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विमर्श

जी. पी. मिश्रा

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता की जी पी मिश्रा से बातचीत

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: मेरा पहला सवाल आपसे है कि पहले जो पचपन बरसों से कश्मीर को दी गयी प्रति व्यक्ति केन्द्रीय सहायता बिहार से 14 गुना, तमिलनाडृ से ग्यारह गुना और असम से छः गुना अधिक रही है। कश्मीर को सहायता का 90 प्रशित अनुदान यानि ग्रान्ट के रूप में मिलता रहा है शेश 10 प्रतिशत ऋण के रूप में जबकि अन्य राज्यों में यह ग्रान्ट 30 प्रतिशत से 70 प्रतिशत है। सवाल है कि जो रकम इतनी बड़ी काश्मीर को दी गई वो कहाँ गई? इसके लिए कौन लोग जिम्मेदार हैं? इस पर आपकी राय क्या है?

जी पी मिश्र: यह स्पश्ट है कि वर्ग-समाज में जब राजसत्ता सम्प्रभुधारियों एवं उत्पादन के मालिकों के हाथ मे होती है जैसा कश्मीर में है तो केन्द्र द्वारा आवंटित विशाल धनराशि शोशित-शासक के निजी खातों को ही सिंचित व संचित करेगी और आम जन अपने जीने की शर्तो को पूरा करने से वंचित रहेगा। इसके विकास के काम-यानि- रेल, सड़क, पानी, बिजली, स्कूल, अस्पताल इत्यादि बांधित होगें। शोशण व जुल्म दमन बढ़ेगा। शासक द्वारा जनता के प्रतिरोध के स्वर को भिन्न-भिन्न तरीको से खामोश कर दिया जाता है जैसा कश्मीर में हो रहा है सात पूर्वाैत्तर राज्यों से पूरा देश इस स्थिति का दुःखद शिकार है।

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता:- कश्मीर का जो मुख्य उद्योग है वो सेब का व्यापार है। किन्तु सेब का समूचा मुनाफा सेब के मालिको को जाता है। सेब मालिकों के शोशण से मजदूरों को कैसे निजात दिलाई जा सकती है?

जी पी मिश्र: भ्रश्टाचार, अत्याचार व शोशण से मजदूरों की मुक्ति तो पूरे देश की आम जनता की मुक्ति से जुड़ी है। जो क्रान्तिकारी राजनीतिक काम है। जो कि शोशक व्यवस्था को उखाड़कर वैकल्पिक समाजवादी व्यवस्था लाने के क्रान्तिकारी कार्यक्रम पर आधारित होगा।

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता:- इसे आप और कैसे देखते हैं कि राजनीतिक सामाजिक रूप से कैसे आप इन समस्याओं का हल खोज सकते हैं ै?

जी पी मिश्र: अभी मैने कहा है कि राजनीतिक एजेन्डा ही इसका हल है अवश्य ही इस राजनीतिक संग्राम की अगुवाई आम-जन के बीच क्रान्तिकारी शैक्शिक सांस्कृतिक आन्दोलन को ही करना पड़ेगा। क्योंकि जनता में जब तक राजनीतिक चेतना नहीं आयेगी। उसके सांस्कृतिक व्यवहार में परिवर्तन नहींं होगा व समाज को बदलने में याकि व्यवस्था को बदलवाने मे सफलता उसे नहींं मिलेगी।

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता:- जो कश्मीर के दो अन्य व्यापार हैं एक हस्त शिल्प है इस उद्योग में तीन लाख चालीस हजार लोग लगे हैं किन्तु मुनाफा का सारा धन शाल और मंहगी कालीने इनके निर्माता कारखाने के मालिक उगाहते हैं। स्थिति ये है कि मजदूर मरे नहींं इतनी गुंजाइश भर उन्हें मिलती है। चीनी मिट्टी के व्यापारी आज पूँजीपति हो चुके हैं जबकि इन वस्तुओं को बनाने वाले लाखों हाथ भारी बीमारी और अशिक्शा, जन संुविधाओं की उपेक्शा झेल रहे हैं। इसे कैसे बदला जा सकता है?

जी पी मिश्र: इसका भी जो मैने हल बताया कि आम जन के मुक्ति के सवाल से ये सभी चीजे जुड़ी हैं। जब तक मालिक मजदूर का जो संबंध अभी चल रहा है यह संबंध खत्म नहींं होगा और इसकी सम्पत्ति का स्वामित्व का सामजंस्य स्थपित नहीं होगा तब तक निदान सम्भव नहींं है।

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता:- आपने अपने जीवन में बहुत सारे आन्दोलन देखे हैं । तो जो भारत के आन्देालन रहे हैं आपके जीवन पर जिनका प्रभाव पड़ा। इस देश पर प्रभाव पड़ा ऐसा आन्दोलन जिसने पूरे देश को अपनी गिरफ्त में ले लिया। आपकी जानकारी में ऐसा कौन सा जन आन्दोलन रहा जिसने इस देश को प्रभावित किया। आजादी के बाद से?

जी पी मिश्र: देखिए, पहली बात तो किसानों, मजदूरों, छात्रों, नौजवानों का बहुत तीखा जबरदस्त आन्देालन हुआ है। जिसमें आप रेलवे की हड़तालों का जिक्र ले सकते हैं । पहली हड़ताल रेलवे में 1960 में हुई। दूसरी हड़ताल 1968 में हुई जो कभी दिग्प्रभावित नहीं हुई। इसके बाद जो रेलवे की सबसे बड़ी हड़ताल रही है वह 1973 में आॅल इ.डिया लोकल लिंक, एसोसिऐशन का रहा है। इन ड्राइवरों, रेलवे के चालाकों ने अकेले दम पर पूरे रेलवे को ठप कर दिया था। और उस समय रेल मंत्री हुआ करते थे ललित कुमार मिश्र जोकि एआईएलएसए के महासचिव हुआ करते थे. काॅमरेड एमआर सभापति जो कि सीपीआई से जुडे़ हुए थें और यह संगठन मान्यता प्राप्त नहींं था। मान्यता प्राप्त का मतलब ये होता है कि सरकार इनके नेताओं को बहुत सारी सुविधाएँं देती है और इनको वह अधिकार देती है कि अपनी बातों को वे रखे और सरकार सुनने के लिए उसका निदान करने के लिए बाध्य होती है। एआईएलएसए मान्यता प्राप्त नहीं था. उनमें इतनी बड़ी भागेदारी थी खासकर उस आन्दोलन में मजदूरों ने यानी रनिंग स्टाफ ने जबरदस्त ढंग से निबाहा. इसके कारण सरकार को झुकना पड़ा. एमएआर सभापति को मद्रास से दिल्ली हवाई जहाज से बुलाना पड़ा. और उनकी माँगें मानी गयीं. यह इस दृश्टि से सफल आन्दोलन याकि हड़ताल थी.

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: इस हड़ताल की माँगों के मुख्य बिंदु क्या थे? उनकी मुख्य माँगें क्या थीं?

जी पी मिश्र: उनकी माँगें थीं अपने वेतन को लेकरए रनिंग एलाउंस को लेकरए प्रमोशन को लेकरए तीन चार अन्य माँगों को लेकर ये हड़ताल हुई थी. दूसरी जो हड़ताल थी १९७४ कीए लगभग २२ लाख कर्मचारियों ने इसमें सक्रिय रूप से मिलकर हड़ताल की थी. यह हड़ताल ८ मई १९७४ से २७ मई १९७४ तक चली. इस हड़ताल का नेतृत्व एमसीसीआरएस करता था. इसमें एआईआरएसई के साथ आल इ.डिया लोकल एसोशिएसन के लोग भी लगे हुए थे. ये हड़ताल ऐसे कर्मठ संगठनों की जुझारू लड़ाई से सफल हुई जो आपने प्रश्न अभी पहले किया था उसका एक पार्ट इसमें भी आ जाता है. भारतीय मजदूर और उसके आन्दोलन को समझने के लिएए कि अभी तक जो हड़तालें हुई हैं उसके नेता और उनके संगठनों के लोग समझौतापरस्त हुआ करते थे. १९७४ की हड़ताल भी इसी की एक मिसाल थी. एक चीज सुनकर के आपको अचरज होगा कि जिन संगठनों ने इस हड़ताल को कॉल किया था उनके जो नेता थे ८ मई को हड़ताल शुरू होने के पहले ही कोर्ट अरेस्ट कराकर के जेल चले गए. ताकि उनके खिलाफ़ किसी भी तरह की तोड़.फोड़ की कार्रवाई दर्ज न हो. और उनकी नौकरी सुरक्शित रहे. मूल रूप से जो संघर्श करने वाले लोग थे वो जेल नहीं गए. वो कोर्ट अरेस्ट नहीं हुए. जनता के बीच में ही रहे. मैं अगर अपने को बताऊँ तो स्वयम मैंने भी यूजी होकर के ही इसमें काम किया था. रेलवे का जो सबसे बड़ा यार्ड है मुगलसरायए इस मुगलसराय यार्ड के बंद होने का मतलब है कि उत्तर भारत से दक्शिण भारत तक का पूरा रास्ता बंद हो जाता है. ये हड़ताल कई माने में ऐतिहासिक है. स्मरणीय है. सरकार ने इस हड़ताल को तोड़ने के लिए कई तरीके से मुगलसराय के रेलवे कर्मचारियों की बुनियादी ज़रूरतें पानीए बिजली और अन्य सुविधाएँ बंद कर दी थी. और पुलिस बल का प्रयोग बर्बर तरीके से ऐसे किया कि बंदूकों के कुंदे से कर्मचारियों को मार मारकर के हड़ताल तोड़ने की कोशिशें कीं ताकि वो वापस काम पर आ जाएँ. और रेलवे की जो हड़ताल थीए इतने बड़े पैमाने पर लगातार होते देखकर के जो अधिकारी वर्ग थाए वो कोयले की जो सप्लाई थी उसे वाया चुनार से लाकर के गाड़ियों को सिंगल रूट से चलाना शुरू किया. हमें हड़ताल को सफल बनाने के लिए चुनार के कर्मचारियों को भी साथ में लेकर चलना पड़ा. इसके लिए मैं चोपन भी गया. चोपन में जो कर्मचारी रेलवे के काम में आते थे वहाँ हमने जाकर के एक मीटिंग की कि ये तमाम संगठनों और अन्य हड़ताल कर्मचारियों के साथ किया जाने वाला अन्याय है. अगर हड़ताल सफल होती है तो फायदा सभी लोगों को मिलेगा. आप लोग जो हड़ताल की सफलता को तोड़कर के हड़ताली कर्मचारियों का संघर्श देखकर भी गाड़ियों का संचालन कर्मचारियों का संघर्श देखकर जिस रूट से कर रहे हैं. गडवा रोडए वरवाडीहए चोपनए चुनार से जो गाड़ियाँ जा रही हैं. यह उनके साथ में अन्याय होगा जो हड़ताल में शामिल हैं. इस बात का असर उन लोगों पर थोड़ा बहुत पड़ा. कि गाड़ियाँ वहाँ भी काफी हद तक रोककर रखी गयीं. बाक़ी हमें बहुत भोगना पड़ा. चूंकि जहाँ हड़ताली लगे थे वहाँ से हटकर के मैं अकेला ही चोपन चुनार में यूजी होकर मीटिंग करने में लगा था. अब उन माँगों पर बात करूँगा जो मुख्यतः थीं. उसमें कर्मचारियों का डीए बढ़ाने की माँग थी. वेतनमान की जो ग्रेडपेय थी उनको बढ़ाने के लिए माँग थी. इस मकसद से यह एक सफल हड़ताल थी. बाद में बहुत सारे कर्मचारियों को भोगना पड़ा. इसी के साथ में जो रेलवे का इन्टेक हैए जो कांग्रेसी मजदूर था जिसको एनएफएआईआर कहते हैं. इसने हड़ताल में भाग नहीं लिया. उनको ऐलान किया गया कि जो लोग हड़ताल में भाग नहीं लेंगे उन्हें एक एक्स्ट्रा इन्क्रीमेंट दिया जाएगा. उनके एक लड़के को भर्ती किया जाएगा. ऐसे में हड़ताली कर्मचारियों के साथ जिन लोगों ने गद्दारी की उनको जबरदस्त फायदा दिया गया. १९७६ में जब कमलापति त्रिपाठी आये उनहोंने एम् आर डिजायर्स के नाम सेए जो लोग हड़ताल में शामिल नहीं हुए थेए उन्हें कई तरीके से रिवार्ड दिया गया. उनकी इन्क्रीमेंट भी की गयी.

