इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका
खुशफ़हमी है कि बची है थोड़ी शर्म
आड़े वक़्तों कहीं से निकलकर आएगी
जिसे सत्ताओं कर्णधारों ने लगातार अनुपयोगी पाया है
ढूँढ़ेंगी वही कोई न्याय
जो हमारी रक्षा करेगा
कोई क्रोध जो जलाएगा जीर्ण शीर्ण ......
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मैं साईमन न्याय के कटघरे में खड़ा हूँ
प्रकृति और मनुष्य मेरी गवाही दें
मैं वहाँ से बोल रहा हूँ जहाँ
मोहनजोदड़ो के तालाब की आख़िरी सीढ़ी है
जिस पर एक औरत की जली हुई लाश पड़ी है
और तालाब में इंसानों की हड्डियाँ बिखरी पड़ी हैं ......
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'वो कविता, कविता नहीं जिसमें मानवता की पीड़ा नहीं', ये मेरा मानना है लेकिन इस मान्यता पर मैं ख़ुद भी क़ायम नहीं हूँ मेरी कविताएँ भी व्यक्तिगत पीड़ा रोमांस और भी कई चीज़ें पर आधारित होती हैं. एक वामपंथी होने की वज़ह से सभ्यता और समाज के ख़िलाफ़ जो होता है, उसी को देखकर अपनी प्रतिक्रिया को अपने जज़्बातों को शब्दों के द्वारा कविता के रूप में लोगों के सामने रखना चाहता हूँ जज़्बातों के उद्गार की, उद्गम की प्रेरणा ......
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बिना बताये चला आता है
बीच का यह अंतराल,
अँगुलियों से चुक गए शब्द
आंखों से गुम चाँद की कसक,
सपनों की नींद से
वही पुरानी खटर-पटर ......
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रात के गहरे अंधकार को चीरकर
समुद्र की लहरों से निकल रहा है एक घोड़ा
घोड़े के इंतज़ार में
समुद्र के किनारे खड़ा है एक सिरफ़िरा सवार
हाथों में थामे लगाम और रक़ाब ......
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सौंप दी है तुम्हें
अपने सपनों की धरती
अपने सपनों का आकाश
अब बो ओ तुम बीज
भरो तुम रंग ......
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वही
मंज़र
बंज़र
कँटीला जंगल
और
वही तपन झुलसन ......
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समंदर की जैसे चादर सी बिछी हो इस ज़मीं पे
हज़ारों राज़ छिपाये अपनी गहरायी में,
मानो कह रहा हो कुछ आसमाँ से,
कि ऐ नीले आसमाँ, मुझे भी अपनी तरह ख़ुदा का आशियाँ बना,
दिल जलता है उस अब्र को देखकर,
जिससे तेरा ता-उम्र का दोस्ताना है! ......
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आओ चल पड़े हम अज़नबी राहों पर
न तुम ' तुम ' रहो न मैं ' मैं ' रहूँ
ख़ामोश सागर की लहरों के संग खो जाएँ
न तुम कोई शिकवा करना न मैं कोई शिकायत करूँगी
हमारी ख़ामोशी में ही डूबने दो इन लहरों की पुकार
न तुम माझी बनना न मैं साहिल बनूँगी ......
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अक्सर तेरा साया
एक अनजानी धुंध से चुपचाप चला आता है
और मेरी मन की चादर में सलवटें बना जाता है
मेरे हाथ, मेरे दिल की तरह
काँपते हैं, जब मैं ......
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