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इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका

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विमर्श

पूनम

अनिल पु. कवीन्द्र द्वारा पूनम का साक्षात्कार

अनिल पु. कवीन्द्र: महिलाओं की स्मिता को लेकर 20 वीं शताब्दी से लेकर 21 वीं शताब्दी तक जो राजनीतिक भागीदारी को लेकर जो संघर्ष रहा है जो सामाजिक बराबरी की लड़ाई के मुद्दे को हासिल करने का जो मुद्दा है उसे आप किस रूप में देखती हैं ?

पूनम: सामाजिक बराबरी को लेकर जो संघर्षों का सवाल है, पूँजीवादी व्यवस्था ने विभिन्न देशों में यह दावा करते हुए कि महिलाओं को सामाजिक बराबरी कागजों ये तो उन्होंने देने की कोशिश की है पर वास्तविकता में उसे बराबरी नहीं मिली है. और किस तरह से समाज में उनको बराबरी के वास्तविक अवसर नहीं मिल रहे हैं. और अगर हम हिन्दुस्तान के राजधानी दिल्ली की बात करें जहाँ हमारा संगठन कुछ एक संघर्षों में विशेष रूप से सक्रिय रहा है एक अनुभव बाँटना चाहेगें कि किस तरह से दिल्ली का एक बड़ा बौद्धिक तबका है वकीलों का तबका. और उस वकील तबके में हमारा महिला संगठन पिछले 10 साल से (1999) ये संघर्ष शुरू किया है कि दिल्ली की सभी अदालतों में क्रेच (बालग्रह) होना चाहिए. क्रेच का उद्देश्य ये है कि एक कामकाजी महिला को इस वजह से काम न छोड़ना न पड़े कि वो बच्चे को सम्भाल नहीं पायेगी. और क्रेच एक तरह से मूलभूत ज़रूरत है जो उसे सामाजिक उत्पादन में भागीदारी के अवसरों की कुछ हद तक सुनिश्चित कराने वाली एक सुविधा है. और इस संघर्ष में हमने सरकारों को पहल किया. दिल्ली की जो तीसरी बार मुख्यमंत्री बनी हैं श्रीमती 'शीला दीक्शित जी' उनसे हमारे संगठन का प्रतिनिधि मंडल मिला. 1999 में उन्होंने कहा कि तीन महीनों के अंदर अंदर सभी कोर्टो में क्रेच बनवा दिया जायेगा. उसके बाद हमने दिल्ली के मुख्य न्यायाधीश से लेकर के तमाम जिला न्यायाधीशों से लेकर सभी को पहल किया. सब इस मुद्दे पर सहमत ज़रूर हैं लेकिन उसे लागू कराने की हिम्मत किसी में नहीं है. अब स्थिति ये आती है कि अदालतों के अंदर अपने संघर्ष के प्रचार में