इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका
कोइ भी रचनाकार जब सृजन कर्म करता है. तो उसके सामने रचना प्रक्रिया के विविध उपकरण होते हैं उन उपकरणों में पात्रों के नामों का विशेष महत्व होता है. श्रेष्ठ रचनाकार वस्तुस्थिति के आधार पर पात्रों के नामों का चयन एवं प्रयोग करता है. प्रेमचंद के पात्रों को भी उनके नाम सजीव कर देते है. समाज, अर्थव्यवस्था एवं परिवेशगत विविधताओं के आधार पर प्रेमचंद के पात्रों के नाम भी भिन्नता प्राप्त करते हैं.
प्रेमचंद अपने पात्रों का नामकरण काफी सजगता से करते हैं. उनकी कहानियाँ समाजार्थिक व्यवस्था से व्यक्ति के जटिल संबंधों का विश्लेषण करती हैं. प्रेमचंद इस बात को नोट करते है कि मनुष्य की आर्थिक स्थिति से उसका नाम भी प्रभावित होता है. वे कहते हैं - "मनुष्य की आर्थिक अवस्था का सबसे ज़्यादा असर उसके नाम पर पड़ता है. मौजे बेला के मँगरूं ठाकुर जब से कांसटेबल हो गये है, उनका नाम मंगल सिंह हो गया है. " आर्थिक स्थिति का नाम पर प्रभाव समाज का यथार्थ ही तो है.
प्रेमचंद जी की कहानियाँ प्राय: पात्रों के नाम से ही शुरु होती हैं जैसे - "भोला महतो ने पहली स्त्री के मर जाने के बाद दूसरी सग़ाई की", "बेनीमाधव सिंह गौरीपुर गाँव के ज़मींदार और नम्बरदार थे", "दुखी चमार द्वार पर झाड़ू लगा रहा था", "पंडित मोटेराम शास्त्री ने अंदर जाकर अपने विशाल उदर पर हाथ फेरते हुए पंचम स्वर में गाया" आदि इसमें प्रेमचंद की पात्रों के नाम के प्रति सचेतनता का भी पता चलता है. कहना सिर्फ इतना है कि प्रेमचंद के पात्रों के नाम सिर्फ मोहरे नहीं है. निर्मल वर्मा अपनी कहानी दूसरी दुनिया में करीब पाँच पृष्ठों के बाद अपने पात्र का नाम बताते हैं. जिसके लिए उन्हें कोष्ठक का प्रयोग करना पड़ता है. "ग्रेता (यह उसका नाम था) हमेशा वहाँ दिखायी देती थी".
प्रेमचंद के ही समकालीन जयशंकर प्रसाद के यहाँ पात्रों के नामकरण के पीछे मनोवैज्ञानिक आग्रह ज़्यादा दिखलाई पड़ता है. उदाहरणार्थ प्रेमचंद जी की कहानी "नेउर" में नेउर और उसकी बूढ़ी पत्नी की कथा है लेकिन प्रसाद जी की ममता कहानी की ममता मात्रा एक पात्र बनकर नहीं रह जाती वह एक मनोवैज्ञानिक भाव बन जाती है. जिसमें देने की तो तत्परता है, पर पाने की आकाँक्षा नहीं.परेमचंद के यहाँ पात्रों के नाम फ़लसफ़ाना अंदाज़ में नहीं आते-जाते बल्कि पात्रों की सामाजिक स्थिति के अनुरूप ही आते है. "नथुवा" (सौभाग्य के कोणे) गायन-वादन में प्रवीण होने के बाद जब ऊँचे वर्ण वालों का सा आचरण रखने लगा तो प्रेमचंद लिखते हैं. "नाथूराम तो पहले ही उसका नाम हो चुका था अब उसका कुछ और सुसंस्कार हुआ वह न रा आचार्य मशहूर हो गया.".
