अर्गला

इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका

Language: English | हिन्दी | contact | site info | email

Search:

संपादकीय

अनिल पु. कवीन्द्र

अक्तूबर 2009, संस्करण 1, अंक 4

प्रिय पाठकों,

आपसे उम्मीद ही नहीं बल्कि यकीन है कि इस वर्ष के चौथे और अन्तिम संस्करण के लिए हुई देरी में आप हमसे नाराज नहीं होंगे. तमाम व्यस्तताओं और असुविधाओं के बावजूद आप हमारे प्रयास में हमेशा साथ हैं और हमारा साथ देंगे.

वक्त की साज़िशें मौसम की बदगुमानी
तुम्हारी आंखों हमारी साँसों में है
दुनिया बचाए रखने की ख्वाहिश
अपने मंसूबों की लगाम, हमारे हाथों में है.
हर हरकत पे नजर रखना, हर तीर निशाने पे है.
गुनाह जो भी हुए दाग जमाने पे है.

हिंदी की विकासधारा में ऐसे ठहराव गत्यावरोध तमाम पड़ाव सदैव आते रहे हैं. इन पड़ावों से गुजरकर कोई भी भाषा अपने सांस्कृतिक बदलावों, सामाजिक उन्मूलन उदात्त जीवन शैली से बहुत कुछ अपनाती है और निरंतर नये आयाम की ओर बढ़ती है. भाषा के विकास क्रम की इस प्रक्रिया में सर्जनात्मक विचार शैली सदा सहयोगी भूमिका अदा करते रहे हैं, करते रहेंगे.

इस अंक में रंगीन मिजाज, सूफ़ियाना अंदाज, संजीदगी के तमाम फलक अपने अनुभवों में सँजोये डॉ. कैलाश वाजपेयी की रचनाएँ शिखर के अंतर्गत दी गई हैं. जिंदगी की रूमानियत और ख्याल की आशनाई लफ़्जों की रवानगी, इनकी हर रचना में संगीत की जैसी धुनों में रची बसी है. हर रचना सत्य, प्रामाणिक, यथार्थ की बुनियादी उलझनों, परेशानियों, बेदखल किए गए इरादों से भरी है. आदमीयत की पहचान कराती ये रचनाएँ और वक़्त की नजाकत को बखूबी पेश करती सोपान सी काव्यात्मक कतारें कलात्मकता में एक समूची संस्कृति, जीवन शैली रची बसी है. ये कविताएँ गवाही नहीं देतीं, चुप्पी नहीं साधती, हमला भी नहीं करतीं, तंगहाली का मजाक नही बनाती, फरिश्ता होने का दावा नहीं करती, न फजीहत, न, न तालीम देती हैं बल्कि इंसानियत के सलीक़े में जीते इंसानी दस्तूरों का भरा पूरा दस्तावेज है. हर लफ़्ज के कतरे-कतरे से जी गई भोगी हुई वास्तविकता को बयान करती ध्वनि तरंगें सुदूर सनातन की यात्रा किए अद्यतन परंपरा की वाहक हैं. वहाँ न वतन है न वतनपरस्ती के हथियार बल्कि समूचे ब्रह्मांड, समूची सृष्टि के होने का स्वर गूँजता है. फ़ाकामस्ती, फ़िरकापरस्ती, हरफ़नमौला और फ़िरदौस अंदाज में रमी रचनाएँ कवि की कल्पना को साकार करती हैं.

