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इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका

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संपादकीय

अनिल पु. कवीन्द्र

जुलाई 2009, संस्करण 1, अंक 3

इस अंक में हमारी ओर से जो प्रयास संभव हो सका उनमें प्रमुखता से हिंदी साहित्य को निरंतर लोक जीवन और बहुमूल्य जीवन दर्शन से जोड़ने वाले प्रतिष्ठित व श्रेष्ठ साहित्य कर्मियों को शामिल किया गया है, जिनमें कुँवर नारायण, नीलाभ अश्क और डॉ. किशोरी लाल जैसी बहुआयामी साहित्य सृजन करने वाली हस्तियाँ हैं. अगर हम बात करें कुँवर नारायण की तो बाक़ायदा एक कवि की हैसियत से उम्र के इस दौर में, उनके अनुभव, दृष्टि और ज्ञान संवेदना ने, 1956 से अब तक तकरीबन दो शताब्दी के बीच अपने ऐंद्रिक बोध को कितनी बार दुनियावी ताने-बाने से उलझते हुए पाया और सार्वकालिक तथा समसामयिक समस्याओं, कठिनाई, दुरुहताओं से संघर्ष किया, पीड़ा को अनुभूति के स्तर तक ले जा कर रचनात्मक हथियार बनाने की कला कुशलता ने उन्हें देश की सीमाओं का अतिक्रमण करने पर बाध्य किया. विश्वव्यापी मानवीय संपदाओं, मूल्यों को सिलसिलेवार नये सिरे से रोकने की सृजनशैली विकसित की.

महत्वपूर्ण बात यह है कि कुँवर नारायण की काव्य भाषा संवेदना के धरातल और अंदरूनी तहों, रबों, रक्त और शिराओं में इस कदर घुली है कि लोक जीवन की छवियाँ अनायास ही कविता की सहजता के साथ-साथ समूची भावना, अंतरंगता से संबंध बना लेती है और जिसके चलते वे सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक विषमताओं और विशिष्टताओं को बेहद सलीके से सुरक्षित और सपाट भोगे हुए जीवन के फंदों और अलंकरणों में खुद-ब-खुद पिरोते चले जाते हैं. जो कृति सृजन संपूर्णता में बुनावट लिए अपनी रौबीली छवि से सात्विक आकर्षण से लुभाती है, वही उनके सृजन का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष बनके उभरती है, जिसमें मानवीय चेतना, समाज संवेदना, सूक्ष्म प्रेम का अज्ञात रहस्योद्घाटन, दृष्टि को चुभने वाले जहरीले और कँटीले पहलू, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से लोकजीवन को जोड़कर देखने का सुख साफ़ तौर पर देखा जा सकता है. सृष्टि, ब्रह्मांड और जीव के बीच, शब्द और अर्थ के बीच, जो ध्वन्यात्मक तनाव और असीम लगाव है वो जैसे हवा में उनके साथ श्वास तंत्रिकाओं में जीने का तज़ुर्बा लिए उन्हें किसी महापंडित संगीतकार के सुरों में जीने की चसक के साथ-साथ गुँथा बँधा हुआ, उनकी पुतलियों की सरल पारदर्शी दीद में समाया हुआ है. और वो कविता में जीवन खोजने की सायस कोशिशें न करके जीवन को कविता में अनायास ही लिए चले जाते हैं. ये कविताएँ उनके कंठ, श्वास, दृष्टि और अनुभवपरत अनुभूतियों तथा बौद्धिक जगत का हिस्सा हैं, जो समूचे व्यक्तित्व और कृतित्व की जड़ों में उनकी ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञानात्मकता को रोपता, स्फुरित होता और नित नव कोंपल सा लहू के भीतर ही भीतर बहता है. जीने की नयी-नयी तरकीबें सुझाती हुई, जीवन का सार समझाती हुई, जीवन का सार्थक व्यापार करती हुई, रोज-बरोज मीलों या कहें कोसों दूर तक फैल जाने को उत्साहित करती हुई ये कविताएँ उनके अमूर्त संसार का मूर्त रूप है.

