इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका
अजय जोर जोर से चिल्ला रहा था - "मम्मी बाबा को बड़ा तेज़ बुख़ार है. वह रात से ही बड़बड़ा रहे हैं.. मैंने पापा को सुबह ही बता दिया तब भी वह अपने ऑफिस चले गये..."
"तू जा अपनी पढ़ाई कर. पढ़ाई के लिये ही यह तेरा समय है. बेकार की बातों से तेरा क्या मतलब.. जा, जाकर पढ़ बैठकर" शान्ता ने अजय को डाँट दिया था और वह चुपचाप अपने कमरे में अपनी पढ़ाई के लिये बढ़ ......
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एक उदास, अनमनी शाम का डूबता सूरज, अपने आख़िरी वक़्त में एक दम जर्द, और खामोश. इसके बाद जो अँधेरी रात आयेगी उसकी कल्पना करके ही जी डरने लगता है. साँय साँय करते सन्नाटों को चीरता झींगुर का तीखा स्वर. कैसी कटेगी यह डरावनी रात?
अपनी कहानी की उन पँक्तियों को लिखते हुए कितनी भीगी हुई थी मैं. लग रहा था कुछ दूरी पर एक भयावह स्वप्न खड़ा है जो कुछ देर में आकर मुझे ढक लेगा और ......
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सुरभि से चरत का विवाह हुए लगभग दस वर्ष हो गए थे. पर इन दस वर्षों में शायद ही कोई दिन ऐसा बीता हो जिसमें दोनों की तकरार न हुई हो. वैसे दोनों दो प्यारी-प्यारी पुत्रियों के माता-पिता बन चुके थे. पर विचारों के भिन्नता, सुरभि का शंकालु दिमाग परिवार की खुशियों को दीमक की तरह चाटता चला जा रहा था. हर शाम बस यही प्रश्न रहता था सुरभि का - "कहाँ-कहाँ गये थे? किससे मिले थे? क्यों इतनी देर ......
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ग्रीष्म ऋतु आ गई है. आज से अगले चार महीनों तक मैं अपने जलमहल में रहूँगा. मुझे यहाँ रहना बहुत पसंद है. इस महल में हर तरफ़ पानी के तालाब जो हैं. पानी से खेलते रहना मुझे बहुत अच्छा लगता है.
आज मैंने पिताजी को मेरे विवाह के बारे में मासी से बात करते सुना. कह रहे था कि यशोधरा बहुत सुंदर है. मुझे उत्साह भी हो रहा है किन्तु थोड़ा भय भी लग रहा है. विवाहित जीवन बहुत ......
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बहुत सारी ख़बरों के बीच सलोनी की आत्महत्या की ख़बर ने उसे एकदम से झकझोर दिया था. मज़बूत मगन दिखने वाली ने पलायन का रास्ता चुन लिया था. फागुन के महीने में भी कोई अपनी जान देता है, जब सारा नगर, देश संसार प्रेम में मगन रहता हो, तो उसे दुनिया छोड़ने का विचार मन में कैसे आ गया? एक सलोनी ही नहीं थी जो मदनोत्सव की परवाह किए बगैर अपनों और अपने जायों को छोड़कर चली गयी थी. ख़बरों ......
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आख़िरी शिफ़्ट थी. जब तक सब निपटा बारह बज चुके थे. वे तीनों एक टेबल पर बैठ गयी थीं. सुविधा इसी में थी कि कुछ खाकर ही घर जाएँ.
सोनू चिहुँकी थी. मओना कि हिलाया था - फिर, कल क्या हुआ? आया था वो?
आया था, पर वही गुस्से से तना खड़ा था बोला - देर से क्यों आई हो, कितनी बार कहा है तुम्हें... इन्तज़ार करना मुझे अच्छा नहीं लगता.
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एक साधारण मध्यमवर्गीय इंसान को ज़िन्दगी में क्या चाहिये. दो जून कि रोटी, सिर पर एक छत और तन पर ढकने को कपड़ा और थोड़ा सा प्यार... बस!! पर इतना भी मयस्सर नहीं होता उसे. दो जून रोटी का जुगाड़ कर लें किसी तरह, कपड़े हो ही जाते हैं, थोड़े अच्छे या थोड़े बुरे और छत भी जुटा ले कोई तो भी ज़िन्दगी की गाड़ी धचर-धचर ही चलती है. रफ़्तार पकड़ती ही नहीं. "ज़िन्दगी हर क़दम एक नयी जंग है" ......
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