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: आपको उस समय के कुछ नारे याद हैं क्योंकि लोगों को मोबलाइज करने में नारों का बड़ा योगदान हमेशा रहा है. लोगों में जोश और जज़्बा बनाए रखने में नारों की बड़ी भूमिका रही है. ऐसे कौन से नारे थे जिन्होंने जनता को १९ दिनों तक खड़ा किए रखा?

जी पी मिश्र: चूंकि ये आन्दोलन सड़कों पर नहीं था. ये आन्दोलन कामों को ठप्प करने का था. इसलिए इसका भूमिगत काम काफी हुआ है. नारे देकर के कोई ये कहेगा कि हम उसमें शामिल हो रहे है. ये करना बेहद मुश्किल था. चारों तरफ चप्पे. चप्पे पर पुलिस बिछी हुई थी. जिस पर शंका होती थी कि वो हड़ताल में जाने वाला है या हड़ताल उकसाने वाला है पुलिस उसे अरेस्ट करती थी. उसकी जमकर पिटाई होती थी. इसलिए उस समय नारों का एक तरह से बोलबाला नहीं था. हाँ ये था कि गुपचुप तरीके से मजदूरों को काम पर जाने से रोकना था. दूसरा यह कि हम लोग जो ज्यादातर यूजी होकर ही काम कर रहे थे. हम लोग जेल नहीं गए. हमें था कि हमारी माँगें पूरी होंए नहीं तो हम काम नहीं करेंगे. हड़ताल ज़िंदाबाद कहकर कुछ लोग जेल भी गए. पुलिस की गाड़ी आई और उन्होंने अपनी गिरफ्तारी दी. हम लोग उस नारे लगाने वाली जनता के साथ इसलिए नहीं थे क्योंकि जेल जाकर तो किसी भी तरह से एक बड़ी संख्या में मजदूरों को मोबलाइज नहीं किया जा सकता था. मुख्य काम ये था कि जो लोग हड़ताल होने के बाद भी काम पर आ रहे हैंए उन्हें काम पर जाने से रोकना. और जो लोग हड़ताल पर चले गए हैंए उनके परिवार में जो पुलिस की ज्यादती हो रही हैए जो बुनियादी सुविधाएँ देने से रोक दिया गया था. जिसे मुगलसराय में बंद किया गया था. हर तरीके से लोग त्रस्त थे. ऐसे परिवारों को देखनाए संभालना और ढाढस बंधाना. ये काम भी हम लोग करते थे.

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: आपने अभी तक जो भी बातें बताईं वो बहुत विस्तृत हैं. ये जो विस्तार है हमें किसी इतिहास में पढ़ने को नहीं मिलताए बस इतना ही मिलता है कि उस समय की बड़ी हड़ताल हुई थी. उसमें क्या.क्या मुद्दे थे? क्या नतीजे निकले? जैसा आपने बताया कि चप्पे.चप्पे पर पुलिस थीए लोगों को अरेस्ट किया जा रहा था. ऐसा विस्तृत लेखन हमारे देश में कम ही देखने को मिलता है. अन्य देशों में मैंने देखा है कि लोगों ने वहाँ की हड़तालों पर कहानियाँ लिखींए रचनात्मक लेखन किया. जिन हड़तालों में आप शामिल रहे याकि सहभागी रहे. चूंकि आप एक बुद्धिजीवी और लेखक भी हैंए उज्जवल ध्रुवतारा के संपादक भी हैंए आपने जीवन में अनेक लेख लिखे हैंए क्या आपने इन हड़तालों का विस्तृत ब्योरा कहीं लेखन में दर्ज किया है?

जी पी मिश्र: देखियेए हड़तालों का ब्योरा लेखन में हम अभी तक तो नहीं कर पाए हैं. लेकिन इनको प्रकाशन के रूप मेंए लेखनए आलेख आदि के रूप में आना चाहिए. उसी का रिजल्ट है कि श्उज्जवल ध्रुवताराश् और श्आज़ादी और इन्कलाबश् जैसी पत्रिका व पुस्तक प्रकाशन में आई है. ये ज़रूर है कि इस पर एक किताब मैं लिख रहा हूँ. हमें प्रेरणा कैसे मिली. ख्याल आया कि क्यूँ न मजदूर आन्दोलनों से शुरुआत की जाए. मजदूर का मतलब रेलवे के गार्ड के रूप में चूंकि मैंने नौकरी की शुरुआत की और अच्छी श्रेणी का मुलाजिम होने के बावजूद मैंने काम करने का क्शेत्र गैंगमैन को ही क्यूँ चुना? रेलवे के ट्रैक बिछाने वाले मजदूरों को ही क्यूँ चुना? हम गार्ड थे तो गार्ड का ही यूनियन करते. आखिर इंजीनियरिंग मजदूरों को ही मैंने क्यूँ चुना? अगर बाबू थे तो हम बाबू लोगों का यूनियन बनाते. यह एक बड़ा ही रोचक मामला है. इन सब चीजों पर मैं एक किताब लिख रहा हूँ. और उसमें सभी चीजें सैद्धान्तिक विश्लेशण हों या अन्य के रूप में सारी घटनाएँ आ जाएँ. हाँ इन सभी आन्दोलनों का तमाम हिस्सा हमारे कई प्रकाशित लेखों में आपको मिल जाएगा.

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: आपकी बात से एक चीज याद आयी कि जो सरकार की छोटी.छोटी कमेटियाँ बनी थीं जैसे आल इ.डिया रेलवे कन्फेडरेशन बड़ी यूनियन है उसी तरह सरकार छोटे.छोटे गार्ड्स के लिए तमाम ओहदों के कर्मचारियों के छोटे.छोटे राजनीतिक दल बना दिए थे. एक बड़े संगठन को तोड़ने के लिए राजनीतिक रूप से तमाम छोटे और गैर.ज़रूरी संगठनों का निर्माण किया. और उसमें ये हित भी निहित था कि निजी लाभ जो इन सगठनों के कार्यकर्ता या प्रभुताशाली लोग हैं उन्हें मिल सके. जिससे जो बड़े संगठन का रूतबा है ए जो नीतियाँ हैंए उनको आसानी से तोड़ा जा सके. आपको क्या लगता है कि अब इस समय में क्या छोटे संगठनों से लेकर बड़े संगठनों तक को किस प्रकार आगे की ओर एक साथ मिलाकर ले जाया जा सकता है?

