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विमर्श

रमोला रुथलाल

अनिल पु. कवीन्द्र द्वारा रमोला रुथलाल का साक्षात्कार

अनिल पु. कवीन्द्र: 21सवीं सदी में महिला रचनाकारों का साहित्य कर्म और नई कविता में उनकी भूमिका कैसी है ?

रमोला रुथलाल: समस्त भारतीय वांग्मय में स्त्री लेखन का जो स्वरूप अध्यतन विमर्श और संघर्ष का विषय बना है वह स्त्री लेखिकाओं द्वारा एक विशिष्ट वर्ग का मात्र बौद्धिक संघर्ष बनकर उभरा है उसमें कहीं भी ज़मीन से जुड़ी महिला की वास्विकता मनोवृत्ति और भौतिकवादी समाज में उसकी पीड़ा का निर्वहन नहीं हो पा रहा है. नई कविता में स्त्री लेखिकाओं की आधुनिक विचारधारा और स्त्री की मनोवैज्ञानिक समस्याओं का चित्रण तो काफी हद तक मौज़ूद है. किन्तु भौतिक धरातल पर समाजिक, सांस्कृतिक, पारिवारिक और व्यक्तिगत उलझनों और बंदिशों की वाग्विदधता भ्रामक वाग्जाल है. स्त्री की यथार्थ तल्हट पर कारूणिक दारूण कल्पना का जाल बिछाया जा रहा है. जहाँ एक स्त्री यदि स्वयं को दोषी माने भी तो इस बात का कोई उपाय नहीं कि वह इस दोषारोपण से निजात कैसे पाएगी. सवाल कविता में स्त्री लेखन की मौज़ूदगी या दावेदारी का नहीं है स्त्री मुक्ति, स्त्री अधिकार, स्त्री परतंत्रता से स्वतंत्रता की सीमा में कब अपने हृदय के उद्गार रखेगी.

अनिल पु. कवीन्द्र: महिला रचना कर्म और भूमण्डलीकरण के दौर में स्त्री अस्मिता का संघर्ष के बारे में आपके विचार क्या हैं ?

रमोला रुथलाल: स्त्री अस्मिता का संघर्ष और स्त्री- लेखन ये आज भी दो प्रथक प्रथक धरातल बने हुए है. जो स्त्रियाँ अस्मिता के संघर्ष को पनपा रही हैं वो स्वत: सामाजिक साँस्कृतिक और परंपरा की शृंखलाओं मे जकड़ी हुई हैं. और अस्मिता को बनाए रखने के लिए न तो परंपरा को दाँव पर लगाए हुए है न स्त्री- व्यक्तित्व को ताक पर रखकर संघर्ष कर रही हैं. जबकि इसके बनिस्बत स्त्री- लेखन में सक्रिय रचनाकार का संबंध न तो स्त्री की अस्मिता के संघर्ष से है न ही शृंखलाओं में बँधी स्त्रियों के दयनीय जीवन से उनका वास्तविक संबंध है वे अपनी ही एक वेदनामय, दारूण-रथा की काल्पनिक दुनिया का ताना बाना बुनती हैं. और उसी में तमाम उलझनों के साथ जीती हुई निजात की आरजू बनाए हुए संघर्षशील बनी हुई है.

अनिल पु. कवीन्द्र: तकनीकी और पूँजीवादी समाज में हिंदी की स्थिति और रूपरेखा कैसी होगी ?

रमोला रुथलाल: पूँजीवादी समाज हो चाहे समाजवादी व्यवस्था स्त्री का दोहन दोनों समाज अपनी अपनी तहज़ीब और दस्तूर में रहकर अपने ऐश्वर्य और विलास के खातिर कर रहे हैं. किसी भी देश का साहित्य उस देश की समृद्धि का प्रतीक है. साहित्य की समृद्धि, भाषा की समृद्धि है भाषा की समृद्धि, समाज की समृद्धि को दर्शाता है समाज की समृद्धि बौद्धिक जागरूकता पर टिकी है बौद्धिकता का निरूपण किसी राष्ट्र में तभी संभव है जब वहाँ की जन समुदाय चाहे स्त्री हो या पुरूष निरंतर विकाशशीलता की ओर उन्मुख हों. किंतु भारतीय सामाजिक व्यवस्था चाहे वह पूँजीवादी हो या समाजवादी अपने दस्तूरों में तमाम खामियों और रूढ़ियो की वजह से सामाजिक विकास मे सक्रिय भागेदारी नहीं निभा पा रही है. अत: ऐसे में सामाजिक कुंठाग्रस्त, संकीर्ण, निष्फल बौद्धिकता का प्रगतिकरण हो रहा है अब तक भौतिकवाद की सबसे बड़ी कमजोरी है समष्टि बौद्धिक जागरण की कमी अत: भारतीय सामाजिक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में जितनी विशद व्यापक चेतना होगी भाषा की चेतना का फ़लक भी इतना ही बड़ा होगा. एक पंगु भौतिकता का मुखौटा या लबादा डाले भारतीय समाज और उसकी भाषा की उन्नति पर विचार करना कतई उचित नहीं.

अनिल पु. कवीन्द्र: साहित्य में वर्ग, वर्चस्व, जातीय संघर्ष और परंपरा की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के बीच स्त्री चरित्र किन रूपों में स्थायित्व बना पाया ?

