इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका
'यहीं से शुरू होती है औरत की सार्थक पहचान'
औरत जब प्यार के मद भरे झरने में गाती है
सारी सीमाएँ लाँघ खिलखिलाती फैल जाती है.
उस वक्त सघन पीड़ा की गहन अनुभूति के चरम क्षण में औरत लीन होती है.
भीतर एक चीरती हुई चीख उठती है.
बाहर तटस्थ नि: शब्द चुप्पी हमेशा की तरह छाई रहती है.
ऐसे में औरत और शब्द के बीच मणि-रेख चटक कर टूट जाती है.
यहीं से शुरू होती है औरत की सही पहचान.
21वीं सदी में यह बेहद दिलचस्प व महत्वपूर्ण तथ्य है कि स्त्री अस्मिता की सार्थक पहचान प्रकृति तय करेगी या फिर स्त्री खुद. प्रकृति का स्वभाव और स्त्री-अस्मिता या कहें कि मनोवृत्ति बिल्कुल एक सी है. अब जब स्त्री ने जीने के साधन, सहूलियतें, वाज़िब (ठिकाने) रहठान, और निर्णायक फैसले लेने का हुनर सीख लिया है. हमें यह कतई नहीं समझना चाहिए कि वो बग़ावत कर रही है, न ही विरोध, न ही प्रतिक्रिया. यह उसके होने की पहचान का दौर है, जिसमें स्त्रियाँ खुलकर महिला सशक्तिकरण और स्त्री-अस्मिता के संकट से निबटने का दारोमदार अपनी नाजुक हथेलियों मे हिना के अमिट, गाढ़े रंगों में ढली प्रतिबद्धताओं के साथ खड़ी है. ऐसे मे हमें उनकी सोच, विचार, स्वभाव, जीने की कला और उसकी समूची अवधारणा, गुणवत्ता पर भरोसा करना होगा. हमें नए संसार की ज़रूरत है. एक ऐसी दुनिया जहाँ (क़ायनात की दूत) स्त्री और पुरूष (सर्जक का दूत) के बीच समरसता, सौहाद्र, मधुर संबंध, रागात्मक जीवन शैली और समूची ताज़गी और खिलावट से भरी दुनियावी दृश्य-बिंब सभी कुछ स्त्री की रची दुनिया हो. स्त्री के जिन संभावनाओं के टुकड़ों को सँजोया और अपनी पहचान और अधिकार की जमीन तैयार की है. उन संकल्पनाओं के हिस्से मे उसने पुरूष को सिर्फ शौकिया नहीं अपनाया बल्कि बेहद संजीदगी और अपनी ज़रूरत व प्रेम की शिद्दत को महसूस करके ही धारणा को रोका है.
प्रकृति और स्त्री के विरूद्ध जो कुछ भी आदम जात ने सुलूक किया वह वाकई में शर्मनाक और रसातल की ओर जाने का परिणाम है. जिससे उपजी हिंसा, अराजकता, सांप्रदायिकता, धार्मिक असहिष्णुता, जातिवादी संरचना और सांस्कृतिक विचलन व राजनैतिक विद्वेष. जबकि यदि हम इतिहास की परत-दर-परत छाल उतार कर भित्तिचित्र देखे तो कहीं भी स्त्री ने अमानवीय संपदा व कुकृत्यों के समक्ष न ही समझौता किया न ही स्वीकृति दी. हाँ इतना ज़रूर हुआ उसे इतिहास से बीती सदी तक अनगिनत यंत्रणाओं की कोठरी में सजा भुगतने को जबरन धास दिया गया और एक बात- देवता और दार्शनिक, सन्त- पुरोहित, गुरू-शिष्य, समाजशास्त्री मनोविश्लेषणवादी समुदाय वर्ण, वर्ग ने अपने तर्क और अनुभव से जहाँ एक तरफ विकारों की मुक्ति का मार्ग खोजा सुधारवादी आयाम निर्मित किए. वहीं दूसरी ओर भोग-विलास, ऐश्वर्य और आनन्ददायी इंद्रिय सुख को ले कर युद्धरत नई-नई रणभूमि तैयार की. जबकि किसी भी युग में स्त्री की पटल और केन्द्रीय भूमिका कहीं भी देखने को नहीं मिलती. उन्हें हमेशा हासिए पर ही रख छोड़ा गया. अब जबकि