इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका
अरगला का यह प्रवेशांक आपकी आँखों के सामने आ चुका है. यह आँख से देखे जाने वाली पत्रिका भी है. सच यह है कि सौंदर्य का आस्वाद हम सबसे पहले आँख से करते हैं. अब नई तकनीकी ने हमें यह मौक़ा दिया है कि हम अपने यंत्रों पर इसे देखें.
पुराने संग्रह की विधि अभी निस्तेज नहीं हुई है. शायद होगी भी नहीं क्योंकि यह सब कुछ अक्षरों द्वारा ही संभव हुआ है. और अक्षर अगर हम उसकी संज्ञा पर ही जाएँ तो समाप्त न होने वाली इकाई है क्योंकि वह अक्षर है. संग्रह की दृष्टि से जब हम इसे आपके हाथों में सौंप रहे हैं तो यह कामना तो है कि आप इसे हाथों हाथ दूर तक ले जाएँ. संकेत यह है कि इसे संपादकों ने भरसक नव्यता के लक्षणों से संपन्न बनाने की कोशिश की है. इसीलिए इसमें ज़्यादतर नए चेहरे, नए कृतिकार, दिखेंगे क्योंकि अरगला का यह विश्वास है कि नए कृतिकार जहाँ नई भाषा का संस्कार ले कर आते हैं वहीं वे नई दृष्टि का भी आग्रह संरक्षित करते हैं. कुछेक रचनाएँ वरिष्ठ साहित्यकर्मियों की भी हैं. वे हमारी विरासत का हिस्सा हैं इसलिए उनके पुनर्प्रस्तुतिकरण की ज़रूरत महसूस हुई है. पर हम चाहेंगे कि ज़्यादा जगह नए रचनाकार, नए विचार, नए विग्रह, नए तेवर घेरें क्योंकि उस नयेपन से हम विरासत को ठीक दृष्टि से देखने में सक्षम हो सकते हैं.
आप लोग जो अपने यंत्रों पर इस पत्रिका को बाँच रहे हैं या जो पत्रिका को मुद्रित रूप में हासिल कर बांच रहे हैं बहुत ग़ौर से प्रत्येक रचना को देखेंगे और एक विमर्शात्मक तरीक़े से अपनी प्रतिक्रिया भेजेंगे. हमें आपकी आलोचनात्मक टिप्पणियों की ज़्यादा ज़रूरत है. इसलिए कि पूरी दुनिया में यह विश्वास फैला हुआ है कि असहमति या विरोध से ही हम सर्वस्वीकृत फ़ैसले तक पहुँच सकते हैं. इसके लिए बहुत धैर्य की ज़रूरत है.
अरगला अपने विविध स्तंभों में इस बात को ज़्यादा बढ़ायेगी कि हमें ज्ञान की रोशनी को अनन्त अँधेरे का मुक़ाबला करने के लिए जलाए रखना है. और यह तभी मुमकिन है जब हम इस बात पर यक़ीन पुख़्ता करें कि नकारात्मक सोच से विकास और बढ़ोत्तरी पर असर पड़ता है. जीव सृष्टि का नियम बढ़ना है रुकना नहीं. यह कुछ ऐसे सत्य हैं जिन्हें शब्दों में दुहराने से उनकी ताक़त कमतर होती जाती है इन्हें व्यवहार में ढालने की दृष्टि को ही सराहना होगा.
अरगला का यह पहला अंक एक तरह से लम्बी यात्रा का पहला क़दम है. और हर क़दम पर आपकी दृष्टि और आवाज़ की हमें इस ख़ातिर भी प्रतीक्षा रहेगी कि जो क़दम पड़ें वे ठीक पड़ें. तथापि ज्ञान के इलाक़े में भागमभाग की मनाही है. क्यों? इसी का उत्तर तो धैर्यपूर्वक अरगला की रचनात्मक तैयारियाँ देंगी. हम किस ओर बढ़ें इसका सबसे बढ़िया प्रकाश स्तंभ पाठकों के हाथों में रहता है और वहीं से हमें नए लेखन के बिन्दु विकसित होते हैं, वहीं से अदेखे कोने प्रकाशित होते हैं.
