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इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका

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स्वर्ण स्तंभ

मैत्रेयी पुष्पा

अनिल पु. कवीन्द्र द्वारा मैत्रेयी पुष्पा का साक्षात्कार

अनिल पु. कवीन्द्र: मारकंडेय पुराण, विष्णु धर्मोत्तर पुराण और मतस्य पुराण के अनुसार सृष्टि की रचना में पुरुष और प्रकृति का संयोग था. यदि हम आदम और हव्वा से लेकर मर्द और औरत तक की सामाजिक संरचना को देखें तो ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं किंतु सवाल ये है कि अर्धनारीश्वर की कल्पना के बावज़ूद स्त्री और पुरुष के बीच द्वंद्व लगातार रहा. इतिहास में कभी मातृत्व सत्ता आई तो कभी पितृसत्ता. 21 सवीं सदी के इस दौर में आप स्त्री अस्मिता को साहित्य में किस तरह से देखती हैं. क्योंकि उपर्युक्त दर्शन में पुरुष और प्रकृति की संकल्पना से ही साहित्यिक प्रक्रिया की शुरुआत होती है ?

मैत्रेयी पुष्पा: देखिए! ये जो हमारी शास्त्रीय धारणाएँ हैं या जो हमारे पास लिखित या मौखिक चीजें हैं सारी एक ही तरीके की हैं. और हज़ारों साल तक चलीं. यह भी नहीं कि वो मिट गयी हों, द्वंद्व चलता रहा. लेकिन फिर भी ये धारणाएँ हज़ारों साल तक चलती रहीं. यह नहीं है कि नब हमने इस बात पर न ही माना कि नहीं, जो परिभाषाएँ दी हैं, जो आपने धारणाएँ, नियम, कानून बनाए हैं वो हमें मंज़ूर नहीं हैं. हो सकता है पहले सारी चीजें उसी तरह चली हों. मैंने शास्त्र न पढ़े हों कि स्त्री ने भी कहीं यह बात कही हो. क्योंकि मैं तो अंदाज़ा इससे लगाती हूँ कि इन शास्त्रों को गढ़ने में किसी स्त्री का हाथ नहीं था. ठीक है! तो जो पुरूषों ने तय किया, वही तय हुआ. जो अपने तरह की एक नस्ल, जाति जब कुछ तय करती है तो वह सब कुछ अपने हिसाब से तय करती है. जैसे राजा नीतियाँ बनाता है या हमारे मंत्री बनाते हैं तो वो अपने स्वभाव के अनुसार ही तो नीतियाँ बनाएगा न! वो दूसरों किस पायदान पर रख रहा है क्योंकि वह अपनी तरफ़ से तो अच्छी तरह रखता है, कहता भी है कि हाँ, लेकिन दूसरों को कितना रास आ रहा है ? यह उसे नहीं पता. जब जब स्त्री ने यह कहा कि नहीं, ये हमको रास नहीं आ रहा है यह बात नीतियाँ बनाने वाले को नहीं पता होतीं. याकि ये न मैं कर सकती हूँ जो कुछ भी आपने अपने लिए रखा है. जैसे गार्गी को लें कि उसने कह दिया - मैं शास्त्रार्थ कर सकती हूँ आपसे. तो इस बात पर उसे गुस्सा आ गया कि यह चीज़ तो उसके लिए रखी ही नहीं थी. तो वह उसकी हत्या करने को राज़ी हो गए. बिल्कुल तैयार - कि मैं सर काट डालूँगा, गला काट डालूंगा. तो ये जो भी शास्त्र चले आ रहे हैं क्या वो स्त्री को डराने के लिए नहीं हैं ? हैं न! जब जब देखा मैंने यह सब, मैंने इन सब चीज़ों से इंकार किया और जो हमारे यहाँ मर्यादावादी हैं, शास्त्रवादी हैं; उनको मेरी बातें कभी रास नहीं आई. मुझे ऐसे में कई बार लगा कि मैं अकेली ही खड़ी हूँ क्या ? लेकिन नहीं! जितनी भी सामाजिक कार्यकर्ता हैं उनके तेवर मुझे साहित्यकर्ताओं से ज़्यादा तीखे लगते हैं. मुझे वो अपने साथ लगती हैं. नहीं तो यहाँ अभी भी ऐसी मान्यता है कि जिस इक्कीसवीं सदी की बात आप कर कर रहे हैं अभी जो स्त्रियों का रुझान है, ज़्यादातर का उन्हीं शास्त्रीय विधानों की तरफ़ जाता है. और साहित्यकार भी थोड़ा आगे थोड़ा पीछे प्रगति करता रहता है. दो टूक, बेबाक़, कि नहीं हम आपकी इन बातों से इंकार करते हैं, ऐसा नहीं कहते.

ठीक है, बदलाव है. मैं यह नहीं कहती कि बदलाव नहीं हुआ, हुआ है, काफ़ी हद तक हुआ है. केवल साहित्य में ही नहीं बल्कि लड़कियों औरतों के व्यवहार में भी बदलाव हुआ है. अच्छा जो लोग कहते हैं कि जितनी भी दलित स्त्रियाँ हैं उनका शोषण दोहरा तिहरा है. सवर्ण स्त्री के मुकाबले या जो आदिवासी महिलाएँ हैं उनका कहीं ज़्यादा है. तो मैं यही कहती हूँ कि जितने दबाए गये हैं वंचित रखे गये हैं उसी हिसाब से उनका शोषण है. जो चीज़ें हमारे पास नहीं हैं मान लो कि आदिवासी स्त्री के पास जल, जंगल, ज़मीन कुछ भी नहीं है तो वह कई तरीक़ों से शोषित होगी जबकि जो सवर्ण स्त्री है वो ढंग के कपड़े पहन रही है वह घर में बैठे रोटी तो खस रही है लेकिन एक कैद एक सुरक्षा कवच में उसे एक कारागार में आजीवन डाल दिया गया है. उससे जब जब निकलने की कोशिश करेगी उसको दण्डित किया जाएगा. मैं यह नहीं कहती कि यही सुविधा है. यही सुरक्षा है. बाहर जाकर तो सोने के पिंजरे से भी जाने का मन करता है न ? कि हम इसे तोड़ डालें हालाँकि उन्हें भी यदि सोने के पिंजरे में बंद किया जाए तो वो उसे भी तोड़ डालेगी. तो मेरा कहने का मतलब है कि आदमी की भावना स्वतंत्र होने की होती है. बंदी होने की नहीं होती है. इसीलिए शायद 'पनिशमेंट बंदी होना "सज़ा' में बताया गया है. इक्कीसवीं सदी में हमारे थोड़े थोड़े पंख खुले हैं. मानती हूँ मैं.... लेकिन देखिये वो भी कब से ? हमारे यहाँ लोकतंत्र है न, और जो पिछली सदी गई है उसमें हमारा देश आज़ाद हुआ था लेकिन क्या जो आज़ादी की घोषणा हुई उससे कौन कौन आज़ाद हो गया ? सवाल तो ये है न कि आज़ादी किसकी ? मैं तो कहती हूँ स्त्री कभी आज़ाद हुई ही नहीं थी. वो केवल पुरुषों की आज़ादी थी सन 47 वाली. मुझे तो लोग ये भी कहते हैं कि गाँधी ने स्त्रियों को आगे निकाला, आंदोलनों में भी शरीक हुईं. लेकिन मैं पूछती हूँ इसके बावज़ूद भी वे महिलाएँ फ़िर कहाँ चली गईं साथ साथ भी चली मैं ये भी मानती हूँ. और जो राजसत्ता, लोकतंत्र शाषन आया. उसमें स्त्री कहाँ थी ? इक्का दुक्का यदि छोड़ दें तो मैं यह दलील कत्तई नहीं मानती. मैं आम स्त्री की बात करती हूँ. मुझे तो यह पता ही नहीं था कि कहाँ आज़ादी आई ? और कैसी ? लोकतंत्र क्या ? क्या है लोकतंत्र ? ज़रा गाँव में जाकर पूछिए - लोकतंत्र जानती हो ?तो वो कहेगी क्या ? चूँकि मैं तो गाँव से आई हूँ. मेरी पूरी शिक्षा गाँव में ही हुई है. तो जब मैं वहाँ इस तरह की स्थितियाँ देखती हूँ, मुझे तो ज़मीन आसमान का अंतर साफ नज़र आता है और हम लोग खाली आँकते हैं कॉस्मोपॉलिटन सिटी से. कि यहाँ देखो कितनी स्त्रियाँ आज़ाद और खुले विचारों की हैं. मैं ये सारी चीज़ें भी आज़ादी के नाम पर स्वीकार करती हूँ. लेकिन वो जो आज़ादी की भावना सही तरीके से औरत में आनी चाहिए. वो अभी नहीं आई है. पाँच हज़ार साल की गुलामी तो पाँच दिन में ख़त्म नहीं हो जाएगी. दस साल में भी नहीं. पाँच सौ सालों में भले ही हो जाए.