इस भौतिकवादी संरचना में उपभोग की उत्पाद सामग्री के रूप में पुरूष अपनी जिजीविषा और देह सुख की खातिर या कहें कि वासना की तृप्ति के लिए स्वार्गिक आकर्षण के मोह में फँसकर स्त्री को माध्यम बना कर विलासता के चरम क्षणों में जी रहा है. यही वज़ह है कि आदमी के विभिन्न रुपों में चाहे वह पिता, भाई, प्रेमी, पति, और पुत्र तक की सामाजिक रूढ़ि और संबंधों में स्त्री को पाखण्ड, आडम्बर, कर्मकाण्ड और सामाजिक सुरक्षा की आड़ में बँधी-बँधाई दहलीज़ के भीतर ही जीने को मजबूर स्त्री की समूची अस्मिता को रिश्तों की बेड़ीयों सलाखों में सदियों तक कैद होना पड़ा वह परतंत्रता में जीने की विवशता से भरी परजीवी लता सरीखी बनी रही. अब जब स्त्री ने तमाम प्राचीरें, दहलीज़, बन्धन षडयन्त्र, सामाजिक, सांस्कृतिक धार्मिक दुष्चक्र से परदा उठा दिया और खुद को एक चुनौती में ढाल लिया है. इस घातक चक्रव्यूह से निकलने में समर्थ हुई है. हमें उसकी शक्ल और सृजन की नई उपस्थिति को नव इतिहास निर्माण की न्यायिक व्यवस्था के रूप में दर्ज करना होगा. स्त्रियों का आत्म-साक्षात, आख्यान, विमर्श और जागरुक पहल को मानव निर्मित नैतिक-मूल्यों की जटिलता, परिणति व प्रतिबद्धता के सहज रूप से आत्मसात करना होगा. इसके अतिरिक्त हमारी भाषा संस्कृति की संकीर्ण दीर्घा को उदान्त भावना से लैस करने की खातिर स्त्री-संवेदना की जीवंत और अनुभवपरक अनुभूति व मुक्ति पर आधारित लबान, शैली संस्कार की विराटता, निहित गूढ़ विमर्श व नीतियों को निष्पक्ष व निर्पेक्ष होकर महसूस करने की ज़रूरत है व उसे व्यवहार के धरातल पर लगातार प्रयोग की गुंजाइश को समर्थन देना होगा तथा पुरूष निर्मित संवेदना के पथराए इलाकों तक पूरी खानगी से प्रवाहित होने वाली धारणाओं के स्वाँग को हटाकर स्वाभाविक मानवीय साँचे में ढालना होगा. मर्यादा और संस्कार के खोखले तंत्र में जकड़ी, सीक्चों मे बँधी स्त्री को खुले भरे पूरे आकाश में आज़ाद होने की परवाज़ देकर उसके डैनों को तन्मयता और उन्मुक्त भावना से लबरेज कर अनन्त उँचाइयों और असीम गहराई तक जाने की छूट देना होगा जहाँ वह खुली हवा में जी भर जी सके.
एक बात और जहाँ एक ओर क्रिया- व्यापार व्यवहार, इंद्रिय सुख, भाव वितरण और स्वप्न गाथा में पुरूष जब भी स्त्री को उसकी इच्छा अनिच्छा के बगैर रगों रक्त और वीर्य में समय असमय महसूसता है तो उसे स्त्री को इन तत्वों का सहभागी और पूर्ण अधिकारी की भूमिका में साक्षात उतारना होगा.
ब्रह्माण्ड से क़ायनात के बीच समूची मानव अस्मिता, स्त्री की संपूर्णत: में, अस्तित्व में बगैर हुए सृष्टि की रचना मिथक गल्प और अप्राकृतिक घटकों का प्राणहीन संचय मात्र है. चाहे वह इहलोक से परलोक में जीने की परिकल्पना हो या परलोक से इहलोक की संकल्पना इस समूची प्रक्रिया में स्त्री की दख़ल और पहल महत्वपूर्ण है. उसकी सृजनात्मक मौज़ूदगी के बगैर समस्त धार्मिकता, धारणाएँ, व्याख्याएँ, इतिहास, अर्थ और भाषा का संस्कार, मानवीय उद्घोषणाएँ भ्रमित करने वाली धरोहर सी है.
