इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका
अनिल पु. कवीन्द्र: वर्तमान कथा साहित्य जीवित दस्तावेज़ों की नाटकीय प्रस्तुति या रूपांतरण का लेखन है जबकि मौलिक सृजन की गुंजाइश की संभावना से इंकार की बात कही जा रही है. आप क्या सोचते हैं?
अमरकांत: नहीं ऐसा नहीं है. आज का रचनाकार जो लिखता है वह आज का यथार्थ है. नये रचनाकार नये प्रयोग कर रहे हैं. नई तकनीक विकसित हो रही है इसीलिये नये रचनाकारों के समक्ष तमाम तरह की परेशानियाँ भी आई हैं. सृजनशीलता की संभावनाएँ कभी लुप्त नहीं होतीं हैं. जो आज का यथार्थ है उसे यह रचनाकार लेने की कोशिश कर रहे हैं. संभावनाएँ कभी लुप्त नहीं होतीं, जो बदलाव होता है दुनिया में उसे समझने में देर तो लगती है. ये तो होता ही है. साहित्य और संस्कृति की एक परंपरा होती है जो हर युग में बढ़ती रहती है. कोई न कोई बढ़ाने वाला रहता ही है इसीलिये हमें इसे निराशावादी रूप में नहीं देखना चाहिए. चाहे सृजनशीलता हो, यथार्थ हो. क्यूँकि कई रूपों में आज साहित्य-सृजन हो रहा है. किसी एक रूप में नहीं. तो कहीं नाटकीयता कहीं कलावाद लगेगा ही. हर युग में ऐसा तो होता रहा है. नये रचनाकारों पर हमें विश्वास करना चाहिए. धैर्य बनाए रखना होगा. रचनाकारों ने अभी नया लिखना शुरू किया है. विकास की इस अवस्था में उन्हें समय देना होगा तभी हम उनके लेखन को समझ पाएँगे. संभावनाएँ हमेशा बनी रहती हैं जब तक रचनाकार अपना लेखन स्वयं छोड़ नहीं देता. यही मेरा ख़याल है.
अनिल पु. कवीन्द्र: हिंदी भाषा सत्ता के केंद्र में आने के बाद साहित्य के मुख्य विषय शोषितों दलितों व उत्पीड़न के ख़िलाफ़ एक विरोध की भाषा और संघर्षशीलता की आवाज़ तमाम राजनैतिक खेमों में आश्रित होती जा रही है. साहित्यिक विचलन का संकट आख़िर किस ओर जा रहा है?
अमरकांत: एक तो पहली बात यह है भाषा सत्ता के केंद्र में आई नहीं. केंद्रीय संविधान में पहला कानून बना तो उसमें हिंदी को राजभाषा का दर्ज़ा दिया गया लेकिन उसे पूरी तरह व्यावहारिक तौर पर लागू नहीं किया गया. जवाहरलाल नेहरू से लेकर वर्तमान समय में तमाम राजनैतिक ख़ेमों तक हिंदी के बज़ाय अँग्रेज़ी के नारों का लगातार प्रयोग किया जाता रहा है. विजय का प्रतीक विक्टरी. यह किसकी देन है? 'फ़ील गुड' जैसा शब्द कहाँ से आया? राजनैतिक पार्टियाँ अक्सर 'विक्टरी' को अपना सिंबल बनाती हैं. यह किसकी देन है. जब द्वितीय विश्व युद्ध हुआ तो हिटलर ने ब्रिटेन को दबा लिया ख़ैर.
भारतीय व्यवस्था में जब तक रोज़गार के क्षेत्र में हिंदी भाषा नहीं आएगी रोज़गार या रोज़ीरोटी के केंद्र में हिंदी भाषा को लिंक भाषा के रूप में होना चाहिए. तीसरी भाषा के रूप में अँग्रेज़ी को होना चाहिए. अँग्रेज़ी अंतर्राष्ट्रीय भाषा है. केंद्रीय अनुवाद कितना भ्रष्ट होता जा रहा है भाषा के अभाव में.
अँग्रेज़ी मुहावरों को हम हिंदी में जस का तस उपयोग कर रहे हैं. "लेट कैट आउट ऑफ़ द बे" का अनुवाद सामान्यत: करते हैं थैले में से बिल्ली निकालना. यह कितना सही है.
अनिल पु. कवीन्द्र: आज का कथाकार अत्यंत भौतिकवादी दृष्टि के मोह में फँसकर उत्पादित वस्तु की भाँति उत्पीड़न के चरित्र गढ़ रहा है. उसमें ऐंद्रिक बोध का अभाव प्रतीत होता है जहाँ एक ओर रचनाकार वस्तुगत और व्यक्तिगत फ़ासले कम कर रहा है वहीं मानवीय संबंधों के बीच निरंतर फ़ासले बढ़ते जा रहे हैं. इस बदलाव की वज़ह क्या है?
