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विमर्श

हिमांशु कुमार

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता की हिमांशु कुमार से बात-चीत

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: आप लंबे समय से जनता के बीच काम कर रहे हैं.. आन्दोलन, और जन-मुद्दों पर आप खूब सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं. मौजूदा समय में भारत में आप मूलतः क्या बुनियादी मुद्दे देखते हैं ?

हिमांशु कुमार: अमीर देशों के अमीरों द्वारा दुनिया के संसाधनों को मुनाफे के लिये हड़पने  का जो सिलसिला नब्बे के दशक में शुरू हुआ था वो अब एक खूनी दौर में प्रवेश कर चुका है. लोगों की बड़े उम्मीद से चुनी गई सरकार इन्ही कम्पनियों के लिये देश के गरीबों की जान पर हमला कर रही हैं. इसी बीच जो ताकतें समाज में बदलाव के लिये काम कर रही थीं उनमे अहिंसक लोगों को सरकारों ने लगभग बेअसर बना दिया. और हिंसक प्रतिरोध को तेज़ी से फैलने के लिये मौका मिला है. यही हमारे समय की सबसे बड़ी चुनौती है लोग अब जीने के लिये भी बंदूक उठायें. ऐसी आजादी की कल्पना नहीं थी.

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: हमारे देश में संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था है ..आप किस बदलाव की बात करते हैं ?

हिमांशु कुमार: इस समाज में एक बुनियादी गडबड है .....जो पूरी दुनिया में फ़ैली हुई है. और जिसके ठीक हुए बिना दुनिया में बैचैनी खत्म नहीं होगी .१-मेहनत करने वाला गरीबी में जीता है और आराम तलब मज़े में हैं.  २- दुनिया के उत्पादन के साधन पर हर व्यक्ति का प्रकृति प्रदत्त  समान हक है.....इसलिए ये दोनों गडबडी जब तक इंसानी समाज ठीक नहीं कर लेगा बेचैन रहेगा .....कोई भी संसदीय राजनैतिक प्रणाली इस बुनियादी बदलाव का दम नहीं रखती .क्योंकि इस संसदीय प्रणाली को चलाने वाली दमदार ताकतें वो हैं जो इन दोनों गडबडियों के कारण बड़ी बन गई हैं इसलिए ये ताकतें अपने ही अस्तित्व को मिटाने के किसी बदलाव को स्वीकार ही नही करेंगी. ये गडबडी को बदलने का मिशन सिर्फ नक्सलियों या कम्युनिस्टों का फितूर नही है ये तो गांधी, विनोबा, नानक सबकी कोशिश रही है.

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: गाँवों और जंगलों में होने वाले बड़े पैमाने के अधिग्रहण, विस्थापन जिनसे  जनता लाखों की संख्या में प्रभावित हो रही है, शहर के मध्य वर्ग में साधारणतः कोई हलचल पैदा नही करते .शहरी मध्य वर्ग को लगता है जैसे ये किसी दूसरे देश की बातें हैं.  शहर और जंगल-. के बीच ये अजनबीयत कैसे दूर होगी? और इस लड़ाई में शहरों की क्या भूमिका आप देखते हैं ?

हिमांशु कुमार: दोनों के हित अलग और एक दूसरे के विपरीत हैं. गाँव की लूट पर ही शहर जिंदा हैं. इसलिए ये उदासीनता घातक  होगी. शहरी मध्यम वर्ग न सिर्फ गाँव पर होने वाले हमले के समय चुप है बल्कि शहर उन हमलों में सहयोगी है. इसीलिये आदिवासियों के नर संहार में लगी फौजों की जय जयकार की जा रही है और ये लुटेरा वर्ग “शिक्षा और सभ्यता” के जाल में ग्रमीण और आदिवासी  युवा वर्ग को फँसाकर अपनी तरफ करता जा रहा है जबकि न ये शिक्षा है न सभ्यता.