इसी क्रम में प्रताप राव कदम की रचनाओं में काव्य संवेदना का स्तर इतना ऊँचा है कि छोटी सी घरेलू दुनिया से भी वे चीजें उठाकर गहरी और मर्माहत करने वाली कृति निर्मित करते हैं. जहाँ रोजमर्रा की गैर सहूलियत, नजरांदाज करने वाली व्यवहारिकता हमारे भीतर समायी है वहीं ' कदम ' की निष्ठा और दूरदर्शिता इन्हीं गैर जरूरी लगने वाली गर्म ठंडी वास्तविकताओं को कोरे कागज पर उतार उसे अर्थवत्ता प्रदान कर नये आयाम देती हैं. ' मृत्यु ' जैसे नृशंस विषय को ' कदम ' नये मुहाने पर लाकर उसकी पड़ताल करते हैं. ताकि उससे जीवन में कामयाबी के हौसले बुलंद हो सकें. कड़वाहट और उबाऊ लगने वाले पहर भी संवाद की मुद्रा में पसरे अपनी तमाम सूरतों में काव्य यात्रा का हिस्सा बनते हैं. और सुदूर फैले हुए यथार्थ धरातल पर टाँक देते हैं. नयी चेतना की नोंक धरे धारधार हथियार शब्दों में छिपाये, निशाना उस बिंदु पर होता है जहाँ इतिहास अब पुन: रचने की कगार पर खड़ा है. जबकि इतिहास, धर्म, ईश्वर से सीधी मुठभेड़ है इस कवि की.

गंगा प्रसाद विमल ने बुल्गारिया के महान युवा कवि लेवचेव की कविताओं का जो अनुवाद किया वो तमाम माय्नों में दिलचस्प और वतनपरस्त यादों से जुड़ी हुई हैं. इस अनुसृजन में यह बात भी निहित है कि रचनाकार की कोई भी एक निश्चित जमीन या बंदिशें नहीं होतीं, बजाय इसके कृतिकार सृष्टि की समूची भौतिक और प्राकृतिक घटनाओं पर कल्पना, विचार, अनुभवों को शरीक कर लफ़्जों से रंगीन आकृतियाँ गढ़ता है. ऐसी आकृतियाँ हूबहू किसी हृदय की हंसिका न होकर युग-युगांतर की प्रेयसी बनकर रगों में शिराओं में, चेतना में नि:संकोच विचरती हैं. इन्हीं कृतियों को कभी कालजयी, सीमांत की दीर्घा लाँघने वाली अभूतपूर्व संयोग की अमृतवाणी, देववाणी की संज्ञा दी गई है. भले ही इनके 'रूप' में महाकाव्य की विस्सारता नहीं किंतु आंतरिक उर्जा की विराटता आनंद-मोदिनी होने का गौरव अकाट्य संवेगों की मायावी रहस्यमयी, सम्मोहिनी की नजाकत 'अंतर्वस्तु' के भीतर ज़र्रे-ज़र्रे में समायी है. लेवचेव की कृतियों में मादकता और आधुनिकता की रगड़न व खपचियों से बुनी हुई आंतरिक सुंदरता है. छोटी-छोटी रचनाओं के दहकते अंगारों का ताप आँच में सेंकी गई संवेदनशील इंसानी रूह ही महसूस कर सकती है जहाँ ' आत्म ' और ' अन्य ' का भेद नहीं, जीवन में अवसरवादी रवैये के प्रति आकर्षण नहीं, प्रेम की पीड़ा को आत्मसात करने की मंत्रमुग्ध व्यंजनाएँ हैं.

वाज़दा ख़ान की कृतियों की धुरी जमीन और उससे जुड़ी पवित्रता, रंग सुगंध और लुभावनी देह धरे मोहपाश को फ़ाँसे लफ़्जों की पूरी एक अविभाज्य श्रृंखला है. सूत्र एक ही है केंद्र कहीं हैं. रंग, पदार्थ या तत्व समकालीन होकर भी प्राच्य सौंदर्य की प्रतिमा और प्रतिमान के रूप में यौवन और अंतर्वस्तु में नवीनता की कोपलों की मिठास वाह्य कलेवर में खिलावट धरे है. आंतरिक खिलावट के रूप में प्रेम, प्रकृति, सौंदर्य की मोहकता बरकरार है. दायित्व बोध और स्थायित्व संकट की प्रवृज्जा भले ही न हो मगर अभेद्य संवेदनीयता की परिसीमा की क्रमणिका का अनुषंग मिलता है.