तो बात है कि सन सैंतालीस में स्त्रियों की आज़ादी नहीं आई जबकि दलितों को तो फिर भी आरक्षण मिल गया. स्त्रियों को तो वो भी नहीं मिला. अंग्रेज़ तो देश से चले गये लेकिन बावज़ूद इसके हमारे अंग्रेज़ हमारे जो थे वो हमारे साथ ही रह गए. उन्होंने हमको नहीं आज़ाद होने दिया तो यही आज़ादी की जद्दोज़हद में थोड़े आगे थोड़े पीछे मैं साहित्य में भी देख रही हूँ क्योंकि अभी स्त्री को पता नहीं है कि हमें कौन सी स्वतंत्रता किस तरह से लेनी है ? उसको अभी यही नहीं मालूम कि हम स्वतंत्रता क्या लें ? कैसी लें ? अगर मैं कहती हूँ कि भी! जो हमें बंदी बनाकर रखे हुए हैं. शहर में भले ही परदा न रहा हो गाँव की स्त्रियाँ तो आज भी घूँघट कर रही हैं. मैं मानती हूँ कि यदि किसी देश के विकास का आँकलन करना है तो उसके गाँवों में जाकर देखो. उस देश की सही स्थिति का पता चल जाएगा. अगर किसी देश की शिक्षा, संस्कृति, सभ्यता रोज़गार का आँकलन करना है तो उस समाज की स्त्रियों को देखो. असल सच का पता चल जाएगा कि ये परिवार या समाज कितना ऊपर आया है. तो जब भी ये सरकारी आँकड़े आते हैं मुझे बड़ी दिक्कत होती है और कोफ़्त भी. क्योंकि आँकड़े तो फाईलों में होते हैं जबकि वो आँकड़े गाँवों में नहीं होते. तो जहाँ अनुभव नहीं होते वहाँ आँकड़े बोलते हैं.

मैं तो इन चीजों को मानती नहीं हूँ मुझे कहा भी जाता है कि देखो जन आंदोलन में बढ़ चढ़कर भागीदारी निभाई है. मैं यह चीजें नहीं मानती क्योंकि मर्दों ने कहा होगा डी. एम. की गाड़ी के आगे खड़ी हो जाना वो हो गयी होंगी सड़क जाम करने. मर्दों ने कहा होगा - ऐसा नारा बोलना, उन्होंने बोला होगा. अभी ये हाल है कि जो मर्द या पुरूष है वो केवल अपना विचार बल थोपते रहे हैं. हाँ इतना ज़रूर इक्कीसवीं सदी में हुआ कि हमें आरक्षण मिल गया थोड़ा बहुत. इतनी उपलब्धि तो मिली है. और आरक्षण भी मिला तो कहाँ ग्राम पंचायतों में. संसद में तो ऐसा मिला नहीं है. मर्द बड़ी चालाकी से आरक्षण को लेकर बेहद सतर्क और चतुराई से आरक्षण का लाभ ले रहे हैं क्योंकि जिनको आरक्षण दिया वो तो कुछ जानती ही नहीं हैं, वो इस आरक्षण का क्या करेंगी ?

मैं अभी 27 दिसंबर को गाँव गई तो वहाँ बात चल रही थी मंदिर बनाने की. मैंने कहा" मैं तो मंदिर में विश्वास करती ही नहीं. हाँ यदि मंदिर में एक ऐसा कमरा बनाया जाए जहाँ सभी स्त्रियाँ एक साथ बैठकर बातचीत कर आपस में बोल बता लें तो मैं वहाँ ज़रूर आऊँगी." उन लोगों ने कहा कि आप जैसा कह रही हैं वैसा ही किया जाएगा. तब मैं वहाँ गई. और तभी एक आदमी जिसे मैं बेहतर ढंग से जानती थी शुरुआती दौर से ही. उसने कहा "आईए, इधर आईए ! प्रधान जी आ चुके हैं." मैं चौंकी "प्रधान जी ?" मैंने कहा "कैसे प्रधान जी." यहाँ तो स्त्री का आरक्षण था. यहाँ प्रधान जी पुरूष कैसे आ गये ? " तो उसने कहा" आप का कहना ठीक है जो औरत यहाँ की प्रधान है ये उसके पति हैं." मैंने पूछा "वो महिला कहाँ है ? " वो बोला पंचायत के सारे नियम कानून मैं जानता हूँ उसे इन चीजों का ज्ञान कहाँ है? " तो आज भी हालत ये है कि जहाँ स्त्री का आरक्षण हो गया वहाँ भी पुरुष ने अपनी पत्नी को खड़ा कर दिया. यदि यह आरक्षण स्त्री का नहीं होता तो वह उसे कभी खड़ा करता ? कभी नहीं खड़ा करता. जीतना अंत्त: पुरुष को ही है. जीतना स्त्री को नहीं है. नारे भी ऐसे लिखे जाते हैं जिस पर मैंने एक कहानी लिख दी थी.... मान लो उसका नाम सुशीला है - 'सुशीला पत्नी करतार सिंह' को वोट दीजिए. अब अगर यही स्थिति उल्टी हो कि किसी पुरुष को लिखा जाए 'करतार सिंह पति सुशीला देवी ' को वोट दीजिए. तो यह क्या वो लोग मानेंगे ? नही! बिल्कुल नही. यहीं यही कहेंगे. तो मेरा कहना है कि स्त्री के लिए फ़िर पीछे पुरुष का नाम क्यों ? वो बोले कि "पत्नी को कौन जानता है ? " हालात ही ऐसे हैं कि लोग आँकड़े खामखाह भर भर के ला रहे हैं. लोग मुझसे बहस करते हैं कि आप ऐसी बात करती हैं. मैं कहती हूँ कि आप इन सुविधाभोगी साधनों में बैठकर पंचायत करते हैं इसमें औरत कहाँ है ?

अनिल पु. कवीन्द्र: साहित्य का एक पक्ष धार्मिक ग्रंथ भी हैं किंतु रामायण, महाभारत, से लेकर अन्य ग्रंथों तक स्त्री का स्वभाव या प्रकृति एक थी सृष्टि की रचना में योग. और पुरुष का मक़्सद एक था स्त्री के साथ संभोग. अत: स्त्रीवादी लेखन में धार्मिक ग्रंथों के विरुद्ध क्या कोई कार्यवाही नए साहित्यिक प्रतिमान स्थापित करने की दृष्टि से 21 सवीं सदी में की जाएगी ?

