इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका
तू एक दुआ था
जो बिन माँगे फल गयी थी
खुदा की यह नेमत
मुझे अज़ीज़ थी बहुत
मगर मैं
इस बात से अनजान थी ......
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लिये हुए ममता का भण्डार
जब देखती है हमारी ओर
आँखें दादी की
लगता है कि अब भी सार्थकता
है हमारे जीवन में
......
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रात की आँखों से
कुछ खुलती नज़रें जा पड़ी हैं
आसमान के अनसुलझे बगीचे पर
अधखुली आँखों से ऊँघता सा
दिख रहा है, मारा-मारा सा
धुमला सा गया "अकेला चाँद" ......
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आँसू है जो ये जीवन के.
गुज़रते बीतते वक़्त के गीले रंग हैं
कभी पालने की बोली थे ये.
फिर बचपन की हट
आँसू है जो ये जीवन के.
गुज़रते बीतते वक़्त के गीले रंग हैं ......
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