प्रेमचंद अपने पात्रों के नामों के माध्यम से एक पूरा परिवेश तैयार करते हैं. नामों के माध्यम से उनकी कहानियों में बिम्ब की निमिर्ति भी होती है. जिसमें पात्रों की चारित्रिक विशेषताएँ उजागर हो जाती हैं. उनकी ऐतिहासिक कहानियों के पात्रों के नाम ऐतिहासिक परिवेश की निमिर्ति करते हैं. जैसे - "रानी सारंधा" में पात्रों के नाम इस प्रकार के हैं.-सारंधा "अनिरूद्ध" सिंह चम्पतराय "वाली बहादुर ख़ाँ आदि तो धिक्कार" कहानी के यूनानी चरित्र का नाम है - "पासोनियस".
नया विवाह " कहानी में दूसरा विवाह करने वाले सेठ को प्रेमचंद ने नाम दिया है, लाला दंगामल. जिससे पाठक के मन में एक रंगीले अधेड़ व्यक्ति का बिम्ब पहले ही बनने लगता है. "डिमांसट्रेशन" कहनी में ड्रामेटिक कंपनी खोलने वाले लोगों के नाम गुरूं प्रसाद जी "मस्तराम" रसिकलाल "विनोद बिहारी आदि हैं. ऐसे नाम ड्रामेटिक कम्पनी का माहौल बनाने में सहायक साबित होते हैं उनकी विध्वंस कहानी की स्त्री पात्र का नाम है. भुनगी कहानी शुरु होती है. यहाँ से जिला बनारस में बीरा नाम का एक गाँव है, वहाँ एक विधवा वृद्ध संतानहीन गोडिन रहती थी जिसका भुनगी नाम था. ऐसी निरीह स्त्री के लिये भुनगी नाम भी अपने भाड़ में आग लगने पर उसमें कूद जाती है.
प्रेमचंद की व्यंग्यपरक कहानियों में पात्रों के नाम ऐसे होते हैं. जो व्यंग्यात्मक वातावरण की निर्मिति में सहायक होते हैं निमंत्रण कहानी में पं मोटेराम शास्त्री कहते है. अलगूराम शास्त्री बेनीराम शास्त्री छेदीराम शास्त्री भवानीराम शास्त्री फेंकूराम शास्त्री मोटेराम शास्त्री आदि जब इतने आदमी अपने घर ही में हैं तब बाहर कौन ब्राह्मणों को खोजने जाये.
हमारे समाज में एक गरीब व्यक्ति सीधा सरल और कर्मठ होने के बावज़ूद अत्याचार सहने के लिये मज़बूर होता है. उनकी "समस्या" कहानी यहाँ से शुरू होती है. "मेरे दफ्तर में चार चपरासी है. उनमें एक का नाम गरीब है. वह बहुत ही सीधा बड़ा आज्ञाकारी अपने काम में चौकस रहनेवाला घुड़कियाँ खाकर चुप रह जानेवाला यथा गुणवाला मनुष्य है."
प्रेमचंद अपने पात्रों के नामों के उसके संप्रदायमूलक शब्दों का युक्त प्रयोग करते है. सदगति कहानी के प्रारंभ में ही प्रेमचंद लिखते हैं दुखी चमार द्वार पर झाड़ू लगा रहा था प्रेमचंद यह नहीं बताते कि दुखी चमार किस जाति का था बल्कि उसमें नाम के साथ ही चमार जोड़कर पेश करते है. दुखी चमार एक दलित की पीड़ा को और घनीभूत करने के लिये प्रयुक्त हुआ है. ऐसा प्रयोग पाठक के मर्म को छूता है.
किसी किसान के नाम के साथ महतो लगाकर प्रेमचंद उसे किसान जीवन के प्रतिनिधि पात्र के रूप में दिखलाना चाहते हैं. सुजान भगत के हाथों में भी जब दो ढाई हज़ार रूपए आ जाते हैं. तो जिन हाक़िमों के सामने उसका मुँह न खुलता था उन्हीं की अब महतो महतो करते ज़बान सूखती थी. ऐसा किसान स्वनिर्भर ग्रामीण समाज के मूल्यों में विश्वास करता है. भोला महतो अल्ग्योझा ऐसा ही किसान है. जो बन्धुत्व भाईचारा और संयुक्त पारिवारिकता के मूल्यों में विश्वास रखता है. प्रेमचंद ने अपने उपन्यास गोदान में भी होरी महतो का प्रयोग किया है.