डॉ. किशोरी लाल रीतिकालीन काव्य के मर्मज्ञ, मीमांसक, आलोचक और विख्यात साहित्य सेवी हैं जिनकी रचनाधर्मिता सिर्फ इस बात से नापी जा सकती है कि इन्होंने रीतिकालीन काव्य जगत पर लगे तमाम आरोपों, विवादों, उलाहनाओं, फोरी किस्म की प्रतिक्रियाओं के विरुद्ध कविता के जटिल संश्लिष्ट कवच को हटा कर नवीन अर्थ और नये आयाम दिये. और इस बात की सार्थकता को पुष्ट किया कि रीति काव्य सिर्फ दरबारी अथवा कामुक परिचयों का मनोरंजक रसपूर्ण काव्य मात्र नहीं है बल्कि इससे इतर वह समाज की उस छवि को बखूबी अंकित किए है जिसमें रूढ़ि आडंबर कर्मकांड और राजसिक व तामसिक प्रवृत्तियों का दिग्दर्शन है जो उस काल परिवेश समय का अटूट हिस्सा थीं. उन्हें तमाम कवियों ने अपने श्रेष्ठतम प्रयास से तमाम अलंकरणों, छंदों की बोझिल लगने वाली किंतु वास्तविकता को संजीदगी के साथ तार्किक व्याख्या परक काव्य कौशल के जरिए अभिव्यंजनात्मक लक्षणों से परिपूरित किया है. हिंदी साहित्य के इतिहास का अनुवाद करने का जोखिम उठाते हुए आलोचक किशोरी लाल ने बिहारी घनानंद देव, केशवदास परमानंद आदि रीति कवियों को, बहुअर्थी, बहुआयामी साहित्यकारों को, श्रेष्ठ कोटि का वाहक बतौर आलोचक व्याख्यायित किया. इसके अतिरिक्त इनकी आलोचना का केंद्र बिंदु भक्तिकालीन कवि सूरदास पर गहन गंभीर और विशिष्ट अर्थ प्रदान करने वाले लोक जीवन के कवि के रूप में रहा है.

डॉ. किशोरी लाल ने नई कविता के समक्ष नई दुनिया अर्थात आधुनिक और यांत्रिकतापूर्ण भौतिक संसाधनों से युक्त भावना का उद्गार करने वालों पर तीखी टिप्पणियाँ भी व्यक्त की हैं. इन्होंने अपने साक्षात्कार के दौरान तमाम ऐसे पक्षों को उजागर किया जिनमें यथार्थबोध और रचना के अस्तित्व में बने रहने वाले बिंदुओं पर बेबाक ढंग से बयान बाजी या कि बहस मुबाहिसे को प्रखर रूप देने वाली कटु सत्यों की श्रृंखला उजागर की है. और इस बात का जिक्र किया कि वास्तव में कविता है क्या? उसका हमारे संवेदी तंत्रिकातंत्र और आधुनिक युग बोध के बीच कैसा रिश्ता है? क्योंकि कोई भी विचार जब एक मस्तिष्क का हिस्सा न रहकर समूचे कबीले, समूह, वर्ग, धर्म संप्रदाय से ऊपर उठकर एक समूचे युग का या कहें कि तमाम युगों का संचालन करता है तब उसी अर्थ में वह आधुनिक हो उठता है. अत: रीतिकाल पर दोषारोपण करने वाले साहित्यिक गुणार्थों को प्रखर रूप में प्रसारित करने वाले साहित्य कर्मियों से उनकी एक ओर सैद्धांतिक व व्यवहारिक मुठभेढ़ है, दूसरी ओर साहित्यिक मूल्यांकन की कसौटी को लेकर पूर्वाग्रहों के विरुद्ध तीखे तेवर साफतौर से देखे जा सकते हैं.