रमोला रुथलाल: भारतीय सामाजिक व्यवस्था ऐसी रही है. जिसमें चाहे वर्ग संघर्ष, वर्चस्व, भारतीय संघर्ष रहा हो स्त्री अपने वास्तविक जीवन से कोसों दूर विलक्षण रूप में सामाजिक प्रतिबद्धता और प्रतिस्पर्धा में अपनी भूमिका अब करती रही है किंतु भूमिका चेतना और जातीय चेतना में स्त्री की बहुमूल्य उपयोगिता को उपदेयता में परिवर्तन कर उसे मात्र भोज्ञा कि संज्यना में अनुबंधित कर दिया हो. तमाम अंदोलनों में सक्रिय भूमिका निभाने वाली महिला चरित्र अपने वास्तविक जीवन में सामाजिकता और सांस्कृतिक मंत्र एक मुखौटा डाल अभिनय रूप में व्यस्त हैं. ये देश की ऐसी उन्मुख और विशक्त धारा की महिलाएँ हैं जो यौरूष पूर्ण सामाजिक विरूह मात्र अपना विद्देष प्रकट कर रही हैं वास्तविक समस्या के जूझने की बजाय एक भटकीय चक्र चल रहा है. अत: समानता से नवीनता तक स्त्री चरित्र का खुलासा न तो मनीषी कर सके हैं न ही आधुनिक चेतना से लबरेज बौद्धिक वर्ग इसका निर्धारण कर पा रहा है. स्त्री एक जटिल संशलिष्ट के स्थातित्व के लिए छटपटाहट से भरी है किसी सार्थक प्रयास की धुरी से बहुत दूर है.

अनिल पु. कवीन्द्र: प्रवक्ता के पद पर रहते हुए आपने जिन मुश्किल हालातों का सामना किया उसमें साहित्य कर्म कितना हावी रहा ?

रमोला रुथलाल: प्रवक्ता के पद तक मेरी छ्ति एक सामान्य स्त्री कर रही है मैंने जीवन के तमाम उन हुए पहलुओं को छूने की कोशिश की तमाम मुश्किल हालातों को जिसमें प्रत्येक स्त्री घिरी हुई जीवन की विषंगतियों को झेलते हुए जीती है. उन तमाम स्त्रियों की दुर्गति और प्रताड़ना में मैनें जब तक महसूस किया है और उपायों के लिए सदैव अपेक्षत कार्यो में संलग्न रही. जबकि तमाम जटिल और पैबंद लगे, पैवस्त्र परंपरा की बुनावटी सांस्कृतिकता में स्त्री दो धरातलों पर रूपांतरित है - आजकल की तियन को बहुत पियन की चाय मर्चेन्टन से पूछती हैं लिपटन से चाय स्त्री लेखन साहित्य की विरम धारा में एक विचार का विचरण मात्र है संपूर्ण रूप से अपस्थिति दर्ज करने के लिए ज़रूरी है समस्त स्त्री जाति की उत्तोरत्तर विकासोमुखता. अत: मुझे यह अनुभूति नहीं हो पा रही कि स्त्री किस तरह से साहित्य में जागरूकता प्रदर्शित कर रही है. जबकि जिस स्त्री नीति के लिए वह संघर्ष की भूमि तैयार की जा रही है. संचालित की बागदोर संभालने की भागेदारी करती चन्द महिलाएँ सम्पूर्ण स्त्री जाति के असितत्व को बनाए रखने का दायित्व निर्वाह ज़रूरी बात कर रही है. वह निरी खोखली बात है.

अनिल पु. कवीन्द्र: हिंदी का विकास कैसे करना है 21 सवीं सदी में ?

रमोला रुथलाल: किसी भी भाषा के विकास की महत्वपूर्ण धुरी है कि उस भाषा में जीने वाला जनसमूह अपनी सांस्कृतिक पहचान बनाने के लिए भाषा की समृद्धि में योगदान दें. भाषा किसी भी समाज की जीवित पंरपरा है. किसी भी राज्य की भाषा जब तक मानवीय संवेदनाओं को उन्नति करने में यदि सक्षम नहीं है तब तक वह भाषा सामाजिक साँस्कृतिक सकारों से अछूती है अत: नयी शताब्दी में हिन्दी भाषा का विकास तभी संभव है जब मानवीय संवेदनाओं और मूलभूत आवश्यक्ताओं स्थिति के साथ और उनकी पूर्ति के लिए सार्थक कदम उठाये जाएँ. भाषा दिनोदिन हमारे सरोकारों और्प्रतिकारों के समय जुड़कर जिस साँचे की निर्मित करेअती है वह साँचा भाषिक बुनावट से करना होता है तो दूसरी मूलभूत मूल्यों के अनुशासन से भी बंधा होता है कहीं न कहीं इन सभी के पीछे भाषा का तन्त्र कार्यरत होता है. अत: हिन्दी के विकास के लिए ज़रूरी है कि यह भाषा जन मानष के युग के कितने करीब है इससे उसके मानवीय सरोकारों में प्रतिबद्धता का पता चलता है.

अनिल पु. कवीन्द्र: अपने साहित्यिक मात्र और व्यक्तिगत अनुभओं तथा संघर्ष को हमारे समक्ष रखें ?

रमोला रुथलाल:

दो लिबासों में कैद हूँ मैं
एक मेरा जिस्म और एक रूथना.

© 2009 Ramola Ruthlal; Licensee Argalaa Magazine.

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