मैत्रेयी पुष्पा: नही, कोशिश तो हो रही है. सारी दिक्कतें तो हमसे ही हैं न ? क्योंकि मैं जिन नियमों की बात कर रही हूँ उसमें उन नियमों की तरह एक धर्म है - स्त्री धर्म. क्योंकि स्त्री को मोक्ष तो बताया नहीं. मोक्ष मुक्ति कुछ भी नहीं. तो उसके लिए बना स्त्री धर्म. क्योंकि स्त्री को मोक्ष तो बताया नहीं. मोक्ष मुक्ति कुछ भी नहीं. तो उसके लिए है सिर्फ़ स्त्री धर्म. स्त्री धर्म वही है कि पिता रक्षतो कौमार्य.... जब तक कुँवारी होती है पिता रक्षा करता है, फिर भाई फिर पति. तो ये हमारा धर्म है. हमें उसके तहत चलना है. इन तीनों पुरुषों की मर्यादा की रक्षा के लिए हम जीते हैं. यही हमारा धर्म है. महाभारत और रामायण इसी का उदाहरण हैं. मर्यादा पुरुषोत्तम राम तो साक्षात मर्यादा की मूर्ति थे या कि महाभारत में जितने काण्ड हुए. उनकी स्त्रियों को देखें तो गांधारी की आँखों में पर्दादारी की पट्टी बाँध दी गई थी. क्यूँ ? वह उसका पति धर्म था. क्यूँकि पति अंधा था तो गांधारी को संसार देखने का कोई हक़ नहीं है. गांधारी तो यही संदेश देती है. पति तो फिर भी युद्ध का वर्णन सुनते हैं गांधारी तो वो भी नही. सुनती. उसके सुनने पर भी बाध्यताएँ हैं. उसमें दूसरे साहित्य की कितनी बातें आई हैं. तो कहने का मतलब है कि साहित्य कहीं न कहीं थोड़ा आगे व थोड़ा पीछे चलता है. क्या करें ? अभी एक अनिश्चितता की स्थिति है. पूरे साहित्य को अगर खँगाला जाए. लेकिन मैं अगर यह कहती हूँ कि मैंने यह निश्चय किया कि हमारे धर्म ने हमारे ऊपर हमेशा अंकुश लगाया. ठीक है, ज्ञानेंद्रिय यानि आँख से स्त्री पति के सिवाय किसी को न देखे. कभी कभी तो भाई से ज़्यादा बात करने पर भी सुनना पड़ता है. अच्छा! एक बात इसके अलावा - ज़ुबान से बोलो मत, बहस मत करो, जवाब मत दो. तो फिर हम करें क्या ? क्योंकि हमारा न कहना भी एक सेवक का, पत्नी का एक अपराध है. हाथ से हम वही काम करेंगे जो हमको बताए गए हैं. अपनी मर्ज़ी से करने का अधिकार नहीं है. पाँव को हम वहीं तक ले जाएँगे जहाँ तक शास्त्र से तयशुदा है. एक जैसे कि हमारे गले में रस्सा बंधा है कि वो जितना छूट हमें मिलेगी उतना हम जाएँगे. और जैसे ही हम अपनी मर्ज़ी से चलेंगे वापस खींच लिए जाएँगे. अब आई बात कर्मेंद्रियों की. लोग इसे देह विमर्श कहते हैं. ठीक है, मुझे यह बुरा नहीं लगता कि तुम इसे देह विमर्श कहो. लेकिन मैं हमारी इंद्रियों की बात करती हूँ. और सेक्स भी उसी में आता है. मैं उससे इंकार नहीं करती क्योंकि सेक्स में स्त्री को एक्टिव रहने की बात नहीं की गयी है. अगर वो एक्टिव होती है तो वह बदचलन हो सकती है. अगर वो पहल करती है तो वह कुल्टा हो सकती है. ये सारी चीज़ें कम से कम मैंने अपने साहित्य में तोड़ी हैं. जिसके कारण में बदनाम भी बहुत हुई हूँ. मैं इसलिए कह रही हूँ कि निश्चय नहीं है इन लोगों को, नहीं तो मेरे लिए क्यों ऐसी बातें करते. मैं ये कहती हूँ कि नही, जैसे एक दुल्हन आती है. सिकुड़ी गुड़िया सी बधी होती है अपने बिस्तर पर. जब तक बिहाता आता है वही उसे पहन सकता है. तो आप इसी को क्यों मान रहे हैं ? क्या उस स्त्री के अंदर जो दुल्हन बैठी है उसकी कोई इच्छा कोई अपेक्षा नहीं है ? सबका शरीर कुदरत ने लगभग एक जैसा ही बनाया है. तो तुमने उसे इस कामोपयोगी रूप में क्यों लिया ? उसको भी अपने अधिकार से बराबरी में रखें. वो भी निगरानी करेगी और पहल भी. जब पुरुष पहल कर सकता है तो स्त्री भी कईओं में बनावटी परदे टाँग रखे हैं. गाँव में तो आर पार की बात होती है. आमने सामने की बात होती है. वहाँ जाति व्यवस्था भी है तो उसमें भी हर जाति की अपनी अपनी अहमियत भी है. क्योंकि वहाँ उनकी परवरिश उसी माहौल में होती है. कारण उसे खेतों में भी जाना होता है. उसको पशु भी चराने हैं. आप कहाँ कहाँ उस पर निगरानी रखेंगे ? बंदिशें लगायेंगे ? यहाँ लोग मानते हैं कि नौकरी करती स्त्री आर्थिक रूप से स्वतंत्र है. और आत्मनिर्भर हो सकती है. लेकिन वो जो खेत में काम करने वाली स्त्री है वह शहरी कामकाजी स्त्री से कहीं ज़्यादा स्वतंत्र है. यहाँ तो घर की चौहद्दी पार करते ही स्कूल जाते आते नौकरी का तयशुदा वक़्त सभी कुछ पर तीखी नज़र होती है घरवालों की. कि वो वापस कब आयेगी लौटकर? और जहाँ देर हुई वहीं सवाल खड़े हो जाते हैं. अब वही मज़दूर स्त्री और किसान स्त्री खेत से कब लौटेगी उसका तो कोई तयशुदा वक़्त नहीं है न ? खलिहान में कब कहाँ कितनी देर होगी कौन जानता है. क्योंकि उसका श्रम हमेशा इस सुरक्षात्मक वातावरण से ज़्यादा अहमियत रखता है. उसको परास्त करना बड़ा मुश्किल है. और मैं तो उसी परिवेश से आई हूँ. और वही मैंने लिखा भी. भले ही वो थोड़ा कर्मकाण्ड कर लेती हैं कुछ पल रोज़. जैसे माता पर जल चढ़ाना, गौरी पूज ली.... लेकिन जो श्रमशील स्त्रियाँ थीं जातियाँ थीं उनमें यह कर्मकाण्ड देखने को यदा कदा ही मिल जाए. वहाँ ऐसा कोई रिवाज़ है ही नहीं. ये कर्मकाण्ड तो पण्डितों, बनियों के यहाँ होते थे ज़्यादातर. कि पति व्यापार को गये या कथा बाँछने. तो स्त्रियाँ क्या करें ? इसीलिए इन आडंबरों में उन्हें उलझाए रखा गया. अब जो स्त्री खेतों में काम कर रही है उसे करवाचौथ की क्या ज़रूरत है ? मैं भी उसी खेतिहर किसान परिवार से हूँ जब मैं यहाँ आई यहाँ के पाखण्ड सुने और साहित्य में देखे कि खामखाह की बातों को ऊल तूल दे देना. मैंने ये देखकर सोचा ये सब क्या चक्कर है ? तब मैंने वो कथाएँ लिखीं जो श्रमशील औरत की हो सकती है जो एक किसान पत्नी की हो सकती है.

वैसे तो हम सभी देशवासी किसानों की बहुत बात करते हैं. जिसमें बौद्धिक जगत के साहित्यकार इस बात पर बहस कर रहे हैं कि किसान आत्महत्या कर कर रहे हैं. लेकिन ये किसी को नहीं पता कि क्यों कर रहे हैं ? बस एक शोर मचा रखा है हाय किसान आत्महत्या कर रहे हैं. तो ये जो अकर्मण्यता की हद है न, यही मेरे से बर्दाश्त नहीं होती. जहाँ आप धर्म की बात कर रहे हैं. कहानी में ऐसी स्त्री लेकर आई जिसने धर्म के सारे सारे मानदण्ड तोड़ डाले. यहाँ तक की वह स्त्री कई रूपों में मेरी तमाम रचनाओं में आई. और वह जीवन लेकर आई जिसे वह जीती आई थी. तो यही करने की कोशिश हम कर रहे हैं. और मुझे इस बात की भी परवाह नहीं कि लोग मुझे एक्सेप्ट नहीं कर रहे. उस वक़्त जब मैंने चाक उपन्यास लिखा तो बड़ा बावेला मचा और तमाम समय तक मचता ही रहा. मैं तो गाँव की सीधी सादी स्त्री ही थी. तब मैं ज़्यादा बोलती भी नहीं थी. चुपचाप रहती थी. लेकिन जो जीवन था वो तो मैंने जिया था न. तो मुझे बड़ा ताज्ज़ुब हुआ कि ये लोग क्यों इतने बिगड़ रहे हैं भाई? यही कि सारी मर्यादाएँ तोड़ दीं, सारी आस्थाएँ फ़ूँक दीं और उन लोगों ने जाने क्या क्या न कहा. तब मैंने कहा अरे! ख़ासकर गाँव की औरतों से कि जिसकी वजह से इतना बावेला मचा है उनसे ही सीधे बात की. उन गाँव की महिलाओं ने कहा तूने किताब लिखी है ? मैंने बोला 'हाँ', मैं तुम्हें भी दूँगी लेकिन तुम नाराज हो जाओगी पढ़कर. वो बोलीं नाराज क्यों हो जाऊँगी, जो बातें हैं सो ही तो लिखी होंगी. मैंने कहा - हाँ, तुम्हारी ही बातें लिखी हैं. और फ़िर बताया कि लोग इस किताब की वजह से मुझसे काफ़ी खफ़ा हैं गुस्से में भी.... शहर में. वो बोलीं हमें कौन हैं जो तुझे परेशान कर रहे हैं नाराज हो रहे हैं. हमें ले चल वहाँ पे. मैंने कहा तुम्हारी कौन सुनेगा जब लोग मेरी ही नहीं सुन रहे.

मैं ये कह रही हूँ कि जो धार्मिकता बना रखी है. जिसे पवित्रता कहते हैं, इतनी अपवित्र है कि स्त्री के सारे हक़ों को समेट लेती है. स्त्री पवित्र रह रहकर ही ख़त्म हो जाती है. शहरों में यह प्रचलन कुछ ज़्यादा है. मुझे तो शहरों की ज़्यादा चिंता है बज़ाय गाँव के. गाँव की स्त्री की आवाज़ तो मैंने दे दी यहाँ पर - कि ये है वो स्त्री जिससे आपको शिक्षा लेनी है, कुछ धार्मिकता सीखनी है, तो सीखो. उसका धर्म तो वही है और आपकी तथाकथित नैतिकता से मैं इन्कार करती हूँ. जब तक हमारा खुलकर व्यवहार वही नहीं होगा. मैं यह नहीं कह रही कि जैसा पुरुष करता है वैसा ही हम भी करें. नहीं, जो एक स्वतंत्रता पुरुष को मिली है वो स्वतंत्रता जब तक हमें नहीं मिलेगी तब तक तो हमारा वज़ूद सिकुड़ा ही रहेगा न. दोनों को बराबर का हक़ है. कुदरत ने वही दिए हैं मैं मानती हूँ, ठीक है प्रजनन स्त्री को दिया है तो प्रजनन स्त्री ही करती आई है, बच्चे पालती आई आई है, बावज़ूद इसके आप उसका हक़ मार जाते हैं और उसको कुछ नहीं देते. हमारे धर्म ने कहा है कि पिता ही सन्तान का जनक होता है. इसलिए पिता का नाम ही चलना चाहिए. अब बताईए, ये कहाँ की ईमानदारी है ? जो स्त्री उसको जन्म देती है, पालती है, अपना दूध पिलाती है उसका कहीं नामो निशान नहीं है. अब तो ख़ैर ये हो गया है कि स्कूल में माता पिता दोनों का नाम चलता है. तो मेरे तेवर शुरू से ही वही तेवर थे जो एक गाँव की लड़की के होते हैं कोई झिझकना नही, कोई शर्म नही. जैसा कि कहा जाता है शर्म लड़कियों का गहना है. खुलकर व्यवहार करना ऐसा था मेरा स्वभाव. लेकिन धीरे धीरे मैं शहर में जब ब्याह के आई. शहर मेरे ऊपर हावी होता गया. वो शालीनता, वो भद्रता, सभी कुछ ने मुझे इतनी दबी हुई औरत बना दिया कि मेरा कायाकल्प ही हो गया. यहाँ तक कि मेरा नाम भी किसी ने नहीं पुकारा. मैं अपने ससुराल में उस आदमी की बहू या उसकी पत्नी से जानी गई. और यहाँ से में मिसेस शर्मा हुई. मेरा अंग्रेज़ी संस्करण, विशेषण. मैं धीरे धीरे अपना नाम भूलती गई. कि क्या था मेरा असल नाम. जबकि मेरी बेटी जो तब डॉक्टर हो चुकी थी उसने कहा तुम्हें तो लिखना आता है तो लिखो. तब मैं 44 साल की हो चुकी थी. और उसके दो बच्चे हो चुके थे. बेटी ने याद दिलाया कि जब मैं (बेटी) छोटी थी तो मेरे लिखने पर वो फ़स्ट आती थी, अब आप खुद के लिए लिखो. अपने नाम से लिखो. मैंने एक ही सवाल किया बेटा मेरा नाम क्या है? मुझे नहीं याद रहा. किसी ने पुकारा ही नहीं मुझे मेरे नाम से कभी. इस शहर ने मेरा नाम ख़त्म कर दिया. तब अपनी बेटी के कहने पर अपने नाम से लेखन में मैं वापस आयी. अब ठीक ठाक लोग मुझे जानने लगे हैं.