हमने यहाँ तक सुना कि ' अरे जब महिला वकीलों को जब बच्चे ही पालने हैं तो उन्हें वकालत में आने की ज़रूरत ही क्या है उनको तो घर के अंदर ही रहना चाहिए'. और इस पूरे संघर्ष का अनुभव ये दिखाता है कि सामाजिक उत्पादन में भागीदारी करवाने के प्रति हमारी राज्य व्यवस्था महिलाओं के प्रति कितनी असंवेदनशील है. ये पूरा अनुभव इस बात को दर्शाता है. और जबकि हिन्दुस्तान का यह कानून है कि '1948 फैक्ट्री एक्ट', ये प्रावधान है इसके अंदर कि जहाँ भी 20 से ज्यादा महिलाएँ काम कर रही हैं वहाँ पर क्रेच होना अनिवार्य है. और आप दिल्ली के औद्योगिक इलाकों के अंदर जा करके देखिये कि क्रेच के बारे में कोई जानता भी नहीं है. न तो सरकार के द्वारा कोई उपाय है न ही मालिकों के द्वारा. अगर महिला नौकरी कर रही है तो अपनी दोहरी भूमिका निभाते हुए कर रही है. सामाजिक बराबरी का मतलब ये होगा कि सामाजिक उत्पादन में भागीदारी के उसे पूर्ण अवसर मिले. लेकिन पूर्ण अवसर तो कहीं नहीं है. नौकरी करने पर दोहरी जिम्मेदारी उठानी ही है. इसका सीधा मतलब हुआ कि नौकरी करने का अधिकार ही नहीं है. समाज में ये मान लिया जाता है कि अगर औरत नौकरी करेगी तो परिवार की इज़्ज़त संकट में पड़ जायेगी. यह इसके सामाजिक इज़्ज़त पर चोट है. हमारा देश जो आधा पूँजीवादी और आधा सामंतवादी देश है इसके अंदर ये मान्यता है औरतों का काम करना कलंक माना जाता है. परन्तु जहाँ आर्थिक हालातों के चलते तंगी होती है घर का खर्च चलाना मुश्किल होता है तो इसको एक मजबूरी वस मानकर चलते है कि ठीक है अगर घर नहीं चल रहा है तो काम करने में क्या बुराई है. और वहाँ भी राज्य की तरफ से बराबरी नहीं दी गयी है. इस बात की गारंटी भी नहीं है कि अगर महिला काम करना चाहे अगर वो अनपढ़ महिला है तो उसे रोज़गार के उचित अवसर सरकार की तरफ से न के बराबर है तो ये तो महिलाओं का संघर्ष लगातार चलता ही आ रहा है कि पहले इसने कानून लिखवाने की लड़ाई लड़ी और फिर संगठित होकरा के उन कानूनों को लागू करवाने की लड़ाई और नये अधिकारों को पाने की लड़ाई लड़ी. ताकि वास्तव में इसके सामाजिक उत्पादन के अवसरों में समुचित भागीदारी के अवसर मिल सके.