जी पी मिश्र: आपने बड़ा जबरदस्त सवाल किया है रेलवे में खासतौर से उस दौर में एक यूनियन थी. एआईआरएफ जिसे कहते हैं. जोकि एनएचएस से से संबंधित थी उसका बैकबोन भी एटक था और जो समाजवादी विचारधारा थी उसको लेकर चला. इसे तोड़ने का काम नेहरू सरकार ने सन १९४९ में किया. जिसमें कि रेलवे में जो उनहोंने दूसरी यूनियन खड़ा कर दिया. एनएफआईआर . जो इनटेक ने यूनियन चलायी. ये सरकारपरस्त और मौकापरस्त व मजदूरों के बिल्कुल खिलाफ़ काम करने वाली संस्था एनएफआईआर बनाई गयी थी. चूंकि एआईआरएफ का नेतृत्व भी मध्य वर्ग से आया हुआ था और निश्चित रूप से ये भी मौकापरस्त और समझौतापरस्त थी. रेलवे के मजदूरों का सामूहिक हित का जो सवाल है वो कम होने लगा. जब व्यक्तियों के व्यक्तिगत हित और चहेते लोगों का हित होने लगा. रेलवे का मजदूर इस बात से बाध्य हो गया. प्रेरित हो गया कि हम लोग गार्ड्स हैं तो आल इंडिया गार्ड्स एशोसिएशन में जायेंगे. हमारी माँगें रेलवे की जनरल माँगों से अलग हैं. हम अलग से माँग करेंगे. उसी तरह से आल इंडिया लोकल स्टाफ एशोसिएशन बनी कि इनकी माँगें अन्य कैटागरी के कर्मचारियों की माँगों से अलग हैं. आल इंडिया स्टेशन मास्टर्स की माँगें बिल्कुल अलग हैं. तमाम माँगें सामूहिक ज़रूर थीं. बाक़ी कुछ माँगें नेचर औफ़ जॉब के हिसाब से औरों से भिन्न हैं. इसीलिए टिकट चेकिंग स्टाफ एशोसिएशन अलग से बना इसी क्रम में हमने बनाया भारतीय रेलवे इंजन श्रमिक संघ. पहले पूर्ण संघ एक तरीके से श्रमिक संघ था. फिर कैरेज एँड वैगन कौंसिल बना. फिर बुकिंग क्लर्क एशोसिएशन बना. ये जो तमाम कैटागोरिकल एशोसिएशन निकले. इसमें अपने.अपने वर्गीय और व्यक्तिगत हितों को लोगों ने साध लिया. इनसे एआईआरएफ और एनआईआर से अपनी माँगें कीं. और अपने मौकों को देखकर भी उन्होंने ऐसा किया. और अंत में ऐसा किया कि सारे कैटागोरिकल संघ को मिलाकर के लड़ा सेन्ट्रल फ़ोर्स. जिसको आप बोलते हैं. आल इ.डिया रेलवे एम्पलाइज फेडरेशन. इसे चौदह कैटागरी के संगठनों को मिलाकर के बनाया गया था. और इसकी बहुत बड़ी भूमिका १९७४ की हड़ताल में थी. लोकल रनिंग स्टाफ एसोशिएसन तो उसमें नहीं था. उसने भी इसीलिए एनसीसी आर बना लिया था. उसने बीच में शामिल होकर काफी काम किया.

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: आज़ादी के पहले ऐसा कौन सा संगठन था जिस पर सरकार ने एक तरीके से बंदिश लगा दी थी. और सरकार ने ये भी कहा था कि आज़ादी के लिए इस तरह के मजदूरों और किसानों के संगठनों की ज़रूरत हमें नहीं है?

जी पी मिश्र: देखियेए इसमें रेलवे की बात नहीं हो सकती है. १९२४ में एटक बना था आल इंडिया ट्रेडर्स एकाउंट्स कौंसिल. यह संगठन मजदूरों को गोलबंद करके इकठ्ठा करकेए मजदूरों के अधिकारों के लिए काम करता था. इसका नेतृत्व भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का था. चूंकि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी प्रतिबंधित हो गयी थी और उसमें तमाम लोगों को काम करने से रोका जा रहा था. तो यही एटक रहा है या आल इंडिया ट्रेडर्स एकाउंट कौंसिल रहा होगा. जोकि बाधित रहा. जिस पर सरकार ने प्रतिबंधित किया होगा.

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: मार्क्सवादी राजनीति या जो विचारधारा है उसको लेकर के आन्दोलनों में उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई. इसी से जुड़ी हुई बात है कि नई आर्थिक नीतियों के खिलाफ़ २५ नवंबर १९९२ को जो विशाल रैली नई दिल्ली में हुई. उसमें १७ लाख मजदूरों ने हिस्सा लिया. और शासक वर्ग ने इसे ध्वस्त करने के लिए चंद दिनों के भीतर ही अयोध्या में बावरी मस्जिद ढहाकर मजदूर आन्दोलनों को साम्प्रदायिक खेमें में बाँट दिया. और इसे अपंग बनाने में सफलता हासिल की . क्या मजदूरों को कम्युनिस्ट राजनीतिक दलों ने नई आर्थिक नीति की शर्तें मानकर ठगा? दूसरी बातए उसमें तमाम कर्मचारी संगठनों ने मूल वामपंथी विचारधारा या दल से मोहभंग महसूस किया?

जी पी मिश्र: देखिये पुश्कर जी जिस वामपंथी आन्दोलन का खासकर आप बात कर रहे हैं तो यह प्रश्न बहुत ही महत्वपूर्ण और मौजूँ है. क्योंकि वामपंथ आन्दोलन को अगर आप देखें १९२५ में ही जो कम्युनिस्ट पार्टी बनी उस कम्युनिस्ट पार्टी से बहुत बड़ी उम्मीदें थीं और सोवियत यूनियन की जो क्रान्ति रूस में हुईए समाजवादी विचारधारा के जो निर्माण कार्य हो रहे थे उस दौरान यह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी कानपुर में १९२५ में बनी. उसका काम तो यही होना चाहिए था कि भारतीय क्रान्ति के रास्ते को रूस के अनुभव के आधार पर वह प्रशस्त करती. परन्तु चूंकि यहाँ पर कम्युनिस्ट पार्टी में मध्यवर्गीय नेतृत्व के लोग भर्ती किये गए थे. और वो उस वर्ग से अपने को वर्गच्युत नहीं कर पाए. सर्वहारा वर्ग में अपने को विलीन नहीं किया. इसलिए उनका कार्यक्रम भारतीय क्रान्ति की अगुवाई न होकर के इसी व्यवस्था में जो मध्यम वर्ग का वर्गीय चरित्र है इसी वर्गीय चरित्र को पालते.पोसते रहे. व्यवस्था परिवर्तन की तरफ जाने का उनका जो रुझान होना चाहिए थाए उनका जो आर्थिक.राजनीतिक कार्यक्रम होना चाहिए वो नहीं हुआ. आपको जानकार ताज्जुब होगा कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का कार्यक्रम १९४३ में प्रकाशित हुआ. इसी से इनके काम का अंदाजा आप लगा लीजिए. १९४३ में तब कार्यक्रम प्रकाशित हुआ जब स्टालिन ने तृतीय इंटरनेशनल को भंग कर दिया. यानी विश्व में कम्युनिस्ट आन्दोलन में एक उतार की स्थिति आ गयी थी और उस समय ये भारत में अपने चरम पर है. तो कहीं न कहीं जो पार्टी नेतृत्व और विचारधारा का चरित्र जिस तरह का है. ये इस बात की ओर इशारा करेगा कि आन्दोलनों की परिणति क्या होगी? परिणाम क्या होंगे? १९९२ में नई आर्थिक नीति को लागू करने का काम जो कांग्रेस की सरकार ने किया. जब माननीय मनमोहन सिंह वित्त मंत्री हुआ करते थे. नरसिम्हाराव की सरकार में इन्हें साम्राज्यावादी नीतियों के विशेशज्ञ के बतौर नियुक्त किया गया था. क्योंकि इस सरकार ने सामराज्यवाद का या विश्व बैंक की अंतर्राश्ट्रीय मुद्रास्फीति को लागू करने के लिए इनको वित्त मंत्री के लिए चुना. उस वक्त ये वर्ल्ड बैंक में गवर्नर की हैसियत से कार्यरत थे. ताकि ये सरकारी नीतियों और विश्वबैंक की नीतियोंए साम्राज्यवादी नीतियों को आगे बढ़ाएँ. और उस नीति के खिलाफ़ मजदूर लामबंद हुए. इसके विरोध में १७ लाख मजदूरएकिसानए छात्रोंए युवाओंए महिलाओं ने मिलकर सुसंगठित रूप से आन्दोलन किया. आल इ.डिया रेलवे कन्फेडरेशन के रूप में हम लोग भी उनके साथ शरीक हुए. ऎसी स्थिति में ये आन्दोलन चलाया गया. उनका मूल रूप से सीटू था. यानी सीपीएम थी. और भी वामपंथी पार्टियाँ थीं. और भी लोगों के संगठन थे. क्योंकि मूल रूप से इनके पास ताकत ज्यादा थी. वाममोर्चा में भी सीपीएम ही मोर्चे पर रहा है. परन्तु इसका नेतृत्व खुद ही यथास्थितिवाद का शिकार है. और ये लोग भी जो सीपीएमए सीपीआई से आये हुए हैं जो कहीं न कहीं से कॉंग्रेस को स्पोंसर्ड करते आये हैं. इनकी भलाई कांग्रेस के पीछे उनका सहयोग करने में ही रहा है. जब इसमें वैकल्पिक व्यवस्था का सपना नहीं हैए समाजवादी व्यवस्था का सपना नहीं है. इसी में कहीं न कहीं शांतिपूर्ण तरीके से समीकरण पर चलते हुए आगे बढ़ने का एजेंडा है. तब आगे क्या होगा? हमारे देश का पूँजीवादए साम्राज्यवादीए शासक वर्ग इतना चालाक है कि वो इन मजदूरों और उसकी एकता को तोड़ने के लिए जहाँ न कोई हिंदू थाए न मुसलमान. उनको साम्प्रदायिक तरीके से तोड़ने का काम दस दिन के भीतरए सभी राजनीतिक दलों ने प्रमुखता से भाग लिया. चूंकि कम्युनिस्ट पार्टी का कल्चर सभी पार्टियों में हैए चाहे वो भारतीय जनता पार्टी होए कांग्रेस होए या अन्य. सभी ने मिलकर के दस दिनों के भीतर ही बाबरी मस्जिद को ढहाया. यानि की सभी राजनीतिक दलों ने मजदूरों को उनके कार्यकर्ता समर्थकों को चंद समय में ही साम्प्रदायिक खेमें में बाँट दिया. और आन्दोलन की रणनीति को ही बदल दिया. फिर क्या था? दंगे हुएए फसाद हुए. इसका नतीजा आप देख ही रहे थे. ये जो शासक वर्ग है या जो साम्राज्यवादी पूँजीवादी वर्ग हैए वो बहुत ही शातिर है. इनमें शासन करने की टेक्नालाजीए विभाजित करने की टेक्नालाजी और मजदूर वर्ग की धार को खत्म करने का हुनरए संगठन को भोथरा बना देने वालीए ध्वस्त कर देने वाली तकनीक उसके पास भरसक रही है.