तो ये हमारे धर्म ने करवाया. मैं तो पतिव्रत धर्म निभा रही थी पूरी तरह से. जो जो मुझसे कहा गया मैंने किया. तुम मुझे बीसवीं सदी की औरत ही समझो. मैंने कहा अपनी बेटी से - जैसे चेतक था न राणा प्रताप का घोड़ा कि राणा की पुतली फ़िरी नहीं, तब तक चेतक मुड़ जाता था. वैसे ही तेरे पिता की पुतली जब तक फिरती उससे पहले ही मुड़ जाती थी. ये तो मेरा हाल था जो मैं तुम्हारे सामने खोल रही हूँ. साहित्य ने मुझे इतना दिया है, रचनाओं ने मेरी किया कि मुझे बोलना सिखा दिया, कि हाँ तू वही लड़की थी जो कॉलेज में स्ट्राईक करवा देती थी, चुनाव में लड़कों का साथ भरपूर देती थी. और वहाँ भी जो अच्छी लड़कियाँ कही जाने वाली भद्र घरानों की थीं उनकी बातें मुझे सुननी पड़ती थीं. उन्हें मेरा व्यवहार बेहद अजीब लगा. कि ये कैसी लड़की है जो लड़कों के साथ रहती है. लड़के भी जानते थे कि वोट चाहिये तो यही लड़की दिलवा सकती है. अब वही खुलापन फ़िर से उसी तरह लौट आया है और फ़िर जो मैंने लिखना शुरू किया कि धर्म से मुझे क्या चाहिए, क्या नहीं चाहिए. मैंने सब छटनी कर दी. वो कर्तव्य जो हमें बताए गए थे. तो ये सारी चीजें मैंने न तो किसी को दिखा के किया मुझे लगा कि एक आवाज़ वो आनी चाहिए जो गाँव से आती है माना कि उनको असभ्य माना जाता है, अशिक्षित माना जाता है लेकिन उनका साहस अपने आप में अपूर्व है. उसे अगर आप दबा लेते हैं तो आपकी सफेदपोशी के सामने दब जाता है. तो धर्म की सारी बात यह थी कि धर्म मैं उस तरह से मैं नहीं मानना चाहती जो हमें पीछे ले जाए, जो हमारी गति को बाँध दे. जैसे बाँधते आए हैं. हाँ - अब जो स्त्री के लिए धर्म है वह अब हम तय करेंगे कि हमें क्या करना है क्या नहीं. हमारे लिए कौन सा धर्म है, कौन सा नहीं. और यही हम अपने व्यवहार और लेखन में कर रहे हैं.

अनिल पु. कवीन्द्र: मीरा के भक्ति रस से ओतप्रोत काव्य की धारा जो महादेवी तक पहुँची है. उसके विकास में सबसे महत्वपूर्ण मोड़ कहाँ आया है ? यह विकास की प्रक्रिया एकरेखीय है या चक्रीय ?

मैत्रेयी पुष्पा: देखो पहले मीरा को लो, मैंने कहा न कि मैं अपनी तरह से सोचूँगी. इस पर लोगों को भी आपत्ति हो रही है तक़लीफ़ हो रही है. जब मैंने 'उसने कहा था' कहानी पर लिख दिया 'सूबेदारनी का हलफनामा'. यह कहानी लहनसिंह की हो सकती है. सूबेदारनी की नही. क्योंकि सूबेदारनी ने तो पतिधर्म निभाया उसने तो लहनसिंह जो बलिदान हो गया उससे कहा कि मेरे पति और मेरे बेटे को बचाना. क्यूँ नहीं कहा पति से कि लहनसिंह को बचाना. ये मेरे बचपन का दोस्त है, नहीं कहा न! किसी ने दोस्तों के लिए माँगा है कुछ, नहीं न. लेकिन मेरी नायिकाएँ माँगती हैं यही दिक्कत है. तो मीरा को मैं जहाँ देखती हूँ तुम एकरेखीय और चक्रीय की बात कर रहे हो तो मीरा ने राजपाठ का लोभ नहीं किया न. उसने सुरक्षा को नहीं माना सुरक्षा पूरे महल में थी वो आराम से रह सकती थी. उसने एक स्वतंत्रता देखी. जो लोग कहते हैं कि मीरा को क्यों जेल लगा. राजघराने क्यूँ निकली वो वहाँ से ? मीरा ने तो नए क्रांतिकारी कदम उठाए उस ज़माने में. मुठभेड़ भी की. अच्छा हाँ... एक जगह मानती हूँ जब उसने कहा ' जा के सिर मोर मुकुट मेरो' कि पति की सत्ता ही मानी यदि उस आदमी को जिसने ब्याह किया उसे पति नहीं मान के कृष्ण को माना. बिना पति के कोई गति नहीं थी. तो मेरा सवाल वही है कि मीरा ने क्यों कहा कि ये मेरा पति है. ये क्यों नहीं कहा कि ये मेरा मीत है. ये मेरा मित्र है ? मित्रता की कोई बात नहीं तो दाम्पत्य ही आ जाता है सीधे सीधे. यहाँ मैं थोड़ी असहमत होती हूँ मीरा से. वरना तो उस ज़माने में और राजघराने में इस तरह फ़कीरन होकर निर्गुण गाए. वो उसका ही कलेजा हो सकता है. नहीं तो थोड़ी सी सुरक्षा से बंधे, छत से बंधे हम लोग कई बार सोचते हैं कि घर से यूँ ही निकल गए तो सब कुछ छूट जाएगा. बहुत सी बातें आती हैं दिमाग में लेकिन उसने एक बिगुल बजा दिया. कि फिर कुछ सोचना नहीं है, किसी चीज की परवाह नहीं करनी है. तो मीरा को यदि पूरी तरह से पढ़ा जाए तो ऐसी बातें निकलेंगी जहाँ वो कहती है कि' सास कहे कुल नासी रे ' तो कुल और मर्यादा जो हमें बताई गई है तो धर्म से मीरा ने खुद को एकदम से काट लिया न. लोग अभी तक धर्म के लिए रो रहे हैं जबकि मीरा तो धर्म को ख़त्म कर गई.