अनिल पु. कवीन्द्र: आधा पूँजीवादी और आधा सामंतवादी आज के हिन्दुस्तानी समाज में अज़ादी से पहले व बाद से अब तक महिलाओं की जन आंदोलनों में भागीदारी में उनका समुचित स्थान नेत्रत्व में देखने व दूसरी तरफ आज भूमण्डलीकरण के बाद के हिन्दुस्तान के समाज में एक नया उभरता हुआ कार्पोरेट जगत में महिलाओं के उभरने की बात हो लेकिन मूल स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है उनकी बुनियादी ज़रूरत के हिसाब से उनकी कठिनाइयों को अलग अलग नज़रिये से जोड़कर महिलाओं के समक्ष आने वाली चुनौतियों को आप कैसे देखते हैं ?

पूनम: हिन्दुस्तान में जब ब्रिट्रिश राज था, ब्रिट्रिश जो जन आंदोलनों के दौरान महिलाओं ने खूब बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया. उन आंदोलनों के दौरान महिलाओं को जेल भी जाना पड़ा है. महिलाओं ने जनता को संगठित करने में भी अग्रणी भूमिका निभायी. और विभिन्न स्तरों पर अपनी जान की भी कुर्बानियाँ दी. हिन्दुस्तान के अंग्रेज विरोधी आंदोलन में महिलाओं बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया और अपने नेत्रत्व की मिसाल भी कायम की. 1947 के सत्ता स्थानांतरण के बाद जब अंग्रेज यहाँ से चले गये उसके बाद भी जनता के बुनियादी जीवन में कोई बुनियादी बदलाव नहीं आया है. तो इसलिए भारत की आधी आबादी के जीवन में कोई बुनियादी बदलाव नहीं आया है. महिलाओं का दर्जा दूसरे नागरिक का था मौज़ूदा दौर में भी इसका दर्जा दूसरे नागरिक का ही है. और हिन्दुस्तान के सामाजिकढ़ाँचे की संरचना इस प्रकार से है कि अधिकांश महिलाओं को आगे बढ़ने के समान अवसर नहीं मिल रहे हैं. जिन महिलाओं को विशेषकर भूमण्डलीकरण के बाद यानि 1991 के आर्थिक उदारीकरण के दौर के बाद से ये कहा जा रहा है कि कुछ महिलाएँ जगह बना रही हैं तो ठीक बात है. कार्पोरेट घरानों मेइं जिस तरह से मुट्ठी भर मर्दों का कब्ज़ा है, कुछ महिलाओं का बहुत छोटा सा तबका भी इस जगह में अपना स्थान बना रहा है लेकिन उसका दोहरा स्तर चाहे कार्पोरेट जगत. घराने की औरत हो या औद्योगिक जगत की चाहे वो आई. ए. एस. बनी महिला हो, बाबार घटनाक्रम हिन्दुस्तान का ये साबित कर रहा है कि महिलाओं का दर्जा नम्बर दो का ही है. दोयं दर्जे की उसकी परिस्थिति रहती है. विशेषकर ये कार्पोरेट जगत से हटकर आई. ए. एस. वाली घटना का जिक्र करना चाहूँगी, रूपन देओल बजाज का केस हिन्दुस्तान में साबित करता है कि किस तरह से पहले वो एक आई. ए. एस. आफिसर है, उसके सहकर्मी पुरूष साथी ने उसके साथ दुर्वव्यवहार किया, उसके बाद उसे छह बरस लग जाते हैं एफ. आई. आर. दर्ज करवाने में जबकि वह खुद एक क्लास एक पदाधिकारी हैं. उसके बाद जब सजा हो जाती फैसला हो जाता है तो फैसले में दोनों का रैंक बराबर है, उच्चतम न्यायालय ने उसको, उसके कैद के फ़ैसले को अपील में चैलेंज करते हुए जुर्माने में तब्दील कर देती है. जबकि यहाँ जुर्माने का कोई औचित्य नहीं समझ में आता है. ये वास्तव में दिखाता है कि तरह से न्यायपालिका का भी रवैया है वह बहुत बार जिस तरह का समाज में लैंगिक शोषण चल रहा है उसको पुनर्प्रतिस्थापित करने में मददगार बन जाती है और कार्पोरेट जगत की जो बात है दर असल में महिला को उसके शरीर का व्यवसायीकरण ये बहुत बुरी तरीके से कार्पोरेट जगत के अंदर देखने को मिलता है और अक्सर ये सवाल खड़ा होता है कि किस तरह से महिला सेक्सुअल हरासमेन्ट वाली जगहों पर सबसे घटिया मिसाल हैं. उन औरतोंको सब कुछ इसलिए झेलना पड़ता है कि अगर नौकरी बचानी है, अपने आप को वहाँ स्थापित कर के रखना है तो ये सारी चीजें कैरिअर के साथ आपको अपने आपको बचाए रखने के लिए करनी पड़ेगी.

अनिल पु. कवीन्द्र: मौज़ूदा दौर में हिन्दुस्तान के विभिन्न क्षेत्रों में कुछ खास जगहों पर जो जन आंदोलन चल रहा है, सरकार के औद्योगिकरण की नीतियों के खिलाफ़ जो विस्थापन विरोधी जन आंदोलन जो चल रहे हैं उनमें महिलाओं की जो विशाल भागीदारी है उसे हिन्दुस्तान में आने वाले समय में संभावित, सामाजिक, राजनीतिक, व संरचनात्मक स्तर पर होने वाले बदलाव को और इनकी संभावित जटिल परिस्थितियों को आप किस प्रकार से देखती हैं. ?