नई कविता के आधार-स्तंभ डॉ. जगदीश गुप्त ने स्वच्छंद काव्यधारा की शास्त्रीय परंपरा मूल्य, सौंदर्यबोध, प्रतिमान संस्कार की छवि को नवा-सांस्कृतिक बदलावों, नई सामाजिक जमीन, स्वातंत्र्योत्तर, लोकतांत्रिक पक्ष जनाधार की मूलभूत विचारधारा, लोकशैली को खुली शैली की परवाज़ से संपृक्त किया. शंबूक और साँझ जैसी कृतियों में प्रकृति और पुरुष (राजतंत्र) की सत्ता शक्ति के समक्ष आम आदमी का चुनौतीपूर्ण संघर्ष और आलोचना की मंचीय प्रस्तुति और काव्य की अभिनय दक्षता, क्षमता का नये सिरे से अवलोकन किया. नाव के पाँव जैसी कृति प्रतिमानों की सूची में तमाम नई प्रतिस्थापनाएँ लेकर आई. सांसारिक ऊहापोह से विरक्त होने की गुंजाइश और जीवन के संग प्रणयगान में संलिप्त होने का भाव बहुलोचना जैसी कृति एकांतप्रियता की सुखद अनुभूतियों से परिपूर्ण कृति है.

फ्रांसीसी सांस्कृतिक, सामाजिक, साहित्यिक एवं कलात्मक वातावरण में वर्षों तक खुली जिंदगी में रमी शीला कार्की एक हिंदुस्तानी महिला लेखिका हैं जिन्होंने तमाम देशों की आंतरिक खिलावट और वाह्य खूबसूरती को अपने अनुभवों के जरिए अनुवाद की भाषा हिंदी के रूप में बेहद रोचक अंदाज में पेश किया है. फ्रांसीसी स्त्रीवादी विमर्श विचारधारा का असर इन पर साफ तौर से देखा जा सकता है किंतु हिंदुस्तानी लिबाज़ में सारे संस्कारों को ढाले ये एक ऐसी महिला लेखिका हैं जो अपनी मातृभूमि में ही ता-जिंदगी पैतृक गुणधर्म सनातनता की गौरवशाली ऐतिहासिकता को बखूबी हृदय और मस्तिष्क अर्थात ख्याल और सिद्धांत का हिस्सा मानती हैं. पौरुष के वर्चस्ववादी रवैये से ये वहीं तक खिन्न या विरुद्ध हैं जहाँ विकास की धारा अवरुद्ध होती दिखाई देती है जबकि इंसान होने के नाते आदम को प्रकृति का सहभागी मानती हैं.

शिखर से विरासत तक की यात्रा में हिंदी की तमाम धाराएँ अनवरत बह रही हैं विकास की ओर यह विकास जन-जन की दृष्टि से गुजरे बगैर संभवत: अपने लक्ष्य तक कतई सक्षम नहीं है. वैश्वीकरण के दौर जहाँ दुनिया की गति बदल रही है वहीं चिंताओं का सिलसिला, अस्मिताओं के वर्चस्व का संघर्ष, दुनिया में कुछ हासिल करने का जज्बा और इसके साथ निरंतर बढ़ता जा रहा है. हमारी चिंता हिंदुस्तानी जबान की सांस्कृतिक को तमाम दुराग्रहों से बचाए रखने की है. हिंदुस्तान का एक बड़ा तबका जो कि हमारी इन कोशिशों में सहयोगी है. हम उसके पक्षधर हैं. ऐसे में यह तय करना कि भाषा की गणित, भाषा का व्याकरण, भाषा के सूत्र, भाषा की सकारात्मकता, योगदान, हिस्सेदारी कितनी महत्वपूर्ण है यह बेहद जरूरी है. किसी भी भाषिक परंपरा को बचाए रखने में मुश्किलें हमेशा रही हैं, लेकिन चूँकि जमीन के जिस हिस्से में हम सभी जी रहे हैं वहाँ की आबोहवा में हमारी साँसों, रगों, रक्त में जो भाषा घुली हुई हमें बचाये हुए है, हम सब उस भाषा की गतिशीलता, पवित्रता को बनाए रखने में कैसे सक्षम हैं, हमने कितनी तैयारी की, हमारे पास और कितने संसाधनों के जरिये इसे अपने जीने की खोज मानकर किन हालातों में संचालित कर रहे हैं, हमें इसे समझना होगा.