अमरकांत: अब उत्पीड़न का मसला छोड़िए. दलितों किसानों मज़दूरों को देखिए. जातिभेद है ही. उच्च वर्ग के लोग दलितों को अपने में मिलाना नहीं चाहते जो लोग दलित या उनके समर्थन में हैं वो लोग उनकी भाषा तो लिखते ही हैं. आप जिस सत्ता के गलियारे की बात कर रहे हैं उसमें अवसरवादी लोगों ने वोट की राजनीति के लिए जातियों धर्मों वर्गों में लोगों को बाँट रखा है. इसे आधार बनाकर ही राजनीतिक लाभ लेना चाहते हैं न कि दलितों के लिए विकास की बात सोचते हैं. गलियारों में आश्रित होना क्या है? दलित लेखक जो कुछ भोगा गया है, सवर्णों के बीच में रहकर. उसे अपनी आत्मकथा में लेखन के ज़रिए प्रस्तुत कर रहा है. चाहे वह दया पवार हों या फ़िर ओम प्रकाश बाल्मीकि. सवाल यह है कि दलितों को जीने के लिए कुछ तो चाहिए. आख़िर किस आधार पर उनको तालीम देने का, विकास के मार्ग तक ले जाने का रास्ता हमें ही तो निकालना होगा. आज मुद्रा स्फीति इतनी बढ़ गई है, मँहगाई दिनों दिन बढ़ती जा रही है. इसको रोक पाने का कोई अवसर नहीं है. जो सत्ताधारी लोग हैं वो सत्ता में आने के बाद दलितों शोषितों और पीड़ितों को क्या देते हैं? आज़ादी के पहले न तालीम थी, न क्रय शक्ति थी, न जीने के लिए आधारभूत चीज़ें. मज़दूरी में कौड़ियाँ मिलती थीं.
दलितों को दयनीय स्थिति से उबरने में भले ही आज़ादी के बाद कुछ परिवर्तन तो हुआ है. "दे कुड नॉट परचेज़ इवेन द नेसेसरी कमोडिटी" उस वक़्त (वो लोग ज़रूरत का सामान भी नहीं ख़रीद पाते थे). अब क्रय शक्ति है. थोड़ी सुविधाएँ भी बढ़ी हैं. दलितों को जो विकास प्रतिरोध की शक्ति को लेकर आया. वो महत्वपूर्ण है. चाहे सामाजिक दर्ज़ा हो या राजनैतिक. यादव, कुर्मी आदि गरीब जातियाँ भी अब से आज़ादी के बाद शासन में हैं तो इन जातियों का विकास हुआ तो है. सत्ता के कौन से गलियारे में यह लेखन जा रहा है? यह आप ख़ुद ही तय कर लें.
अब समाजवाद और साम्यवाद का कौन नाम ही लेता है. अब कहाँ है ये विचार. सब क्षेत्रों में विनियोग हो गया है. पहले कच्चे माल को इस्पात बनाने के लिए बाहर भेजा जाता था और बाहर से मँहगा होकर यहाँ आता था. अब यहीं स्टील प्लांट लग गये हैं कहीं कोई समाजवाद नहीं है. सिर्फ़ विचारधारात्मक सिद्धांत ही रह गये हैं. इस्पात के लिए बोकारो, दुर्गापुर इत्यादि जगहें स्टेट सेक्टर के अधीन हैं. यह एक आंदोलन की तरह था. स्वतंत्र स्वावलंबन की ट्रेनिंग है खादी. मेरा मानना है सभी जातियों को मिलकर रहना चाहिए. सबमें प्रेम होना चाहिए. किंतु सत्ता में जो भी आए वो दलितों को सही अवसर प्रदान करें. राष्ट्र भाषा सिर्फ़ कहने के लिए है. किंतु वास्तविकता में हम भारतवासी विदेशी प्रतीकों को ही अपना रहे हैं.
हिंदी की एक बड़ी समस्या यह भी है कि उन्हें हिन्दी के अलावा किसी अन्य प्रादेशिक भाषा की तरफ़ झुकाव नहीं है. जबकि अन्य प्रदेशों - तमिल, तेलगू, कन्नड़, आदि क्षेत्रों के लोग हिन्दी को भी शिक्षा में शामिल किए हुए हैं. यह व्यक्तिगत रुचि का भी मामला है. हर व्यक्ति को लक्ष्य भाषा के रूप में हिन्दी को ही रखना चाहिए. ताकि अन्य भाषाओं से ताल्लुक़ बनाया जा सके. भले ही अन्य राज्यों में हिन्दी के विद्वान न भी हों किंतु हिन्दी को हिन्दुस्तान में प्रत्येक व्यक्ति को लक्ष्य भाषा के रूप में जानना चाहिए. जबकि बड़े ही गर्व के साथ अँग्रेज़ी को स्रोत भाषा के रूप में शामिल किया गया है. बैरहाल जो स्थितियाँ हैं उसमें सत्ता में हिन्दी भाषा नहीं है. सत्ता में अँग्रेज़ी भाषा ही है.