प्रेमचंद अपने पात्रों के नामों के पहले महाशय, पंडित, मिस्टर, मिस आदि का भी युक्ति प्रयोग करते है. शहरी स्त्री पात्रों के नामों के पूर्व मिस का प्रयोग और पुरूष पात्रों के नामों के पूर्व मिस्टर का प्रयोग उन्हें यथार्थपरक बनाता है. जैसे उन दिनों मिस जोशी बम्बई सभ्य समाज की राधिका थी किसी नाम के पहले महाशय का प्रयोग वे प्राय: तब करते हैं. जब चरित्र के दोहरेपन को उभारना होता है. सारे नगर में महाशय यशोदानन्द का बख़ान हो रहा था नगर में ही नहीं समस्त प्रांत में उनकी कीर्ति गायी जाती थी समाचार पत्रों में टिप्पणियाँ हो रही थीं मित्रों से प्रशंसापूर्ण पत्रों का ताताँ लगा हुआ था क्योंकि उन्होंने पुत्र के विवाह में दहेज लेने से इन्कार कर दिया पर कहानी के अन्त में उनकी कलई खुलती है. महाशय चक्रधर विनोद भी ऐसे ही एक पात्र है. प्रेमचंद प्राय: अपने ईमानदार और सज्जन पात्रों के नामों के पूर्व मुंशी जोड़ते लखनऊ के नौबस्ते में एक मुंशी मैकूलाल मुख़्तार रहते थे बड़े उदार दयालु और सज्जन पुरूष थे मुंशी वन्शीधर नमक का दरोगा भी प्रेमचंद का एक ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ पात्र है.
प्रेमचंद ने चरित्रानुकूल पात्रों के नाम तो रखे ही लेकिन इसके साथ ही उन्होंने विडंबनात्मक नाम भी रखे है. पूस की रात का हल्कू भारी भरकम डील-डौल वाला किसान जब वह अपनी पत्नी से रूपए माँगने जाता है. तो प्रेमचंद लिखते है.वह अपना भारी भरकम डील लिये हुए (ज्यों उसके नाम को झूठ सिद्ध करता था) स्त्री के समीप आ गया. " पूस की रात का हल्कू भूमिहीन किसानों के ठीक ऊपर के उस वर्ग का प्रतिनिधि है. जो पीड़ा और परेशानियों के अनगिनत दौरों से गुजरने के बाद भी किसानी से बाज नहीं आया है. मर-मर कर काम करना और फसल होने पर उपज की सारी कमाई बाकी के काम पर देकर खाली हाथ घर लौटना उसकी नियति है. यहाँ प्रेमचंद जी ने एक तरफ तो किसान का नाम हल्कू रख दिया और दूसरी तरफ उसके विरूद्ध महाजन और ठंड को रखकर विषयादृश्य अधिक प्रभावोत्पादक बना दिया.
इस्तीफ़ा कहानी में प्रेमचंद टिप्पणी करते कहते हैं. मनुष्य पर उसके नाम का भी कुछ असर पड़ता है. फतेहचंद की दशा में यह बात यथार्थ सिद्ध न हो सकी यदि उन्हें हार चंद कहा जाये तो कदाचित यह अन्युकित न होगी दफ्तर में हार ज़िंदगी में हार मित्रों में हार जीवन में उनके लिये चारों ओर निराशाएँ ही थी " यहाँ बात कुछ ऐसी ही हैं कि आँख का अंधा और नाम नयनसुख. कहानी आगे बढ़ती है. उनकी बिगड़ी में पहली जीत भी होती है.
