अर्गला

इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका

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शिखर

ममता कालिया

जैसे जैसे लड़की बड़ी होती है

जैसे - जैसे लड़की बड़ी होती है
उसके सामने दीवार खड़ी होती है
क्रांतिकारी कहते हैं
दीवार तोड़ देनी चाहिये
पर लड़की है समझदार और संवेदनशील,
वह दीवार पर लगाती है खूँटियाँ
पढ़ाई लिखाई और रोज़गार की.
और एक दिन
धीरे से उन पर पाँव धरती
दीवार की दूसरी तरफ़
पहुँच जाती है.

शरीर को हमेशा

शरीर को हमेशा
दुश्मन की तरह समझा
और दुनिया की भट्ठी में झोंक दिया.
पाँव दौड़ाये सरपट
गलियों के गड्ढों, फुटपाथों और
सड़कों के स्पीड ब्रेकरों पर;
हाथों को कभी खाली नहीं रखा
वे लगे रहे अनवरत
कभी कलम कभी करछुल थाम.
कभी सूप से फटकते रहे
कभी सलाइयों से बुनते रहे
इंच भर सुई में मीलों मील डोरा डाल
सिलते रहे ये घर भर की
खोंप और उधड़न.
कमर क्रेन की तरह झुकती रही, उठती रही
बिना देखे पीठ की थकान और जकड़न.
कभी सिर ने छाते की छत
या
आँखों ने काले चश्मे की छाँह नहीं माँगी
कभी बालों में लगाया नहीं तेल
न कान के पीछे इत्र फुलेल.
निकल गये सौ सौ त्यौहार
किया नहीं कभी जी भर शृंगार
बस मंजन और साबुन
रहे अपने सौन्दर्य प्रसाधन.
इतने बुरे सलूक़ के बावज़ूद
इसने इतना साथ निभाया,
वफ़ादार दोस्त सा, सर्दी गर्मी
हर मौसम में काम आया
आज अगर यह
जगह जगह से टूट रहा है, फूट रहा है,
कैसे इसकी करूँ शिकायत, लानत भेजूँ!
अब तक इसने मुझको पाला
आगे से मैं इसको पालूँ.

न सही पूरा द्वार अथवा खिड़की

न सही पूरा द्वार अथवा खिड़की
मुझे एक रोशनदान दो
ऊँचा, खुला और अलहदा
जिससे भीतर की आवाज़ें बाहर
और बाहर की हवा भीतर आती रहे.
इस तरह
मोरी के रास्ते हवा तलाशने में
कितनी परेशानी होती है
कमर दोहरी हो जाती है
इस बेवजह संघर्ष में.
समझ नहीं आता
जो चीज़ सबको बड़ी आसानी से मिल जाती है
मेरे लिये इतनी दुर्लभ क्यों है.
क्या मैं कुछ कम मनुष्य हूँ
या, वे
कुछ ज़्यादा.
क्या मुझे हमेशा मोहलत की तरह मिलेगी ज़िन्दगी
या
बख़्शीश में
जाओ,
उनसे कह दो
मैं न कैदी हूँ न भिखारी
मेरा हक़ है
एक समूची साबुत आज़ादी.

कुछ दिनों बाद

कुछ दिनों बाद
मैं एक मूर्ख उपस्थिति मात्र रह जाऊँगी.
अक़्ल उड़ने लगेगी
जैसे साड़ियों के रंग,
संवेदना सरी आ टिकेगी
गली की बू और फेरीवालों की आवाज़ों पर
याददास्त के भाव कंठस्थ रहा करेंगे.
लिखूँगी
सिर्फ़ माँ बाप को शिकायती पत्र.
धीरे धीरे
हर सही काम तुम करोगे,
हर गलत काम के पीछे मैं रहूँगी
जब हम
आपस में बातें करेंगे
सिर्फ़ भुन भुन की आवाज़ें उठेंगी
तुम मेरी झुँझलाहट के आदी हो जाओगे
इसे एक अति औरत प्रतिक्रिया मान.
और मैं सोच लूँगी
कि काम में तुम्हारा बाहर जाना
वापस आने से ज़्यादा ज़रूरी है.
लोग तुम्हारी समृद्धि
मेरे वज़न से तौलेंगे
तुम फ़ायदे में रहोगे हर तरह.
अगर किसी खाली शाम
तुम मेरे प्रति गम्भीर होने की कोशिश करोगे
पाओगे
तुम्हारी प्रिय लड़की वर्षों पहले तुम्हें छोड़ गई है,
सिर्फ़ मैं
निरुत्सुक आँखों से
अपनी घिसी स्लीपरें घूरती बैठी हूँ.

सपने देखने वाली आँख

सपने देखने वाली आँख
अब अंधी हो गई
हमें एक संग्रहालय खोलना चाहिए
सन अमुक से अमुक तक
सपनीली आँखें
ऐसी हुआ करती थीं.

कभी कोई ऊँची बात नहीं सोचती

कभी कोई ऊँची बात नहीं सोचती
खाँटी घरेलू औरत
उसका दिन कर्तव्यों में बीत जाता है
और रात उधेड़ बुन में.
बची दाल के मैं परांठे बना लूँ
खट्टे दही की कढ़ी;
मुनिया की मैक्सी को,
ढूढूँ, कहाँ है साड़ी सितारों जड़ी;
सोनू दुलरुआ अभी रो के सोया
उसको दिलानी है पुस्तक
कहाँ तक तगादे करूँ इनसे,
छोड़ो,
चलो आज तोड़ूँ ये गुल्लक.

यह जो मैं दरवाज़ा बंद करती हूँ

यह जो मैं दरवाज़ा बंद करती हूँ भड़ाम
टी. वी. की आवाज़ चौबीस तक ले जाती हूँ
चटनी पीसने के बाद भी सिल पीसती रहती हूँ, कुछ देर,
रसोई में कलची रखती हूँ खटाक
बाथरूम में बालटी टकरा जाती है नल से
ग्लास अक्सर फिसल कर टूट जाते हैं मुझसे
यह मेरे अन्दर की भाषा शैली है
इसकी लपट और लिपि
मेरे जीवन में दूर दूर तक फैली है
हमेशा ऐसी खुरदरी नहीं थी यह
इसकी एक खुशबू थी
कभी बगिया में
कभी बाहों में.
रोम रोम से निकलते थे राग और फाग.
कभी आँखें ज़ुबान बन जातीं
सम्बोधित रहतीं तुमसे तब तक,
जब तक
तुम
चुम्बनों से इन्हें चुप न कर देते.

© 2009 Mamta Kaliya; Licensee Argalaa Magazine.

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