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता:- क्या इससे आपको याद आता है कि जब आज़ादी की मांग हो रही थी तब लार्ड माउन्ट बेटन ने अंग्रेजी हुकूमत को बनाए रखने के लिए हिन्दू मुसलमानों को अलग करने की नीति अपनाई थी कि एक अलग देश बने और हिन्दुस्तान-पाकिस्तान में विभाजित करके एकता को ख.डित किया?

जी पी मिश्र: ये आपने बड़ा गम्भीर सवाल उठा दिया है और वो इसलिए कि जब आप स्वतंत्रता संग्राम में उसके भीतर अंदरूनी चीजों में आप जाएंगें तो देखेंगे कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी स्वतंत्र रूप से काम नहींं कर रही थी. कहीं न कहीं ये ग्रेट ब्रिटेन की पार्टी से निर्देशित थी. चूॅकि रजनी पामदत्त वगैरह जो भी लोग थे वह तो अपने हितों को ध्यान में रखते हुए ही काम कर रहे थे। बाकी क्रान्ति के भारतीय मजदूर वर्ग की मुक्ति के लिए तो वह पार्टी निर्देशित करेगी नहींं। आप यह कह दीजिए कि कभी ब्रिटेन तो कभी सोवियत रूस का खाका कहीं न कहीं दिमाग में था।

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता:- पहला मजदूर आन्दोलन ब्रिटेन के मजदूरों ने शुरू किया था जिसे ब्रिटेन की सरकार ने पूरी तरह कुचल दिया था। बाद में वही नीति अपनाकर के भारत में मजदूर आन्दोलनों को ध्वस्त करने का पूरा क्रम चला. आजादी के पूर्व, यही पूरी तरह से मुख्यतः केन्द्रित रहा?

जी पी मिश्र: चूॅकि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सामने एक क्रान्तिकारी नेतृत्व नहींं था जो भगत सिंह ने किया था. जो क्रान्तिकारी दिशा, क्रान्तिकारी कार्यक्रम, क्रान्तिकारी सपना, हिन्दुस्तानी क्रान्तिकारी संघ से उभर कर के सामने आया ब्रिटेन ने समझा कि भगत सिंह भारतीय क्रान्ति के बड़े अग्रदूत या लेनिन बन रहे थे. कम्युनिस्ट पार्टी के लिए बहुत बड़ा खतरा था। जब कि भगत सिंह का उभरना भारतीय प्रजातंत्र संघ को बढ़ाना कांग्रेस पार्टी के लिए बहुत बड़ा खतरा था इसलिए ब्रिटेन और कांग्रेस दोनों की मिली भगत से भगत सिंह, राजगुरू और अन्य को फांसी की सजा दी गयी। और 27 फरवरी को शही चन्द्रशेखर आजाद शहादत दे चुके थें तो इस शासक वर्ग ने उस क्रंान्तिकारी पार्टी को ही खत्म कर दिया। कांग्रेस को यह दिखाई पड़ा कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी उनके लिए कोई खतरे का काम नहींं कर रही थी क्योंकि वह भी न कही न कही कांग्रेस के साथ मिल जुलकर के ही उनहीं के कार्यक्रमों के साथ थी। जो भगत सिंह सपना था ऐसा कोई सपना कम्युनिस्ट पार्टी के पास नहींं था इसलिए सुभाश चन्द्र बोस ने कम्युनिस्ट पार्टी से इस्तीफा दिया गाॅधी के तमाम हार के बाद यह कहा कि गांधी की हार हमारी हारा हैै और सुभाश जीते थे वही कम्युनिस्ट पार्टी ने गलती की थी सुभाश के साथ लड़ाई करके ौर जुड़कर के पूरा का पूरा क्रंान्तिकारी स्वतंत्रता आन्दोलन का नेतृत्व अपने हाथ में ले लेना चाहिए था और गांधी अलग-थलग पड़ जाते। पहली गलती कम्युनिस्ट पार्टी ने भी की थी। दूसरी गलती की 1942 में जब क्विट इ.डिया मूमेंन्ट किया गया। पूरी जनता सड़को पा आ गई थी.
1946 में तेलगांना का किसान आन्देालन हो रहा था, मजदूर आन्देालन चल रहाथा इसकें यही था कि अब आजदी अंग्रेजों के साथ कान्फ्रेस टेबल पर नहींं होगी. रणक्शेत्र मे होगी अंग्रजो को छोड़कर भागना पड़ेगा यहा पर कम्युनिस्ट पार्टी ने गलती की। कि वो क्विट इ.डिया मूवमेन्ट में शरीक नहींं हुए औैर अंग्रेजों के साथ खड़े हुए। इतना ही नहींं इन लोगों ने सांप्रदायिकता धर्म के आधार पर देश के विभाजन का समर्थन भी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने किया। ये कहा कि सच्ची आजादी मिल गई। सम्पूर्ण आजादी मिल गई। तो जनता के आन्देालन के साथ हमेशा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का नेतृत्व करता ही आया है। तेलगांना के इतने बड़े किसान आन्दोलन के साथ भी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का नेतृत्व नहीं था उनके साथ भी विश्वासघात हुआ। जबकि चुनाव में नेहरू ने कहा कि तेलगांना का हथियार बन्द आन्देालन छोड़ो और चुनाव लड़ें तो 1952 के चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी आ गई।

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता:- नक्सलबाड़ी आन्दोलन के बारे आप क्या कहेंगें?

जी पी मिश्र: ये आपने बहूुत सामयिक सवाल को उठाया है क्योंकि सीपीआई और सीपीएम का चेहरा तो बिल्कुल साफ हो गया है जब नक्सलबाड़ी की घटना 1967 में हुई उससे लोगों को एक बड़ी उम्मीद थी. खसतौर से मजदूरों, किसानों को। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी माक्सवादी के नेतृत्व में जो जनता लड़ रही थी जनता को बड़ा भरोसा हो गया अब चुनाव लड़ने और शांतिपूर्ण संक्रमण के रूप में यह चुनाव के माध्यम से जाकर समाजवादी व्यवस्था करने के बजाय क्रांतिकारी रास्ता प्रशस्त होता है जिसमें सीपीआई (एमएल) ने एक छोटा सा रास्ता दिखाया और वहाँ पर जो एआईसीसीआर का जो फार्मेशन हुआ बहुत बड़ा ऐतिहासिक काम हुआ। जिसमें सारे के सारे क्रांतिकारी विचाराधारा के लोगों को सीपीआई से निकलकर के सीपीआईएमएल बनी. वहाँ जो विकल्प देना चाहिए था सीपीआईएमएल को यह नेतृत्व नहीं दे पाई। क्यों? क्योंकि किसी क्रांतिकारी दल में जो किसानों की भागीदारी होती है जनसंगठन, जन आन्देालन की बहुत बड़ी भूमिका होती है। जिसको लेनिन ने कहा था कि जन संगठन या ट्रेड यूनियन मजदूरों की वामंपथी विचार की पाठशाला होती है तो जब जन संगठन के नियम को ही उसने छोड़ दिया और शसस्त्र क्रांति के नाम पर गोरिल्लावार यानि हथियार बंद लड़ाई ही एक मात्र रास्ता हो जहाँॅ वैचारिक प्रतिबद्धता को भी इन्होंने छोड़ दिया। जो कुछ रहा वो यह कि क्रांति की सिर्फ बात करना बाकी जनता की भागाीदारी को नकार करके सारे कार्यक्रम खुद ही तय किए। इसके विस्तार में जाने की जरूरत नहींं है। सीपीआईएमएल का फार्मेसन है, और उसके जो तमाम दस्तावेज रहे हैं जन आन्देालन का निशेध, जन संगठनों का निशेध करके गड़बड़ी पैदा करने वाली पार्टी सीपीआईएमएल कहिए कि एक मात्र बस मजदूरों किसानों आम मेहनतकश जनता के सपनों को मंजिल तक ले जाने के रास्ते में रोड़ा बनकर के ही रही। उसका भी रिजल्ट आप 42 साल के बाद आप देख रहे हैं। बाद में इनको जब बुद्धि आई कि बिना जनता के, बिना जनसंगठनों के काम नहींं होगा तो सबके सब दक्शिणपंथी संसदीय लोकतंत्र में चले गए। यथास्थिति वाद का शिकार हो गये 1969 की पार्टी की जो मुख्य धारा थी। शसस्त्र क्रांति के नाम पर अभियान जिसमें जन संगठनों का निशेध, जो माओवादी कर रहे है। उसका अंत अंधी गली में होता है। इससे आम जन मुक्ति का सवाल हल होने वाला नहींं है। हमेशा ही मजदूर वर्ग कम्युनिस्ट पार्टी के गलत निर्णय और नेतृत्व के कारण ही शोशित और पीड़ित रहा।

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता:- 1974 में अगर आप आपातकालीन स्थिति की बात अगर आप करते हैं तो उस पर इसकी क्या भूमिका रही?

जी पी मिश्र: आप देखिए कि 1974 में हम लोग आन्देालन में थे । वो वह समय था कि जनवाद के नाम पर अगर कोई चार आदमी अगर कही बात करते पाए जाते थे तो उसको पुलिस उठा ले जाती थी। इतना ही नहीं हम लोगों को मजदूर यूनियन की तो बात छोड़ दीजिए ये बड़े-बड़े नेता थे. चाहे जंक्शन के रहे हों चाहे जेसी के रहे होगें चाहे समाजवादी धारा के रहे हो सब को उठाकर जेल में बन्द कर दिया। जहाँॅ पर जाकर एक जगह सारी खिचड़ी इकट्ठा हो गयी । और जनता पार्टी बन गई। और इन लोगों ने मिलकर आपातकाल का विरोध किया। इन्दिरा गाधी के आपात काल का विरोध किया। बल्कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने तो आपात काल का समर्थन किया है। इससे आप समझ लीजिए कि वामपंथ के नेतृत्व और दिमाग की क्या हालत है? वैचारिक रूप से कितना दीवालियापन है? इस पर माक्र्स की एक किताब है श्पावर्टी आॅफ फिलोसोफीश् तो सीपीआई, सीपीएमएल पूरी तरह इससे ग्रसित रही है। ये तो वैचारिक दरिद्रता के शिकार हो गए है। और इसी व्यवस्था में रहकर यथास्थितिवाद के भी शिकार रहे हैं।

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता:- यदि कम्युनिस्ट बनने के लिए यदि ट्रेड यूनियन एक प्रारम्भिक पाठशाला है तो अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग एसोसियेशन के गठन में ये बात क्यों नहींं लागू होती?