इन्हीं विचारों के साथ अरगला पत्रिका का यह दूसरा अंक आप सभी पाठकों के समक्ष है. जिसमें इतिहास को सही मायनों में अपनी पीड़ा और गहन जीवनानूभूतियों की आँच में तपा कर जिन महिला रचनाकारों ने गंभीर सिरकत की है और सनातनता से आज तक की हकीकत की उधेड़बुन करने का जोखिम उठाया. हम उन सभी रचनाकारों की लेखनी, साक्षात्कार सृजनकर्म के लिये शुक्रगुज़ार हैं एवं जिन रचनाधर्मी, रंगकर्मी, संघर्षरत स्त्री लेखिकाओं से हमारा साक्षात किन्हीं कारणों वश नहीं हो सका, हमारी उनसे गुज़ारिश है कि अरगला के इस सतत प्रयास में आगे आने वाले वक्त में वे सभी महिला रचनाकार हमें अपनी रचना प्रक्रिया से रूबरू कराती रहेंगी इसी उम्मीद के साथ -
मुझे उस आख़िरी दरवाजे तक पहुँचने का इंतज़ार है
जिसके भीतर
बिना आँखों वाली लड़कियाँ
बन्दीगृह की बेड़ियों से निजात पा
आकाश में
उन्मुक्त नाच रही होंगी.
- अनिल पु. कवीन्द्र
© 2009 Anil P. Kaveendra; Licensee Argalaa Magazine.
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नाम: अनिल पु. कवीन्द्र
जन्म स्थान: इलाहाबाद, उ. प्र.
शिक्षा: बी. ए. (यूइंग क्रिश्चियन कॉलेज, इलाहाबाद), एम. ए., एम. फिल., पी-एच. डी. (जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली)
अनुभव: म्यूज़ ऑफ़ मर्मर (काव्य एवं कला विशेषांक - 2008, अन्तर्राष्ट्रीय संस्करण) में सहायक सम्पादक, इण्डियन स्पोर्ट्स एण्ड कल्चरल सोसाइटी में सलाहकार
संप्रति: अरगला में मुख्य सम्पादक
कवितायें: सरिता, कादम्बिनी, उन्नयन, गुड़िया, प्रस्ताव, तरुण घोष, हेरिटेज़, मुक्ता, महकता आंचल, नवनीत एवं सरस सलिल इत्यादि में कवितायें प्रकाशित
कविता संग्रह: दीवार, ख़िलाफ़ हूँ मैं, पीली घास (प्रकाशनाधीन)
कहानियाँ: तरुण घोष इत्यादि में कहानियाँ तथा हंस, सरिता, राष्ट्रीय सहारा (हस्तक्षेप), गुड़िया एवं तमाम साहित्यिक - ग़ैर साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं में पत्र प्रकाशित
उपन्यास: अरगला (प्रकाशनाधीन)
हिन्दी अनुवाद: चीतों की फ़सलेगर्मा (केकी एन. दारूवाला की 'ए समर ऑफ़ टाईगर्स'), डबलिन वाले (जेम्स ज्वायस की 'डब्लिनर्स'); प्रकाशनाधीन.
अभिरूचियाँ: काव्य लेखन, कथा साहित्य, तैल चित्र, रेखाचित्र एवं साहित्यिक अध्ययन
सांस्कृतिक एवं कलात्मक गतिविधियाँ: कदम फ़िल्म्स द्वारा निर्मित "काले लोगे का रंग लाल है" में पार्श्व आवाज़; इलाहाबाद नाट्य संघ द्वारा आयोजित नाट्य परिचर्चा में "नींव का पहला पत्थर" नाटक में स्क्रिप्ट लेखन एवं अभिनय; गुड़िया, बचपन बचाओ आंदोलन जैसी कई समाजसेवी संस्थाओं में कार्यकर्ता के रूप में कई वर्षों तक कार्य; कई चित्रकला प्रदर्शिनियों में 100 से भी अधिक कला कऊतियाँ प्रदर्शित
यात्राएँ: भारत के अधिकांश शहर और इस साल आयरलैण्ड जाने की तैयारी
संपर्क: 210, झेलम, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली, 110067
वेब साईट: http://www.argalaa.org