अर्गला

इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका

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काव्य पल्लव

महेश पुनेठा

कभी भी नहीं मर सकता

उनके

दृढ़ इरादे

और कठिन परिश्रम

कठोर से कठोर कांठे को भी

बदल देते हैं

सुन्दर स्थापत्य में

रौखड़ में भी

लहलहा देते हैं हरियाली ।

फिर ये तो जीती -जागती

दुनिया है दोस्तो !

इसलिए

कभी भी नहीं मर सकता

मेरी आँखों में

सुंदर दुनिया का सपना ।

अधूरी रहेगी

रोज-रोज करती हो साफ

घर का एक-एक कोना

रगड़-रगड़ कर पोछ डालती हो

हर-एक दाग-धब्बा

मंसूबे बनाती होगी मकड़ी

कहीं कोई जाल बनाने की

तुम उससे पहले पहुँच जाती हो वहाँ

हल्का धूसरपन भी

नहीं है तुम्हें पसंद

हर चीज को

देखना चाहती हो तुम हमेशा चमकते हुए

तुम्हारे रहते हुए धूल तो

कहीं बैठ तक नहीं सकती

जमने की बात तो दूर रही

इस सब के बावजूद

रह गए हैं यहाँ

भीतर-बाहर

अनेक दाग-धब्बे

अनेक जाले

धूल की परतें ही परतें

धूसरपन ही धूसरपन

सदियों से बने हुए हैं जो

बने रहेंगे जब तक ये

अधूरी ही रहेगी तुम्हारी साफ-सफाई।

क्यों न कोसूँ

दिल्ली को

क्यों न कोसूँ मैं

मेरा भाई

जिसको चिंता थी गाँव की

उसके रहवासियों की

अंधेरे को लेकर

जिसके भीतर आक्रोश था

छटपटाहट थी

एक आग जलती रहती थी

एक कीड़ा कुलबुलाता रहता था

एक दिन

जो यह कहकर गया था दिल्ली

रोशनाई लेकर आएगा हम सब के लिए।

पहली बार गया था जैसा

वैसा फिर लौटकर नहीं आया दोबारा

स्मृतिदोश से ग्रस्त होता चला गया वह

हमें पहचानता तक नहीं अब

और न वह अब

सीधे-सीधे पहचाना जाता है हमसे

बदल गई है उसकी चाल-ढाल

बदल गया है उसका बोलचाल

रतौंधी सा कुछ हो गया है

अब दिल्ली से बाहर

कुछ दिखाई ही नहीं देता है उसे ।

न जाने ऐसे और कितनों के

कितने भाई-बहनों को छीना है

इस दिल्ली ने

किया है रोगग्रस्त

आखिर क्यों न कोसूँ ऐसी दिल्ली को।

पर.....