पूनम: इस पूरे दौर में सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि हिन्दुस्तान भर के अंदर विस्थापन विरोधी आंदोलन मे तीखे तौर पर यहाँ के आदिवासियों व किसानों ने साथ ने सीधा सीधा मुकाबला किया है साम्राज्यवादी एजेंडे का जिस तरह से बड़े औद्योगिक घरानों को बहुराष्ट्रीय कंम्पनियों को स्थापित करने के लिए और कृषक वर्ग को तबाह करने के लिए कोशिश की जा रही है सरकारों के द्वारा और इसमें विभिन्न शासक वर्ग के पार्टियों द्वारा चलाई गई सरकारें हैं. चाहे वो समाजवादी पार्टी के द्वारा नोएडा में किया गया हो, चाहे के सी. पी. एम. सरकार द्वरा पश्चिम बंगाल में सिंगूर और नंदीग्राम में हो, या फिर हरियाणा में रिलायंस के खिलाफ़ आंदोलन हुआ है. जनता ने विशेषकर किसानों ने आगे बढ़कर आदिवासियों का जनसंघर्ष हो 2 जनवरी 2006 से जो मामला शुरू हुआ, इसने पूरे भारत के जन आंदोलन को दिशा देने की कोशिश कि है. क्योंकि इसके पहले तक क्या होता था कि साधारणतया उनके पुनर्वास की बात की जाती थी उसने ये बात स्थापित किया की नहीं विस्थापन होना ही नहीं है, खून भी देंगे जान भी देंगे जमीन नहीं देंगे ये नारा इसी जन आंदोलन से निकलकर आया इसने पूरे हिंदुस्तान के जन आंदोलन को नई दिशा देने का प्रयास किया है. और इस पूरे आंदोलनों के अंदर महिलाओं ने आगे बढ़कर हिस्सा लिया. चाहे 2 जनवरी 2006 था जब कलिंग नगर में 11 आदिवासी मरे शहीद होने वाली चार महिला साथी थी, नंदीग्राम के अंदर गाँव के गाँव की महिलाओं ने संगठित होकर अपनी जमीन बचाने के लड़ाई को खड़ा किया, सिंगूर के अंदर नौजवान लड़कियों ने आगे बढ़कर कुर्बानी देकर अपने आपको संगठित किया और बलिदान की नयी नयी मिसालें खड़ी की. और इसमें जो विशेष बात थी कि इन जन आंदोलनों के अंदर महिलाओं के भागीदारी करने की बात को लेकर विभिन्न राज्य सरकारों ने न केवल जन आंदोलनों का दमन किया बल्कि जन आंदोलनों में भागीदारी करने वाली महिलाओं के ऊपर लैंगिक हिंसा का प्रयोग किया जो अभी सबसे ज्यादा क्रूर रूप में नंदीग्राम के अंदर सामने आया और उसके बाद असम के अंदर किस तरह हमने देखा कि वो आदिवासी लड़कियाँ अपनी मांग को लेकर आंदोलन कर रही थी बाकी सब लोगों के साथ और किस तरह से उन्हें नंगा करके इलाके के अंदर घुमाया गया नंदीग्राम में जो महिलाओं के साथ वीमन्स लैंगिक हिस्सा भी कई जिसमें किस तरह से स्टेट मशीन के द्वारा चलाया जा रहा था से सी. पी. एम. के कैडरों ने इसमें हिस्सा लिया. स्टेट मशीनरी ने ऐसा दिखा कर यह साबित करने का कोशिश किया