दूसरा, उत्पीड़न के विरोध का जो साहित्य है जिसे ओमप्रकाश, दया पवार जैसे रचनाकार लिख रहे हैं. उन्हें इस क्षेत्र में थोड़ी बहुत सहूलियतें ज़रूर मिली हैं. जबकि छुआ-छूत, भेदभाव आज भी हिन्दुस्तान के तमाम क्षेत्रों में व्यावहारिक तौर पर लागू है. बैरहाल, आज़ादी के पूर्व की स्थितियों से तब भी काफ़ी बेहतर स्थितियाँ हैं. एक बात और कि प्रतिरोध के मामले में साहित्य प्रतिरोध की भाषा बोलता है लेकिन राजनीति में वह चीज़ नहीं है. वहाँ चीज़ें बहुत सतही हैं. सिद्धान्त लुप्त हो गए हैं. कम से कम संविधान की जो विचारधारा है उसी को लागू करें. साम्यवाद, समाजवाद तो बड़ी चीज़ें हैं इन्हें तो आप ऐसी राजनीति में छोड़ ही दें. जनतंत्र है तो जो जनतांत्रिक चीज़ें हैं वो ख़तरे में हैं और इस जनतंत्र में भी महिलाएँ और दलित अभी भी असुरक्षित हैं इसलिए साम्यवाद और समाजवाद की बात करना ऐसे में फ़िज़ूल ही है.
हिन्दुस्तान में तमाम सार्वजनिक क्षेत्रों में विनिवेश किया जा चुका है और तमाम क्षेत्रों में किया जा रहा है. यह एक अमेरिकी नीति का हिस्सा है. उसका ख़ामियाज़ा आर्थिक रूप से जनतंत्र को ही भुगतना होगा. अत: प्रतिरोध की शक्तियों को बढ़ावा चाहे किसी भी माध्यम से हो, मिलना चाहिए. जहाँ से जनतंत्र की रक्षा हो सके. ताकि आपसी सौहाद्र का रूप उभर सके. और हिन्दी भाषा को सत्ता के सही मायने में केंद्र में लाना चाहिए. हिन्दी सत्ता के गलियारे में कतई नहीं है.
अनिल पु. कवीन्द्र: बाज़ारवाद, भूमण्डलीकरण और पूँजीवादी दौर में मानवीय मूल्य साहित्य में निरंतर टूटते जा रहे हैं. विचलन, विखण्डन, ह्रास, बेचैनी और पीड़ा से भरा चरित्र प्रगतिशीलता का जामा पहने इधर उधर आवारा घूम रहा है. साहित्य में इन बदलावों का अन्त और दिशा क्या होगी?
अमरकांत: देखिये ज़नाब! साहित्य से आप ये आशा करें कि एक ही तरह का साहित्य लिखा जाए तो एकरसता पैदा होगी. आज के युग में पूर्व युग के मूल्य नहीं रहे. हर आदमी अपने को आर्थिक रूप से असुरक्षित महसूस करता है. कुछ पूँजीपतियों और संपन्न लोगों को जो प्रशासनिक पदों पर हैं उन्हें अगर छोड़ दिया जाए तो जो साधारण लोग हैं वे असुरक्षित हैं. आधारभूत समस्याओं के लिए संघर्ष ज़ारी है. आत्मिक रूप से स्वतंत्र और स्वावलंबी ये समाज अभी नहीं हो पाया है. जैसा कि प्रेमचंद को ही लें उनके चरित्र कथा साहित्य में जैसे थे उसी तरह.
अनिल पु. कवीन्द्र: आपके साहित्य में जो चरित्र थे वो भीतर से संघर्ष करते हुए एक गहरी पीड़ा में जीते दिखाई पड़ते हैं किन्तु आज यह संघर्ष साहित्य में उतनी गहराई से नहीं दिखाई पड़ते?