पलुराए कोमल-कोमल पत्तों से

भरे गझिन छाया से

सुरभित सुमनों से सुशोभित

लकदक लदे मीठे-सरस फलों से

सहस्रबाहु की तरह भुजाएं फैलाए

आसमान से सिर लड़ाए

सबको पता है

कहाँ से पाते हैं ये रूप-रस-गंध

जिन्होंने नहीं देखी कभी एक किरण उजाले की

एक कतरा हवा का

सहते रहे सीलनी-अंधेरा

लड़ते रहे कठिन बीवरों से

तलाशते रहे जल

खनिज दल

गहराइयों में पैठकर

ढूँढकर लाए ये सौंदर्य अपार

पर

प्रशंसा जमीन से ऊपर वाले ही पाते हैं।

सावधान

वे लिखेंगे

कविता-कहानी-उपन्यास

जनता के शोशण-उत्पीड़न पर

मानवाधिकारों के हनन पर

वे पत्रिका निकालेंगे

जनता की आवाज को स्वर देने के नाम पर

छापेंगे उसमें

देश-दुनिया के क्रांतिकारी रचनाकारों को भी

वे संस्थान भी स्थापित करेंगे

जनपक्शधर रचनाकारों के नाम पर

गोश्ठियाँ आयोजित की जाएंगी जहाँ

जनता से जुड़े ज्वलंत मुद्दों पर

जयंतियाँ भी मनाई जाएंगी

जनकवियों की याद में

देवता की तरह याद किया जाएगा उन्हें

वे पुरस्कारों से भी नवाजेंगे

युव से युवतर साहित्यिकों को

वे सब कुछ करेंगे

ताकि आपको विश्वास होने लगे

नहीं है कोई उनसे बड़ा जन-पक्शधर

पर सावधान!