जी पी मिश्र:- पहले जैसा मैने कहा कि रेलवे में खासतौर से जैसे एआईआरएफए एनएफआईआर थीए तीसरी आईडीआरए थी. इससे लोग जाति के आधार पर धर्म के आधार पर शामिल नहींं थे। कारखाने का मजदूर केवल मजदूर है इसी रूप में केवल आते थे। परन्तु 1992 के बाद जब आपने देखा कि नई आर्थिक नीतियाॅ के खिलाफ मजदूर लामबन्द हुए। उसके बाद सरकार का काम होता है मगर अंग्रेजों की पाॅलिसी पर ही सरकार अब तक चल रही है। आप कह लीजिए कि ये अंग्रेजों के ही वंशज हो गए हैं। इनका भी काम डिवाइड ए.ड रूल से ही हो रहा है। डिवाइड ए.ड रूल ही मुख्य आधार है इसी आधार पर जाति को लेकर ट्रेड यूनियन चालू कर दी गयी। अनुसूचित जाति, और अनुसूचित जनजाति का एसोसियेशन बनायी गयी। ओबीसी एसोसियेशन बनी जो रलवे में भी लागू हुआ, जाति के आधार पर आम जनता को बांटने का काम भी इन लोगों ने शुरू कर दिया। इसको मान्यता भी दे दिया। जहाँॅ ट्रेड यूनियन रेलवे मे होती थी केन्द्रीय पैमाने पर जाति के आधार पर और भी यूनियन आ गयी. ये तो यूनियन को तोड़ने का काम है। इसलिए आश्चर्य की बात यह लगेगी जब सीपीआई थी तो एटक था. 1964 मे जब सीपीएम बनी तो इसका काम था मजदूरों का पार्टी के आधार पर बाॅटे एटक में सारे मजदूरो को काम करना चाहिए था। बाकी बच गयी तो उन्होनें सीटू बना लिया और जब सीपीआईएमएल के लोगों को दिमाग मेें आया कि जब बिना जनसंगठनए जब बिना जन आन्दोलन के काम नहीं चलने वाला है तब इन्होने निकलकर ट्रेड यूनियन बनाना शुरू कर दिया। जब सीपीआईएमएल निकल कर बाहर आयी तो इन्होंने एफटू बनाया। फिर जिन्होंने एआईइफटू बनाया फिर एसीटीयू बनाया। फिर टीयूसीआई बनाया एमएल धारा के लोगों ने भी कई-कई ट्रेड यूनियन सेन्टर्स बनाए. जो पार्टी के आधार पर जन आन्देालन को बांटने का सवाल जो बुर्जुआ पार्टियोंें मे रहा है वही काम वामपंथी पार्टियों मे रहा है। इससे बता चलता है कि वामपंथी आन्दोलन कहीं न कहीं दरिद्रता का शिकार है। इनके सामने व्यवस्था को तोड़कर व्यवस्था परिवर्तन का सपना नहींं रहा। सारे वामपंथियो को सबसे बड़ा खतरा सांप्रदायिकता से रहा। न कि इस व्यवस्था से रहा है। न कि पूंजीवाद से रहा है। सारे वाम को खतरा भजपा से है सारे वामपंथी क्या करते हैं कि सब से बड़ा खतरा हिन्दुत्व से है। सांप्रदायिकता का खतरा केवल हिन्दुत्व से थोड़े ही होता है। क्या इस्लाम धर्म को मानने वाले कम खतरनाक होते हैं तो इस्लाम की तुश्टीकरण से वोट लेने के लिए कई मुस्लिम पार्टियों से समझौता वाम ने तमाम राज्यों में किया है। सवाल ये है कि भजपा को केवल साप्रदायिक मान लेने से काम नहींं चलेगा। वह जो है पूरी की पूरी व्यवस्था की तरफ इनकी दृश्टि होनी चाहिए थी। इनको एक व्यवस्थित तरीके से जाना चाहिए इस व्यवस्था को तोड़ने के लिए इन्हें साम्राज्यवाद और पूंजीवाद को निशाने पर रखना चाहिए। यानि सोवियत सिस्टम लाने का कोई विकल्प इनके पास नहींं है। ये सारे विकल्प इसी बनी बनाई व्यवस्था में ही ढूँढते हैं। विकल्प क्या होगा कि साम्राज्यवादी व्यवस्था को उखाड़ करके साम्राज्यवादी व्यवस्था लाना है. इनका विकल्प होना चाहिए। आज दुनिया में जितने आन्दोलन देख रहे हैं। मजदूर सड़कों पर आ रहे हैं। आर्थिक मंदी के दौर में हर देश में आन्दोलन शुरू हो गया है। मंदी इतनी बढ़ गई कि भारत भी आन्दोलनों से अछूता नहींं रह गया है तो इसका विकल्प इसी व्यवस्था में ढूँढते से थोड़े ही चलेगा। सच तो यह है कि इन आन्दोलनों से साफ जाहिर है कि पूंजीवाद और साम्राज्यवाद का खोखलापन बिल्कुल सामने आ रहा है। आज भी अमरीका में माक्र्स की कैपिटल को कोर्स में पढ़ाया जा रहा हैै। और इसे पढ़कर पूंजीवाद को बनाए रखने के लिए इसी व्यवस्था में उत्तर भी ढूँढा जा रहा है। क्योकि जो साम्राज्यवाद, पूंजीवाद और माक्र्सवाद पढ़ाएगा वो इसी व्यवस्था में विकल्प भी ढूढ़ना चाहेगाए जो अवैज्ञानिक है जिसका कि कोई विकल्प है ही नहींं। इस व्यवस्था को उखाड़कर फेंककर ही समाजवादी व्यवस्था जब तक आप नहींं लाएंगे उत्पादन के संबंध जब तक नहीं बदलेगें, मलिक मजदूर के रिश्ते जब तक नहींं बदलेगंे। मानसिक और शारीरिक श्रम के भेद जब तक नहींं मिटेगें। सब आदमियों को जब तक सब कुछ समान रूप से नहींं मिलेगा। तब तक इस व्यवस्था में कोई भी हल नहींं होगा।

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता:- क्या आपको लगता है कि माॅओवादी आन्देालन और नक्सलवादी इसका एक हल खोज सकते है?

जी पी मिश्र:- नहींं खोज सकते हैं बल्कि ये पार्टियाँ व्यवस्था परिवर्तन के मार्ग में अवरोध खड़ा कर रही हैं।

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता:- जैसे किस तरह से ......? जब आप हथियार बन्द आन्दोलन से चाहते है कि यह व्यवस्था परिवर्तन को और आन्दोलन को सही रास्ता मिले वो ही इस व्यवस्था के खिलाफ खड़े है। जब कि दूसरी तरफ आप कह रहे हैं कि यह यथास्थितिवाद का शिकार है तो आप किस तरह से इसे देख रहे हैं?