है कि किस हद तक जन आंदोलनों को सरकार कुचल सकती है, किस तरह से जन आंदोलनों में शिरकत करने वाली महिलाओं के खिलाफ़ यौन हिस्सा की गयी है ये एक सबक देना चाहती है सरकार कि अगर जनता के जुड़े मुद्दे पर जन आंदोलनों को चलाने पर आपकी औरतों को इस तरह से प्रताड़ित किया जा सकता है. लेकिन बावज़ूद इस चेतावनी के महिलाओं कि आम जनता की भागीदरी और पुख्ता हो गई है. और ये सवाल तो जैसा कि दिल्ली जैसे विकसित शहरों की बात करें तो इस शहर के अन्दर महिलाओं की परिस्थिति को देखें इस शहर को बनाने वाली फैक्ट्री के अन्दर, तमाम बड़े औद्योगिक इलाकों के अन्दर जैसे, ओखला, नारायण, मायापुरी, समयपुर बादली आदी जगहों पर औरतों को आदमी के बराबर वेतन नहीं मिल रहा है. आज भी स्थिति यह है कि महिलाओं को
ई. एस. आई. पी. एफ. जो उनका कानूनन हक़ है जो महिला सश्क्तीकरण के कार्य में एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया हो सकती है आप सिर्फ सशक्तीकरण के दावे कहते है लेकिन इसकी कोई गारंटी नहीं है. यहाँ तो ई. एस. आई. पी. एफ. सामान्य मजदूर को तो मिलता भी नहीं है और महिलाओं को विशेष रूप से नहीं मिलता. और महिला को नौकरी में इसीलिए भी रखा जा है कि वह कम वेतन पर भी काम करेगी और यूनियन में भी नहीं जायेगी और हमारा काम धंधा चलता रहेगा. उससे ज्यादा दिल्ली शहर के झुग्गियों के अंदर देखिये जो काम दिल्ली के फैक्ट्री मालिक अगर अपने कारखानों के अंदर काम करवाते है, छोटे काम जैसे टाफी की पैकिंग, या फूल बनाना, वो सारे काम जो दिल्ली के नागरिकों के लिए ज़रूरी है लेकिन जब उसके उत्पादन में औरतें भागीदारी करती हैं तो इतनी ज्यादा कड़ी मेहनत जिसका उचित मूल्य नहीं मिल रहा है और उसकी कहीं इंट्री नहीं है कि वो काम भी कर रही हैं. स्थिति ये है कि आज भी औरत जिस काम को जिंदगी भर ताउम्र कर रही जैसे कि घरेलू श्रम, इसलिए मान लिया जाता है कि वो औरत है इसलिए घरेलू श्रम उसके साथ जुड़ा हुआ है. और इस घरेलू श्रम को आज तक तक सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम के रूप में जनगनजा के अंदर दाख़िल नहीं किया गया है. इसलिए ये हालत खराब है और खराब हालातों के खिलाफ़ लड़ाई भी जारी है. जब समाज में नई तरह का समाज बनाने के लिए जो जो जन आंदोलन चल रहे हैं उन जन आंदोलनों के साथ, उन जन आंदोलनों में महिलाओं की भी भागीदारी होनी निश्चित है और वो जन आंदोलन इस कोशिश में भी लगे हुए हैं कि कोई भी जन आंदोलन तब तक सफन नहीं है जब तक उसमें महिलाओं की समुचित भागीदारी नहीं है.