जब अपने हक-हकूक के लिए

या शोशण-उत्पीड़न के खिलाफ

जनता होगी संघर्शरत

तब वे सबसे आगे होंगे

उन्हें बर्बर-जंगली और असभ्य साबित करने में।

तुम से अच्छे

इतना दमन/शोशण

अन्याय- अत्याचार

फिर भी ये चुप्पी।

तुम से अच्छे तो

सूखे पत्ते हैं।

वे और उनकी संस्कृति

वे केवल हमारी जेबें ही खाली नहीं करते

जेब के रास्ते दिल-दिमाग तक भी पहुँच जाते हैं

खाली कर उन्हें

अपने मतलब के साॅफ्टवेयर लोड कर देते हैं वहाँ

सूखे काठ में बदल देते हैं हमारी आत्मा को

एक औचित्य प्रदान करते हैं वे

अपने हर काम को

जैसे वही हों सबसे जरूरी

और

सबसे लोक कल्याणकारी ।

वे जोकों से भी खतरनाक होते हैं

केवल खून ही नहीं चूसते

खतरनाक वायरस भी छोड़ जाते हैं हमारे भीतर

जिसके खिलाफ

कारगर नहीं होता है कोई भी एंटी वायरस

रीढ़ और घुटने तक नहीं बच पाते साबूत

पता तक नहीं चलता

कि

कब सरीसृप में बदल गए हम

कब संवेदनाओं की धार कुंद हो गयी।

गरियाते रहें उन्हें दिन-रात भले

मौका मिलते ही

खुद भी चूसने में पीछे नहीं रहते हैं हम

और

फिर हम भी

उसे औचित्य प्रदान करने में लग जाते हैं।

धौल या धुँइयाँ

नहीं पता मुझे इसका वैज्ञानिक नाम

यह भी नहीं पता कि

क्या कहते हैं इसको मानक हिंदी में

कहीं धौल कहीं धुँइयाँ

पुकारते हैं इसे ग्वाले-घस्यारियाँ-लकड़हारिनें

पूछो इसके बारे में तो

धूप-धूप हो आता है उनका चेहरा

शहद उतर आता है बोली में

बताते हैं-

मौ भौत होता है इसके भीतर

मौन खूब आते हैं इसके पास

इसके झुरमुटों में बैठे-बैठे

रस चूसते हुए

भौत मजा आता है

घस्यारियाँ कहती हैं -

बकरियाँ खाती हैं इसकी पत्तियों को

बड़े चाव से

बड़ा गरम होता है सौत्तर भी इसका

इसकी लकड़ी में आग होती है भरपूर

बताती हैं लकड़हारिनें

बुरूँश के पड़ोस में ही खिला है धुँइयाँ

ऊपर-ऊपर बुरूँश नीचे धुँइयाँ

धौलिमा फैली है पूरी घाटी में

उतर आया हो जैसे

गोधूलि का आसमान

बुरूँश जितने बड़े व रक्ताभ न सही

पर कम नहीं सौंदर्य इनका भी

खिलते हैं जब अपने पूरे समूह के साथ।

पता नहीं क्यों

किसी कविता में खिल न पाया

किसी चित्र में ढल न पाया

किसी ने किया नहीं कैद अपने कैमरे में इसे।

अफसोस

पलुराए कोमल-कोमल पत्तों से

भरे गझिन छाया से

सुरभित सुमनों से सुशोभित

लकदक लदे मीठे-सरस फलों से

सहस्रबाहु की तरह भुजाएं फैलाए

आसमान से सिर लड़ाए

सबको पता है

कहाँ से पाते हैं ये रूप-रस-गंध

जिन्होंने नहीं देखी कभी एक किरण उजाले की

एक कतरा हवा का

सहते रहे सीलनी-अंधेरा

लड़ते रहे कठिन बीवरों से

तलाशते रहे जल

खनिज दल

गहराइयों में पैठकर

ढूँढकर लाए ये सौंदर्य अपार

अफसोस

जब भी होती है सौंदर्य की चर्चा

प्रशंसा जमीन से ऊपर वाले ही पाते हैं

धूर्तता

तुम कहते हो -

कितनी अच्छी ज़िंदगी है इनकी

खा-पीकर मस्त रहते हैं

इन प्लास्टिक के बने तंबुओं के भीतर ।

एक जगह से जी भरा

चल देते हैं कहीं दूसरी जगह को

देश-दुनिया घूम लेते हैं इस तरह

( कितना सरलीकरण है यह स्थितियों का )

नहीं देखा है शायद तुमने इन्हें

मई-जून की चिलचिलाती धूप में

प्लास्टिक के इन तंबुओं में पकते हुए

भादो के गरजते-बरसते मौसम में

आधी-आधी रात को उखड़ते हुए

चीखते-चिल्लाते-चित्कारते

बच्चों-बूढों को लिए भागते हुए

किसी इमारत की आड़ में

सिर छुपाने भर छत की तलाश करते हुए

आँखों-आँखों में ही

कितनी काली रातें काटते हुए

जाड़ों की सतझड़ी में

तंबुओं में सिमटे-सिकुड़े कॅपकपाते हुए

जब तुम रजाई पर रजाई डाले

बंद किवाड़ों के भीतर

शिकायत करते हो पैरों में तात न होने की

बीड़ी पर बीड़ी सुलगा ये

भगाने का असफल प्रयास करते हैं ठंड को

चारों ओर से खुद को रक्शक मेखला बना

बीच में नन्हे-नन्हे बच्चों को बैठा

लड़ते हैं ये जिद्दी शीत से

निगाहें आसमान में ही अटकी रहती हैं तब।

एक सफर थका देता है तुम्हें

नहीं होती है हिम्मत बहुत दिनों तक

किसी दूसरे सफर में जाने की

इनका तो जीवन ही सफर में कटता है।

तुम कहते हो -

कितनी अच्छी ज़िंदगी है इनकी

खा-पीकर मस्त रहते हैं

इन प्लास्टिक के बने तंबुओं के भीतर

कब बाज आओगे तुम

अपनी धूर्तता से ?

पहाड़ की खेती और माँ

लगी हूँ दिन-रात

लगी हूँ वर्शों से

जैसे गाड़-गधेरों में बहता पानी

जैसे इन पहाड़ियों और घाटियों के बीच चलती हवा

नहीं मिला पीठ सीधी करने का वक्त भी

बहुत हो गया अब

सिर भी पैरों को मिलने आया

होश भी नहीं संभाला था ठीक से

उससे भी पुराना है इस मिट्टी से नाता

अपने से अधिक इस मिट्टी को जानती हूँ

(इसके रूप-रंग-गंध को

इसकी खुशी और उसके रुदन को

इसकी जरूरत को )