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: शहर में हर तबके के लोग रह रहे हैं ... आपकी यह बात शहर को कटघरे में खड़ा कर देती है .बहुत छोटे स्तर शहरी बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा  आदिवासियों के दमन की निंदा भी की जाती रही है. शहर में भी बेरोजगारी भयावह है ..ऐसे में बदलाव की इस लड़ाई में  शहरी आबादी का आप क्या  सकारात्मक रोल देखते हैं ?

हिमांशु कुमार: गरीब शहर में मजबूर कर के लाया गया है. वह शहर का हिस्सा नहीं है. हम शहरी सामाजिक कर्यकर्ता असली लड़ाई नही लड़ते. क्योंकि हम पर असली हमला नहीं होता. न हमारी जमीन छीनी जाती है, न हमारा घर जलाया जाता है, न हमारी बर्बादी को अनदेखा किया जाता है. इसलिए हम न असली हमले का शिकार हैं न असली लड़ाई ही लड रहे हैं. हाँ ज्यादा से ज्यादा हम असली लड़ाई का वर्णन  कर सकते हैं. पर आग का वर्णन और आग में कुछ तो फर्क है न ? आग के बारे में पढ़ लेने से हाथ नहीं जलते.

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: इस समय दुनिया भर में लोकतांत्रिक जन-आन्दोलन चल रहे हैं.. मिस्र, सीरिया, अमेरिका-वाल स्ट्रीट, नाइंटी-नाइन वर्सेस वन परसेंट, भारत में अन्ना ... आप किस आन्दोलन को भारत की जनता के संघर्ष के करीब पाते हैं ?

हिमांशु कुमार: मैंने जैसा शुरू में कहा था. सारी दुनिया में हर इंसान रोटी, बराबरी और ज़िंदगी की सुरक्षा की स्थिति प्राप्त हो जाने तक लडेगा. मिस्र में भी भारत में भी. अलग अलग चल रही गांधी के वारिस विनोबा और नक्सली दोनों ही आश्चर्यजनक रूप से संसदीय प्रणाली को बुनियादी सामाजिक बदलाव के लिये अयोग्य मानते हैं. दोनों ने चुनावी राजनीति को समान रूप से खारिज किया था इन लड़ाइयों से लोग एक दूसरे से सीखेंगे ज़रूर पर लडेंगे खुद ही.

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: आप किस बुनियादी बदलाव की बात करते हैं, भारत में तो संसदीय लोकतंत्र को हर सवाल का हल माना जाता है भारत के सदर्भ में अगर बात करें तो लड़ाई के कौन दो खेमे हैं और कौन किस खेमे में है ..? क्या इसे स्पष्ट किया जा सकता है ?

हिमांशु कुमार: यथास्थिति में फायदे में रहने वाले एक खेमे में होंगे और जो इस सारी व्यवस्था में नुक्सान में होंगे वो दूसरे खेमे में. हांलाकि लोकतन्त्र होने के कारण ये खेमेबंदी देर में ही हो पायेगी.

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: भारत में तमाम आन्दोलनों जैसे नक्सलबाडी, तेलंगाना, जे.पी,आन्दोलन, सिंगूर, लालगढ़, दंतेवाडा के आन्दोलनों को बलपूर्वक दबा दिया गया. आप स्वयं गांधीवादी तरीके के संघर्ष में भरोसा करते है और आपके भी आश्रम उजाड दिए गए.. बी.डी .शर्मा (भारत जन आन्दोलन ) भी गांधीवादी तरीकों को मानने वाले नेता हैं, उन्हें भी कई कटु अनुभव हुए.. ऐसे में जनविरोधी ताकतों के खिलाफ आम आदमी का सबसे बड़ा हथियार क्या होगा ? और कौन सी रणनीति अख्तियार की जाए जिससे ऐसे हालात का मुकाबला किया जा सके.. ?

हिमांशु कुमार: लड़ाई के हथियार, तरीके और रणनीतियाँ लड़ते समय खुद ही बनती जाती हैं. लड़ाई से अलग बैठे बुद्धिजीवी उसके बारे में जो कहेंगे वो बेमतलब का होगा.

