इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका
माँ
काश सब बेटियों की माएँ हों बिल्कुल तुम सी
बेटी की बला ले लें अपने ऊपर
उसके खौफ़, उसकी पाबन्दियाँ, उसके पहरे
सब बदल जाएँ
घने प्रेम और विश्वास में
कहें बेटियों से
कंधे सीधे रखो
और सिर ऊँचा
नाज़ुक नहीं मज़बूत बनो
बेटियाँ पतंग नहीं होतीं
न बेटियाँ वर्तमान होती हैं
बेटियाँ भविष्य होती हैं
और बेटियों का भी होता है
वर्तमान और भविष्य
एक दिन बेटियाँ
हो जाती हैं माँ भी
तुम्हारी जैसी बेटियों की
तुम्हारी जैसी माँ.
तुम्हारे अँधेरे मेरी ताक में हैं
और मेरे हिस्से के उजाले
तुम्हारी गिरफ़्त में
हाँ
गलती वहीं हुई थी
जब मैंने कहा था
तुम मुझको चाँद ला के दो
और मेरे चाँद पर मालिकाना तुम्हारा हो गया.
© 2009 Sandhya Navodita; Licensee Argalaa Magazine.
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नाम: संध्या नवोदिता
संप्रति: पत्रकार एवं समाज सेविका
प्रकाशित रचनायें: सहारा समय, हंस, इतिहास बोध, विज्ञान प्रगति, सांस्कृतिक समुच्चय, दस्तक, दैनिक जागरण, अमर उजाला और आज आदि में कवितायें, लेख, समीक्षा, फ़ीचर एवं रिपोर्ट प्रकाशित