रौखड़ भी कमता किया

दलदल में भी डूबी रही

चिलकोई घाम में तपी

चैमासी झड़ में भीगी

ओस-तुस्यार की नहीं की परवाह कभी

रक्त-हड्डी-मांस गलाया सभी

खाए-अधखाए घूमती रही जातरे की हथिनी सी

पानी कहाँ

आँसू-खून-पसीने से सींची

पूरा परिवार जुता रहा अपनी-अपनी तरह से

बच्चे नहीं कर पाए ठीक से पढ़ाई

बुति के दिनों तो कम ही हो पाता स्कूल जाना उनका

चाहे-अनचाहे

खेती-बाड़ी के काम ही उनके खेल बन गए

खीजते रहते थे बच्चे खूब

फिर भी लगे रहते मेरे साथ सभी

पर फसल

कभी अकाल ने सुखाई

कभी ओलों ने मारी

कभी जंगली जानवरों ने खाई

बीज भी मुश्किल से रख पाई

सब ठीक-ठाक भी रहा तो

आधे साल भी परिवार का पेट नहीं भर पाई

अब तो और भी खराब हाल हैं

बढ़ गया है जंगली जानवरों का आतंक

गुन-बानर तो भीतर तक ही घुस आते हैं

बीज उजड़ चुका है अपना

ब्लाक के भरोसे रहना ठैरा

बिन यूरिया के कुछ होता नहीं

हल-बैल अपने हाथ हुए नहीं

कभी सोचती हूँ बहुत हो गया अब

चली जाऊँ बड़े के साथ शहर

बहुत कहता है-माँ आ जा यहाँ

रूखी-सूखी जैसी भी है साथ मिलकर खाएंगे

दुःख-बीमार देखभाल/दवा-दारू भी हो जाएगी

खूब कर दिया है ज़िंदगी भर

अब थोड़ा आराम कर

फिर हूक-सी उठती है इक

क्या कहेगी यह मिट्टी

हारे-गाड़े काम सराया जिसने

कैसे छोड़ चली जाऊँगी उसे

बचपन से अब तक जिसके साथ रही

मेरे आँसू-खून-पसीने की गंध बसी

कैसे रहूँगी इस सबके बिना शहर

पुरखों की जमीन

बंजर अच्छी नहीं दिखती

हरे-भरे खेतों के बीच बंजर जमीन

मजाक उड़ाएंगे

भाई-बिरादरी के लोग भी

नहीं-नहीं .....

जमीन का बंजर रहना अपशगुन माना जाता है

और कुछ न सही

मन तो लगा रहता है इसके साथ

इधर-उधर चलना-फिरना हो जाता है

वहाँ तो अभी से घोलि जाऊँगी

क्या ज़िंदगी है पिजड़े में बंद पंछी की

पंख भी पूरे फड़फड़ा नहीं पाता ।

नहीं-नहीं मैं यहीं ठीक हूँ......।

गरीबी और अकर्मण्यता

कर्ज लेकर

खरीदा जोग्या ने

आलू का महँगा बीज

खेत को

अच्छी तरह तैयार कर

बोया आलू

समय पर खाद

समय पर गुड़ाई

समय पर निराई

समय-समय पर पानी

ठंडी रातों में

जग-जागकर

बचाया

जंगली जानवरों से

पाले की मार से बचाने को

किए आवश्यक उपाय

पूरा परिवार

लगा रहा मेहनत में

मेहनत रंग लाई

अच्छी हुई फसल

बहुत सालों बाद

हुई इतनी अच्छी फसल

जोग्या को लगा

अबके तो पूरे होंगे उसके अधूरे अरमान

मिट जाएगी उसकी गरीबी

अबके बाजार में आलू

हो गया सस्ता

इतना सस्ता कि

बाजार तक पहँुचाने का

भाड़ा निकलना भी कठिन

खेतों में सड़ता रहा खोदा आलू

ऊपर से

बीज-खाद का उधार

सिर चढ़ा जोग्या के

कौन-सा कर्म करे

कौन-सा उपाय

उतार सके उधार

रात-रात भर सो न पाता वह........

गरीबी का कारण अकर्मण्यता को बताते हो तुम

कैसे विश्वास किया जाय भला तुम्हारे इस तर्क पर ।

© 2012 Mahesh Punetha; Licensee Argalaa Magazine.

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