इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका
मछली कीचड में फँसी सोचे या अल्लाह
आखिर कैसे पी गए दरिया को मल्लाह
कथरी ओढ़े सो गया रात अशरफी लाल
रहा देखता ख़्वाब में एक कटोरी दाल
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गुमराही का नर्क न लादो काग़ज़ पर
लेखक हो तो स्वप्न सजा दो काग़ज़ पर
अंतर्गति का चित्र बना दो कागज़ पर
मकड़ी के जले तानवा दो काग़ज़ पर
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