अमरकांत: ऐसा मैं नहीं मानता कि यह चीज़ें साहित्य में दिखाई नहीं देती हैं. इतना ज़रूर है, सामाजिक स्थितियाँ जैसे-जैसे बदलीं, साहित्यिक चरित्र और कठिनाई संघर्ष के रूपों में भी परिवर्तन आया है. आज भी व्यंग्य आलोचना आदि में ऐसे चरित्र हैं. लेकिन उन्हें गहराई से समझने और पढ़ने की ज़रूरत है. हर समय साहित्य जब भी लिखा जाता रहा है उसके सामने यही बात मुखर हुई कि यह गतिरोध का साहित्य है. यही आज भी हो रहा है लेकिन इसी के बीच से कुछ नए रचनाकार उभरकर सामने आएँगे. जो नये युग का लेखन निर्धारित करेंगे. जैसे नीलाक्षी और शिल्पी आदि. जिनका व्यक्तित्व उभर रहा है. जो हमने लिखा वह समस्याएँ आज उस रूप में नहीं हैं. आज भ्रष्टाचार, विचलन आर्थिक संकट का विषय है. जबकि इन पर अनुशासन अंकुश का लेखन होना चाहिए. चीन से जो आशाएँ थीं वो भी पूँजीवादी दौर में जा रहा है. हिन्दुस्तान जो उभर कर आना चाहिए उसमें आपसी मैत्री जनतांत्रिक मूल्य आने चाहिए. या तो जनतांत्रिक भावना होनी चाहिए. कट्टर समाज हमेशा टूटने के भय से भरा होता है. आज बड़ा पूँजीपति छोटे को दबा रहा है. ईमानदार व्यक्ति को भुलावे में लिया जा रहा है. इसे जनतांत्रिक समाज में तब्दील करना होगा. जिसे युवा पीढ़ी ही कर सकेगी. उसे सहानुभूति और सही दिशा में ले जाने की ज़रूरत है क्योंकि पुरानी पीढ़ी तो ख़त्म हो रही है और ज़िम्मा नए युवाओं पर है. परिवर्तन तो होना ही है. पहले तमाम चीज़ें रहस्यात्मक होती थीं. अब सारी चीज़ें विज्ञान ने खोल दी हैं. यह अच्छा लगता है लेकिन उसमें विचारधारा को बनाए रखना मुश्किल से भरा है.
अनिल पु. कवीन्द्र: हर युग ज़रूरतों के अनुरूप अपना साहित्य निर्मित करता है और रचनाकार व्यवस्था के ख़िलाफ़ विरोध की भाषा बोलता है किन्तु समकालीन युग और साहित्य के बीच एक गहरा द्वंद्व चल रहा है. गहरी चिंता की लकीरें खिंची हैं. रचनाकार के साथ साथ रचनात्मक कर्म और व्यक्तिगत जीवन के बीच एक गत्यावरोध और खिंचाव है. यह किस तरह की विकट परिस्थितियों का संकेत है?
अमरकांत: जिस युग में रचनाकार जीता है द्वंद्व तो रहता ही है. वह उससे टकराता है. रचनाकार अति संवेदनशील प्राणी है. कहीं सीमित नहीं होता है, न मानवता, न संसार के प्रति. तो जो समकालीन युग हम जीते हैं उसकी विचारधारा और चीज़ें हमसे टकराती हैं. उससे कई बार विपरीत जाती हैं. उससे हम टकराते हैं. गत्यावरोध तो नहीं लेकिन यह पूर्ण रूप से टकराहट ही है. टकराहट इसलिए क्योंकि वह (रचनाकार) एक नया समाज रचता है. नई छवियाँ भरता है. यह लेखक का आदर्श होता है. उसके तरीके कई होते हैं. जैसे कलावाद, व्यक्तिवाद आदि. परिवर्तन के दौर में भेड़ियाधसान के साथ व्यक्ति को पकड़ना बेहद ज़रूरी हो जाता है.
साहित्यकार का गत्यावरोध उस वक़्त पैदा होता है जब समाज और रचना जिसे वह रचना चाहता है जब वह नहीं रच पाता, क्यूँकि वह यश, अवसरवादी, दिखावटीपन नहीं कर पाता. जब वह उससे जुड़ता है. यह चीज़ें उसे अवसरवादी सहूलियतों के रास्ते पर ले जाती हैं. रचनाकार के साथ सरस्वती और लक्ष्मी का सदा विरोध रहता है. रचनाकार सदा सरस्वती (वाणी) के साथ रहता है. जीता है. बहुत सारे साहित्यकार गरीबी में इसीलिए दम तोड़ देते हैं. क्यूँकि उनके पास जीने के सामान्य साधन तक मुहैया नहीं होते. और ऐसे में यश भी अगर न मिला तो समाज यह भी नहीं मानता कि वह कोई लेखक भी है. इसी समाज में ऐसे भी लेखक हैं जिन्हें उपलब्धियाँ कुछ नहीं हैं वो भी समाज में अवसरवादी हुए संपन्न जीवन जी रहे हैं. तो गतिरोध वहाँ पैदा होता है जब लेखक झूठी छवि और झूठे यश में जीना चाहता है. उस समय गतिरोध पैदा नहीं होता जब वह ग़रीबी में जीता है. उस समय उसकी दृष्टि साफ़ रहती है और सच्चा रचनाकार लिखे बिना रह नहीं सकता, बिना लिखे जी नहीं पाएगा. ऐसे में पाठक को समझना चाहिए कि लेखक अपनी कृति में क्या कहना चाह रहा है. ऐसा नहीं कि लेखन सीधा नहीं है. उसमें अन्तर्विरोध हमेशा बना रहता है. जो भी आगे बढ़ना चाहता है उसके साथ यह संघर्ष हमेशा जुड़ा रहता है और वही लेखक आगे जीता भी है.