बसन्त की मंगलकामनाओं सहित.
- गंगा प्रसाद विमल, 2009
© 2009 Ganga Prasad Vimal; Licensee Argalaa Magazine.
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नाम: गंगा प्रसाद विमल
उम्र: 85 वर्ष
जन्म स्थान: उत्तरकाशी, उत्तरांचल
शिक्षा: पी-एच. डी. पंजाब विश्वविद्यालय
अनुभव: उस्मानिया विश्वविद्यालय में 1963 से अध्यापन, हैदराबाद.
संप्रति: कई समितियों, संस्थाओं के सलाहकार एवं पत्रिकाओं में संपादकीय योगदान.
कविता संग्रह: विज्जप (1967), बोधि बृक्ष (1983), इतना कुछ (1990), तलिस्मा (काव्य एवं कथा) 1990, सन्नाटे से मुठभेड़ (1994), मैं वहाँ हूँ (1996), अलिखित-अदिखत (2004), कुछ तो है (2006),
कहानी संग्रह: कोई शुरुआत (1972), अतीत में कुछ (1973), इधर उधर (1980), बाहर न भीतर (1981), चर्चित कहानियाँ (1983), खोई हुई थाती (1994), चर्चित कहानियाँ (1994), समग्र कहानियाँ (2004),
उपन्यास: अपने से अलग (1969), कहीं कुछ और (1971), मरीचिका (1978), मृगांतक (1978)
लेख: अनेकों लेख तमाम पत्रिकाओं में प्रकाशित.
संपादित पुस्तकें: अभिव्यक्ति (1964), अज्ञेय का रचना संसार (1966), मुक्तिबोध का रचना संसार (1966), लावा (1974), आधुनिक हिंदी कहानी (1978), क्रांतिकारी समूहगान (1979), नागरी लिपि की वैज्ञानिकता (नागरी लिपि परिषद नई दिल्ली), वाक्य विचार (2002).
अंग्रेज़ी अनुवाद: हेयर एण्ड देयर एण्ड अदर स्टोरीज़ (1978), मिरेज़ (उपन्यास) 1983, तलिस्माँ (काव्य संग्रह) 1987, हू लीव्स व्हेयर एण्ड अदर पोएम्स (2004).
हिन्दी अनुवाद: गद्य-समकालीन कहानी का रचना विधान (1968), प्रेम चंद (1968), आधुनिक साहित्य के संदर्भ में (1978).
अन्य भाषाओं से अनुवाद: दूरंत यात्रायें (एलिजाबेथ बाग्रयाना) 1978, पितृ भूमिस्च (हृस्तो वोतेव) 1978, दव के तले ( ईवान वाज़ोव का उपन्यास) 1978, प्रसांतक (विसिलिसी वित्सातिस की कविताएँ) 1979, हरा तोता(मिको ताकेयामा का उपन्यास) 1979, जन्म भूमि तथा अन्य कविताएँ (एन. वाप्तसरोव की कविताएँ) 1979, ल्यूबोमीर की कविताएँ (1982), लाचेज़ार एलेनकोव की कविताएँ (1983), उद्गम (कामेन काल्चेव का उपन्यास) 1981, बोज़ीदोर बोझिलोव की कविताएँ (1984), स्टोरी ऑफ़ योदान योवज्कोव (1984), पोएम्स ऑफ़ योदान मिलेव (1995), तमामरात आग (1996), मार्ग (पोएम्स ऑफ़ जर्मन दूगन ब्रूड्स)2004.
सम्मान एवं पुरस्कार: तमाम राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित.
संपर्क: 112, साउथ पार्क अपार्टमेंट, नई दिल्ली - 110019