अर्गला

इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका

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गीत माधुर्य

एहतराम इस्लाम

१.

गुमराही का नर्क न लादो काग़ज़ पर
लेखक हो तो स्वप्न सजा दो काग़ज़ पर

अंतर्गति का चित्र बना दो कागज़ पर
मकड़ी के जले तानवा दो काग़ज़ पर

नर्क मन जलाता स्वर्ग दिखा दो कागज़ पर
भारत की तस्वीर बना दो काग़ज़ पर

यादों की तस्वीर बनाने बैठे हो
आँसू की बूँदें टपका दो काग़ज़ पर

कोई तो साधन हो जी खुश करने का
धरती को आकाश बना दो काग़ज़ पर

युक्ति करो अपना मन ठंडा करने की
शोलों के बाज़ार लगा दो काग़ज़ पर

होटल में नंगे जिस्मों को प्यार करो
बे-शर्मी का नाम मिटा दो काग़ज़ पर

अनपढ़ को जिस ओर कहोगे जाएगा
सभी सुशिक्शित को बहका दो काग़ज़ पर.

आँखों में भड़कती है आक्रोश की ज्वालाएँ
हम लाँघ गए शायद बरदाश्त की सीमाएँ
पग-पग पे प्रतिश्ठित हैं, पथ-भ्रश्ट दुराचारी
इस नक़्शे में हम खुद को किस बिंदु पे दर्शायें

अनुभूति की दुनिया में भूकंप, सा आया है
आधार न खो बैठें, निश्ठाएँ, प्रतिश्ठायें

बांसों का घना जंगल, कुछ काम न आएगा
हाँ! खेल दिखा देंगी ये अग्नि-शलाकाएँ

सीनों से धुआँ उठना, कब बंद हुआ कहिये
कहने को बदलती ही रहती हैं, व्यवस्थाएँ

वीरानी बिछा दी है, मौसम के बुढापे ने
कुछ गुल न खिला डालें यौवन की निराशाएँ

तस्वीर दिखानी है भारत की तो दिखला दो
कुछ तैरती पतवारें, कुछ डूबती नौकाएँ

पकड़े क्या रफ़्तार हवा
ढोए गर्द-गुबार हवा

घास न छोडेगी धरती
मान ले अपनी हार हवा

छीन न छप्पर कुटिया का
मत कर अत्याचार हवा

शाख से टूटे पत्तों को
ले जाए जिस द्वार हवा
गुलशन का मुँह देखे तो
बाँटे तब महाकार हवा.

४.

बहाना ढूँढ ही लेता है खूँ बहाने का
है शौक कितना उसे सुर्ख़ियों में आने का

मिले हैं ज़ख्म उसे इस कदर कि अब वो भी
कभी किसी को नहीं आईना दिखाने का

बुलंदियाँ मुझे खुद ही तलाश कर लेंगी
अता तो कीजिए मौका नज़र में आने का

करिश्मा कोह्कनों ही के बस का होता है
किसी पहाड़ से दरिया निकाल पाने का

कहीं तुझे भी न बे-चेहरा कर दिया जाए
तुझे भी शौक बहुत है शिनाख्त पाने का

५.

‘मीर’ को कोई क्या पहचाने मेरी बस्ती में
सब शाइर हैं जाने-माने मेरी बस्ती में

आम हुए जिसके अफ़साने मेरी बस्ती में
वो मैं ही हूँ कोई न जाने मेरी बस्ती में

रूट क्या आये फूल खिलाने मेरी बस्ती में
हैं काशाने ही काशाने मेरी बस्ती में

घुल-मिल जाने का काइल हर कोई है लेकिन
हैं आपस में सब अनजाने मेरी बस्ती में

मेरी ग़ज़लों के शैदाई घर-घर हैं लेकिन
कौन हूँ मैं यह कोई न जाने मेरी बस्ती में.

६.

कोई पल भी हो दिल पे भारी लगे
फज़ा में अजब सोगवारी लगे

ये क्या हाल ठहरा दिल-ए-ज़ार का
कहीं जाइए बेकरारी लगे

बहुत घुल चुका ज़हर माहौल में
किसी पेड़ को अब न आरी लगे

किसी मोड़ पर तो न पहरे मिलें
किसी राह तो इख्तियारी लगे

मुहब्बत की हो या अदावत की हो
हमें उसकी हर बात प्यारी लगे

कहाँ ढूँढने जाएँ हम शहर में
वो दुनिया जो हमको हमारी लगे

भरा जाए लफ़्ज़ों में जादू अगर
ग़ज़ल क्यों न जादू निगारी लगे

ग़ज़ल का कहाँ से कहा जाएगा
वो लहज़ा जो जज्बों से आरी लगे

खुदा ‘ऐह्ताम’ ऐसा दिल दे हमें
किसी की हो मुश्किल हमारी लगे.

७.

क्या फ़िक्र कि अंधियारा अजय भी तो नहीं है
फिर सूर्य के उगने का समय भी तो नहीं है

संघर्श बिना प्राप्त सफलता पे न इतराओ
यारो ये विजय कोई विजय भी तो नहीं है

मैं अपना अहं तोड़ तो दूँ किन्तु तुम्हारा
हो जाएगा मन साफ़ ये तय भी नहीं है

क्यूँ पाप छिपा लेने का अपराध करूँ मैं
मुझको किसी भगवान का भय भी तो नहीं है

अन्याय की सीमा से करे कौन पलायन
अन्याय की धरती पे प्रलय भी तो नहीं है

संभव है कि संघर्श न दिलवाए हमें दृश्टि
लेकिन ये हताशा का विशय भी तो नहीं है

क्या कहिये इसे हर्श कि होंठों के क्शितिज पर
मुस्कान के सूरज का उदय भी तो नहीं है

दूजों के लिए जिसको धड़कना नहीं आता
पत्थर न सही पर वो हृदय तो नहीं है

यह सच है कि दक्शिण में हिमालय नहीं कोई
उत्तर का मगर कोई मलय भी तो नहीं है
वैभिन्न दिशाओं का भला कैसे मिटेगा
संभाव्य विचारों का विलय भी तो नहीं है

क्या गीत कहूँ इनको कि इन गीतों के स्वर को
अभिभूत जो कर जाए वो ले भी तो नहीं है

८.

कौड़ी का तीन ठहरा
जो बे-यकीन ठहरा

खतरा है दिल को जिससे
दिल का मकीन ठहरा

फ़ुर्सत कहाँ से पाए
इंसान मशीन ठहरा

उसकी नज़र से गिर कर
सोना भी टीन ठहरा

जाइज़ है जो करे वह
आखिर कुलीन ठहरा.

९.

निशि-दिन भ्रश्टाचार में है
तो क्या वह सरकार में है

रिश्वत! तौबा तौबा जी
ये सब तो उपहार में है

सारी व्यवस्था पक्की है
यस सर! वो भी कार में है

क्यूँ मांगों अधिकारी से
जो उसके अधिकार में है

सागर-तट घर का कोना
हर मंज़र बाज़ार में है.

© 2012 Ehatram Islam; Licensee Argalaa Magazine.

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