रियों पर अत्याचार की जो रपटें माध्यमों से मिलती हैं वो साफ बताती हैं कि औरतों पर जुल्म और जबरदस्ती कहीं जातिवादी आड़ में अपने घृणित दृश्य प्रस्तुत करती है, तो कहीं वह धार्मिक से लगने वाले अति विशिष्ट तबकों में बिंबित होते हैं. इस दुष्चक्र से मुक्ति पाने का कारगर उपाय तो आर्थिक समानता और बराबरी के व्यवहार से ही संभव हो सकता है. परन्तु सामाजिक स्तर पर इस तरह की कोई तैयारी भारतीय समाज में नहीं दिखायी देती. इस घृणित चक्र के चलते भारतीय समाजों में सही दृष्टि से परिवार और जातिगत ढ़ाँचे में चीजों को तौलना संभव नहीं है.

इस अंधी गली की अंतिम दीवार केवल यह प्रदर्शित करती है कि आगे कोई रास्ता नहीं है. पंचायतों में यह कोटे के आधार पर स्त्रियों को जहाँ - जहाँ अवसर दिया जाना चाहिये वहाँ - वहाँ स्त्री केवल एक कठपुतली के समान विराजमान दिखायी देती है. उसकी दूरी पुरूष वर्चस्व के रहते पुरूषों के हाथों में ही रहती है और पुरूष वर्ग अपनी अहम मान्यता के कारण अपनी धौंस जमाये रखने की हर कोशिश में लगा रहता है. जिसे परिवार और समाज, जाति और धर्म से बराबर समर्थन मिलता रहता है. ऐसी स्थिति में सवालों के बुनियादी ढाँचे से सच्चाई को खँगालना दुष्कर कार्य ज़रूर है परंतु उसकी एक छोटी सी कोशिश इस अंधेरी गली को आलोकित करने का एक स्वागत योग्य कदम है. हमें पूरा यकीन है- स्त्री विमर्श के वर्तमान स्वर धीरे - धीरे इस लम्बी लड़ाई में कारगर हथियारों की तरह विकसित होंगे.

यह अंक इसी विनम्र प्रयास को समर्पित है. हमारा यह दावा कतई नहीं है कि यही सबसे अधिक उपयुक्त उद्यम है. तथापि एक शुरूआत अपने भावी विकास को झलकाती ज़रूर है. 21वीं शताब्दी इस विश्वास को भी पुष्ट करेगी, बराबरी का यह रवैया एक न एक दिन तो बराबरी में तब्दील होगा ही.

- गंगा प्रसाद विमल

© 2009 Ganga Prasad Vimal; Licensee Argalaa Magazine.

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