आजकल मदलिप्तता, धनलिप्तता और दूसरों को धकियाकर आगे बढ़ने की चाह, जनतांत्रिक मूल्यों का अभाव हो चला है. सिद्धांतों को कुचलकर आगे बढ़ने की ख़्वाहिश बहुत हावी हो चुकी है. हर लेखक समान रूप से नहीं हो सकता. न वह शेक्सपियर, टॉल्सटॉय, प्रेमचंद हो सकता. उस जैसा बनने के लिये हर क्षण संघर्ष में जीना पड़ता है. जो लेखक दबँग और दिखावटी होता है. उसका नाम भले ही हो जाए लेकिन सच्चा आदमी हमेशा चुपचाप श्रम करने में विश्वास करता है. अब अग़र कोई चीज़ ऐसे में निकल गई तो उसे समाज में उच्च दर्ज़ा मिलता है. जैसे एक सच्चा वैज्ञानिक अग़र सच्चा है तो ज़िंदगी भर अपनी प्रयोगशाला में आविष्कार और प्रयोग में चुपचाप लगा रहता है. बिलकुल उसी तरह जैसे जगदीश चंद बसु थे जो बॉटनी के वैज्ञानिक थे. उन्होंने पहली बार खोजा कि पौधों में भी जान होती है लेकिन किसी और देश के चालबाज़ वैज्ञानिक ने उसे चुराकर ख़ुद के नाम से यह प्रयोग घोषित कर दिया. झूठा यश प्राप्त किया. या रामानुजन जोकि गणितज्ञ थे किन्तु ग़रीब घर से थे और उनकी प्रतिभा से ख़ुश होकर एक अँग्रेज़ उन्हें लंदन ले गया और लंदन में भी वो एक बनियान में गणित की पहेलियाँ बुझाते बुझाते ठण्ड से मारे गये. लेकिन उनके श्रम और बौद्धिकता का नाम दुनिया भर में हुआ. वो ऐसी समस्यायें छोड़ गया जोकि अब तक पूरी तरह शायद हल नहीं की जा सकीं. जबकि आजकल के गणितज्ञ इतना भी नहीं कर सकते. परिश्रम करने वालों का हश्र हमेशा ऐसा ही होता है. यदि वह झूठे यश के फ़ेर में पड़ा तो ज़्यादा चल नहीं पाएगा. वह बिना कुछ किए ही ख़त्म हो जाएगा.
अनिल पु. कवीन्द्र: साहित्य में स्त्री लेखन और दलित लेखन से जो बदलाव आया है उससे स्त्री और दलित चेतना किस हद तक प्रभावित हुई है और कथा साहित्य के किन प्रतिमानों को तोड़ा है. क्या कुछ नए प्रतिमान भी गढ़े गए?
अमरकांत: नए प्रतिमान साहित्य द्वारा क्या रचे जाएँगे. नए प्रतिमान तो सामाजिक आंदोलन में ही गढ़े जाते रहे हैं. नए प्रतिमानों में राष्ट्रीय आंदोलनों का योगदान हमेशा ही रहा है. ये चीज़ें तालीम और राजनीतिक तालीम से आती हैं. वर्तमान समय आर्थिक लूट में घुस चुका है. जिससे अपराध बढ़ा है. आज के युग में मानवता और मूल्य पर तमाम सवाल खड़े हुए हैं जहाँ एक ओर चेतना का विकास हुआ है. आज़ादी के पहले का जो लेखन है वह हिंदी के सेवक के तौर पर रहा है. लेखक हिन्दी के मिशन के तौर पर कार्य करता था और जितने भी लेखक हुए उनमें कई तो जेल तक गए. आंदोलनों में शरीक़ हुए. उनमें आपस में सौहाद्र बहुत था. एक दूसरे का सम्मान बहुत करते थे. वो चीज़ तो अब के लेखकों में उतनी नहीं है. सवाल है कि हिन्दी के लिए जो सेवा भाव है वो वैसा नहीं है तब के लेखकों में जैसा था. लेखक अधिकार की भावना से काम नहीं किया करते थे. अब अधिकार पर ज़ोर दिया जा रहा है. वेशभूषा भी बहुत बदल चुकी है. जब मैं गोरखपुर में इण्टर में पढ़ता था तब माखनलाल चतुर्वेदी थे जो टोपी और खद्दर का कुर्ता पहने भाषण से ही लोगों को लुभा लेते थे. जैसा वो लिखते थे वैसा ही भाषण भी दिया करते थे धाराप्रवाह बड़ा साधारण सधा हुआ. और भी लेखक थे जो सेवक के तौर पर उस दौर में कठिनाईयों में जीते हुए भी कर रहे थे. किसी भी तरह के दिखावा का भाव नहीं था. जिसको मिशनरी का लेखक कहते हैं. इसमें एक बड़ा परिवर्तन हुआ है. अब वैसा बिलकुल नहीं है लेकिन ऐसा भी नहीं है कि हर आदमी अवसरवादी हो गया है. अब का लेखक सोचता है हमारा हिन्दी पर अधिकार हो गया है. अब आधुनिकता और जोड़ तोड़ की राजनीति हावी है. लालसाएँ बहुत हैं. संभावनाएँ बहुत हैं. पहले इतनी सुविधाएँ और अवसर नहीं थे. वैसे लोग हिन्दी के प्रति जागरुक हैं. ऐसा नहीं है कि वे हिन्दी से अलग हैं लेकिन पहले से अब प्रवृत्तियाँ बदल गई हैं. और ऐसे ही परिवर्तन हुए हैं. और लेखन के लिए तो हमेशा परिश्रम करना पड़ता हैं.