भाषा को जिंदा रखना ही सिर्फ हमारा फर्ज नहीं है बल्कि समूची संस्कृति, संस्कार, परंपरा, रीति और हृदय व मस्तिष्क को खुराक देने वाली भाषा को अस्तित्व में बनाए रखना और जीवन की अर्थवत्ता देना हमारा कर्तव्य है. आपसे यही गुज़ारिश है कि सभी इस फ़र्ज़ की सुरक्षा के लिए पहल करें. अपना सर्वोत्कृष्ट योगदान दें. और एक बात जो मूल्य आधुनिक युग में हमें परंपरागत तौर से विरासत में मिले हैं, उन्हें हमने बचाये रखने की कोशिश किस हद तक की है, हमारी युवा पीढ़ी खासकर 1980 के बाद जिन्हें तमाम सूरतों में संघर्ष की नई जमीन भले ही खुद बनानी पड़ी, उस पर उनके कदमों के निशान कितने खुदगर्ज एहसान परस्त, निष्काम भावना से भरे हैं इस पर विचार करना होगा. आर्थिक बढ़ोत्तरी के अनेकों ज़रिये निजी संस्थानों के मुग़ालते में जीने की सहूलियतों से भरे युवा वर्ग को यकीनन मिले किंतु उन संस्थानों से उत्पाद के बतौर मिली जिंदगी में मानवीय मूल्यों का क्षरण और उसका खमियाज़ा भुगतने के अवसर भी साथ ही पाये गये.

पूँजीवादी संस्कारों की रौशनी में युवा पीढ़ी की तंत्रिकाएं, इंसानी तज़ुर्बों, क़ायदों से बिल्कुल खाली है, उनमें यांत्रिकी ऊर्जा या शक्ति युवा लहू में तमाम विकृतियों और मानसिक रुग्णता के रूप में साफ़तौर पर देखी जा सकती है. पारिवारिक अलगाव, अकेलापन, अराजकता से भरा युवा मन, अवसरवादी रवैये को आत्मसात किये हुए है. हृदय में इंसानियत से संवेदन-शून्यता की स्थिति बढ़ रही है और गैर सांस्कृतिक लिबाज़ ओढ़े आत्मशक्ति का उपयोग तमाम बहानों से स्वत: को दुर्गति की दिशा में घसीटे ले जा रहा है.

चिंता का विषय है पुरानी पीढ़ी से कट कर उसके समर्पण फर्ज त्याग और पीरम को अपना पिछल्लग्गू बनाने की तरफ रुख किए यांत्रिकता में जीते युवा समूह आगे आनेवाले समय को अपने खिलाफ खड़ा कर रहा है और भूत-भविष्य के बीच गहरा अंतराल पैदा कर रहा है. जीवन की सुंदर गतिविधियों को क्रूर और भौतिक शक्तियों से लैस कर आदमीयत की पहचान से साफ तौर पर खारिज हो रहा है. आप हमारे इन विचारों से सहमति या असहमति के बतौर अपनी प्रतिक्रिया जरूर व्यक्त करें ताकि हिन्दी साहित्य के विकास की ओर सही कदम बढ़ाए जा सकें.

- अनिल पु. कवीन्द्र

© 2009 Anil P. Kaveendra; Licensee Argalaa Magazine.

This is an Open Access article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution License, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original work is properly cited.