अब महादेवी पर आओ, कहते हैं कि महादेवी की शादी बचपन में हो गई थी उन्होंने ने भी देख कि यह मुझे नहीं चाहिए तो शादी तो हुई मगर साथ रहने से इंकार कर दिया ये चाहे तो उनके किशोर अवस्था का ही साहस था या जो भी कहो..... मैं मान गई ठीक है. उन्होंने इतनी जल्दी इसको समझ लिया जो कि स्त्रियाँ अपनी पूरी जिन्दगी में नहीं समझ पाईं. लेकिन धीरे धीरे वो क्यूँ अपनी कविताओं में वैसा साहस नहीं दिखा पाईं. और पता नहीं उन्हें जाने कौन सा दुख रहा, या था तो उसे व्यक्त करतीं. वो क्यूँ रहस्यवाद में चली गयीं रहस्य का पर्दा क्यूँ डाला क्या ज़रूरत थी. लोग तो कहते हैं कि उस वक़्त समय ही ऐसा था और समय का ही अतिक्रमण तो हमें करना होता है. ये थोड़े ही है कि उस समय ऐसा था तो हम ऐसे ही रहेंगे. समय तो अब भी वही है अब प्रेम करने वाले लटका दिए जाते हैं मारकर पेड़ों से. अभी भी जो मैं ये बातें करती हूँ तो अभी तक तो कोई मुझे भगा देता यहाँ से कि तू ऐसी ऐसी बातें करती है. बदनामी ही बदनामी है ऐसी किताबें क्यूँ लिखीं. और मेरे पास तो परिवार लड़की रिश्तेदार सब हैं. कि मैंने सारी मर्यादा खो दी. तो मीरा कहती हैं कि मैंने तो लोकलाज खो दी मैं उस बात को मानती हूँ. कि महादेवी ने लोकलाज नहीं खोई वो ठीक है कि पति से अलग हो जाए एक गरिमा के साथ रही होंगी. ऐसा थोड़े ही था कि वहाँ से फ़कीरों के साथ भाग गईं. कवियों में आई तो वह भी एक शालीनता के साथ. राजघराना जैसे चटाक से तोड़ा उन्होंने लेकिन जो महादेवी हैं जैसे जैसे शालीन मर्यादित घर होते हैं उन मर्यादाओं को नहीं तोड़ पाईं. कविताओं में जैसे धीरे धीरे व्यक्तित्व दबता चला गया. ' मैं नीर भरी दुख की बदरी' और वो न जाने कौन है...... अरे भई कहो कि वो, वो हैं अगर वो उभरीं तो शृंखला की कड़ियों में. मुझे ताज्जुब होता है कि एक स्त्री कविता ऐसी लिख रही है और गद्य ऐसा. तो क्या गद्य में वो ताकत है जो लिखवा ले जाता है वास्तविकताओं को. कविता वो है जो हमें छुपा देती है कहीं न कहीं. कई सारी चीजें परदे के पीछे रह जाती हैं. हालाँकि जहाँ उन्होंने शृंखला की कड़ियाँ लिखी उसमें भी वो बात दो तरह की करती हैं कि स्त्री को ऐसा होना चाहिए, ...... वो तो कहने की हकदार ही नहीं हैं कि पतिव्रता स्त्री को या विवाहिता स्त्री को कैसा होना चाहिए. जब उन्होंने ने देखा ही नहीं कि कैसा होना होना चाहिए. जब अनुभव ही नहीं है कि स्त्री को कैसा होना चाहिए तो आप कैसे कह सकते हैं कि स्त्री को ऐसा होना चाहिए. मेरे ख़्याल से साहित्य में अनुभव सबसे बड़ी बात है. लोग तो यहाँ तक मुझे कहते हैं कि अनुभव लेकर केवल चली आई है विचार तो हैं ही नहीं मैंने कहा कि एक बात बताओ क्या विचार ऊपर से टपकते हैं अनुभव से ही तो निकलते हैं, अनुभवों से ही विचार बनते हैं एक विचार को लेकर आप कहानी लिखो तो गढ़ी हुई लगेगी. जब अनुभव झलकेंगे तो लगेगा कि लिया है कुछ. कहानी भी जीनी पड़ती है तो जहाँ महादेवी शृंखला की कड़ियों में दो बातें करने लगती हैं तो मुझे लगने लगता है कि उनकी कोई गलती नहीं है उन्होंने उस चीज को जिया ही नहीं है. जिया होता तो मना कर देती कि नहीं ! तो यह मेरा पूरा अध्ययन है मीरा और महादेवी पर. जहाँ तक मैं बता सकी.

महादेवी की जो रचना प्रक्रिया है वो एक रेखीय में आधी रेखीय और मिला दो तो डेढ़ रेखीय है. लेकिन मीरा जो थीं उन्होंने कई चीजों को तोड़ा और ऐसा साहित्य दे गई जिसका कोई मिसाल नहीं. और उन्होंने उस लालच को, जिससे कोई भी जीव या मनुष्य बना रह सकता है और संपत्ति और सल्तनत के लिए कितनी कितनी लड़ाईयाँ हुईं और आज तक भी मनुष्य लड़ता ही आ रहा है. मीरा तो राजनीतिक परिवार में ही पली बढ़ी जहाँ सारे राजकाज ही होते थे तो उन्होंने उसे कैसे त्याग दिया ? उन्होंने उसे अपने इस लायक समझा ही नहीं और उसके पीछे थी उनकी खुद की आज़ादी. आज़ादी क्या क्या लाती है और क्या क्या छुड़वा देती है इसका उदाहरण मीरा हैं.

अनिल पु. कवीन्द्र: आधुनिक लेखिकाओं में यौन मुखर अभिव्यक्ति को आप साहित्यिक उद्भावना के विकास के रूप में देखती हैं ?

मैत्रेयी पुष्पा: देखो कई चीजें जुड़ती हैं. स्त्री तो यौन के लिए ही जानी जाती है क्योंकि प्रजनन के लिए ही उसे दर्जा मिला है. वो कहावत है न कि गृहस्थी के दो पहिए हैं एक पुरुष एक स्त्री. मैंने तो एक जगह कहा इलाहाबाद में कि हम तो बैल हैं और वो हाँकने वाला है. पहिए तो हम होना चाहते हैं होने कौन देता है. तो बात है कि पुरुष ने कैसे देखा होगा, बात तो यहाँ से बनती है पुरुष ने उसकी योनि के अलावा और कुछ नहीं देखा. वो कितनी ही प्रबुद्ध हो, प्रतिभावान हो. सानिया मिर्जा जब खेलती है तो उसकी टांगों को ही देखते हैं. चाहे वो जितनी भी कीर्तिमान बनाना चाहे बनाये, पुरुष को उससे क्या ? हम (पुरुष) तो वैसे ही देखेंगे शरीर को कि कैसी लग रही है.

एक लड़की थी - जब मैं हरियाणा गयी एक किताब लिखने के सिलसिले में 'एक फाईटर की डायरी'. तो मैंने वहाँ पुलिस में भर्ती होने वाली लड़कियों से मुलाक़ात की और कहा कि तुम्हें पुलिस ही क्यों चाहिए ? और तमाम गावों से अधिकांश आयी है तो मैंने पूछा तुम्हें परिवार वालों ने आने दिया उन्होंने कहा नहीं जबरदस्ती आयी हैं और यहाँ तक हुआ कि परिवार वालों से कोई नाता नहीं रह गया है. और एक मुक्केबाज लड़की कह रही थी जो लोगों की दृष्टि थी. लड़के मेरे बॉक्सिंग करने पर कहते थे मुझे पता है तु बॉक्सिंग करते वक़्त कहाँ कहाँ से हिलती है? उसकी प्रतिभा को किसी ने नहीं देखा. जबकि वो कहती है कि मैं रसिया और कहाँ कहाँ नहीं गई लेकिन इसके बावज़ूद मेझे ऐसे कमेंट मिले. मैं कई बार लड़को के खिलाफ़ थाने भी गई तो थानेदार ने कहा मुझे कि तू ज्यादा आवारा बनती है. वो लड़के हैं ऐसे ही तुझे छेड़ते हैं, गोपियों को नहीं छेड़ते थे कृष्ण, तो फ़िर कहती है कि वापस चली आई और तय किया कि पुलिस मैं ही जाऊँगी अब. तो बाद की कहानी वह तब सुनाती है जब पुलिस में हो गई थी तो फ़िर वह अपने घर गई और बस स्टॉप रेवाड़ी पर उतरी तो वही टकरा गए साहब जो पुलिस में थे उस लड़की ने कहा साहब जय हिन्द. पुलिस वाले ने कहा अच्छा तू वही है. तू पुलिस में हो गई. वो कहने लगी बावज़ूद सर जी मैंने सोचा मैं बहुत बदमाश आवारा हूँ तो क्यूँ न बदमाश महकमें में ही चली जाऊँ. तो लड़कियों के ये तेवर हैं. तो मैं यह कहती हूँ कि लड़की यह कह रही है कि मुझे खाली योनि से मत जोड़ो लेकिन पुरुष नहीं मानता. अगर मानता होता तो इतने बलात्कार होते ही क्यों ? उस लड़की की यह गलती है कि वो बाहर क्यों आई ? और कहते हैं कि कम कपड़े पहनकर बाहर आई. जो लड़की मुझसे बात कर रही थी वो तो पूरे कपड़े पहने थी, अख़बार में आया है कि एक पिता अपनी बेटी के साथ रेप करता रहा लगभग दो साल तक तो वो क्या कम कपड़े पहने थी ? या घरों के कोनों में जो कुकर्म होते हैं उनमें भी लड़कियाँ क्या कम कपड़े पहने होती हैं ? ये सब एक बहाना है कि तुम ये कर रही हो तुम वो कर रही हो. इसलिए जी हम तो करेंगे ही बलात्कार या फ़िर तुम हमारे सामने सेक्स की एक कठपुतली हो और कुछ नहीं. बच्चे पैदा करो या फ़िर हमको इन्ज्वायमेंट कराओ.

