इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका
शायद वहाँ मान्यताएँ इतिहास से भी ज्यादा मज़बूत हैं। वे ऐसी मान्यताएँ हैं जिसने जीने और लड़ने की ललक पैदा की थी। ये सहज जिन्दगियों के लिए आसान रास्ते थे जिस पर चलकर वे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में उतर रहे थे। ऐसे अतीत में बीता हुआ इतिहास उनके लिए एक किस्सा है जिसे वे रोज दुहराते हैं और हर दुहराव के साथ यह थोड़ा बदल जाता है और हर बदलाव के साथ एक इतिहास टूट जाता है। आखिर इतिहास को दिनों और तारीखों में सजोने से क्या फ़ायदा. विस्मृतियाँ कई बार मनुश्य को मज़बूत बनाती हैं जबकि स्मृतियाँ एक घायल इतिहास को लगातार ढोती रहती हैं। वे हर वक्त ज़िन्दगी को कुरेदती हैं और कुढ़न पैदा करती हैं कोई सीख देने के बजाय वे आतंकित करती हैं और एक डरावने स्वप्न की तरह गहरी नीदों में उतर आती हैं. विद्रोहों की कहानियों में जश्न और हताशा दोनों होती है पर विद्रोहों का रुख ही जश्न और हताशा में किसी एक के चेहरे को उभार देता है, रात दुहराती है अंधेरे को और अंधेरा पुत जाता है समय की पीठ पर, ठीक उसी अंधेरे के साथ नही बल्कि रात जाने कहाँ से हर रोज़ नया और इतना ढेर सारा अंधेरा लाती है। यहाँ घटनायें एक कटे हुए पेड़ सरीखी हैं जिसमे से कई कोपलें निकल आई हैं ठीक पेड़ सरीखी पर जाने कितनी जिनकी पत्तियाँ तने और आकार मिलते-जुलते लगते हैं. किसी एक घटना की कई-कई गाथायें हैं. हर बदली हुई आवाज़ एक नई गाथा पेश करती है आसमान का रंग नीला है इसके अपने वैज्ञानिक कारण हो सकते हैं पर यहाँ के लोगों के लिए इससे भी ज्यादा मौजू कारण यह हो सकता है कि ढेर सारे नील गायों ने आसमान पर अपनी पीठ रगड़ी है ऐसे में विज्ञान औंधे मुँह गिर पड़ता है। दण्डकारण्य के आदिवासियों के पास जंगल की कोई पुरानी आग है जिसकी रोशनी में वे एक नया स्वप्न देख रहे हैं पर आंच हैए आग है जिसमे वे झुलस भी रहे हैं.
सोड़ी दीपक का नाम कुछ और भी हो सकता है उन्हे अपनी उम्र तक का पता नही वे अपने उम्र का मापन आपकी आँखों पर छोड़ देते हैं। ज़िंदगी जीने का उम्र से कोई वास्ता हो सकता है क्या? शायद इसकी उन्हें ज़रूरत ही नहीं महसूस होती. क्योंकि वहाँ मौत उम्र और गुनाह पूँछ कर नहीं आती, अपनी जमीन पर ज़िंदा रहना ही उनका गुनाह हो सकता है. उनका गुनाह हो सकता है माओवादियों के सहयोग से बने तालाबों में मछली पकड़ना, उनका गुनाह हो सकता है कि अपने गाँव मसले को फैसले में बदलना जो सब मिलजुल कर आपस में निबटा लेते हैं और वहाँ गुनाहों की लम्बी फेहरिस्त है जहाँ आदिवासियों ने सरकार से अब उम्मीदें छोड़ दी है। सरकार से उम्मीदों के प्रबल दावेदार वे हैं जो इनकी जमीनों पर अपनी मशीने खड़ा करना चाहते हैं. जिनके लिए देश एक कच्चा माल है और देश का हर नागरिक संसाधन. शायद इस कच्चे माल को उन्हें खोदना है पकाना है और राख की शक्ल में उसे फेंक देना है. लाल किले से १५ अगस्त को हर बार दुहराया जाने वाला प्रगति और विकास का कोई संदेश इन आदिवासियों के लिए नहीं होता। वे प्रधानमंत्री की जुबान में बस एक भयानक खतरे की तरह आते हैं और एक दिन किसी नाले के किनारे उनकी लाश मिल सकती है या सम्भव है लाश भी न मिले. ज़िंदा पकड़े जाने पर वे उन छत्तीस वारदातों के दोशी हो सकते हैं जिन इलाकों को उन्होंने देखा तक नहीं. वे कई अनाम नामों के साथ महान गुनाहों की श्रेणी में शामिल हैं यह नवम्बर २०१० के किसी घटना की स्मृति है जिसे सोडी दीपक साझा कर रहे हैं इससे पहले की ढेर सारी स्मृतियाँ धुंधली पड़ चुकी हैं या शायद वे उसमे लौटना नहीं चाहते।
इस गाँव की सबसे बुजुर्ग महिला बंजामी बुधरी के आँखों की रोशनी जा चुकी है. इसमे ७० साल का इतिहास था, जिसे किसी कागज पर नहीं उतारा जा सका. जो अब बस जेहन में बचा है. उनके पास जंगलों में पूरे के पूरे गाँव के टहलने के कई किस्से हैं। इसे पलायन नही कहा जा सकता. इन जंगलों में बसने वाले गाँवों की जनसंख्या जब बढ़ जाती थी तो उनमे से कुछ घर उठकर थोड़ी दूर जाकर बस जाते थे. बंजामी 40 साल पहले गदरा सुकमा के नजदीक किसी जगह से आकर आखिरी बार इस गाँव में बसी थी और तब से यहाँ रह रही हैं. अब वे यहाँ से नहीं जाना चाहती. दो साल पहले उनके पोते की पुलिस ने हत्या कर दी है. वे बताती हैं कि वह तो बस पार्टी माओवादी वालों के साथ रहता था और सलवाजुडूम के खिलाफ़ था.
