इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका
मैं जब भी नज़्म लिखने के लिए काग़ज़ उठाती हूँ
सोचती हूँ कि गीले वरक़ पे लिखूँ कैसे?
न कल ही थी न मेरी आज ही निस्बत जिससे
मैं साथ उस ज़माने के भला दिखूँ कैसे?
मैं कैसे मान लूँ कि दुनिया बहुत छोटी है
मेरे क़दमों के नापे से ये क्यूँ नपती नहीं है?
ग़लत सब झूठ सूरज का हर एक शै को तपा देना
ज़मीं ये क्यूँ मेरे दिल की तरह तपती नहीं है?
इल्म कब था मुझे कि ज़िंदगी यूँ पेश आएगी
इल्म होता तो कुछ और ही होता फ़साना
सीख लेती मैं भी अंदाज़ ज़माने वाले
जो ये कहते हैं कि मुमकिन है कुछ भी भूल जाना.
कितना मुश्किल है ख़्वाहिशों के घने जंगल से
किसी ख़्वाहिश को बिना छुए यूँ ही गुज़र जाना
इस गुज़रने पे सितम ये कि दिल फिर लौटता है
उसी जंगल में जहाँ तय है घुट के मर जाना.
उसी जंगल की इक पगडंडी पे अब मैं खड़ी हूँ
मेरे क़दमों के निशाँ जिसपे सदियों तक रहेंगे
मैं बहुत चल चुकी अब ठहरती, लो ठहरती हूँ
किसे है फ़िक्र क्या होगा औ' लोग क्या कहेंगे.
गीले पन्नों पे लिखे हर्फ़ जब भी सूखते हैं
हज़ार बारिशों में फिर कभी धुलते नहीं हैं
कितनी होती है मानीख़ेज़ ख़ामशी उनकी
वो लब जो सिलके बस एक बार, फिर खुलते नहीं हैं.
धूप के दश्त जब देने लगें तुमको साया
और सैराब तुम होने लगो सराबों से
बस उसी मोड़ से मैं साथ हो लूँगी तुम्हारे
फेर के मुँह तो देखो, पुराने ख़्वाबों से
पुराने ख़्वाब कि जिनमें वही वही लड़की
लौट के बार बार, बार बार आती है,
वो मेरी हमशक्ल हमनाम जिसे तुम बताते हो
क़दो - काठी भी जिसकी मुझसे मेल खाती है.
बिखेरे बाल जो रहती है ठीक मेरी तरह
नाक की कील पे रह रह के जो झुँझलाती है
अभी साकित थी, चुप थी, ठहरी हुई झील सी
हज्र बन के लो अब उमड़ी सी चली आती है.
मचलना आधे टूटे चाँद पर समझ आया
साँस मेरी मगर उस लम्हा ठहर जाती है,
बरहना जिस्म पर लपेट कर अब चाँदनी
बारीक चुन्नटें वो रात भर बनाती है.
वुज़ूद को मेरे करके साहिल की रेत
खेलते खेलते जब वो कभी थक जाती है,
समंदर में बदल जाता हूँ मैं ख़ामशी से
औ' डाल्फ़िन सी वो बाहर नहीं फिर आती है'
तुम बताते हो और मैं सोचती रह जाती हूँ
कहाँ ये दश्ते - जुनूँ और क्या हालात मेरे,
वहाँ वो रतजगे तकसीम करती हमशक्ल मेरी
यहाँ नींदों के सिवा कुछ भी नहीं पास मेरे!
अभी तुम साथ हो उसके, उसी के साथ रहो
अभी उसका ज़माना है, उसी का वक़्त
साथ आओगे मेरे तो वही फिर बात ठहरेगी
वही बस एक मसला, बस वही एक शर्त
(कि) धूप में दश्त जब देने लगें तुमको साया
और सैराब तुम होने लगो सराबों से
बस उसी मोड़ से मैं साथ हो लूँगी तुम्हारे
फेर के मुँह तो देखो, पुराने ख़्वाबों से
वो ख़्वाब जिनमें वही - वही लड़की,
कमबख़्त लौट के बार - बार आती है.
मेरी हथेलियों में आजकल है क़ैद सूरज
शाम के आते - आते चाँद जकड़ लेती हूँ
कहाँ बिसात आसमान की, वो थामे मुझे
कभी कभार उसे मैं ही पकड़ लेती हूँ.
यहाँ - वहाँ कहाँ - कहाँ ना फैला आसमाँ ये
एक पल में मेरी मुट्ठी में यूँ बँध जाता है
होंठ नीले से पड़ जाते हैं कितने ही सितारों के
चाँद सूरज के माथे पे पसीना आता है.
मुहे उसकी बलंदी की कोई भी सोच नहीं
बहुत वो मेरे हौसलों से ख़ौफ़ खाता है
बात रह जाए उसकी, एक इसी फ़िक्र में
मारे दहशत के ख़ुद ज़मीं पे चला आता है.
वो जिन्हें 'रश्क' है मेरी भरी इन मुट्ठियों से
मेरी हथेलियों के ज़ख़्म भी देखें तो सही
ये चाँद और सूरज छोड़िए - जाने दीजे
इक 'शरारा' कोई दामन में समेटे तो सही.