तो योनि जो है वह सेक्स से बाँध दी गई है. स्त्री तो मुक्त होना चाहती है. मुक्त होने कहाँ देते हैं. फ़िर वो ये भी सोचती है म, कि तुम ये भी कह सकते हो कि सेक्स में आज स्त्री भी मर्जी से आगे आ रही है तो भाई जब उसका शरीर है और फ़ैसले तुम ले रहे हो. कि इसको कैसे रहना चाहिए, इसको वैश्या होना चाहिए, इसको रखैल होना चाहिए, इसको पत्नी होना चाहिए या इसको...... ये नाम भी आप ही ने दिए हैं स्त्री ने थोड़े ही ये नाम रखे हैं खुद के लिए. वैश्यालय जैसी बस्तियाँ आप ही ने बसायी हैं वो पकड़ी जाती हैं तो पुलिस उन्हें जब पकड़ती है उस वक़्त आप तो अपने घर चले जाते हैं आपके लिए ऐसा कोई पनिशमेंट है ही नहीं. तो देखो इस धर्म ने इन समाज ने क्या क्या किया उसके कैसे कैसे नाम बनाए. सिर्फ़ सेक्स के आधार पर, ये तीनों नाम इसी सेक्स के आधार पर हैं जो पत्नी आपसे संसर्ग करके बच्चा पैदा करेगी वो आपकी धर्मपत्नी है, जिसको आप अच्छी लग गयी जिसे आपने अपनी इच्छा के लिए संसर्ग किया मगर शादी नहीं की वो आपकी रखैल हुई, और जिसे आप बिल्कुल ही न संरक्षण देंगे और न ही पत्नी का सम्मान देंगे सिर्फ़ पैसा फ़ेकेंगे और आप ही कीमत लगाएँगे कि कितनी है. वो वैश्या हुई. तो ये सब किसने बनाया ? कॉल गर्ल की बात करते हैं आप. 'कॉल गर्ल' इस शब्द जो देख लें आप, यह शब्द युग में है. कॉल गर्ल ! कौन कॉल करता है. तब न गर्ल जाती है कॉल मत करिए आप तब देखें कौन गर्ल जाएगी आपके पास क्या वो वहाँ जायेगी जंगल में. आप बताईए बिना कॉल के कहाँ जाएँगी कैसे जाएँगी? आप तय करते हैं कि एक शॉर्ट टर्म में कब कहाँ कितने समय के लिए आना है. बावज़ूद ये होटल है, ये दलाल है जो कॉन्टेक्ट करेगी वो आएगी और इतना पैसा तय होगा ये सारा आपकी जेब तय करती है. उसका तो एक मालिक होता है वो बताता है कि कहाँ जाना है. इसका इतना दाम.... इसका इतना.... तो कॉलगर्ल जो है वो तो आपके कॉल पे है. आप मत कॉल करिए उसको यदि चाहते हैं कि ये समाज सुधरे तो आप कॉल करना छोड़ दें. आप तो छोड़ते ही नहीं कुछ भी, नए नए रूपों में उसको ललचाते रहते हैं. बाज़ार है वो ललचा रहा है उसको तो वो भी सोच लेती एक दफ़े को यदि कभी तो स्त्री को पैसा नहीं मिला मगर मुझे मिल रहा है अगर मैं अपनी आजीविका खुद चला सकती हूँ तो मैं अपने शरीर को अपने तरीके से इस्तेमाल करूँगी. चार कॉल करेंगे तो मैं एक ही के पास जाऊँगी ये तो तय करेगी वो. आप उसको कुछ भी तय नहीं करने देते तो ये सेक्स से मुक्त होने का, आज़ाद होने का तरीका है, अपना निर्णय लेना लड़की भी समझेगी मुझे जाना है या नहीं. दूसरी बात - तुम यह भी कह सकते हो कि कॉल करने पर वो क्यों जाती है न जाए. तो एक जो घेरा आपने बना दिया कि वो यदि एक बार कॉल गर्ल हो गई तो हो ही गई. जैसे पुलिस वाली लड़कियाँ कहती थीं कि हमसे कोई भी शादी करने को तैयार नहीं. हम पुलिस में तो आ गए मैडम लेकिन चूँकि उस स्त्री पर कॉल गर्ल का तमगा लग गया लोग तो जान गए बात कहीं न कहीं से तो निकल ही जाएगी. मैंने कहा - तुम तो पुलिस में हो तुम दुल्हन दिखोगी कैसे ? सबेरे उठकर रायफ़ल उठाओगी, वर्दी पहनोगी, बूट चढ़ाओगी और चल दोगी. क्या करेगा पति. तो जो रूप आप बना लेती हैं चूँकि वैसा कोई फ़िक्स रूप है नहीं. वो कुछ भी हो जाए - पुलिस मैं हो तो आदमी है, सेना में हो तो आदमी है, दलाली में हो तो आदमी है, किसान है तो आदमी है. लेकिन स्त्री का - उसने कौन सा रूप धरा है उससे पता चल जाता है कि ये कॉलगर्ल है, ये वैश्या है, ये उसकी रखैल है, ये मौसी, मां या वगैरह वगैरह...... ये जो रूप और संबंध दोनों चीजों से आँका जाता है और उसी से उसका जो जीवन है उसी पर चलता है. इससे मुक्त होना बहुत मुश्किल है. बहुत मुश्किल.... यही जो यौन की मुक्ति है मैंने चाक में दे दिया. यह मेरी इच्छा है, कि एक आदमी जो टीचर है स्कूल मास्टर है. मैं मानती हूँ वो केवल मास्टर नहीं पूरा स्कूल है ख़ुद में. मैं नहीं चाहती यह ख़त्म हो जाए इसी से तो जो मेरा है वो सब कुछ तेरा है. चूँकि और मेरे पास कुछ भी नहीं है. घर है पति का, पति कहता है घर में मत लाना हमने ही इसको मारा कूटा है, ये मरने वाला है तो मेरे घर न लाना. तो जब उस पत्नी के पास कुछ है ही नहीं. न घर, न खेत, न कोई ठिकाना. ऐसा होता ही है अमूमन गाँव में या शहर मएं. फ़िर उसका रह ही क्या जाता है. यहाँ दो ही बातें होती हैं या तो उसकी हत्या कर देते हैं या फ़िर सब कुछ ऐसे ही चलता रहता है. लेकिन जैसे युद्ध में सिपाही घायल होता है और नर्स उसकी सेवा करती है. तो मैं अपना शरीर तुमको प्रस्तुत करती हूँ. मगर इससे तुम्हें थोड़ा भी आत्मविश्वास मिले, हाज़िर हूँ. या मैं कुछ तुम्हारे लिए ऐसा कर सकूँ कि तुम खुश हो सको. जैसे मैं अपने बच्चे को चाहती हूँ वैसे ही मैं तुम्हें चाहती हूँ. कि तुम ज़िंदा रहो नहीं तो इस गाँव के बच्चे सब चले जाएँगे फ़िर कभी लौट के नहीं आएँगे. जैसा आज गावों में हो रहा है.