अनिल पु. कवीन्द्र: स्त्री का लिंग भेद और यौन भेद जिस प्रकार से इनके व्यापकता को लेकर दुहरापन है समाज में जो इज़्ज़त और प्रतिष्ठा की बात की जाती है, जो आज का हमारा पारंपरिक हिन्दुस्तानी समाज है उसमें जिस सामाजिक संरचनत्मक व्यवस्था की बात की गयी है और वर्तमान के इस आधुनिक होते समाज के व्यवस्था के अंदर इसको लेकर होने वाले बदलाव को आप कैसे देखती है. ?

पूनम: देखिये पारंपरिक समाज के अंदर भी महिला की ज़िंदगी चार अवस्थाओं में विभाजित है. बचपन में पिता के अधीन, जवानी में पति के अधीन बुढ़ापे में पुत्र के अधीन. और इज़्ज़त की बात भी यहीं से निकलती है. गुलाम हैं अमानत है किसी और घर की, पराया धन हैं इसीलिए इस धन को बचा के रखना है ताकि सही सलामत उसे सौंपा जाए. बात यही है कि अंतत: महिला जो है एक पुरुष विशेष के वंश वृद्धि के उत्पादन का साधन मात्र है. सामंती समाज के चलते ऐसे हालत पैदा हुए हैं. समाज का मानव इतिहास यह दिखलाता है कि समाज में जो निजी संपत्ति को रखने की अवधारणा उत्पन्न हुई है वह स्त्रियों को अधिक से अधिक क़ैद में रख के अप्ना वर्चस्व कायम करने की वजह से हुई है. इसकी शुरुआत वहीं से हुई है निजी संपत्ति को बचा के रखने का यही एक तरीका था. कि महिला को क़ैद करके रखा जाए, यह तय हो सके कि कौन से पुरुष की कौन सी महिला वंश को बढ़ाने वाली है. और वही मान्यता बहुत अच्छी तरह से हमारे इस अर्ध सामंती समाज में देखने को मिल रही है. पारंपरिक समाज में समाज के अंदर भी यही धारणाएँ हैं. हमारे धर्म शास्त्रों में भी यही कहा जाता है कि "ढोल गँवार शूद्र पशु नारी ये सब ताड़न के अधिकारी." यही बात मनु स्मृति भी कही जाती है कि औरत को हर अवस्था में अधीन रखना चाहिए और उसे अधीन रखना हर मर्द का कर्तव्य है. औरत पैर की जूती है और इसीलिए उसे क़दमों में ही रखना चाहिए. इन्ही मान्यताओं के साथ सामाजिक व्यवस्था न केवल इनका पोषण करती हैं बल्कि उन्हें सुरक्षा और प्राश्रय देती हैं. और यह प्राश्रय और पोषण आज तक चला आ रहा है, हम देखते नहीं कि किस तरह से पंचायतों के अंदर जब अंतर्जातीय विवाह हो जाता है तो ऑनर किलिंग के नाम पर अभी इसके हाल का उदाहरण मौज़ूद है एक तो पंजाब के अंदर हुआ जहाँ अदालत के सुरक्षा के बावज़ूद लड़का लड़की ने अपनी पसंद से शादी की थी, लेकिन दिन दहाड़े उनका क़त्ल हो जाता है. न केवल ये बल्कि आए दिन हमारे सामने ऐसे उदाहरण आते रहते हैं जिसमें कि प्रेम विवाह करने के नाम पर पंचायत में फ़ैसले लिए जाते हैं कि इन्होंन्ने गलत काम किया है. इन दोंनों की गर्दन काट दी जानी चाहिए. दरसल हमारे समाज में साम्राज्यवादी संस्कृति का बाहुल्य बढ़ा है जिस तरह से उन्हें बेरोक टोक आमंत्रित किया जा रहा है, और उसका जो असर हमारे समाज के ऊपर हो रहा है कि जैसे अभी कुछ दिन पहले वेलंटाईन डे था जिसको लेकर उसे काफ़ी चमक दमक के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है और दरसल में वेलेंटाईन डे विवाह की स्वतंत्रता के अर्थ के लिए था लेकिन यह साम्राज्यवादी कंपनियाँ इस बात को प्रतिबिंबित न करके इसका बाजारीकरण के नाम पे लोगों को लुभा कर लूटने भर का एक दिन बनकर रह गया है. वे सिर्फ़ अपने कार्डों के गिफ़्ट आईटम के व अपने रेस्तराँ वगैरह के बिक्री करने व मुनाफ़ा कमाने के बारे में सोचते हैं आप देखिये कि पूरी की पूरी बात की गंभीरता को ख़त्म करके ये व्यवस्था किस तरह से एक दूसरे का पोषण करती है अंततोगत्व: इसमें पीड़ित महिला ही होती है शिकार हर हालत में महिला ही बनती है. वास्तव में महिला की स्थिति में कोई बदलाव नहीं है. पुराने समय में उसकी जगह घर के अंदर थी और अब जो है उसे ये बता दिया गया है कि साम्राज्यवादी संस्कृति उन्हें बिकने भर का सामान मानके व उसके शरीर का प्रदर्शन करके अपने उत्पाद को बेचने की जुगत में लगे हैं. और जिस तरह से सौंदर्य प्रतियोगिताएँ आयोजित करवाई जा रही हैं, दरसल इसमें एक झूठा बौद्धिक पर्दा चढ़ा करके इसे प्रस्तुत किया जा रहा है. और महिलाओं की ज़िन्दगी में कोई मूलभूत परिवर्तन नहीं आया है. वरन उसे एक उपभोग का साधन और वयवसाय मात्र की वस्तु बना के पेश किया जा रहा है कुल मिला के हालात वही हैं.

© 2009 Poonam; Licensee Argalaa Magazine.

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