इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका
इतने मदारी, इतने बंदर!
मस्त से बैठे कैम्प के अंदर
ठहाके लगाते, खैनी फाँकते
अपनी-अपनी कमाई का हिसाब लगाते
अपने-अपने मजमे की भीड़ के बारे में
बातें करते...
मदोन्मत्त से इतराते-छितराते
भविष्य यानी कल की योजना बनाते
इलाकों का चयन, समय का चयन
ज़रूरी है, भीड़ इकट्ठी करने के लिए
तभी तो एक-दूसरे को बतलाते-समझाते
अपनी विद्वता-अनुभव का रोब जमाते
नवसिखुओं को नया गुर बतलाते
सोचते हैं कि अनुभव भी बड़ी चीज़ है!!
बड़े-बड़े कटोरे में
घाघरा-चोली पहने
भात परसती बहुरिया
मोटी-मोटी कलाइयों में
बड़ी-बड़ी ढेर सारी
चूड़ियों को बजाती
तंबू के अंदर-बाहर आती-जाती
बंदर को एक नज़र देख
कुछ टुकड़े
रोटी के छोड़ जाती
उपेक्षा से आहत बंदर
रोटी को देखता सोचता
रोटी को हाथ में ले कर
तोड़ता, फेंकता या खाता
भाग्य को कोसता
ख़ुद से रूठा अनमना सा
तम्बू के भीतर से उठते ठहाकों में
अपनी ज़िन्दगी का सार ढूँढता
जीवन की स्वतंत्रता का मर्म
समझने का प्रयास करता...
मन को तैयार करता रहता
कल फिर भीड़ के बीच
मदारी के इशारे पर नाचना है
बहू रूठे है कैसे?
और सास चले है कैसे?
उसने मदारी के सारे इशारे-आशय
अपने दिमाग में बिठा लिए हैं
क्योंकि उसे मालूम है
वह जानता है-
एक छोटी सी भूल
मदारी की हाथ में भिंची छड़ी को...
पूरी छूट देती है कि वह-
उसकी पीठ पर यथार्थ का कटु इतिहास
उकेर दे...
सच कहूँ तो उसके अंदर का सच
जो ठुमके की आड़ में किसी तरह
छुपा बैठा है...
बहुत भयभीत है
वह डरता है भीड़ के सामने आने से
वह स्वतंत्रता का मतलब
ख़ूब अच्छी तरह समझता है।
मेंड़ों पर खेत की
नंगे पैर, अधनंगा बदन
गमछा कांधे पर जमाए
उगी फसल की लहक
देख-देख पुलक में खोया
बालियों को बड़े प्यार से
सहलाता, रुकता-बढ़ता
मेंड़ पर कदम दर कदम
बढ़ता जाता गुनगुनाता
लहलहाती फसल से
साल के अच्छे बीतने की
उम्मीद में मगन खेत छोड़
घर नहीं लौटता
अचानक आँखों से हरियाली
रूठने लगती
पके अनाज सा चेहरा
पाला खाई फसल में तब्दील हो जाता है
ख़बर देश के लिए बड़ी है
किसान के लिए बहुत बुरी है
पैदावार अच्छी हुई है
क़ीमतों में कमी हुई है
ख़बर है या परमाणु बम!
किसान एक लम्बी साँस खींचता
छोड़ता फिर सोचता है
उपज कम तो दाने के लाले
उपज अधिक तो भी...
उफ़...
क्या यही नियति है या कि
नियंताओं की क्रूर नीति?
रो-रो कर अपने ही आँसुओं से
प्यास बुझाना...
खेत में खड़ी फसल को देख-देख
भूख मिटाना
मर-मर कर जीते जाना
उज्जवल भविष्य की आस में
भूख-प्यास भूल
हर दुख-दर्द को
बैल के कंधे पर पड़े जुए की तरह
ढोते जाना!
उसने चोट खाई है
बड़े गहरे ज़ख़्म लगे हैं
घुटने छिले हुए हैं
ख़ून रिस रहा है
लंगड़ा-लंगड़ा कर चलता
फटे होठों से
(रिसते ख़ून के साथ)
मुस्कान भी झड़ रही है
बजबजाते ख़ून उगलती नाक
अभी भी ऊँची ही हैं
मस्तक पर खरोंच...
नहीं-नहीं ज़ख़्म बेहद गहरे हैं
ख़ून के जम आए थक्कों ने...
छुपा दिया है, दरअसल
गले की मांस पेशियाँ तनी हैं
मुट्ठियाँ भिंची हैं अभी भी
लगता है एक-एक मांसपेशी
बड़े-बड़े, घातक से घातक
वारों को झेल-झेल
व्यक्तित्व को प्रभावपूर्ण भंगिमा
दे-देकर उसके आत्मबल को...
बढ़ा रही हैं
जिरह-बख्तर पहना रही हैं
अस्तित्व की ये जंग
अभी लंबी चलेगी...
वह थका नहीं है
चोट खाई है
लेकिन दर्द नहीं होता
क्योंकि सुनहरे कल का मलहम
काफी असरदार और गाढ़ा है
........
उन्होंने कहा है इन्कलाब आएगा
लड़ाई लम्बी चलेगी, हम जीतेंगे
वह खुश है...