अनिल पु. कवीन्द्र: तो आज के लेखन से आप संतुष्ट हैं?
अमरकांत: देखिए कोई मंज़िल अंतिम नहीं होती. कोई चीज़ इस दुनिया में जिससे संतोष मिल रहा है ऐसा भी नहीं है. संतोष की कोई परिभाषा व्यावहारिक तौर पर नहीं है. क्या है परिभाषा इसकी आपके पास? आख़िर किस चीज़ से संतोष? हम दूसरे से संतोष की बात करें हमें अपने से संतोष होना चाहिए कि हम जो कर रहे हैं वो ठीक है या नहीं. अगर हम उससे भी संतुष्ट नहीं हैं तो फ़िर और किससे होंगे? प्रयास क्या, है? अंतिम प्रयास की अंतिम मंज़िल कुछ नहीं है. सिर्फ़ महत्वपूर्ण है तो काम. वरना संतुष्ट होने से क्या होता है.
साहित्य इतना अथाह है कि जिसने थोड़ा भी उसमें योगदान दे दिया वही बहुत बड़ी चीज़ है. साहित्य अनेक अनाम लोगों का योगदान ही तो है. इसमें जो साहित्यकार दिखाई दे रहे हैं उसकी बात आप कर रहे हैं. लोकगीतों में लोक कलाकार क्या करते हैं? उसका अध्ययन आपने नहीं किया. असली समाज का दर्पण वही अपने लोकगीतों के ज़रिए आपके सामने रखते हैं. भावनाएँ उनकी बहुत गहन होती हैं. भाषा के असली मुहावरे लोक जीवन से ही पाए जा सकते हैं.
अग़र आपको अँग्रेज़ी के मुहावरों के समक्ष हिन्दी मुहावरा ढूँढना है तो आम जनता की भाषा में व्यवहार में वो मिलेगा. जैसे अँग्रेज़ी का " सॉर्टकट " लिख दें तो अधिकांश लोग समझ जाएँगे लेकिन हिन्दी का "अगवाह" लिख दें तो कौन समझेगा? तो देखिए! कि समाज किस तरह से अँग्रेज़ी के चंगुल में फ़ँसा है. आप जो प्रश्न कर रहे हैं, आप की युवा पीढ़ी ख़ुद अँग्रेज़ी के चंगुल में फ़ँसी है. आप आज के लेखकों और पत्रकारों को देखिए हिंदी के साथ अँग्रेज़ी भी उसी मात्रा में लाई जाती है. यदि अँग्रेज़ी के प्रचलित शब्द आयें वहाँ तक तो ठीक भी है लेकिन जहाँ शब्द हिन्दी में उपलब्ध हैं वहाँ तो ये प्रयोग और व्यवहार में लाया जाना चाहिए. लेकिन जनता किसी भी भाषा के शब्दों को अपने अनुरूप ढाल लेती है. संस्कृत के तत्सम शब्दों को अपनी बोली में ले लिया है. सवाल ये है कि दिक्क़तें है?