ये सारी समस्याएँ थीं जिसके पीछे एक बड़े मक़्सद के साथ उसका शरीर आ गया. और फिर यहाँ हंगामा मचा. मैंने कहा तुम लोग उसका जो लक्ष्य है उसको नहीं देख रहे हो. उसमें कितनी चीजें हैं - राजनीति है जो ऐसे मुद्दों पर तन जाती है तुम खड़ी हो जाओ चुनाव में तब सुधरेंगी स्त्रियाँ. तुम तब जानोगी कुछ, तब वो चुनाव में मास्टर का साथ पा खड़ी होती है. तब सारी स्त्रियाँ उसके साथ होती हैं. तो मैं यह कह रही हूँ कि यह फ़ैसला तो हमको लेना है. जबकि ले रहा है हमारा पुरुष वर्ग. और क्या स्त्री इतनी अविवेकशील है ? एक बात इस मामले में पुरुष को बिल्कुल स्त्री की बुद्धि पर भरोषा नहीं होता है. ये जो भी करेगी गलत करेगी. वो सही फ़ैसला ले ही नहीं सकती. कहीं अपनी नौकरी का फैसला वो नहीं ले सकती. उसे पुरुष बताएँगे कि क्या करे क्या न करे? चाहे वो कितनी ही बड़ी लड़की क्यूँ न हो? और यह सिर्फ़ सोच नहीं है इस ए समाज ने बना रखा है. कि यदि इसने अपना फ़ैसला लिया तो वह निश्चित ही हमारी मर्यादा के ख़िलाफ़ होगा. तो जो उनका झण्डा है उनका, हमारे समाज का, वो स्त्री की पीठ में गड़ा हुआ है. सारा दारोमदार उसी के ऊपर है. वही इज़्जत बनाती है, वही इज्ज़त बिगाड़ती है. पुरुष का कोई ऐसा चक्कर है ही नहीं. तो गाँव की भाष में जो कहते हैं कि ' बारी का भंवरा है' जो बगिया में घूमेगा या कहें कि चाहे जितनी गलियाँ नाक जाए तो क्या है. आदमी है तो उसके लिए कोई लांछन नहीं है. यही सारा कुछ है जिसकी बहू बेटी अच्छी उसका सब कुछ अच्छा. कहते हैं कि 'बेटी नाक निकाले कि रोटी'. तू ही है दोनों घर की साधना. मायके की इज़्जत भी तू ही बनायेगी और ससुराल की भी. अब तुम ही बताओ इतना भार लेकर औरत क्या करे ? वो कुछ कर ही नहीं सकती. इसलिए कि वो सब तरफ़ से बँधी होती है. तो इसलिए मैं कहती हूँ कि फ़ैसले हमको लेने होंगे. ठीक है विरोध होंगे. तो विरोध होते ही हैं हर चीज के, जब भी आप अपना हक़ माँगेंगे तो विरोध होंगे ही. कौन दे देगा ? वो तो आपको छिन कर ही लेना होगा. तो मैं अपनी किताब के आधार पर ही कह रही हूँ तक़रीबन ग्यारह साल पहले ही इतनी गालियाँ मिलीं. कि मैं बता नहीं सकती. पति ने कहा कि दिखाओ न क्या लिख दिया. मैं डर के मारे दिखा नहीं पा रही थी. कि जाने क्या करेंगे. तो जब उन्होंने जब उसे पड़ा तो बहुत गुस्सा भी हुए फ़िर मैंने सोचा कि भाग जाऊँ यहाँ से, चुपचाप घर छोड़कर. वही चाक किसी भी स्त्री से पूछो, लड़की से पूछो कि कौन सा उपन्यास मैत्रेयी का अच्छा है तो वह कहती है ' चाक'. एक शोध छात्रा ने चाक पर कार्य करने से इसलिए इंकार किया कि उससे उसकी सगाई टूट जाएगी. तब मैंने उससे कहा कि तुम उस लड़के को भी लेकर आओ. और फ़िर मैंने दोनों से बातचीत खुलकर की. फ़िर वह समस्या भी हल हो गई. किसी स्त्री से पूछो कि चाक आखिर इतना मान्य उसके जीवन में क्यूँ हो गया ? जबकि पुरुषों में इसके ख़िलाफ़ काफ़ी गुस्सा है. तो इस तरह की बात आयेगी मेरा कहना है कि हम भी मनुष्य हैं. मनुष्य वाले हक़ तो हमें दे दो कि जानवर ही करके छोड़ दिया. तो जब तक सेक्स के भी अपने फ़ैसले नहीं होंगे तब तक बरगलाना, आरोप प्रत्यारोप होते रहेंगे. यह एक विवशता है मज़बूरी है. और लड़कियों को आसान सा तरीका दिखता है वही है. ये भी धीरे धीरे जैसे समझदारी आयेगी ख़त्म होगा. क्योंकि वैश्या भी जो पुरुष बना लेता था पहले अब वह नहीं है. लेकिन मैं इसमें एक बात और जोड़ूँ कि वह क्यूँ नहीं है वैश्या ? वो इसलिए नहीं है कि स्त्री को गर्भ निरोधकों ने बहुत सतर्क किया है. पहले तो प्रेगनेंट हो जाती थी फिर बदनाम हो जाती थी क्योंकि आगे आता गर्भ किसी से छुपता नहीं है. अब तो गर्भ रहने की संभावना हि नहीं है. यदि आप असावधानी न बरतें तो कोई बात नहीं. मैं कहती हूँ कि स्त्री को गर्भ निरोधकों ने आज़ादी दी है. एक बात. दूसरी बात यदि हम एक छोटे से उदाहरण पर आयें जैसे रसोई गैस है कुकर, टेकनीक ने बहुत हद तक आज़ादी दी है. और जिसे बाज़ार में जोड़ते हैं तो बाज़ार ने इतना बुरा भी नहीं किया है. कि वो ज़रूरत का घरेलू सामान ला तो सकती है. लोग कहते हैं उसे बाज़ार क्यों कहती हो वो टेकनीक है. मैं कहती हूँ कि वो टेकनीक उसे यहाँ दे जायेगी ? घेरा तो बाज़ार ही देगा न ? एक मोबाईल फोन उसने भी स्त्री को आज़ादी दी है. अब मैं गांव जाती हूँ तो बहुएँ कान में मोबाईल लगाए, घूँघट डाले बात करती हैं. मैंने कहा ये क्या कर रही हो ? तो वो बोली बात कर रहे हैं जेठ से. मैंने कहा जेठ से तुम आमने सामने बात करती नहीं हो वो बोली कि फ़ोन पर ही तो बात कर रहे हैं वैसे थोड़े ही न बात करते हैं. मैंने पूछा ये मोबाईल कहाँ से लाई हो ? वो बोली मायके से. और मायके जब भी गयी तो बोली कि "दद्दा चाहे चार साल न दिवईयो साड़ी, एक मोबाईल ला दो बस." तो उसकी ज़ुबान खोली. पहले कि पति ने खूब मारा पीटा, मोबाईल जब नहीं था तो वो पढ़ी हुई थोड़ा भी, तो चिट्ठी लिखे फ़िर चुपके से छोड़ने जाए फ़िर जाने कब वो चिट्ठी पहुंचे. संदेशे का फ़िर जवाब आए ! हमारे ज़माने मैं अगर हम प्रेम पत्र लिखें तो पकड़े जाते थे और उसकी बड़ी भारी सज़ा मिलती थी और सज़ा के रूप में घरवाले कहते थे इसकी शादी कर दो जल्दी, वरना बदनामी हो जाएगी. जैसे ही प्रेम पत्र बाप पकड़े वैसे ही वो लड़का देखने चल देता था. अब ये नहीं है मोबाईल नहीं है और सबूत मिटा दिया. अब कोई कैसे स्त्री को कैसे प्रेम करने से रोक पाएगा. स्त्री को ? तो ये चीज़ें हैं जिसने स्त्री को आज़ादी दी और उसकी पूरी शारीरिक बनावट और मानसिक जकड़न से बाहर निकाला

अनिल पु. कवीन्द्र: इस दौर मैं लैंगिक चेतना और वर्गीय चेतना में कौन ज़्यादा स्त्री लेखन पर हावी है ?

मैत्रेयी पुष्पा: मैंने जैसा पहले ही बताया कि लैंगिक ही ऊपर है. क्योंकि हर स्त्री स्त्री है. हर औरत औरत. तो अपने अपने तरीके से सब अलग अलग तो हैं. और सबकी स्वतंत्रता अपनी अपनी से बाधित होती है. मगर होती तो है. हर एक को घरेलू हिंसा का सामना करना तो पड़ता तो है वो चाहे मानसिक हो चाहे शारीरिक. मैं मानती हूँ कि जब दलितों की बात उठती है तो वो कहती हैं कि उनका शोषण दोहरा तेहरा है. उसका संघर्ष दोहरा चौहरा है. मानती हूँ क्योंकि अभाव हर जगह है. लेकिन जो हावी होने की बात है वो तो सब स्त्री को ही ले के होते हैं. मतलब स्त्री को ले के ही मुद्दे उठते हैं. ये नहीं कि यह मज़दूर स्त्री के संघर्ष का मुद्दा उठ रहा है. तो ज्यादा बड़े हैं या उस स्त्री के उठ रहे हैं. तो वह छोटा है, ठीक है उसे रोटी मिलती है तो उसे उसकी कीमत देनी पड़ती है. वो कमा के लाती है तो वो बोल भी सकती है. मजदूर स्त्रियाँ कहीं भी चुप तो नहीं रह सकती न. वो दबती भी नहीं हैं. लेकिन यहाँ तो जो दबने का मामला है न वो कहते हैं न कि स्प्रिंग को जितनी ज़ोर से दबाओ वो उतनी ज़ोर से उछलेगी. तो वो जो दबाव है, दबाव किसपे कहाँ ज़्यादा है. वो उसी जगह से ही होकर उछलता है. बहुत पीड़ा के साथ उछलता है. मेरे कहने का मतलब यही है कि लैंगिक एक बहुत बड़ा कारण है. मुद्दा है. लैंगिक आधार पर हम बहुत बड़ा डिस्कोर्स खड़ा कर सकते हैं. और वर्गीय तो स्त्री के मामले में थोड़ा होता है. क्योंकि गरीब स्त्री जो है क्या उसका पुरुष उसको छोड़ देता है ? उतना ही प्रताड़ित करता है. वो दूसरी बात है कि पलटवार वो करे. कई बार वो नहीं करती तो शालीनता भी बहुत बड़ी सज़ा है. अभाव होते हैं लेकिन स्त्रियाँ विरोध कर सकती हैं. तुरंत छोड़ सकती हैं उसे. और दूसरे मर्द के साथ निबाह कर सकती हैं. यहाँ इतनी जल्दी में सब नहीं होता, यहाँ करीब करीब आधा पौना जीवन खप जाता है. लेकिन जब लांछन पड़ता है तो वो कहीं से कमजोर होती है. चूँकि हम सेक्स के आधार पर स्त्री को कमजोर कर दिया जाता है ये मान्यता बनी हुई है. इस संसार के जिस दिन उसका पीछा छूट जाएगा उस दिन वो शक्तिशाली हो जाएगी.

अनिल पु. कवीन्द्र: हिंदी के किस पुरुष लेखक के स्त्रीवादी विमर्श ने आपको सर्वाधिक प्रभावित किया ?