दण्डकारण्य का एक बड़ा हिस्सा आज माओवादी आन्दोलन के प्रभाव में है और राज्य का एक बड़ा तन्त्र इसकी चिंता के प्रभाव में. यहाँ माओवादी होना उतना ही सहज है जितना जंगल में पेड़ होना. सबके सब आदिवासी और सबके सब माओवादी. ये गाँव मुरिया और कोया समुदाय का है, जिसमे माओवादियों द्वारा नियुक्त एक अध्यापक तेलगू और हिन्दी दोनों जानता है. यहाँ कोई नहीं जानता कि वह कितना खतरनाक है. यह बात सिर्फ देश के प्रधान मंत्री को पता है जिसे वे बार-बार दुहराते रहते है। इन सब बातों से अलग एक इतिहास है जो मिथक के साथ लगातार प्रभावी बना रहा है। पूर्ववर्ती विद्रोहों को इन मिथकों ने संबल दिया था. आदिवासियों का एक राजा जो कभी नहीं मारा गया. विद्रोह का एक नायक जिसके शरीर पर आते ही बंदूक की गोलियाँ पानी में बदल जाती थी. आम की टहनियाँ जो गाँवों में पहुँचते ही लड़ाई का आगाज कराती थी. अब मौखिक कहानी बन गये हैं. इससे अलग ज़िंदगी एकदम उलट गयी है जबकि उनके गाँव खाली कराये जा रहे हैं. उन्हें कैम्पों में ढकेला जा रहा है. उनके शिकार के लिए ग्रीन हंट चलाया जा रहा है और बंदूक की नालें उन पर तान दी गयी हैं. वे बंदूकें छीनकर उनकी नालें मोड़ना सीख चुके हैं अब तक इन आदिवासियों को भारतीय राज्य सत्ता ने हमेशा एक ऐसे तत्व के रूप में देखा जो कभी किसी सत्ता के खांचे में फिट नहीं हो पाए. यह एक देशज असमानता का परिणाम था जहाँ हमेशा से इन पर शासन करने के ही बारे में सोचा गया और ये स्वशासन के बारे मे सोचते रहे. विकास नाम की कोई चीज है जो इन तक कभी नहीं पहुँच पाई और जब भी वह इन तक आई इनके कई सारे विनाश को एक साथ लेकर, जिसमे उस संस्कृति का विनास, उस सामूहिकता का विनाश और उस जंगल का विनाश समाहित था. जहाँ वे अब तक जीते आ रहे थे १९१० के भूमकाल और उसके पूर्व में हुए विद्रोहों ने हमेशा एक बाहरी व्यवस्था को थोपने की अस्वीकार्यता को प्रकट किया है जब अंग्रेजों के खिलाफ़ जंग छिड़ी तो आदिवासी यह सोच कर गोलियाँ खाते रहे कि उनका नायक गुंडाधुर कभी नहीं मारा जाएगा और गोलियाँ पानी में बदल जाएँगी, पर गोलियाँ पानी में नहीं बदली, वे चलीं और कुछ चीखें उठीं, कुछ उनके बीच से हमेशा के लिए जाने कहाँ चले गए और फिर कभी न लौटे. भारतीय सत्ता से पहली बार ६० के दशक में शुरु हुए राजा भंजदेव के नेतृत्व में भी यही मान्यता रही कि राजा को मारा नहीं जा सकता और पुलिस की गोली पानी में बदल जाएगी. भंजदेव की हत्या के बाद उन्हें कई वर्शों तक यह यकीन नहीं हुआ कि वह मारा जा चुका है और उसके तकरीबन १६ अवतार हुए जो यह दावा करते रहे कि वे राजा भंजदेव हैं अब जबकि ८० के दशक में माओवादियों ने यहाँ प्रवेश किया और धीरे-धीरे वे इनमे घुले मिले उन्होने आदिवासियों के सहयोग से उनका जो विकास किया, उन्हें जिस तरह की व्यवस्था मुहैया कराई. शायद वह उनके समाज के अनुरूप थी. वे इसे अपने समाज की व्यवस्था के रूप में स्वीकार्य कर चुके हैं. वर्तमान में दण्डकारन्य इलाके में माओवादियों ने जो बड़ा फर्क लाया है. वह यह है कि उन्होंने अधिकाँश स्थानीय व्यवस्था को वहाँ की स्थानीय लोगों के साथ जोड़ दिया है और वे माओवादी पार्टी के और वहाँ की जनताना सरकार के तमाम पदों पर स्थित हो गए हैं