देखिये! समय जैसा है, वैसे ही सोच बदल रही है. पहले सौ रुपए में साहित्यकार काम चला लेता था. अब नहीं चलेगा. जब तक उसे समय के बदले रूप के अनुसार धन न मिले कैसे जी सकेगा? बहुत से लेखक आज भी ऐसे हैं जिन्हें कुछ नहीं मिलता, लेकिन फ़िर भी काम किए जा रहे हैं. और बहुत से लोग लेखन के अलावा सरकारी नौकरियों और पेंशन से ही घर की दाल रोटी चला रहे हैं. पहले समय में तो टुकड़ों में तनख़्वाह मिलती थी. अब ऐसे में कोई कैसे स्थिति सँभाल लेगा. लेकिन था वो भी ज़माना. आज जिस तरह का युग हो चला है कि उसमें थोड़े में काम चल ही नहीं सकता. मँहगाई इतनी बढ़ चुकी है सरकारी बनावटी उत्पादों के बाज़ार में आने की वज़ह से. सब कुछ पूँजीवाद के रास्ते पर है. नियंत्रण समाजवाद का नियम है. वो आज नहीं है. नियमन ज़रूरी है लेकिन वो सब भी गायब है. सरकार मुद्रा स्फ़ीति रोकना चाहती है वो रुक नहीं पा रहा है. जितनी चादर हो उतना ही पैर पसारना चाहिये. लेकिन यहाँ तो पैर की कहीं थाह ही नहीं मिल रही है. इसी कारण अकाल या आपदा आने पर सबसे ज़्यादा ग़रीब को झेलना पड़ता है. सारी नीतियाँ ठप्प पड़ चुकी हैं. या कहिए अस्सहाय, ग़रीब तो हल्ला भी नहीं कर सकता. वो ख़ामोशी से या तो सहने तक सहता है. स्थिति ख़राब हो जाए तो चुपचाप मर भी जाता है. आपने हमारी कहानी देखी 'जात और बच्चे'. भूख़ और ग़रीबी की कहानी. यह पहले वागर्थ में छपी थी. जो घटनाएँ हैं उनमें कोई मोटा हो रहा है. तो अगला भूख़ से मर रहा है. ये विकट स्थितियाँ आज की हैं. फ़िर भी बदलाव समाज और लेखक दोनों में हुआ है.
अनिल पु. कवीन्द्र: इक्कीसवीं सदी में साहित्य और हिन्दी भाषा को विकास के लिए किस तरह के प्रारूप की ज़रूरत है?
अमरकांत: देखिए, जहाँ तक साहित्य और हिन्दी भाषा के विकास की बात है उसमें हिन्दी को जो राष्ट्र भाषा बनाने की बात है. इससे बहुत सी प्रतिभाएँ जो अँग्रेज़ी में चली जाती हैं वो हिन्दी में लिखेंगी. उसको आप रोज़गार से भी जोड़िए. दूसरा यह कि अब अपने मुहावरे में हर चीज़ लिख नहीं सकते जैसे मैथ, साइंस आदि. उसका बनावटी अनुवाद होता है. वह ठीक नहीं है. सोच जब हिन्दी में होने लगेगी हिन्दी का आदमी जब हिन्दी में सोचने, लिखने लगेगा तब इसका विकास संभव है. आज का हिन्दी का लेखक भी बहुतेरे हद तक अँग्रेज़ी में सोचता है और हिंदी में लिखने की कोशिश करता है. तो वह उस बदली हुई ज़मीन पर अँग्रेज़ी मुहावरों को भी डालता है. जबकि हिन्दी के लेखक को हिन्दी में ही लिखना और सोचना चाहिए ताकि अपनी भाषा से जुड़ाव राग बना रह सके. हिन्दी को इसके लिए फ़ौरन राष्ट्रभाषा बनाने की ज़रूरत है और जब यह राष्ट्रभाषा हिन्दी होगी तो लेखक भी हिन्दी में ही सोच सकेगा. और एक बात हिन्दी के पत्र पत्रिकाओं को बढ़ावा देने की ज़रूरत है. ताकि वह दूसरी भाषा से भी संपर्क साध सके. अग़र पॉलिटिकल साइंस जैसी पुस्तकें हिन्दी में लिखी जाएँगी तो अन्य पाठक भी हिन्दी में ही लिखेंगे, सोचेंगे. और अपने राजनीतिक मुहावरे अपनी भाषा में विकसित करेंगे. तो ज़रूरी तीन बातें मुख्य हैं-हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाना, रोज़गार से जोड़ना और उसका पठन पाठन हिन्दी में हर जगह हो. इसके अलावा लिंक भाषा के रूप में उपयोग करने से हिन्दी का विकास संभव है. अभी तक इसकी पहल नहीं हुई है.
© 2009 Amarkant; Licensee Argalaa Magazine.
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नाम: अमरकांत
उम्र: 99 वर्ष
जन्म स्थान: भगमलपुर (नगरा), जिला बलिया (उ. प्र.)
अनुभव: आगरा के दैनिक पत्र "सैनिक" के सम्पादकीय विभाग में सन 1948 ई. में कार्यारम्भ. तत्पश्चात इलाहाबाद के दैनिक "अमृत पत्रिका", दैनिक "भारत", मासिक "कहानी" पत्रिका तथा लखनऊ की पाक्षिक पत्रिका "उजाला" में कार्य करने के पश्चात इलाहाबाद की पाक्षिक महिला पत्रिका "मनोरमा" का लगभग तीस वषों तक सम्पादन.
