अर्गला

इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका

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सलाहकार

मुख्य साहित्यिक सलाहकार

गंगा प्रसाद विमल, पी-एच. डी.

Ganga Prasad Vimal

डॉ. गंगा प्रसाद विमल हिन्दी साहित्य में अकहानी आंदोलन के जनक के रूप में जाने जाते हैं. इसके अलावा विख्यात कवि, कथाकार, उपन्यासकार, अनुवादक के रूप में दुनियाभर में इन्हें ख्याति प्राप्त है. कई सरकारी सेवाओं से जुड़े रहकर, बहुमुखी प्रतिभा से संपन्न इनका व्यक्तित्व बेहद विशाल है. इन्हें तमाम राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया गया. व्यक्तित्व की विशेषता यह कि इतनी सारी विशिष्टताएँ होने के बावज़ूद भी इनमें किसी भी तरह का दंभ, अहं या सर्वश्रेष्ठ होने का अभिमान तथा भाव कहीं नहीं झलकता. इनका बेहद रूमानी और संज़ीदगी से भरा चरित्र एवं व्यक्तित्व एकदम सहज और मिलनसार प्रवृत्ति का है एवं सदैव लोगों के साथ मृदुभाषी जबाँ होने के कारण ही तमाम देशों में इनको सराहा व सम्मानित किया गया.

डॉ. विमल की पैदाइश भारतवर्ष के बेहद खूबसूरत क्षेत्र हिमालय के एक छोटे से कस्बे उत्तरकाशी, उत्तरांचल में सन १९३९ को हुई. इनके व्यक्तित्व में, हिमालय की सादगी, विस्तार, निर्मलता, ऊँचाईयों को धारण करने का जज़्बा एवं निर्झर झरने सा निरंतर बहते रहने की दिली तमन्ना, इनकी विशिष्टता का प्रतीक बन चुका है. हिमालय की अनूठी सामाजिक - संस्कृति, परंपरा, सनातनता को बनाये रखने का संस्कार इनकी विशिष्ट जीवनशैली में प्रवाहमान है. हिमनदों की तासीर और निश्छलता इनकी प्रकृति या स्वभाव बन चुकी है. यही वज़ह है कि इनकी तमाम रचनाओं में हिमनदों को बचाने और वनों की कटाई पर रोक लगाने पर जोर दिया गया है. मानो, इन्हें बचाये रखना इनके व्यक्तित्व को बचाये रखना है. इस कोशिश में वे निरंतर वक़्त बेवक़्त प्रयत्नशील हैं. इनकी शिक्षा गढ़वाल, हृषिकेश, इलाहाबाद, यमुनानगर एवं पंजाब विश्वविद्यालय जैसी अनेक जगहों पर हुई. जीवन के आरंभिक दौर से ही प्रतिभाशाली और रचनात्मक होने के कारण इनके व्यक्तित्व का बहुमुखी विकास तमाम साहित्यिक एवं प्रशासनिक क्षेत्रों में हुआ. १९६३ में ही इन्होंने "समर स्कूल ऑफ़ लिंगुइस्टिक्स", उस्मानिया विश्वविद्यालय, हैदराबाद में अध्यापन आरंभ किया. सन १९६५ में इन्हें डॉक्टर ऑफ़ फ़िलॉसॉफ़ी की डिग्री से सम्मानित किया गया. इसी वर्ष इनका विवाह ५ फ़रवरी १९६५ को कमलेश अनामिका के साथ संपन्न हुआ, जिनसे इनकी दो सन्तानें आशीष (१९६९) और कनुप्रिया (१९७५) हुई.

इनके शोध संबंधी कार्यानुभव की चर्चा करना यहां ज़रूरी है. डॉ. विमल ने १९६१ से १९६४ तक तीन वर्ष रिसर्च फ़ेलो के रूप में पंजाब विश्वविद्यालय में कार्य किया. १९६२ से १९६४ तक हिंदी भाषा और साहित्य में पंजाब विश्वविद्यालय में रहकर अध्यापन किया. १९६४ से १९८९ तक ज़ाकिर हुसैन कॉलेज़, दिल्ली विश्वविद्यालय में तमाम शोधार्थियों के शोध निर्देशक के तौर पर कार्यरत रहे. १९८९ से १९९७ तक मानव संसाधन विकास मंत्रालय, नई दिल्ली में केंद्रीय हिंदी निदेशालय (शिक्षा विभाग) में निर्देशक के पद पर रहे. इसके अतिरिक्त तमाम शब्दकोशों से संबंधित योजनाओं, भाषा ज्ञान संबंधी सामग्री तथा भारतीय भाषा संबंधी नीतियों को जारी करने वाली सरकारी संस्थाओं एवं समितियों में कार्य किया. १९९९ से लेकर २००४ तक भारतीय भाषा केंद्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रवक्ता के पद पर अध्यापन किया तथा यहीं पर १९९९ से २००० तक बतौर विभागाध्यक्ष के रूप में कार्य किया. साथ ही तमाम शोधार्थियों को निर्देशित भी किया.

