अर्गला

इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका

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शिखर

कैलाश बाजपेयी

अदना महान

रोज़ रोज़ मोड़ पर
वह मुझे मिलता
खड़ा हुआ मैले कपड़ों में
मैं भी जो भी, जितने होते
सिक्के रख देते
उसकी विपन्न
नन्ही हथेली पर
हर बार वह आकाश की
ओर देखता
नम पीली आँखों से
जैसे कृतज्ञ हो

एक दिन गरजा मैं
'देता तो मैं हूँ
ऊपर तू
क्या किससे कहता है?'
'जो मुझे देता है
वह तुझे और दे'
पीली आँखों वाले ने जवाब दिया.

समय

लन्दन के हवाई-अड्डे पर
अलग-अलग उड़ानों से
उतरे लोग
जब प्रतीक्षा में थे असबाब की
मैंने बड़े गौर से पढ़ीं कई
कलाईयाँ
किसी भी घड़ी में
वह वही नहीं था
जो वहाँ था.

श्चरी

खूब कूकती थी
कल शाम तक
सातों स्वर ठीक न था
कोई भी बेसुरा
सो गया वक्ष से लगाये
मैं उसे
छाती के बल सो गया
देखे तो कोई बदकिस्मती
मेरी ही प्रिया सौभाग्य
मेरी ही गलती से
पौ फटते-फटते
बेसुरी हो गयी.

हार जा

एक भी सही वजह नहीं
गुनगुनाने की
नहीं वजह होने की वजह से ही गा
लोग नहीं सुनते
हैं फँसे माया के जाल में
पेड़ों से, लता, दूर्वा से बतिया
चिड़िया आँगन में
आयी है
सब घरों में नहीं बनाती
चिड़िया घोंसला
न्योता तो दे, क्या पता
मान जाए
चम्पा खिली है
एक जुगलबन्दी चल रही
तितली के फूलों के बीच
नहीं जा
खेल चल रहा है
साँप और चन्द्रमा, मोक्ष और माया के बीच
तू इस खेल में
हो न हो शामिल था
न सही अक्षर उदयमान कविता का
बाँस था
किये को अनकिया करने के वास्ते
खेल के अंत के पहले ही
हार जा.

व्याज- स्तुति

सब नदियाँ पूर्व की ओर
बहती हैं
वह क्योंकि उल्टी बहती है
इसलिए मैं उस पर
आसक्त हूँ
सब स्त्रियाँ प्यार पाने के वास्ते
जन्म लेती हैं
वह लूटती चली आई है अपने को
इसीलिए मैं रोम-रोम से
दरियादिली का उसकी, भक्त हूँ
दुनिया में जितने रंग हैं
पता नहीं क्यों
वह उनमें से किसी में भी नहीं
ढली
सुगंध के बारे में जरूर ऐसा है
बिछड़कर उसकी साँसों से
बेला, जुही, गुलाब, चम्पा, शिरीष/लिली
कमल, परिजात आदि
को मिली
कोयल को गाना उसी ने सिखाया है
आया नर्तन केका को
उसी के पाँवों की थिरकन से
वह मुझे भूलती ही नहीं कि याद करूँ.

सम्पत्ति-कर

लखोरी भन्नायी घूम रही
माँ बननेवाली है
उसे सिर्फ़ सूराख चाहिए
जहाँ अण्डे दे कर
छेद पूर दे.
गौरैया को लाख बाहर करो
उसे यहीं ध्यान-कक्ष में
बुनना है घोंसला
द्वार पर लगे आम को
पड़ोसी ने मार दिया इस बार
तेज़ाब डालकर
कोयल अभी आकर
चुप चली गयी है पूछती
क्यों नहीं आया
इस बार बौर
बिल्ली आकर पाँच बच्चे
छोड़ गयी कहकर- निगरानी रखना
बुलबुल को एतराज़ है
कौए क्यों आये अनार पर
जहाँ दिये हैं उसने
अण्डे कल तक निकलने
हैं जिनसे चेंचले
बाहर आयी है टहलने छिपकली
लगता है कुत्ते की गुर्र से
वह क्यों चढ़ दीवार पर
पकड़ नहीं सकता इस जीव को
चुहिया को कोई दर्द नहीं
वह पाण्डुलिपि कितनी
अनमोल थी
जो कुतर दी उसने
मनोयोग से
मकड़ी ने जाल ताना है
आना ही आना है किसी भुनगे को
चीटियाँ रसोई में इस तरह
घूम रहीं
जैसे कि मैंने निमंत्रण दिया हो
प्रीति-भोज का
झींगुर कब कर दें गाना शुरू
शाम ढलने के बाद
कुछ पता नहीं
असल में यह घर
तो इन्हीं सब का है
मैं सिर्फ़ संपत्ति-करदाता हूँ.

ध्रुव सन्ताप

वर्षों से मुझको
तुम्हारी तलाश है
तुम्ही से है प्रेमी प्रार्थना
मिल न जाना मुझे
तब मैं ओछा पड़ जाऊँगा
खुद अपनी ही निगाह में.
हमेशा से ऊँचाई का
पक्षपाती हूँ
असम्भव ने मुझको रिझाया है
पेट और पेट के निचे की दुनिया
तो.

© 2009 Kailash Bajpeyi; Licensee Argalaa Magazine.

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