मैत्रेयी पुष्पा: राजेंद्र यादव ने जो कहानियाँ लिखी हैं, उपन्यास लिखे हैं उसमें जो कुछ भी है वो कहीं कहीं पे मिल जाएगा. लेकिन जो वह संपादकीय लिखते हैं उन्होंने सबसे ज्यादा मुझे प्रभावित किया उसकी एक किताब है - " आदमी की निगाह में औरत" वो तो जैसे मेरी गीता हो गयी. मैंने इतनी बार पढ़ा है उसे, हम ये सारी बातें जो उसमें हैं जानते थे लिखना भी चाहते थे लेकिन ये तब लगा जब पढ़ा कि हाँ इसे भी कहा जा सकता है. एक कवि हैं बहुत महान नहीं कह सकते उससे बड़े बड़े तथाकथित कवि हैं पवन किरण वो स्त्री के लिए जो कविता जो लिखता है वो मुझे लगता है कि स्त्री ही लिख सकती थी. अकसर जब भी मैं अपना कुछ लिखती हूँ तो उसकी पंक्तियाँ जगह जगह पर कोड करती हूँ बाकी तो ठीक है. पवन किरण का नाम जो लिया उसकी हँसी भी उड़ाई जाती है. कि तुम तो औरतों पर ही कविताएँ लिखते हो. इन दो लोगों ने सबसे ज्यादा मुझे प्रभावित किया. एक बार मैंने मधुसूदन आनंद को शुक्रिया अदा किया क्योंकि उनकी एक कविता थी, मैं एक ही कविता की बात कर रही हूँ कि उन्होंने लिखा - " मैं वह अपराध फ़िर करूँगा, बार बार करूँगा कि तुम कुछ बनाओगी, और उसमें नुख्श निकालके थाली फ़ेंक दूँगा. क्योंकि ऐसी मेरी आदत है..... कुछ कुछ इसी तरह का भाव था. तो मैंने उनसे कहा - कि हमारे अंदर जो घुमड़न थी वो आपको कैसे पता चल गई. क्योंकि ये तो बीता है हम लोगों पर. पति ने तो थाली भले ही फ़ेंक दी लेकिन ये नहीं सोचा कि क्या बीत रही होगी स्त्री पर ? वो थालियाँ हमारे सीने में झनझनाती हैं. थाली फ़ेंकी जाती है और हमारा खूँ सूख जाता है. तो ऐसे ही किसी किसी कि पंक्ति मुझे छू जाती है. विष्णु नगर कि एक कविता थी - "मैं सोचता हूँ कि मैं न बोलूँ लेकिन यहाँ स्थितियाँ ऐसी हैं कि चुप रहे तो गए. मैंने लिखा उन्हें कि ये पंक्तियाँ मैंने अमल की हैं अभी अभी. तो कभी कभी या निबन्ध की दो पंक्तियाँ ही आपको कितना असर कर जाती हैं आप चुप रहना भी चाहें तो चुप रहा नहीं जाता.

अनिल पु. कवीन्द्र: एक स्त्री की अस्मिता दूसरी स्त्री की अस्मिता से कैसे संबंधित है. यदि एक स्त्री अपनी स्वेच्छा से देह अनावृत्त कर रही है तो दूसरी स्त्री को कौन यह अधिकार देता है कि वह उसका विरोध करे?

मैत्रेयी पुष्पा: कोई नहीं देता ये पुरुष देते हैं अधिकार. अगर सदी की बात की जाए तो मैं साथ ही बात करूँगी बाज़ार की. ये जो विरोध करती हैं स्त्रियाँ जोकि हमारे भी विरुद्ध हैं. जबकि पुरुष कहीं न कहीं चुप रह जाते हैं. उसके अंदर करंट चलती हैं. बातें. लेकिन औरतें बोलकर या लिखकर कहेंगी सारी बातें. मैं उनको माफ़ करती हूँ क्योंकि जैसा तुम कह रहे हो वो देह अनावृत्त कर रही हैं वो कह रही हैं तुम स्त्री को अनावृत्त कर रही हो, उसके सेक्स को अनावृत्त कर रही हो उसकी इच्छाओं को अनावृत्त कर रही हो, तो मैं कहती हूँ इच्छाओं को कब तक तिजोरी में बंद रखोगी. यही तो अब तक हुआ हम अपनी इच्छाओं अपने अपने सपनों को परदे में ही रखते रहे कि नहीं..... नहीं.... ये होगा तो हम बेशर्म कहलाएँगे. तो वो स्त्रियाँ ही विरोध करती हैं जिसका विकास पुरुष के अनुकूल हुआ है. उन्हें बताया गया कि हमसे ही तुम अच्छी मानी जओगी इससे तुम स्त्री मानी जाओगी इससे तुम देवी मानी आओगी क्योंकि मैं तो नहीं मानती कि देवी सती का कोई वज़ूद है तो उसी की खातिर कि हम ऐसे कहलाएँ. तुम ये बताओ कि तारीफ़ें किसे नहीं अच्छी लगतीं हम तो अपने दुश्मन हैं जो अपनी बदनामियों में जी रहे हैं. और उन लोगों के पैरोकार बहुत हैं जो इस तरह के विरोध की बात करते हैं. अनावृत्त का तो इतनी बात है कि तुम देखो अनावृत्त क्या होता है ? पहले उसकी परिभाषा - पहले जब हम लोगों का ज़माना था तो जो ब्रा है न ! वो कितनी मुश्किल से पैदा होती है उसको धोया जाए तो कहाँ सुखाई जाए वो ब्लाउज़ों के नीचे, वो साड़ी के नीचे. तो वो हमारी शर्म थी, वो हमारी लाज थी. आज आप देख रहे हैं बाज़ारों में खुलेआम ये टँगे हैं. और स्त्रियाँ खरीद रही हैं. हम तो शर्म के मारे जाते ही नहीं थे कि कैसे माँगेंगे. और आदमी बेंच रहे हैं खुले खजाने के ऊपर सब कुछ हो रहा है, नैपकीन बिक रही है. पहले तो लगता था कि लड़की बड़ी हो गयी तो अपराध हो गया क्या ? ये बातें थीं. तो ये अनावरण होता आया जिसमें बाज़ार ने यह भी सिखाया कि यह पर्दे की चीज़ें नहीं हैं. क्योंकि वह आदमी के लिए पर्दे की नहीं है हालाँकि वो अपने लाभ के लिए बेंच रहा है लेकिन स्त्री समझ गयी है कि यह पर्दे की चीजें नहीं हैं फ़िर क्यों हमने इतने दिन इतनी परेशानियाँ भोगीं. ये सच कह रही हूँ कि एक औरत ही बता सकती है कि उसे कितनी दिक़्क़तें आयी हैं. लड़का बड़ा होता है तो सर उठा कर चलता है. सीना तानकर. लड़की बड़ी हुई कि वो झुकती ही चली जाती है. कि सिर ज़मीन में धँसाए. दुपट्टा ओढ़े, बदन ढके तो जो ईश्वर ने दिया है उसे छिपाना हमारी मजबूरी है. ये सब हमने किया और आप उसी को देखकर रीझते हैं कमाल तो देखो जिसको आप कहते हैं कि एक दाग न दिख जाए उसी से प्रजनन होता है, अब जानते हैं सब तो उसको क्या छिपाना ? लड़की कैसे सायकिल चलाती हैं उन दिनों, कैसे परेड करती है, पुलिस में महिलाएँ. मैं तो अच्छा मानती हूँ कि ये अनावृत्त करने का तरीका आया और यहाँ इतने पर्दों में ढकी हुई थी वो. अगर साड़ी पहन रही है वो, ऊपर से घूँघट और चद्दर ओढ़ रही थी वो. हमारे ज़माने में चोटी खुल जाना ही कई बार कहर बरपा देता था. तो जो अनावरण आया हम पहले यह देखें कि हम अनावृत्त क्या कर रहे हैं ? जब हमारे घरों में मर्द कहते हैं कि क्या अश्लील दुश्प्रचार किया जा रहा है. स्त्रियों की देह को. तो मैं कहती हूँ कि ज़ीनत अमान और कई अभिनेत्रियों से ज़्यादा खुलकर तो आज भी कुछ नहीं आया. और आपको सिर्फ़ लगता है ऐसा अनावरण हो रहा है. जबकि यह तो हमारे ज़माने में भी था. जितना आज है. स्त्री के पास क्या ऐसा ज़्यादा है सिवाय स्तनों के. और तो सब आदमी के पास भी है उसे भी तो उन अंगों को छिपाना है. और उसको जो अनावृत्त करने वाली बात कह रहे हो उसी को कलाकर का करिश्मा माना जा रहा है. तो भाई मेरे जो घूँघत में रहती है उनसे क्यों करते हो? तो दूसरी स्त्री टोकती है क्योंकि अभी भी दादा दादी वाली मर्यादा उस पर बनी हुई है. उनमें दादी, नानी हैं छिपी हुई. जो टोक रही हैं. लड़की को भी पता है कि हमें कितना खुलना है पर कितना नहीं. वह जो छोटी ड्रेस में आती है लड़की सबको अच्छी लगती है. उसकी कीमत लगाई जाती उसका दाम लगाया जाता है. जैसे अच्छी पेंटिंग सबको अच्छी लगती है उसे यह बात भाती है कि वह सुन्दर है इसीलिए उसकी अच्छी कीमत बाज़ार उसे या मर्द दे रहा है. मैं एक अच्छी किताब लिखूँगी तो अच्छे पैसे मुझे ही तो मिलेंगे. क्यों? जो मैंने लिखीं जैसा लोग कहते है. वही ज़्यादा क्यों बिकी. प्रकाशक इतने खुश रहते हैं कि क्या बताऊँ लेकिन समाज में कौन सा बुरा असर कर रही हैं ये पुस्तकें.

© 2009 Maitreyi Pushpa; Licensee Argalaa Magazine.

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