इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका
भूमण्डलीकरण, वैश्वीकरण, उदारीकरण - यानी इज़ारेदार पूँजी की मायावी छड़ी जो छूते ही जीते जागते इंसान को कठपुतली बना दे - बाज़ार में एकाधिकारवादी पूँजी के इशारे पर नाचती कठपुतली दुनिया का एक बड़ा हिस्सा गिरफ़्त में है. नब्बे के दशक में जब ग्लोबलाईजेशन के संभावित भयावह परिणामों पर देश में तीखी बहस छिड़ी थी आज उन्हें भुगतते हुए जनता बर्बादी और तबाही के दुष्चक्र में फँसी है. बहुसंख्यक हाथों से रोटी रोज़गार, शिक्षा, स्वास्थ्य, नागरिक सुविधाएँ एक एक कर ......
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