यदि इतिहास हमे भविश्य निर्मित करने की समझ देता है तो पिछले चार दशकों यानि ४० वर्शों में नक्सलबाड़ी से आज तक माओवादियों के संघर्श और सत्ता द्वारा उनके उन्मूलन को लेकर अख्तियार किये गये अब तक के तरीकों से सीखना होगा जो कि मामूली नहीं रहे हैं छत्तीसगढ़ तब मध्यप्रदेश का हिस्सा था जब नक्सली उन्मूलन के महानीरिक्शक अयोध्यानाथ पाठक बनाये गये उस समय नक्सली इलाकों में पुलिस कर्मी शिक्शक के वेश में जाया करते थे और नक्सली गतिविधियों पर नजर रखते थे. यह माना गया कि नक्सली गाँव वालों के साथ इतने घुले मिले होते हैं कि कई बार पहचान ही मुश्किल हो जाती है और इस तरीके को अपनाते हुए तत्काल पुलिस अधीक्शक सुदर्शन ने ग्रामीणों के साथ अपने तौर तरीकों में बदलाव लाया. जब वे ग्रामीणों के बीच जाते तो जमीन पर बैठते. पता नहीं गाँव वालों ने इस पुलिस के बदले हुए रूप किस तरह लिया पर मीडिया को यह तरीका काफी पसंद आया और पुलिस का यह उदार चरित्र बड़े पैमाने पर प्रसारित किया गया. तरीका यह भी अख्तियार किया गया कि पुलिस कई दिनों तक जंगलों में नक्सली दलम बनकर घूमती रही 1990-92 के आस-पास जनजागरण अभियन चलाये गये और गाँव-गाँव जाकर यह बताया गया कि नक्सली अपराधी हैं. एनएसजी जैसी एजेंसी जो कि प्रधानमंत्री और राश्ट्रपति को सुरक्शा प्रदान करती है उसे तैनात किया गया. इस तरह के अन्य कई प्रयोग किये गए।
वहाँ के तत्कालीन डीआइजी पन्ना लाल ने दावा किया कि बहुत जल्द ही राज्य इस समस्या से मुक्त हो जाएगा उस समय के गृह राज्य मंत्री गौरी शंकर शेजवार ने तो यह भी कह डाला कि नक्सलवाद आखिरी सांसें ले रहा है यह बात १९९३ की है तब से अब तक १६ वर्श बीत चुके हैं ये सारे प्रयोग और दावे आज खारिज हो चुके हैं. अगर जुनून में न हो तो वास्तविक स्थिति का अंदाजा कोई पुलिस वाला भी लगा सकता . १९९७ में देव प्रकाश खन्ना जो वहाँ के डीजीपी थे, ने अपनी पुस्तक 'हम सब अर्जुन हैं' में इसे स्पश्ट भी किया है और व्यवस्था की संरचना व नक्सलवाद की समस्या को नये दृश्टि से रखने का प्रयास किया है अंततः उस समय यह मान लिया गया कि नक्सलवाद के लिये कोई भी फौरी कार्यवाही महज आदिवासियों को नश्ट करना और उनका कत्लेआम होगा इसलिये इसका एलोपैथिक इलाज किया जाना चाहिये।
लिहाजा इस आन्दोलन को बंदूकों से खत्म करना एक बड़े आदिवासी समाज की हत्या के रूप में ही आएगा। सरकार ने यहाँ के बड़े इलाके को कब्जे मे लेकर एक सैन्य प्रशिक्शण केन्द्र बना रही है ताकि इस प्रशिक्शण में आदिवासी उन्हें शिकार के तौर पर मुहैया हो सकें। देश की रक्शा के लिए जिन्हें हम सिपाही और प्रहरी से सम्बोधित करते हैं वे अपने ही देश के आदिम निवासियों का शिकार करने को तैयार हो रहे हैं और कुछ शिकार किए जा चुके हैं।
© 2012 Chandrika; Licensee Argalaa Magazine.
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