आदमी भी कछुआ होता है
वह अंधेरे में बैठा
देखता रहा दीपक टिमटिमाता
छप्पर पर उल्लू बैठा रहा
खरों को उखाड़-उखाड़ ढूँढता रहा कीड़ा
देर तक सीली ज़मीन पर हाथ टिका कर
बैठने से उभरे चकत्ते में कुनमुनाती पीड़ा
बेख़बर ठण्ड से ठिठुरा गठरी बना
एकटक देखता रहा दीपक टिमटिमाता
आशा की लौ कभी धीमी - कभी तेज़ होती रही
और वह वर्तमान को भूल
भविष्य में जाने की बजाए भूतगामी हो गया
माज़ी की अंधेरी कोठरी में कुछ ढूँढता रहा
चाहता तो था कि वह भी कुछ बने, कुछ करे
जीवन की सुविधायें जुटाए
अक्सर कोशिशें भी करता था
पर समय बहुत बेमुरव्वत
कभी साथ ही नहीं दिया
समय...
पत्नी के रूठ कर मायके चले जाने पर
मनाते वक़्त वह हमेशा कहता
समय सदा एक सा नहीं रहता
कि वह बदलता है- बदलता रहता है
कि हमारा भी समय बदलेगा
और तुम्हारी सारी इच्छाएँ पूरी करूँगा
कि इसमें मुझे तुम्हारे सहयोग की ज़रूरत है
कि तुम मेरे साथ रहो, सहयोग करो
वह बहुत अच्छी है, मान जाया करती है
साथ लौट आती है अपने घर
लेकिन समय है कि बदलता ही नहीं
अड़ियल टट्टू की तरह अटका पड़ा है
और वह कुछ बदलता न देख
फिर-फिर चली जाती है...
थक गया है
अब वह आश्वासन नहीं दे सकता
कि उसकी आशावादिता चूक गई है
रोटी, कपड़ा और मकान
ये तीन शब्द...
हाँ, शब्द ही तो हैं
लेकिन हथौड़े की तरह
बार-बार दिमाग पर वार
इन शब्दों के अर्थ तो वह भी जानता है
पर निदान...
दीपक की टिमटिमाती लौ बुझ गई है
छप्पर पर उल्लू बोल रहा है
अंधेरे में आँखें फाड़ने के बावजूद
भविष्य की धुँधली परछाईं भी नज़र नहीं आती
वह घबरा कर आँखें मूँद लेता है
सिर को घुटनों के बीच फँसाकर
घुटनों को हाथों से जकड़ने के बाद
ख़ुद को सुरक्षित महसूस करता है
बिल्कुल कछुए की तरह...
हमने देखा, रात घनी थी
भरा हुआ था सन्नाटा
लंबे-ठिगने ढेरों मानुष
जोह रहे थे आँखें फाड़े
कैसे टूटे..!
चक्रव्यूह सा अभेद्य दुर्ग यह
जिसकी रक्षा में राज्य लगा था
...
राजा जनता का था
जनता राजा की थी
राजा-प्रजा का सम्बन्ध निराला
भूखी प्रजा जाग रही थी
राजा तोड़े कैसे निवाला!
फिर भी राजधर्म की खातिर
खाता था, था ऐसा जियाला
दुख भारी था
जनता कातर थी
अंधेरा ज़ालिम जानलेवा
करता था जनता का कलेवा
सूरज, चाँद, तारे, जुगनू
सब के सब थे सहमे-सहमे
कोई नहीं जो दरस दिखा दे
कहाँ, किधर है बूँद उजाला
...
अपनी कोशिश में विफल
राजा ने पिटवा दी वैश्विक मुनादी
जगत भर के वीरों को ललकारा
उनको आकर्षित करने हेतु
डाला तगड़ा मोटा चारा
जो भी कर दे दूर अंधेरा
उसको मिलेगा सुबह सवेरा
जनता तपती धूप चखेगी
नाम सदा उसका ही जपेगी
...
देश-विदेश से योद्धाओं की भीड़ जुटी
सब मिल-जुल कर करने लगे संहार
बंदी उजाला साथ था उनके
शुरू हो गई देश परिक्रमा
...
मुट्ठी-मुट्ठी फेंकते जाते
अंधेरे की छाती पर
दौड़ा आता था फिर वापस
(क्योंकि उजाला दास था उनका)
फिर तो हुआ ऐसा कि बस
अंधेरे की बस्ती में टिक न सका
सुखभोगी रथ के पीछे-पीछे
लगा दौड़ने
अंधेरा मुस्कराता रहा
उजाला बस धमकाता रहा
(इस तरह परिक्रमा पूर्ण हुई)
...
अंधेरे का पता नहीं
(शायद उजाले से कुछ समझौता हुआ हो!)
अब वह सिर्फ रात में आता है
चाँद-तारों की दावत होती है
उन्हें ख़ूब खिलाता है
और हमारे उद्धारकगण
राजमहल में संग राजा के
सुबह सवेरा खा लेते हैं
...
तपती धूप को खाएँ कैसे?
मुँह जलता है...
भूखे रहें तो पेट जलती है
इसी पशोपेश में पड़ी जनता
सदियों से गलती आती है
फटी-पुरानी चमड़ी से अपने
अस्थि-पंजर को ढकती ढोती
चलती रहती है.
© 2012 Akbar Mehfooz Alam Rizvi; Licensee Argalaa Magazine.
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