जी पी मिश्र: यह आपका सवाल बड़ा ही गभ्भीर और रोचक है इसके लिए व्यवस्था परिवर्तन और समाजवादी व्यवस्था लाने के लिए आपको भगत सिंह को पढ़ना पड़ेगा। हमारे जो मार्गदर्शक और दिशा है। इस पर भगत सिेंह ने संक्शेप में बहुत कुछ दिया है। और भगत सिंह ने फाॅसी के तख्ते पर झूलने के पहले ही कहा था कि वह आतंकवाद की तरह से काम करते थे। ये जो आज माओवादी काम कर रहे है। इसी किस्म से भगत सिंह और उनके साथी काम किया करते थे। हिन्दुस्तानी समाजवादी प्रजातंत्र संघ के बाद जब उन्होंने काफी व्यापक स्तर पर अध्ययन किया तो उन लोगों ने देश के प्रति एक कार्यक्रम बनाया कि हमारा कार्यक्रम भारतीय क्रांति के लिए क्या होगा? वैकल्पिक व्यवस्था कैसी होगी? इस पर पहले भी पार्टी ने बहुत काम किया था। भगत सिंह खुद कहते हैं कि हथियार बन्द लड़ाई में क्राति के लिए हथियार क्रांति का पर्याय नहीं हो सकते । हम जन संगठन और जन आन्दोलन के माध्यम से सत्ता पर कब्जा करेगें। व्यवस्था परिवर्तन की तरफ आगे बढ़ते हुए निश्चित रूप से हमारा अंतिम फैसला हथियार होगा ही। तो हथियार पार्टियों के हाथ में होना चाहिए, सिद्धान्त के हाथ में होना चाहिए. माओवादियों की राजनीति क्या हो गई है कि हथियार के हाथ में राजनीति आ गई है। उलट हो गया है। राजनीति के हाथ में हथियार होता तो जब हथियार की जरूरत होती तब हम उसका उपयोग करते . इसके बाद हमें विचाराधारा पर जाना पड़ेगा। माक्र्स, लेनिन माओत्से तुंग ने भी कहा है कि हथियार कब उठाए जाने चाहिए? इनको भी हमें पढ़ना पड़ेगा कि हथियार की जरूरत क्रांति के किस समय में हो? हजारों लाखों की संख्या में जब जनता सड़कोंे पर आ जाएगी. गाॅव, शहर तमाम कस्बा से निकलकर सड़कोंे पर उतरी जनता तय करेगी कि हथियार कब उठाए जाने चाहिए? जाहिर है ऐसे में जब एक पार्टी का नेतृत्व रहेगा. विचारधारा रहेगी. तब सब लोग मिलकर तय करेगें कि क्रांति का कैसा रास्ता होगा? आज तो अभी जनता को सड़कोंे पर लाने का सवाल है। एक-एक आदमी के हाथ में आन्दोलन आने का सवाल है न कि जो जंगलों मेे आदिवासियों के साथ माओवादी काम कर रहे हैंै। जबकि मजदूरों, आदिवासियों को गोलबन्द करके सड़को पर उतरने का सवाल है। किसी पुलिस और सेना के आदमियों को मार देने से कोई हल नहींं मिल सकता है क्योकि हत्या किसी क्रांति का पर्याय नहीं होती। कम से कम एक माक्र्सवादी और क्रांतिकारी जो होता है वह बुनियादी जरूरतों के लिए है जबकि पूंजीवाद हत्या पर ही निर्भर होता है। साम्राज्यवाद की स्ट्रैटिजी पहले ही युद्ध हुआ करती थी। क्रांतिकारी का काम हत्या से निवृत्त होना होता है। हत्या तो होगी मगर हत्या किसकी होगी और कम से कम होगी यही क्रांति का मक्सद होता है। मगर हथियार ही मुख्य हो जाए, हत्या केन्द्र में आ जाय तो क्रांति की धारा में विचार कहाँॅ होगा? क्रांति में मुख्य रूप से हथियार नहीं बल्कि विचार होता है। एक बात और आपको मजेदार बताऊँ . 1956 में सोवियत यूनियन की कम्युनिस्ट पार्टी पूंजीवादी रास्ते पर चली गई। संशोधनवाद का प्रयोग 20वीं कांग्रेस के साथ 1956 में विलय के साथ हो गया। 1956 से जाने के बाद 1990-91 में उसने लाल झ.डा फेंक दिया। साम्राज्यवाद ने उसकी मदद की है। पूंजीवाद सोवियत यूनियन की पार्टी और उसके कार्यक्रमों में घुस गया। पंूंजीवाद का विकास हुआ और समाजवाद का विकास रूक गया. यानी पूंजीवाद भी सामाजिक साम्राज्यवाद के रूप मे आ चुका है। तो इसका हश्र क्या होगा? जब विचार बदल गया। इस विचार को बदलने में 35 साल लगेए इन 35 बरस में इन्होंने लाल झ.डा फेक दिया. इसे बदलने के लिए कही एक भी बुलेट नहींं खर्च करनी पड़ी. साम्राज्यवाद पूंजीवाद को सोवियत यूनियन को पंूजीवादी व्यवस्था में लाने के लिए समाजवाद का लबादा उखाड़कर फेक देने में, पार्टी का लाल झ.डा फेंक देने में एक भी कारतूस नहींं खर्च करनी पड़ी। और सब कुछ बदल दिया। क्यूॅ हुआ? क्योंकि विचार बदल गया। इसी मे ंएक और रोचक बात आपको बताऊँए बहुत मजेदार बात है जोकि बहुत कम ही लोगों के संज्ञान में होगी। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जब सोवियत यूनियन की विजय हुई। और हिटलर फाॅसीवादी ने ब्रिटेन और अमरीका को नाको चने चबवाए द्वितीय विश्वयुद्ध में और फ्रांस में उन्होंने विजय पा ली। जब हिटलर का मन बढ़ गया। फासीवाद ने सोवियत यूनियन पर हमला कर दिया। सोवियत यूनियन ने हिटलर की कब्र बना दी। जिसको कि न ब्रिटेन कर सका, न अमरीका कर सका। उसको मात्र 18 बरसों का नवोदित मजदूर आन्दोलन था। उसने हिटलर की कब्र खोद दी। जब उसके पास हथियार बन्द होने की पूरी तैयारी भी नहींं थी। वो सोसलिस्ट के निर्माण में लगा था वो बुनियादी जरूरतों शिक्शा रोजगार आवास का विकास करने में सोवियत रूस लगा हुआ था। फासीवाद के खिलाफ जब युद्ध उसे करना पड़ा। जब जनता के सहयोग से वहाँ का एक-एक बच्चा खड़ा हो गया था कि समाजवादी निर्माण को हमें बचाना है। जन संगठन ही सबस ेबड़ी भागीदारी थी जबकि कोई बड़ा हथियार उनके पास नहींं था। जनता का मनोबल, कुशल नेतृत्व राश्ट्रभक्ति उनके पास थी। वहाँ की सोवियत यूनियन स्टालिन जैसे विचारक के नेतृत्व में थी। जिसने हिटलर को मात दी. उनकी कब्र बनाई। 100 साल के बाद साम्राज्यवाद फिर काँपने लगा था। 1945 के बाद ये जो भूत आ गया है सोवियत यूनियन का, मजदूर वर्ग का पहला नवोदित दल ये अब कही हमकों भी खा जाएगा। यह 100 साल बाद का 1847 का घोशणा पत्र माक्र्स ऐगिल्स का लिखा मिलता है। उसका पहला ही वाक्य है कि एक बूढ़े को एक भूत सता रहा है कम्युनिज्म का भूत। यह कम्युनिस्ट के घोशण पत्र का पहला वाक्य है। 100 साल बाद 1947 में किसका भूत सताने लगा फिर से सोवियत यूनियन का नकल, मजदूर वर्ग की ताकत का भूत, मजदूर वर्ग को सोच-विचार और उसकी रणनीति का भूत, इस समय में उसने हमसे घबराकर के एक शोध किया कि मजदूर वर्ग की विजय साम्राज्यावद की मौत है। समाजवाद की विजय पूंजीवाद की मौत है। उसी की कब्र पर खड़ा हो सकता है। अब इन्हें बचाना है अपने आपको, इसके लिए इन्होंने बहुत बड़ा शोध का काम शुरू किया। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के बड़े-बड़े विद्वानों को अमरीका ने बैठाया कि बताओें इस कम्युनिज्म के भूत को कैसे दफन किया जाए। इससे कैसे बचा जाय। और उस समय जिन बड़े-बड़े कम्युनिस्ट या द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के विद्वानों को जब विचार के लिए बैठाया गया तब 1950 में एक किताब निकली श्वॅार आॅर पीसश् उसके लेखक थे जाॅन फाॅस्टरए जो उस समय अमरीका के राश्ट्रमंत्री हुआ करते थे। उन्होंनंे बताया कि कम्युनिज्म से बचने का केवल एक ही रास्ता है कि इसकी डिटेल में किताब पूरी लिखी गई अगर निचोड़ मैं बताऊँ तो कि श्नो योर एनीमीश् साम्राज्यवाद पूंजीवाद ने यह कहा कि अब हमको अपने दुश्मन की पहचान करनी पड़ेगी। वह पहचान क्या है? कम्युनिज्म। कम्युनिज्म की पहचान क्या है . मजदूर वर्ग। मजदूर वर्ग मतलब कम्यंुनिस्ट पार्टी जो उसका नेतृत्व करती हैे हमें अब कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व को सिद्धान्त से भटका देना पड़ेगा। और मजदूर वर्ग को हमें जाति धर्म सम्प्रदाय में विभाजित कर देना पड़ेगा। सामूहिकता की जगह उसमें निजी स्वार्थ लाना पड़ेगा। दुनिया भर के आडंबरों में उनको उलझा देना पड़ेगा। उसे सुधारवाद के कामों में ले जाना पड़ेगा। कम्युनिस्ट पार्टियों को शांतिपूर्ण संक्रमण की ओर ले जाना पड़ेगा। डी0 एल0 मिल के रास्ते पर ले जाना पड़ेगा । पार्टी के नेतृत्व को सिद्धान्त और कामों से भटका करके इसी व्यवस्था में परोक्श रूप से, चाहे चाहे जैसे भी हो पंूजवाद के समर्थन में ले जाना चाहिए। जनता, यानि मजदूर वर्ग जिसका नेतृत्व पार्टी करती है इस पूरे मजदूर वर्ग को दुनिया भर के सांस्कृतिक हमले के द्वारा बिल्कुल छिन्न-भिन्न और त्रस्त करना होगा। इसको आप कहेगें कल्चरल एग्रेेशन. वार आॅर पीस का मुख्य आधार है- कल्चरल एग्रेशन यानी संांस्कृतिक हमला। आप जिसे आज देख रहे है कि कोई भी पार्टी दुनिया के पैमाने पर ऐसी दिखाई नहींं पड़ रही है जो कि समाजवाद के रास्ते पर जाने के लिए पूरी दुनिया की व्यवस्था को उखाड़ फेंक करके आगे आई हो जिसके लिए हम कहते है कि मजदूर वर्ग, वर्ग संघर्श, सर्वहारा के ताराशाही को लाकर के, सम्पत्ति पर व्यक्तिगत अधिकार को धीरे-धीरे खत्म करके सर्वहाराहित की ओर ले जाने का काम जो पार्टी का होता है इसे लाने का काम कही दिखाई नहींं पड़ रहा है।

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता:- अभी तक वामपंथी दल का नेतृत्व अभिजात्य वर्ग ने किया है और जब उसने नेतृत्व किया तो अपने जातिवादी चरित्र को छुपाने के लिए वामपथी विचारधारा का चोंगा ओढ़ लिया। और अभिजात्य वर्ग का नेतृत्वकर्ता अपने को वामपंथी और प्रगतिशील दिखाता रहा है और समय-समय पर अपने राजनीतिक सामाजिक सांस्कृतिक फायदे के लिए इन दोनों चोलों का इस्तेमाल करता रहा है?