ठाकुर का कुआँ में गंगी (जो कि गंगा से बना है.) एक दलित स्त्री है. जो अपने बीमार और प्यासे पति के लिये साफ पानी की व्यवस्था नहीं कर पाती. एक विशेष ढंग की सामाजिक संरचना में प्यास कितनी त्रासदी हो सकती है. इसे प्रेमचंद ने दिखाया है. माँगे की घड़ी का दानू वैसे तो मँगनी की चीजों का लेना और देना दोनों ही पाप समझता था, लेकिन अपने फ़ायदे के लिए दान देने का ढोंग करता है. प्रेमचंद देवी (लांछन) नाम के माध्यम से यह दिखाना चाहते हैं कि भारतीय समाज में स्त्री को देवी तो कहा जाता है लेकिन उस पर अनंत लांछन लगाये जाते हैं. शूद्र कहानी की ग़ौरा अपने नामानुरूप देवी पार्वती की ही तरह अपने पति को समर्पित है लेकिन उसका पति उस पर शक करता है. इंसानों में अपने पालतू पशुओं के साथ जो प्रेम होता है. वह आत्मा में कितनी गहराई तक व्याप्त होता है. इसके साथ ही पशुओं में भी कितनी स्वामी भक्ति होती है. इसे दिखाने के लिए प्रेमचंद पशुओं का भी नामकरण करते है और दोनों के बीच वार्तालाप करवाते है. ज़बर (पूस की रात) और तामी (दूध का दाम) ऐसे ही पशु है. जिस व्यवस्था में मानव-मानव का भक्षक है. उसमें पशु की हमदर्दी न केवल सम्बन्ध विशेष का इज़हार करती है. वरन मानव-सभ्यता पर करारा व्यंग्य करती है. अपने मालिक की हर विपत्ति में खुद को झोंक देने वाला पशु अनास्था और अंधकार के दायरे में आस्था की किरण है.
प्रेमचंद के यहाँ पशुओं के साथ-साथ खेतों में भी नाम मिलते हैं खेत किसान के जीवन के अंश होते हैं. एक किसान की सारी इच्छाएँ सारी आशाएँ और मंसूबे खेतों से बंधे होते है. गिरधारी बलिदान के खेतों के नाम चौबीसों बाईसों नालेवाले तलैया आदि थे और इन खेतों की चर्चा वह इस तरह करता मानों वे सजीव हैं " यह प्रेमचंद की अन्तर्दृष्टि और उनके नेम कॉन्शसनेस को ही दिखाता है. प्रेमचंद की कहानियों में जब दो मुख्य पात्र आते हैं. तो वो उनके नामों में तुकबन्दीपरक युग्म बनाते हैं इससे होता यहंहै कि घीसू माधव (कफ़न) मीर मिर्ज़ा (शतरंज के खिलाड़ी) हीरा मोती (दो बैलों की कथा) जैसे नाम पाठक के मष्तिस्क पर छाप छोड़ जाते हैं और वे स्मरण में बने रहते हैं. इससे यह भी पता चलता है कि ऐसे नाम देकर वे दोनों पात्रों को समान वरीयता दे रहे है. प्रेमचंद के पात्रों के नामों में बात करने के क्रम में पंडित मोटेराम शास्त्री की अलग से चर्चा न की जाए तो यह असंगत होगा. मनुष्य का परम धर्म नाम की कहानी में इन्होंने हिंदी में पहली बार 1920 में दर्शन दिया तो फिर सत्याग्रह गुरूमंत्र में भी अपनी झाँकी दिखाई. बिना हाथ पैर हिलाए दूसरे की कमाई खाने वाले ब्राह्मणों का प्रतिनिधित्व करने वाले का प्रतिनिधित्व करने वाले चरित्र हैं.