संप्रति: पत्रकारिता (सेवा-निवृत्त)
प्रकाशित रचनायें: जिन्दगी और जोंक, देश के लोग, मौत का नगर, मित्र मिलन, तूफान, कुहासा, एक धनी व्यक्ति का बयान, दु:ख और सुख का साथ, अमरकांत की सम्पूर्ण कहानियाँ खण्द एक और दो, प्रतिनिधि कहानियाँ, जाँच और बच्चे, औरत का क्रोध; बाल साहित्य: नेऊर भाई, वानर सेना, खूँटा में दाल है, बाबू का सपना, दो हिम्मती बच्चे, मँगरी; प्रौढ़ साहित्य: सुग्गी चाची का गाँव, झगरू लाल का फैसला, एक स्त्री का सफर; संस्मरण: कुछ यादें और बातें, दोस्ती
कहानियाँ: 1: विभिन्न कहानियाँ इलाहाबाद, कानपुर, दिल्ली, वाराणसी, मेरठ, कुरुक्षेत्र, रीवाँ, कालीकट, पंजाब आदि विश्वविद्यालयों की पाठ्य-पुस्तकों में सम्मिलित तथा और विश्वविद्यालयों में प्रतिनिधि कहानियाँ
2: महाराष्ट्र के अम्बेडकर विश्वविद्यालय की हिन्दी पाठ्य-पुस्तक में कहानियाँ सम्मिलित.
3: उत्तर प्रदेश इण्टरमीडिएट बोर्ड की "कथा भारती" नामक पाठ्य पुस्तक में सम्मिलित. बिहार हाई स्कूल बोर्ड में भी एक कहानी "दोपहर का भोजन" पढ़ाई जा रही है. हिमाचल प्रदेश, हरियाणा तथा दिल्ली पब्लिक स्कूलों के बोर्डों की पाठ्य-पुस्तकों में भी कहानियाँ शामिल की जा चुकी हैं. एन. सी. आर. टी. पाठ्य क्रम देश की सभी प्रांतों में शामिल. आई. ए. एस. में कहानी शामिल.
4: दिल्ली, लखनऊ, बम्बई, जालन्धर दूरदर्शन द्वारा कहानी 'डिप्टी कलक्टरी' तथा "दोपहर का भोजन" का प्रसारण.
5: दिल्ली के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय तथा अन्य कई नगरों के रंगमंचों पर कहानियों का नाट्य रुपान्तरण प्रदर्शित. रचनाओं का कई प्रान्तों में मंचन.
6: बम्बई में श्री सत्यदेव दुबे द्वारा 'हत्यारे' कहानी की नाट्य प्रस्तुति.
7: एन. सी. ई. आर. टी. की इण्टरमीडिएट कक्षा की एक पाठ्य पुस्तक में "बौरैया कोदो" नामक कहानी हाल ही में ली गई है.
8: रेडियो से प्रसारण तथा अनेक विश्वविद्यालयों में कहानियों तथा उपन्यासों पर शोध-कार्य.
9: विश्व के अनेक देशों जापान, फ्राँस, अमेरिका, हंगरी, कोरिया आदि में अमरकांत की रचनायें पाठ्यक्रम में शामिल.
उपन्यास: सूखा पत्ता, आकाश पक्षी, काले-उजले दिन, कँटीली राह के फूल, ग्राम सेविका, सुख जीवी, बीच की दीवार, सुन्नर पांडे की पतोह, बलिया के भारत छोड़ो आन्दोलन पर आधारित एक नया, बड़ा उपन्यास "इन्हीं हथियारों से" प्रकाशित, लहरें, बिदा की रात.अंग्रेज़ी अनुवाद: अमेरिका, हंगरी, जर्मनी, फ्रांस, रूस, जापान, इंग्लैंड में तथा देश की सभी प्रादेशिक भाशाओं में कहानियों एवं उपन्यास के अनुवाद प्रकाशित; पेंग्विन इंडिया द्वारा कहानी का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित; अन्य कुछ अंग्रेजी के कथा संकलनों तथा अंग्रेजी की पत्रिकाओं थाट, मिरर, इम्प्रिन्ट, इलस्ट्रेटेड वीकली, अमेरिका की पत्रिका "महफिल", कलकत्ता राइटर्स वर्कशाप की पत्रिका में भी विभिन्न कहानियों के अनुवाद प्रकाशित.
सम्मान एवं पुरस्कार: सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, मैथिलीशरण गुप्त राष्त्रीय पुरस्कार, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान पुरस्कार, यशपाल पुरस्कार, मध्य प्रदेश के "कीर्तिअमरकांत" समारोह में सम्मानित, साहित्य अकादमी सम्मान, इलाहाबाद विश्वविद्यालय द्वारा सम्मान, महात्मा गांधी सम्मान
संपर्क: एफ़- 6, पंचपुष्प अपार्टमेंट, नेवादा अशोक नगर इलाहाबाद (उ. प्र.)