जी पी मिश्र: देखिए आप चेाला ओढ़ने की बात करके शायद उचित शब्द का प्रयोग नहींं कर रहे है। जिस वर्ग से नेतृत्व आया हुआ है अभिजात्य वर्ग या मध्यम वर्ग कह लीजिए। जिस वर्ग से वामपंथ नेतृत्व मे आया है उस वर्ग के मूलभूत संस्कारों से वह अपने को मुक्त नहींं कर सका है। यानि अपने को वर्गच्युत नहींं कर पाया है। यही संकट सबसे बड़ा है । आभिजात्य वर्ग से आना कोई बुरा नहींं हैं बाकी जिस वर्ग से वो आया है उससे खुद को अलग कर देना होगा। वर्गच्युत करना पड़ेगा यानि सर्वहारा कृत करना पड़ेगा। विचारए संस्कारए स्वाभावए आदतों, व्यवहार को बदलना पड़ेगा। वो शायद अभी पूरी तरह नहीं हो पाया है। जो मध्य वर्ग की सोच रही है इस वर्ग का अपने आप में ही एक अन्तर्विरोध है। उन अन्र्तविरोधों को यदि सर्वभूत नहींं किया तो हर जगह वो दिखाई पडगी। सर्वहारा वर्ग का नेतृत्व कहने को तो दिखाई पड़ता है बाकी मूल रूप से वो सर्वहारा, मजदूर वर्ग का नेतृत्व हो नहीं पाया है। जिसका परिणाम आज आप देख रहे है। जबकि लेनिन भी बड़े घर से आए थे माक्र्स एंगेल्स भी बड़े घर के थें। बड़े-बड़े पूँजीपति थे उन्होंने अपने को वर्गच्युत किया। अपने को डी.क्लास किया। अपने चरित्रए विचारए जीवन.प्रकृति को सर्वहाराकृत किया। तब उनका पूर्ण कार्यक्रम निकला. यहाॅ पर जो निश्चित रूप से पढ़ा लिखा समाज है वह अज्ञात वर्ग नहीं होता है। इसके साथ ही आपके मन में एक प्रश्न कुलबुला रहा होगा कि जो शेाशित पीड़ित जनता रही हैए वो दलित या ओबीसी रही है. उनको अभी तक नेतृत्व में क्यूँ नहीं आने दिया? यदि हमसे आप पूछेगें तो हमने दलित बस्तियों गाँव मे जाकर खुद काम किया है । जो गैंगमैन हैं जिसे आप सबसे बड़ा दलित या डाउन टू अर्थ मान लीजिए सबसे शोशित पीड़ित वर्ग है मैं उसका महासचिव रहा हूॅ मैने पूरे उत्तर भारत में उसके लिए काम किया है। बाकी इससे निकलकर के एक भी आदमी पार्टी के नेतृत्व मे नहीं आ पा रहा है क्यों? क्योंकि हजारों वर्शो से ये लोग सताए गए हैं। तो इनकी शिक्शा-दीक्शा जिस तरह से उभरकर आनी चाहिए वो अभी नहींं आ पाई है। उसको आने के लिए इनको आर्थिक रूप से सम्पन्न होना पड़ेगा। ज्यों ही ये आर्थिक रूप से सम्पन्न होने की तरफ जायेगें तब ये चले जाएंगें अभिजात्य वर्ग के सम्पर्क में और जब उनसे मिल जाएगें तब आएंगे समाजवादी विचारधारा में। जितने भी दलित शोशित आए ये इसी व्यवस्था में सम्पन्न होते-होते ब्राह्मण वाद की ओर बढ़ गए। अपने को नेतृत्व की इस स्थिति में लाने का हथियार नहींं उठाया क्योेंकि यहाॅ त्याग हैए कुर्बानी हैए न खुशहाली है न सम्पन्नता। यहाँ तो मरना है, खपना है, यहाँॅ पढ़ना हैए यहाँॅ लिखना है। पहले तो ये अपने को उस वर्ग से खुद को मध्य वर्ग में लेकर आएं । आप यहाँ पर सोसो से तुलना न करिए । सोवियत यूनियन के स्टालिन के बचपन का नाम था - सोसो । ये मोची के लड़के थे इनके पिता जूता बनाने का काम करते थे। वहाँ से नेतृत्व पैदा हुआ. जिसका बाद में नाम स्टालिन पड़ा। ऐसा नेतृत्व नहीं के बराबर है और मैने जितना काम दलित बस्तियों में किया है गाँव में गैंगमैनों के बीच रहकर के रेलवे के सबसे छोटे कर्मचारी के बीच जाकर के मैं यही उदाहरण देता रहाए तुम्हारा नेतृत्व तुम्हे स्वयं करना पड़ेगा। तुम्हें सोसो के रास्ते पर जाना पड़ेगा। स्टालिन के रास्ते पर जाना पड़ेगा। सिस्टम को उखाड़कर फेकना पड़ेगा। पूंजीवाद की शक्ति को खत्म करके नेतृत्व में तुम्हे जाना पड़ेगा। सबकी मुक्ति का नेतृत्व तुम्हें े करना पड़ेगा। ये बात मैने हमेशा कही है। परन्तु अभी तक सफलता नहींं मिली. जो लोग आरक्शण का फायदा उठाकर दलित पार्टियों में आये, इन दलित पार्टियों के नेतृत्व कर्ताओं के मकान सफेद पुते हुए आलीशान होते गए और यही अपने गाँव की दलित बस्तियों से घृणा भी करते थे। उनसे अपने को दूर रखते थे। यहाँॅ तक कि उनके साथ रोटी-बेटी का संबंध तक नहींं रखते थे। बल्कि उनके बीच एक सामंत, एक अभिजात्य के रूप मे जाते थे। जब मैं इन दलित बस्तियों में जाता था. मैं उनके यहाॅ खाता थाए सोता थाए उनकी पुआल वाली टूटी-फूटी झोपडियों में रहता थाए उनके बीच जब मैं आन्देालन की बात करता थाए उन्हें चेतना देने का काम करता था। उस समय यही सफेद कुर्ता धोती वाले दलित पार्टियो के नेता हमारे बीच आकर दलितों को समझाते थेे तुम लोग अम्बेडकर के रास्ते पर चलो ये तो जी पी मिश्रा ब्राह्मण है इनको अपने यहाँ क्यूँ जगह देते हो। असली नेता तो तुम्हारे अम्बेडकर हैं जो दलितो के लीडर हैं। जाति के आधार पर नेतृत्व का काम जो इनहीं जातियों का अभिजात्य वर्ग पैदा हो गया था. वही लोग भटकाने का काम करते थण्े जो अभिजात्य वर्ग जमीन के खेतों के मलिकों के आधार पर थे। वही अभिजात्य वर्ग वहाँ देखने को मिला। इससे नेतृत्व कभी बड़े पैमाने पर उभर नहीं पाया. यह कहना कि अभिजात्य वर्ग के लोग वामपंथी आन्देालन के नेतृत्व में आये. उन्होंने दलितो को भीतर से नेतृत्व उभरने नहीं दिया. यह कुछ अंश तक ठीक हो सकता हैं क्योंकि दलितों में भी जो नेतृत्व रहा है. वह आभिजात्य वर्ग का रहा है। वो दलितो को आन्दोलन के लिए क्यों पनपते देगा सबसे बड़ी बात है कि वहाँ से सोसो पैदा नहीं हुए। दलितेां में पढ़ने लिखने वाले बहुत से काबिल थे अब जो बात कहने जा रहा हूॅ हो सकता है कि आलोचना का पात्र बनूॅ। वो बात यह है कि अम्बेडकर जो सोवियत यूनियन के अनुभवों को देख रहे थे, पढ़ रहे थे, समझ रहे थे, और यह देख रहे थे कि उसी रास्ते पर भगत सिंह का हिन्दुस्तानी समाजवादी प्रजातंत्र जा रहा है। अम्बेडकर अगर नेतृत्व कर लिए होते वामपंथी आन्दोलन का भले ही सीपीआई मे न जातेए अपने व्यक्तिगत तरीके से माक्र्सवाद लेनिनवादी विचारधारा के रास्ते पर दलितों को नेतृत्व दे गए होते और केवल ये नारा देते कि जमीन-जोतने वाले की। सर्वहारा का इससे बड़ा नेतृत्व और क्या होता। तो अम्बेडकर के इस नारे के साथ सभी हरिजन, दलित जो कि जमीन जोतते थेए बन्धुआ मजदूर बने हुए थे। सभी की मुक्ति वहीं हो जाती क्योंकि एक प्रतिशत जमीन ही अभिजात्य वर्ग के पास रह जाती बाकी जमीन तो जोतने वाले हरिजन और दलितों की होती। निश्चित रूप से समाजवादी रास्ते पर पूरा देश उस समय चला गया होता। परन्तु दलितों के बीच से जो लोग पढ़ लिखकर निकले वो इसी पूंजीवादी व्यवस्था के यन्त्र बन गये। एक पुर्जा बनकर रहे गये। यदि सोसो के रास्ते पर अम्बेडकर चले गये होते तो स्वतंत्रता की प्राप्ति बहुत पहले ही हो गयी होती। नेतृत्व में निश्चित रूप से यह आन्दोलन और सफलता भूमिहीन मजदूरों और किसानों, दलितों का आन्दोलन होता। उन्हें सत्ता भी हासिल होती न कि आज जो टाटा बिरला अंबानी राजा-राजाड़ों का हुआ होता और समाजवाद आ गया होता।

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता:- आपने इसके पूर्व सांस्कृतिक हमले की बात कही थी साम्राज्यवादी ताकतों और सत्ता लोलुप सत्ता वर्ग ने जिस तरह से युवा पीढ़ी की मानसिकता और जीवन पद्वति व शिक्शा पर सांस्कृतिक हमला बोला है ‘कम्युनिस्ट नैतिकता’ यदि लेनिन के शब्दों में कहे कि बेशक है इसे कैसे बचाया जा सकता है?