सूराख पत्थर से आसमाँ में बनाने वालों
करोगे क्या जो संगो - आसमाँ में ठन जाए
और फिर ख़्वाम्ख़ाह एक लम्हें की ख़ता
उम्र भर के लिए जाँ का अज़ाब बन जाए
मेरी तो ख़ैर! हथेलियों में क़ैद है सूरज.
मैंने पहले ही कहा था ना तुम्हें याद है!!
ये प्योर ऊल का दामी नाज़ुक़ पुलोवर
पहन तो झट लिया है तुमने, मगर याद रहे
सख़्त सरदी हो तभी जिस्म से अपने लगाना
रोज़मर्राह इस्तेमाल से तुम बाज़ आना,
गिरा लेते हो सब्ज़ी दाल तुम अकसर हाँ कपड़ों पे
और धुलता नहीं कभू ये भूल मत जाना.
पहन के सोने से तो रुआँ उतर आता है.
देखना! पहने - पहने तुम इसे ना सो जाना.
जब गुज़र जाए ठंड करवा के ड्राईक्लीन इसे
घर के पेटी में कहीं भूल - भाल मत जाना
और ये भी नहीं कि इसको - उसको कहते फिरो
क़ायदे से इसे तुम ख़ुद ही धूप भी दिखाना.
पुरानी मसल है तुमने भी सुनी ही होगी
कपड़ा कहता है तू रख मुझको, मैं तुझको रखता हूँ'
ये सच अपनी जगह है ज़िद तुम्हारी एक तरफ़
'मेरे ठेंगे पे मैं दुनिया को कैसा दिखता हूँ'.
तभी ना ये पुलोवर रात दिन पहना किए तुम
पसारा मार कर बैठे कहीं भी सो लिया
औ' ज़रा मैल नज़र आई जो सोबर कलर पे
उठाई 'पीली बट्टी' और कस के धो लिया.
गुज़र गई जो सरदी तो ठूँस कर बकस में
चैन से बैठ गए इत्मिनान भर लाए
'बग़ैर धूप के जब सब वुलैन है साबितो सालिम
कैसे मुमकिन है कि इसी में कीड़ा लग जाए'
उतर गई ना रंगत उढड़ गए धागे
जगह - जगह से देखो ऊन छिजी जाती है
बजा कहना तुम्हारा फिर इसे बुन दूँ लेकिन
बोसीदा ऊन में गर्माइश कहाँ रह जाती है
ये कंडम हो गया, हटाओ फ़ेंक दो इसको.
© 2009 Seema Safaque; Licensee Argalaa Magazine.
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नाम: सीमा शफ़क़
जन्म स्थान: पंजाब (मलेर कोटला)
शिक्षा: एम. ए. ( अंग्रेज़ी )
प्रकाशित रचनायें: - कथादेश, हंस, पहल, वर्तमान साहित्य, कथाक्रम, बया, आजकल, नया ज्ञानोदय, शेष, वागर्थ आदि.
अभिरूचियाँ: आवारा जानवरों के प्रति विशेष प्रेम व बीमार हालत में उन जानवरों की सेवा करना.
संपर्क: द्वारा - आर - डी प्रसाद, एल - 17 फेज़ 3, शिवलोक कालोनी, समीप - रानीपुर मोड़, हरिद्वार - उत्तराँचल
आत्मकथ्य: ये लम्बी लम्बी कहानियाँ, तवील नज़्में, मज़्मून लिखने वाली मैं जब भी अपने मुत्तालिक आप कुछ कहना हो, चित्त हो जाती हूँ. दाँयें बाँयें करके टालती हूँ. सामने वाले को मासूमियत से और नफ़ीस सुफ़ैद झूठ बोल कर टहलाने की मेरी कोशिशें सौ में से अठानवें दफ़ा कमाल की कामयाब साबित होती हैं. पर जब कभी कोई एस्केप रूट नही बचता तो मेरी हालत मैं ही जानती हूँ. अपने बारे में या अपनी रचना प्रक्रिया या फिर अपने से मुतालिक कुछ भी लिखते मेरे सामने कमोबेश वही मुश्किल पेश आती है जो कभी ' शरत दा' के सामने आई थी जब उनसे किसी ने कहा कि" आप अपनी'आटोबायोग्राफी' क्यूँ नहीं लिखते ?" शरत दा का जवाब था" अगर जानता कि अपने बारे में लिखना होगा, अपने जीवन के बारे में लिखना होगा तो ज़िंदगी और ठब जीता जो जिया, वो शब्दो से बाहर है".
ज़िंदगी ऐसे लम्हात का लेखा जोखा है जिन्हें क़लम करना मेरे लिए मुमकिन नहीं. कहानियाँ, नज़्में भी उन्हीं लम्हों में हुई है. जो मेरी कहानियाँ पढ़ेगें नज़्में पढ़ेगें वो जिंदगी को भी पढ़ेगें उससे परे उससे अलग क्या कहना होता है दिन रात शब्दों से खेलती हूँ तब भी ईमान उसी लाओत्से पे है जो कहता है'शब्द असत्य है'.