इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका
दारागंज की ढलान भरी तंग गलियों से गुजरते हुए संकरी सी एक गली में घुसते ही एक तरफ निराला का मकान और चंद फासले पर हरे-हरे पौधों और तमाम रंगीन फूलों से लदा, भीनी-भीनी खुशबुओं में बिंधा डॉ. जगदीश गुप्त का मकान. पहली मुलाकात सन 1995 में हुई. गर्मियों की धूप में साइकिल पर सवार एक किशोर था मैं. लोहे की सीकचों वाला दरवाजा तकरीबन 4 फुट ऊंचा, मेरे कदमों में थकान और पहली बार इतने बड़े साहित्यकार से मिलने ......
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