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सलाहकार की कलम से

गंगा प्रसाद विमल

अक्तूबर 2009, संस्करण 1, अंक 4

इस बार हम हिन्दी के एक विरल कवि कैलाश वाजपेयी से इस अंक की शुरुआत कर रहे हैं. इसलिये भी कि कैलाश वाजपेयी एक ऐसे कवि हैं जिनके भीतर उन जैसे और उससे अलग कई कवि विद्यमान हैं. वे एक तरफ़ बहुत गम्भीर किस्म के संत कवि हैं जिनके तार सुदूर मध्यकाल में कहीं जुड़े नज़र आते हैं तो वे ऐसे कवि भी हैं जो भविष्य के अदृश्य दरवाज़ों पर अदृश्य सी दस्तकें दे रहे हैं उनकी खुद अपनी एक कविता इसका बयान करती है कि वे इकट्ठा कई शताब्दियों को ढोये लिए जा रहे हैं. विचित्र सी बात है कि जिस ज़माने में नयेपन के ढोल पीटे जा रहे थे उस ज़माने में कैलाश बहुत गम्भीर होकर सातत्य की परम्पराओं की तर्ज़ पर छन्दोबद्ध गीतात्मक लयसिद्ध कविताएँ बाँच रहे थे जब थोड़ा शोर कम हुआ तो कैलाश एकदम अर्थात अत्याधुनिक या आधुनिकता के उपरान्त के विमर्श में एक गम्भीर कवि की तरह निरत पाए गए. देखने में यह विचित्र सा कोलाज जैसा एक दृश्य पटल लग सकता है, सोचने में भी कभी कभी यह अर्थहीनता की दीर्घ परम्परा पर टिप्पड़ी जैसा प्रतीत होता रहा परन्तु गहरी पड़ताल करें तो कैलाश वाजपेयी के कवि कर्म का यह एक जादुई वितान है. और इसीलिए आज उनका कवि कर्म विचारणीय है. वे इसी अंक में प्रकाशित सबसे नये कवि के समकालीन भी लगते हैं और क्लसिकी कवियों की तरह सदियों से बेपरवाह दरवेशी जान पड़ते हैं. एक अर्थवान सृजन की यह वास्तविकता है जो फैंटसी से अधिक उलझावदार लगती है, इसी की अंतर्धाराओं में सृजन की दूसरी जटिलताएँ भी अभिव्यक्ति पा जाती हैं, शब्द से तस्वीर रचने वाले जगदीश गुप्त भी कमोबेश इसी परम्परा के आधुनिक कवि हैं जो इस अंक में उपस्थित हैं.

कविताओं की चर्चा सचेत पाठक करेंगे ही. हमारा लक्ष्य केवल यह संकेत करना है कि सृजन की सबसे ज़्यादा जोखिम भरी राह कवि कर्म की है. आँकड़े पास नहीं हैं पर तकरीबन हर शहर, हर आयु, हर शैली के पचास एक कवि तो मुहल्ले में ही सक्रिय मिलेंगे. कोई शौकिया कह रहा है तो कोई अनुकरण कर रहा है. कुछेक लोग गुनगुनाते हुए पूरी सृष्टि को हड़काने में लगे हुए हैं. कुछ ऐसा जरूर है जो अभिव्यक्ति की पुरज़ोर ज़रूरतों के दबाव में कहने, सुनने, गाने और उगलने से परे है जो किसी महत्तम खोज में बेपरवाह सा निमग्न है. असल में वही एक साधक है जो भाषा को नये अर्थ से आवेष्टित करने की बेचैनी से भरा हुआ है. वह किसी अव्यक्त छन्द में या किसी लम्बी चीख में अपने ही ढंग से शब्दों को तराश रहा है.

निष्कर्ष यह है कि भाषा को नया रूप देने में केवल कविता और कवि कर्म समर्थ है. आज बाज़ार के कर्णभेदी शोर में कोई है जो सब कुछ से विमुख अपनी चिन्ताओं का केन्द्र मनुष्य और उसके भविष्य को बनाए हुए है. इस आशय से कविता की चर्चा ज़्यादा संगत होगी कि वह भाषा के संवर्धन की एकमात्र आधारशिला से उसी से हम अपनी दूसरी विधाओं के लिए संगत और अर्थवान भाषा उपलब्ध कर पाते हैं. भौतिक जगत में सृष्टि के विकास के लिए तात्कालिक कोशिशें लगभग अनुपस्थित हैं. ऐसे में सृजन का यह उपस्थित विधा रूप हर एक पड़ाव पर गौर करने योग्य है.

शेष जगत में जो उपेक्षा दिखाई देती है वह अकारण नहीं है दुनिया जिस ओर करवट ले रही है उसे कमोबेश सभी लोग वाक़िफ़ हैं. लेकिन दुनिया क्यों ऐसी हो रही है ? क्या परिस्थितियाँ हैं? क्यों विकराल दिखायी दे रही हैं ? यह सब कुछ एकदम मानव विरोधी क्यूँ दिखता है? इसका मोटा अनुमान हमारी कविताएँ देती हैं. इन सब का कोई मिला जुला निदान दूर दूर तक दिखाई नही देता पर इस जद्दोज़हद का आधार कविता की अंतर्दृष्टि संपन्न लय में स्पष्ट होता है. उस पर हम एक बहुआयामी अंतर्मंथन पाते हैं और यही कारण है कि हम इस बार सारी उथल-पुथल को इन कुछ कवियों की रचना दृष्टि से देख पाते हैं. आप सब यह दावतनामा ज़रूर कुबूल करें कि आपकी असहमति और आपके ज़िद भरे अस्वीकार से भी हमें अंधेरे रास्ते पार करने की हिम्मत मिलती है. आपकी प्रतिक्रियाओं की बेसब्री से प्रतीक्षा है.

- गंगा प्रसाद विमल

© 2009 Ganga Prasad Vimal; Licensee Argalaa Magazine.

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