इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका
मेरा अचेतन मन
चेतन हो गया
एक ही पल में.
स्पर्श किया जो तुमने
जल गया स्नेह दीप
मेरे हृदय तल में.
फूलों की खुशबू सा
महक जाऊँगी
तू बन तो जा बहार
मेरी खातिर
सच.
मैं बहक जाऊँगी
बाँधकर
बेड़ियाँ पाँव में मेरे
सुनना चाहते हो क्यूँ?
खनक पायल की
कैसे सुन पाओगे तुम
पुकार किसी घायल की
लहलहाते थे,
हरे भरे खेत से
ढह गए आज,
वो रिस्ते रेत से,
कहाँ है?
वो भरा पूरा परिवार
वो हँसता-मुस्कुराता संसार,
निगल गया आज सबको जमाना
कुचल दिया आज इस तेज रफ़्तार ने,
प्यार का खजाना,
माँ बच्चे को दूध नहीं पिलाती
सिर्फ, इस डर से कि,
सौन्दर्य नहीं रहेगा
फिर, माँ का दूध पिया है,
बेटा क्यूँकर कहेगा?
नौकरों के हाथों
बच्चे पल रहे हैं,
बच्चे भी तो अब
नये जमाने में ढल रहे हैं
परिवार के लोगों को आपस में सूरत देखे
कई-कई दिन बीत जाते हैं,
डायनिंग टेबल पर भी
कभी- कभी मिल पाते हैं,
घर के बुजुर्गों का न पूछो हाल,
"ओल्ड एज होम" में अब होने लगी संभाल,
तिनका-तिनका जोड़कर बनाया है जो भर,
टूट जाने का लगा रहता है एक डर,
हिलोरे मारता था एक-दूजे के लिए जो दर्द सीने में,
नहीं है वो आनन्द अब गमों को पीने में,
सैलाब आ गया है भागमभाग का
क्या होगा?
क्या होगा?
इस लावे का, इस आग का?
© 2009 Sushma Bhandari; Licensee Argalaa Magazine.
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