नीलाभ अश्क ऐसे चंद कवियों, अनुवादकों और साहित्यिक सृजन करने वाले सृजनकर्ताओं में से एक हैं जिन्हें आजीवन न तो पुरष्कारों का मोह था, न है और न रहेगा. हाँ वो मानते हैं कि लेखक की सबसे बड़ी सफलता का मूल्यांकन इस बात से किया जाना चाहिए कि उसके द्वारा रचे गये साहित्य का पठन पाठन करने वाले पाठक गण उनके प्रति कितने सहज हैं. और साहित्य का पूर्ण रसास्वादन करने वाले उस कवि की कृति सृजन के कितने करीब हैं, न कि इस बात से कि किस रचनाकार ने कितने सम्मान, पुरस्कार अपनी झोली में साहित्यिक माफियाओं की चाटुकारिता कर प्राप्त किए हैं जबकि उसके पाठकगण नदारद हों.

नीलाभ के स्वर जितने तीखे, वाणी में जितना गांभीर्य और भाषा में जितनी कठोरता है वह इस बात का परिचायक है कि वह समाज के उस तबके से खासा खफा हैं जो साहित्य को बपौती समझ कर, उसके मूल्यांकन की कसौटी सिर्फ और सिर्फ प्रतिष्ठित धरोहर में मिली पुश्तैनी जायदाद, या फिर खोखली वाहवाही से बटोरी गई प्रशंसात्मक विवेचनाओं को, इस कदर बटोर कर सहेजे हुए हैं, मानो वह प्रशंसा और रचना कर्म अपवाद ही सही, मगर सच्चे अर्थों में मेहनतकशों के लहू से न तो मेल खाती है न ही उनकी प्रतिपल की ताउम्र चलती आ रही परेशानियों से किसी भी तरह का संबंध बना पाती है.

नीलाभ में चुनौती देने की संवाद शैली, सृजन शक्ति और समस्याओं से जूझने की प्रवृत्ति और आम आदमी के भीतर झाँकने का जज्बा मौजूद है. भले ही उन्हें इसके चलते तमाम तरह की आलोचनाओं का सामना करना पड़ा. उन्हें इसकी कतई परवाह नहीं है. इस अंक में लिया गया साक्षात्कार नीलाभ को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिलने के पूर्व दिया गया था, जबकि अपनी तमाम प्रतिबद्धताओं, सिद्धांतों पर दृढ़ और तटस्थ रहने के एवज में उन्होंने अनुवाद के क्षेत्र में मिले साहित्यिक सम्मान को लेने से इंकार की बात की है.

इसके साथ ही जिन रचनाकारों को तीसरे अंक की इस सूची में शामिल किया गया है, उनमें से अधिकांश हिंदी सेवी, हिंदुस्तानी संस्कृति की बहुमूल्य धरोहर, सांस्कृतिक विरासत, 'देवनागरी लिपि' तथा सहज भाव से उत्प्रेरित होकर, विचार, कल्पना, भावना, विचारधारा को हिंदी भाषा में विश्वस्तरीय जनमानस तक पहुँचाने का लक्ष्य धारण किये हैं, और समग्र चिंतन धारा के प्रवाह को लोकहृदय में ले जाने की मंशा से भरे हैं. उनमें तत्व जगत से वस्तुजगत के बीच सृष्टि के प्रकारांतर से अध्यतन चले आ रहे दर्शन, मूल्य संस्कार, बौद्धिक और अग्रही मन में पनपे द्वंद्व प्रतिद्वंद्व के प्रति मोह है, राग है, घनिष्ठता है और कुठाराघात करती कुरीतियों के प्रति गहरा आक्रोश व्याप्त है, चाहे वह पुरातनता से नवीनता की ओर चली आ रही साहित्य धारा हो या लोक व्यवहार.

पाठकों की ज्ञानधारा की विभिन्न कोटियों में जीने वाली मानव समूहों की टोलियों से मेरा आग्रह है कि वे अपनी प्रतिक्रिया बेझिझक इस अंक तथा पिछले अंकों के लिए अवश्य भेजें ताकि उन्हें भी शब्दबद्धता के आवरण से ढककर सत्य का दुरूह मार्ग प्रशस्त करने में सहयोग मिल सके.

- अनिल पु. कवीन्द्र

© 2009 Anil P. Kaveendra; Licensee Argalaa Magazine.

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