जी पी मिश्र:- देखिए कम्युनिस्ट नैतिकता पर ली साओचीन ने एक किताब लिखी थी कि हम एक अच्छे कम्युनिस्ट कैसे बनें? कम्युनिस्ट नैतिकता का एक पाठ माओत्से तुंग ने भी प्रकाशित किया था। और उसे व्यवहार के बारे में अठारह बिन्दुओं पर रखा था। इसको हम दो भागों में बाटना चाहेगें नैतिकता के सवाल को- पहला भाग होता है .सिद्धान्तए यानि अगर हम अपने को माक्र्सवादी बोलते है, माक्र्सवादी.लेनिनवादी बोलते हैं या माओ विचारधारा से स्वयं को जोड़कर देखते हैं तो समझदारी हमारी साफ स्पश्ट होनी चाहिए कि माक्र्सवाद लेनिनवाद है क्या? क्या वह माक्र्सवाद- लेनिनवाद हमें ऐसा कहने की इज्जत देता है कि पंूंजीवाद भी रहेगा और समाजवाद भी रहेगा? पूॅजीपति वर्ग का मुनाफा भी रहेगा, लूट भी रहेगी, सम्पत्ति का इजाफा भी होाग, मुक्ति भी जायेगी, शोशणविहीन समाज भी हो जायेगा, गरीबी भी मिट जायेगी, बेरोजगारी भी मिट जायेगी। यहाँ दिमाग भी साफ रहना चाहिए। यदि यह विचार की सफाई हमारे दिमाग में है तो यहाँ हम सिद्धान्त के साथ ईमानदारी कर सकते हैं। क्योंकि मूल समस्या सिद्धान्त से भटकने की हैं जो कि 1848 में भी जब साम्राज्यवाद चौंका था कम्युनिस्ट पार्टी के घोशणा पत्र पर। उसने इसके बरक्स जेएस मिल को खड़ा कर दिया। और मिल ने भी कम्युनिस्ट घोशणा पत्र के विरोध में एक किताब लिखी-- प्रिंसपल आॅफ पोलिटिकल इकोनामी। इसमें उन्होंने लिखा है कि जैसा कि कम्युनिस्ट घोशणपत्र में लिखा गया कि व्यक्तिगत सम्पत्ति पर अधिकार ही सारी समस्याओं की जड़ है। सारे झगड़े सम्पत्ति पर व्यक्तिगत अधिकार का होना, मुनाफा का होना, सारी बुराईयों की जड़ हो जाती है। तो जे एस मिल को साम्राज्यवादियों ने कहा कि समाजवाद तो बहुत अच्छी चीज है। व्यक्तिगत अधिकार सम्पत्ति पर रहेगा भी तब भी समाजवाद आ जाएगा। आज ये कम्युनिस्ट लोग इसी धारणा से प्रेरित है। और यही मानते हैं। दूसरा- माक्र्स ऐगिल्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के नजरिए से करते- वर्ग संघर्श अनिवार्य। वर्ग संघर्श ही किसी भी समाज का रास्ता प्रशस्त करता है तो जे एस मिल ने कहा कि वर्ग संघर्श होगा तेा गड़बड़ हो जाएगा। साम्राज्यवादियेां का हित कुंठित होगा। मजदूर और पूँजीपतियों में मेल हो मतलब वर्ग संघर्श नहीं वर्ग-समन्वय होना चाहिए। तो आज वामपंथी भी यही कह रहे हैं कि वर्ग-समन्वय होना चाहिए। जैसे चौंतीस साल के शासन में वाम-मोर्चे ने पक्का समर्थन दे दिया। दूसरा क्या होगा कि वामपंथ ने कहा कि सशस्त्र क्रान्ति से ही समाजवाद अंतिम रूप से आएगा। सशस्त्र संग्राम होगा। इसके बरक्स जे एस मिल ने कहा कि शन्तिपूर्ण अन्तरण से ही वर्ग सहयोग हो जायेगा कोई जरूरत नहीं वर्ग संघर्श की। शांतिपूर्ण संक्रमण से ही समाजवाद का रास्ता मिल जायेगा। संसदीय पद्वति से होे जाएगा। तो वामपंथी अब इसे भी मान रहे हैं। सर्वहारा तानाशाही के विशय में भी मिल ने कहा कि इसकी कोई जरूरत नहींं है। सर्वहारा तानाशाही न होगी तब भी सामाजवाद आ जाएगा। पूंजीपति के साथ-साथ वर्ग सत्ता में भागीदारी जो जाएगी। चुनाव के माध्यम से यह सम्भव है। आप देखें कि वामपथ का मुख्य सशस्त्र आन्देालन कहाँ गया? उसका अतिदुस्साहसवाद है। देखिए कि इसका अंत कहाँ जाकर होता है। लेनिन ने भी कहा था कि अपने भाई जार पर जब हमला किया तो कहा कि ये रास्ता नहींं है। तब लेनिन ने कहा कि एक कदम आगे दो कदम पीछे। मतलब अतिवामपंथ। जो आज माओवादी कर रहे हैं । जो 1969 में सीपीआईएमएल ने किया वही वामपंथी आज कर रहे हैं कि संसदीय लोकतत्र में चले गऐ। वो रास्ता कहाँ जाएगा। वो बन्द गली मे जाएगा। कही आगे नहीं जाएगा। अन्त में क्या होगा कि जब आगे रास्ता नहीं है तो वापस लौटकर दो कदम पीछे दक्शिणपंथ में आ जाएगा। आपके जो विनोद मिश्रा ने किया। ये भी तो सशस्त्र अभियान चलाते थे। जंगलों मे रहते थे और अब वही संसदीय लोकतंत्र में चले गये। क्योंकि वो रास्ता अवरूद्ध है। वो अंधी गली में है इसी तरह रास्ता भटकने का है। सशस्त्र संग्राम के रास्ते पर जाने के लिए उसके दर्शन मेे जाना पड़ेगाए उसे पढ़ना पढेंगाए माओत्से तुंग को भी पढ़ना पड़ेगा। इस नाम को माक्र्सवादी नेतृत्वकर्ता बदनाम कर रहे है। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि माओत्से तुंग को बदनाम करने के लिए माओवाद को इस राजनीतिक ढंग से उपयोग किया जा रहा है। विचारधारा एक दूसरी चीज है। बिना जनता के माओ विचारधारा चल ही नहींं सकती। ये लोग जनता को छोड़कर के सशस्त्र संग्राम कर रहे है ये लिन पिआओवाद है। ये माओवाद नहीं. आप देखें कि माओ का संघर्श लाइनों का संघर्श था, राजनीति का संघर्श था, लिनपिआओ ने तो माओ की हत्या करने का भी शडयंत्र किया था। ये तो संयोग की बात है कि माओ बच गये थे लिनपिआओवाद माओ विचारधारा नहींं हो सकता। तो ये सिद्धान्त से भटकने की बात है। आप देखें कि ये लोग कहीं न कहीं इसी व्यवस्था के पोशक है। आप देखें 1968 से माओवाद चल रहा है। उससे पहले 1965 मे इसे एमसीसी चलाता था। जो कि नक्सलबाड़ी घटना से जुड़ा हुआ था। अब दोनों का गठजोड़ हो गया है। इस गठजोड़ की शुरूआत तो बहुत पहले ही हो चुकी थी। वरना आप बताएं कि 42 साल मे हम अब तक कहाँ पहुँचेे? तो अपनी गलतियों देखना, उनसे सीखना, समझौता करना, भटकाव होना यही सिद्धान्त का भटकाव है।

एक तो हो गया सिद्धान्त। अब आ जाएं व्यवहार में, कम्युनिस्ट पार्टी की लीडरशिप का जो व्यवहार रहा है जब हमने अपने वर्ग को, खुद को वर्गच्युत नहींं किया। सर्वहारा वर्ग की संस्कृति बहुत गजब की संस्कृति होती है। उसको हमे पढ़ना, समझना होगा। जो व्यवहार कम्युनिस्ट पार्टी का रूस, चीन मे रहा हैं क्यूबा कोरिया का रहा है। मैं पहले की बात कर रहा हूॅ जो व्यवहार उनका रहा है जो दोस्त-दुश्मन की पहचान करके दोस्त-दुश्मन को कम से कम खेमों में रखना और दोस्तों को सहानुभूति तक जोड़ने का काम रहा है। हमारा उठना-बैठना, बोलना जो कुछ भी व्यवहार में रहा है आज हमने इसे व्यवहार में अपने खत्म कर दिया है। हम कहीं न कहीं सुविधाभोगी, अवसरवादी अपने को दिखाना कि हम श्रेश्ठ है, बौद्धिक है। और इस संबंध में व्यवहार को लेकर माओत्से तुंग का जो 18 बिन्दु है उसको भी वामपंथी व्यवहार मे अनदेखी किया गया है। आज तो मूल सवाल व्यवहार का भी है। जिसे लेनिन कहा करते थे कि एक काॅमरेड, दूसरे काॅमरेड की आॅख की पुतली के बराबर होता है। क्या आज यह व्यवहार में है? आज वामदल ईश्र्या का शिकार हो गए हैं। मैं तो ईश्र्या का ही शिकार रहा हूँ. जहाँॅ नेतृत्व हथियाने की बात है माले ने भी हमारे साथ यही किया । सीपीआईएमएल ने भी व्यवहार में ईश्र्या ही रखी। तो व्यवहार का प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। अगर हम व्यवहार और सिद्धान्त दोनों को ही दुरूस्त कर देगें तब कम्युनिस्ट नैतिकता का प्रतिपादन होगा। जब तक कम्युनिस्ट नैतिकता का प्रतिपादन नहींं होगा। हमारे सिद्धान्त व्यवहार के सामंजस्य से औरों के साथ जुड़ेंगे नहींं तब तक सफलता नहीं मिलेगी। इसलिए कम्युनिस्ट नैतिकता का बहुत बड़ा सवाल आज बना हुआ है। व्यवहार ये है कि हमें एक दूसरे से असहमत होने के लिए पहले सहमति पैदा करनी होगी। आपके हमारे मतभेद होगें, जरूर होने चाहिए किन्तु एक वामपंथी की नैतिकता व्यवहार यही है कि वो एक दूसरे के साथ संवाद कायम करे। मगर आज किसी भी वामदल में उनके सिद्धान्तों के साथ आपके विचार व्यवहार की क्या इतनी गुंजाइश भी है। यकीनन नहींं है। चारू मजुमदार ने भी 1977 में कह दिया था कि अब यहाॅ पर बहस की कोई गुंजाइश नहींं है। और यदि फिर भी बहस की गयी. हमारी बात न मानने के उसे दुश्परिणाम भोगने होंगें। वामदलों में खुद को अथारिटी मान लेना यही एक समस्या बन गई है। जब जनवादी विचार की जगह तानाशाहियत आ जाए. किसी की बात सुनने की बजाए अपनी बात मनवाने की बाध्यता आ जाए। तब मुझे कहना पड़ता है कि लेट अस एग्री टू डिस एग्री। कोई वामपंथी यह मानने को तैयार नहींं है कि पिछली गलतियों की समीक्शा की जाय और उन्हें आगे के लिए सुधारा जाय। अगर सिद्धान्त और व्यवहार में सांमजस्य बैठा दें तो कम्युनिस्ट नैतिकता पैदा होगी। तभी क्रांति का मार्ग, व्यवस्था परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त्र होगा।

© 2012 G. P. Mishra; Licensee Argalaa Magazine.

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