इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका
(26 अक्टूबर 2008 को मुंबई में हुए आतंकवादी हमलों के संदर्भ में)
मैं इसलिए बचा हूँ
क्योंकि मैं घर में बैठा हूँ.
यदि मैं भी वहाँ होता गेटवे या ताज पर तो
आप सब मेरा भी शोक मना रहे होते.
मैं इसलिए बचा हूँ क्योंकि मैं
वहाँ नरीमन हाउस में नहीं था
ओबरॉय में नहीं था
सीएसटी पर नहीं था
जहाँ गोलियाँ चल रही थीं.
जहाँ बम फट रहे थे
जहाँ मौत का माहौल था.
मैं सच में केवल इसलिए बचा हूँ क्योंकि
मैं छिप-छिप कर
बच-बच कर रह रहा हूँ
मैं बच-बच कर जीने का अभ्यासी हो गया हूँ.
जब से पैदा हुआ यही सिखाया गया
कि बच के रहना
उधर नहीं जाना, उससे नहीं लड़ना
उसकी बात का बुरा न मानना
उसे उत्तर न देना
उसकी सह सुन लेना.
कहीं आग लगी है तो तुम्हारा क्या
कहीं कोई मारा जा रहा है तो उस से क्या
अपने काम से काम रखो
सावधान रहो घर में रहो
अपना ध्यान रखो
और मैं अपना देख रहा हूँ
सावधान हूँ घर में हूँ
अपना ध्यान रख रहा हूँ
किसी से नहीं लड़ रहा हूँ
बच कर रह रहा हूँ
इसीलिए अब तक
बचा हूँ.
यदि मैं भी वहाँ होता गेटवे या ताज पर तो
आप सब मेरा भी शोक मना रहे होते.
(अपनी बेटी भानी के लिए)
जब घर से निकला था
खेल रही थी पानी से,
मुझे देख कर मुस्काई
हाथ हिलाया बेध्यानी से.
रात गए जब घर लौटा तो
सोता पाया.
हो सकता है जगे जान कर
मुझको आया.
दिन में बात हुई थी
बहुत कुछ लाना था
सोते से जगा कर
सब कुछ दिखलाना था.
किंतु न लाया कुछ भी
सोचा ले दूँगा,
बातें रोज-रोज की हैं कुछ भी
समझा दूँगा.
अभी जगी है पूछ रही है
आए पापा,
जो जो मैंने मँगवाया था
लाए पापा.
लेकर निकला हूँ कंधे पर
बैठा कर
दिलवाना ही होगा मन चाहा सब
दुकान पर ले जाकर.
यह हरज़ाना है
भरना ही होगा,
बिटिया जो भी कहे
करना ही होगा.
दिन भर खट कर सो रही है
बाल बिखरे हैं
चूड़ियाँ तितर-बितर हैं
हथेली पर बासन मलने का निशान है
कुहनी पर लगा थोड़ा पिसान है,
नाखूनों पर कोई रंग नहीं है
पैरों में पड़ रही हैं बिवाइयाँ
माथे की बिंदी खिसक कर
बगल हो गई है
सिंदूर
ऐसा लगता है
कुछ सोचते-सोचते सो गई है.
कुछ साल पहले
ऐसा न था
यही अंगुलियाँ होती थी कैसी
मूँगे की टहनी जैसी
यही ललाट था स्वर्ण पट्टिका सा जगमगाता
यही करतल थे पद्म से सजे-धजे
यही चरणतल थे पल्लव से रक्तिम
यही नाखून थे दीप माला से कुंदन से
दिप-दिप करते
यही केश थे मह-मह लहराते नागफनी से
कुछ साल पहले.
घर सँवारने में उलझ गई है ऐसे
कि अपने को सजाने का
ध्यान ही नहीं रह गया है
बदल गई है घर बसा कर इसकी दुनिया
सोई है खट कर दिन भर.
कल संझा की बात है
ऐसी ही एक बात है
कुछ उलझन से भर कर
बैठा था बिल्डिंग की छत पर
कुछ सोच रहा था ऐसे ही
मेरे बगल की बिल्डिंग की
दूसरे तल्ले की एक खिड़की
खुली हुई थी थोड़ी सी
जूड़ा बाँधे एक लड़की
तलती थी कुछ चूल्हे पर
तलती थी कुछ गाती थी
गाती थी कुछ तलती थी
तभी पीछे से आकर
उसको बाहों में भर कर
बोला उससे कुछ सहचर
पकड़-धकड़ में खुला जूड़ा
हाथ बढ़ा बुझा चूल्हा
चले गए दोनों भीतर
बैठा रहा मैं छत पर
कल संझा की बात है
ऐसी ही एक बात है.
© 2009 Bodhisattva; Licensee Argalaa Magazine.
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नाम: बोधिसत्व
उम्र: 56 वर्ष
जन्म स्थान: भदोही जिले के एक गाँव भिखारी रामपुर (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा: सारी उच्च शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से
संप्रति: फिलहाल मुंबई में रहते हैं और सिनेमा और सीरियल के लिए लिखते हैं
कवितायें: अब तक तीन कविता संग्रह प्रकाशित है जिना पर कुछ सम्मान और पुरस्कार भी मिले हैं. दो कविताएँ मास्को विश्वविद्यालय के एम. ए. पाठ्यक्रम में भी शामिल हैं.
कहानियाँ: कुछ कहानियाँ लिखी हैं जिनमें से एक प्रकाशित है.