पंडित मोटेराम शास्त्री वे खूब न्योता खाने वाले व्याख्याता अव्वल नम्बर के धूर्त एवं जबरदस्त पेटू हैं. वे अपने प्रयत्नों में प्रय: असफल ही होते हैं. अमर्तराय कहते है कि सर्सार और डिकेन्स से इशारा करके मुंशीजी ने पंडित मोटेराम की सृष्टित की और करीब पच्चीस साल तक अपने कलेजे से लगाए रखा " उनके यहाँ पंडित मोटेराम शास्त्री नाम की एक सीरीज़ ही मिलती है. प्रेमचंद जी के पात्रों के नामों में हमें विभिन्न शेड्स देखने को मिलते हैं. वे नाम पात्रों की समाजार्थिक स्थिति जाति वे लिंग आदि को भी स्पष्ट करने वाले होते हैं.साथ ही विडंबनापरक नाम भी उनके यहाँ मिल जाते हैं. वे नाम यथार्थपरक होते हैं, और अपने आस-पास के लोगों में ही हमें वैसे नाम देखने को मिल जाते है. यह प्रेमचंद जी की कथा साहित्य की उपलब्धि है. बक़ौल मुक्तिबोध आज का कथा साहित्य पढ़कर पात्रों की प्रतिच्छाया देखने के लिये हमारी आँखे आस-पास के लोगों की तरफ नहीं खिंचती किंतु प्रेमचंद के पात्रों का चारित्रिक विकास हो या उनके नामों की सजीवता वह हमारी दृष्टि आस पास के लोगों की तरफ खींचती है.
सन्दर्भ.
1 बलिदान, मानसरोवर भाग-8 पृ सं-59
2-अल्ग्योझा; मन्जूषा-प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ पृ सं 119
3-बड़े घर की बेटी मन्जूषा-प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ पृ-69
4-सद्गति मन्जूषा प्रेमचंद-की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ पृ-79
5-निमंत्रण मन्जूषा प्रेमचंद-की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ पृ-88
6-दूसरी दुनिया, निर्मल वर्मा प्रतिनिधि कहानियाँ पृ 77
7-सौभाग्य के कोड़े मानसरोवर भाग-3 पृ 196
8-विध्वंस मानसरोवर भाग-8 पृ 161
9-निमंत्रण मन्जूषा प्रेमचंद-की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ पृ-89
10-समस्या; मानसरोवर भाग-4 पृ 180
11-सद्गति, प्रेमचंद-की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ पृ-79
12-सुजान भागत मानसरोवर भाग-5 पृ-163
13-विश्वास मानसरोवर भाग-3 पृ-7
14-एक आँच की कसर मानसरोवर भाग-3 पृ 81
15-दुस्साहस मानसरोवर भाग-8 पृ 179
16-पूस की रात मंजूषा प्रेमचंद-की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ पृ-26
17-इस्तीफा मानसरोवर भाग-5 पृ-286
18-माँगे की घड़ी मानसरोवर भाग-4 पृ-246
19-बलिदान मानसरोवर भाग-8 पृ-63
20-प्रेमचंद कलम का सिपाही अमृत राय पृ-402
21-मेरी माँ ने मुझे प्रेमचंद का भक्त बनाया मुक्तिबोध (रचनावली) भाग-5 पृ-431.
© 2009 Amit Kumar; Licensee Argalaa Magazine.
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नाम: अमित कुमार
उम्र: 43 वर्ष
जन्म स्थान: पटना
शिक्षा: एम. ए. (जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली); एम. फिल. (दिल्ली विश्वविद्यालय)
अनुभव: एम. ए. के दौरान चंद्रशेखर प्रसाद स्कॉलरशिप.
भारतीय भाषा केंद्र के अंतर्गत 'बिंब प्रतिबिंब' पत्रिका का प्रबंधन कार्य.
संप्रति: फ़िलहाल पी- एच. डी 'रघुवीर सहाय के रचना- कर्म में सत्ता, संस्कृति एवं व्यक्ति का विमर्श' शीर्षक से जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय नई दिल्ली में अध्ययनरत.
कवितायें: एम. फ़िल. के दौरान पी. जी. मेंस छात्रावास से निकलने वाली पत्रिका 'रिसरज़ेंस' में लेख और कविताएँ प्रकाशित
संपर्क: रूम न. 10, ओल्ड ब्रह्मपुत्र छात्रावास जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय नई दिल्ली-67