इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका
आसिया जब अलमस्त सी मुलायम बिस्तर पर करवट बदल, कुहनी के बल उठी तो उसे महसूस हुआ जैसे सारी दुनिया ही बदल गयी हो और उसके अंदर एक नई औरत ने जन्म लिया हो, जो हर तरह से भरी पूरी मुतमैन है. उसने दूसरी तरफ़ से झुककर अपने लंबे बालों को उसके औंधे पड़े सीने के नीचे से धीरे से खींचा और बिस्तर से उतरी.
आहिस्ता - आहिस्ता क़दम उठाती हुई आगे बढ़ी, लगा जैसे बदन के सारे ......
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'जिसको कह दे नब्ज़ ऐसी मेरी बीमारी नहीं'
प्यारी आसिया,
सलाम,
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"बुधवीर" यानी "बुद्धू" - हाथ में नोटिस लिए, बीच-बीच में उस पर आँखे गड़ाता, कुछ बुदबुदाता, तेजी से डग भरता हुआ "साइंस फैकल्टी" की तरफ लपका चला जा रहा था. दस मिनट बाद वह उसी चाल से लम्बे-लम्बे डग भरता "कला संकाय" में आ पहुँचा. कॉरीडोर में खड़ी मिसेज वर्मा ने उससे पूछ ही लिया - "अभी तो तुम साइंस फैकल्टी की ओर गए थे-इतने में यहाँ भी आ गए! ऐसी क्या ज़रूरी सूचना घुमा रहे हो, बुद्धू?"
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