अर्गला

इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका

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काव्य पल्लव

वाज़दा ख़ान

बारिश के नहीं होने पर

आसमान! तुम सूरज को विदा दो,
माना सूरज तुम्हारा अपना है
तो किरणें भी तो हमारी हैं?
इसका मतलब ये तो नहीं, कि तुम
उन बादलों को तिलांजली दे दो जो
हम तक बूँद बनकर
आना चाहते हैं

आसमान!
तुम कर रहे हो भेदभाव.

कौन महत्वपूर्ण है?

कौन महत्वपूर्ण है?
चाँद, सितारे, तितली और आकाश
या,
वर्जित हवाओं का तन में विलीन हो जाना

कौन महत्वपूर्ण है?
सम्पूर्ण ज़िंदगी का समर्पण
या
सांसों में पलते पलीते

कौन महत्वपूर्ण है?
देह पर तमाम लिपि में,
न समझ में आने वाली भाषा का
लिखा जाना
या,
अंतरमन की सतह पर
तुम्हारे पाँवों की पदचाप सुनना

कौन महत्वपूर्ण है?
तुम, मैं या समानांतर चलते रास्ते.

चित्रकृति की मुझसे बातचीत

पीली लतरों से लिपटा लाल जिस्म
बड़ी सादगी से चलता आया
मुझ तक
दस फीट के फासले को पार कर
तनकर खड़ा था मेरे सामने
आँखों में प्रश्न लिए
तुम्हारी दुनिया का बाशिन्दा हूँ मैं
किससे बाँटूं अपनी सरगोशियाँ?
पीली लतरों के बीच से झाँकता मैं
ढलती साम के सूरज को
ताम्बई रंग में देखता
मैं तो अकेला हूँ
किधर हैं तुम्हारी दुनिया के और बाशिन्दे?
कितने रंग हैं, कितने शेड
कितने टोन हैं जिंदगी के?
तुम्हारे स्पर्श से अछूते
इस बेहिसाब खामोशी का
कोई हिसाब तो होगा?

1

कैसे मानें कि तुम एक समान हो

सुख-दुख में
यहाँ तो तुम कुछ और ही व्याकरण
गढ़ रहे हो

देख नहीं रहे हो? कितनी जोड़ी आँखें
तुम्हारी ओर टकटकी लगाए
देख रही हैं
इसका कोई हिसाब नहीं?

क्या यही समय का फेर है?
समय के इस फेर में
तुम अपनी रंगों भरी कूची चला दो
उकेर दो
धरती के इस छोर से उस छोर तक
तने आकाश में
हमारे सपनों के भीतर
और भीतर
होती बारिश को.

2

रंगों का समूचा बेतरतीब जंगल
मैं चाहती हूँ
मेरे भीतर उगे जो
जतन से दबा कर रखी चाहतों को
आवारगी को
नए परचम में ढाल दे
किस्म-किस्म के गुनाह
जो मुँह छिपाए बैठे रहते हैं
तलछट में
न चाहने पर भी
अपना चेहरा,
नक्श कर देते हैं चेहरे पर.

3

चलते-चलते अचानक पीछे
मुड़कर देख लेना
कोई उम्मीद टिकी थी शायद
अधटूटी दीवार की ईंट पर
जिसके पार दिख रहा था
कोई अधूरा रेगिस्तान.

4

छनक
यही आवाज आई थी
आँख-मिचौनी की गर्द में
तुम्हारे पास से
शायद कुछ टूट गया था
ख्वाब?
शायद ज़िन्दा जिस्म.

© 2009 Vazda Khan; Licensee Argalaa Magazine.

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