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: क्या आप मानते हैं गांधीवाद अब भी प्रासंगिक है ?

हिमांशु कुमार: अतीत का कोई भी हथियार वर्तमान में काम नहीं आता. न राम, न गांधी, न माओ, न मार्क्स.

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: क्या यह निहिलिस्ट अप्रोच है ?

हिमांशु कुमार: समझा नहीं.

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: An extreme form of skepticism that denies all existence. The belief that destruction of existing political or social institutions is necessary for future improvement. निहिलिस्ट का मतलब यही कहा जाता है..

हिमांशु कुमार: मेरी बात इस वाद की उपज नहीं है ...

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: माओवादियों के संघर्ष, जिनका लगातार भारी दमन हो रहा है, आप इसे किस रूप में देखते हैं?

हिमांशु कुमार: दमन तो हर आन्दोलन और विरोध का हो रहा है. ग्रामीणों, आदिवासियों के हर प्रतिरोध का खूनी दमन हो रहा है. लोग अपने अस्तित्व को बचाने के संघर्ष के स्वरूप का  खुद ही आविष्कार करेंगे. इसलिए गांधी किसी किसी गांधी की नकल नहीं थे

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: हमारे  स्वतंत्रता आन्दोलन में हर धारा, विचार के लोग शामिल थे.. इस आजादी को आप किस रूप में देखते हैं ?

हिमांशु कुमार: सत्ता का हस्तांतरण ही हुआ. आज़ाद भारत के निर्माण का काम हुआ ही नहीं. आजादी में वादा किये गये बराबरी को हम सिद्धान्त रूप में भी स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं समाज के हर व्यक्ति तक आज़ाद समाज का फायदा जब तक नहीं पहुंचेगा लोग लड़ते रहेंगे, ये प्राकृतिक है.

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: आप खुद को एक योद्धा मानते हैं ..और गांधीवादी भी. जो युवा  बुनियादी परिवर्तन के रास्ते को चुन रहे हैं.. संघर्ष में वरिष्ठ सहभागी होने के नाते आप अपने कुछ अनुभव उनसे साझा कीजिए जिससे नए लोग और परिपक्व निर्णय ले सकें और इस बुनियादी लड़ाई को और सार्थक तेजी दे सकें...

हिमांशु कुमार: दिमाग से पुराने महापुरुषों का बोझ उतार दो. समाज ही गुरु है. नम्र भाव से चीजों को देखते हुए समझ पैदा होगी और अपनी स्थिति में जिस तरह से सही बात के लिये काम किया जाना सम्भव हो करें.

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: क्या इस तरह अराजक स्थिति नही पैदा हो जायेगी . व्यक्ति और संगठन की क्या भूमिका होगी ? क्या व्यक्ति प्रधान होगा ?

हिमांशु कुमार: जी पूर्णत सही. संगठन विचार की हत्या है अगर संगठन में आप स्वतंत्र चिंतन करेंगे तो या तो संगठन टूट जाएगा. या आपको संगठन छोडना पडेगा संगठन अपने आप में हिंसा है.

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: पर व्यक्ति की क्षमताओं की सीमा होती है. संगठित और हिंसक पूंजीतंत्र से व्यक्तिगत स्तर  की लड़ाई क्या आत्मघाती और बे-नतीज़ा  नही होगी ? तब जन-आन्दोलन कैसे होंगे ? इस तरह तो जन-आन्दोलन , संगठित प्रतिरोध की ज़मीन ही खत्म हो जायेगी.

हिमांशु कुमार: समान हितों के लोग लड़ने के लिये एक साथ मिलेंगे यह स्वभाविक है. पूंजीवादी ताकतें भी सामान हित के लिये ही मिली हुई दीखती हैं. एक संगठन के रूप में संगठित नही हैं.

© 2012 Himanshu Kumar; Licensee Argalaa Magazine.

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