डॉ. विमल एक ऐसे सृजनात्मक व्यक्तित्व हैं जिनकी रचनाओं पर बात किये बग़ैर उनके व्यक्तित्व को उजागर करना निरर्थक है. इनकी रुचि शुरू से ही रचनात्मक लेखन में रही जिसके कारण इन्होंने समय समय पर तमाम पुस्तकें सृजन के क्षेत्र में योगदान स्वरूप दीं जिनमें सात कविता संग्रह, चार उपन्यास, ग्यारह कहानी संग्रह, अंग्रेज़ी में अनुवाद की पाँच पुस्तकें, गद्य में हिंदी अनुवाद की तीन पुस्तकें, आठ के क़रीब संपादित पुस्तकें, अन्य भाषाओं से अनूदित पुस्तकों में तक़रीबन पंद्रह किताबें - जिनमें काव्य, कथा और उपन्यास शामिल हैं. इनके द्वारा तमाम देशों में अनेकानेक शोध पत्र पढ़े गये. इसके अलावा इन्हें साहित्य और संस्कृति के लिये किये गये कार्यों पर दुनिया भर से अनेक पुरस्कारों एवं सम्मानों से नवाज़ा गया. मुख्य रूप से पोएट्री पीपुल्स प्राइज़ (१९७८), रोम में आर्ट यूनीवर्सिटी द्वारा १९७९ में पुरस्कृत, नेशनल म्यूज़ियम ऑफ़ लिटरेचर, सोफ़िया में गोल्ड मेडल (१९७९), बिहार सरकार द्वारा दिनकर पुरस्कार (१९८७), इंटरनेशनल ओपेन स्कॉटिश पोएट्री प्राईज़ (१९८८), भारतीय भाषा पुरस्कार, भारतीय भाषा परिषद (१९९२) शामिल हैं. इसके अतिरिक्त इन्हें ऐसे ही अनेकों पुरस्कारों से विश्व भर में सम्मानित किया गया. इनके द्वारा तमाम देशों में विभिन्न विषयों पर शोध ग्रन्थ पढ़े गये. जिनमें मुख्यत: बी. बी. सी लंदन से कहानियों का पाठ और ऑल इण्डिया रेडियो से तमाम बार कविता पाठ आदि शामिल हैं. इनकी सबसे बड़ी विशेषता लोगों के साथ ताल्लुक़ात मधुर होना है, जिसके कारण इन्हें अनेकों सरकारी, गैर-सरकारी, देशी-विदेशी संस्थाओं एवं संस्थानों की सदस्यता भी प्राप्त है. ऐसी शख्सियत का हमारी संकृति और साहित्यिक गतिविधियों में हमारे साथ होना हम सभी के साथ ही अर्गला पत्रिका के लिए गर्व व सम्मान की बात है.

ईमेल:gpv

Curriculum Vitae: Hindi


तकनीकी सलाहकार

गौरव कुमार, पी-एच. डी., एम. एस.

Gaurav_Kumar

गौरव कुमार ने राष्ट्रीय जैविक विज्ञान केन्द्र (टाटा मूलभूत अनुसंधान संस्थान) से कम्प्यूटेशनल बायोलॉजी में एम. एस. डिग्री प्राप्त की है. उन्होंने बतौर पर्ल सॉफ़्टवेयर डेवलपर तथा वेब डेवलपर के रूप में जेनसेक़, साइबरजाया, मलेशिया और बायोबेस, बेंगलूरू में काम किया है. वह एक साल तक यूनिवर्सिटी कॉलेज़ डबलिन, आयरलैण्ड में शोध छात्र रहे हैं. वर्तमान में वह रसायनशास्त्र और जैवआण्विक विज्ञान के क्षेत्र में मैक्केरी विश्वविद्यालय, सिडनी, आस्ट्रेलिया में 2007 से शोध कार्य कर रहे हैं. इन्होंने आयरलैण्ड, मलेशिया, सिंगापुर और ऑस्ट्रेलिया सहित अनेकों देशों की यात्रायें की है.

विज्ञान में अपना कैरियर होने के बावज़ूद वह अपनी मातृभाषा हिन्दी से गहरी संवेदना के साथ जुड़े हैं. हिन्दी उनकी केवल भाषा ही नहीं है बल्कि यह उनकी अभिव्यक्ति का तरीक़ा भी है. उनका मानना है कि यह सभी मातृभाषाओं के लिए सत्य है. किसी भी भाषा का विकास समय के साथ होता है. किसी भी समाज के सांस्कृतिक परिवर्तन को समझने के लिए यह ज़रूरी है कि लोगों के बोलचाल की भाषा में जो विचार अभिव्यक्त किये गये हैं उन्हें संरक्षित किया जाये. इसी प्रकार भारतवर्ष की आत्मा हिन्दी में बसती है. हिन्दी भाषा की जानकारी सम्पूर्ण भारत को एक सूत्र में बाँधने के लिए काफी महत्वपूर्ण है. यह काफी खेद की बात है कि वर्तमान पीढ़ी हिन्दी भाषा के महत्वों को नज़र अंदाज़ कर रही है. लाखों भारतीय भारत के बाहर रहते हैं. अप्रवासी भारतीय भारतीय संस्कृति का एहसास बॉलीवुड की फ़िल्में देखकर करते हैं. सिनेमा भारतीय होने का प्रतीक नहीं है. जब भी कोई आपकी मातृभाषा में बात करता है आप अपने घर जैसा महसूस करते हैं. हिंदी की समझ अप्रवासी भारतीयों को भारतीय संस्कृति से जुड़े होने का एहसास कराती है. साथ ही साथ हिंदी की जरूरत भारत में भी है जहाँ लोग इतनी अधिक भाषाएँ बोलते हैं. आंतरिक विद्रोह को खत्म करने, सामाजिक सद्भाव और धार्मिक समन्वय के लिए सबसे जरूरी है - प्रभावी संचार. यह भारतवर्ष के विकास में सहायक है.

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