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विमर्श

सौम्यब्रत चौधरी

अभिमन्यु कुमार सिंह द्वारा डॉ. सौम्यब्रत चौधरी का साक्षात्कार

अभिमन्यु कुमार सिंह: आप पच्चीस सालों से थियेटर कर रहे हैं आपकी इस क्षेत्र में शुरुआत कैसे हुई?

डॉ. सौम्यब्रत चौधरी: मेरी शुरुआत कॉलेज़ के दिनों में (श्रीराम कॉलेज़ ऑफ़ कॉमर्स) पढ़ाई के दौरान हुई. हम कुछ लोगों ने जो थियेटर में रुचि रखते थे, मिलकर सोचा-कि कुछ ऐसा किया जाए जो रोमाँचक भी हो और चुनौतियों से भरा भी. और जिसमें कुछ नया करने की गुँजाइश हो, इसके साथ ही साथ अभिनय की दिशा में मैं ख़ुद को ज़्यादा समर्थ पाता था. तो ऐसी अभिनय दक्षता जिसमें कुछ ख़ासियत और नयापन साथ ही चुनौतियाँ हों. मुझे करना पसंद था. मैंने कॉलेज़ के दौरान तीन वर्षों में ज़्यादा से ज़्यादा थियेटर करने का जज़्बा अपने साथ रखा. और ऐसा किया भी. यह 1983 से 1986 के बीच का दौर था. अपने आख़िरी वर्ष 86 में ही हमने श्रीराम सेंटर में एक पब्लिक परफ़ॉर्मेंस की थी. नाटक था-'एन्टीगॉनी'.

अभिमन्यु कुमार सिंह: इसके अलावा आपने उस समय में कौन कौन से नाटक किए थे?

डॉ. सौम्यब्रत चौधरी: इसके बाद हमने इजिप्सन का डॉल्स हाउस किया था जिसका हिन्दी में अनुवाद भी मैंने ही किया था. इसके अलावा-यूजीन आयनस का नाटक " द लेसन " हमने अँग्रेज़ी में ही परफ़ॉर्म किया था. और भी तमाम यादग़ार नाटक किए. उस दौरान लेकिन मैंने दो बड़े नाटक किए थे.

अभिमन्यु कुमार सिंह: इसके बाद क्या आपने अपना कोई ग्रुप बनाया?

डॉ. सौम्यब्रत चौधरी: हाँ! कॉलेज़ के छात्रों ने मिलकर ही एक ग्रुप बनाया था. जो "कोरस" नाम से जाना गया. वो कोरस प्रोडक्शन का ही नतीज़ा था. हालाँकि हम लोग कॉलेज़ के लेवल पर ही करते रहे. श्रीराम कॉलेज़ का ही ऑडिटोरियम उस ज़माने में सबसे अच्छा ऑडिटोरियम हुआ करता था. तो वहाँ पर ही हमने यह प्रोडक्शन किया था. उस समय भी तरह-तरह के श्रोताओं और पत्रकारों से ख़ूब प्रसंशा मिली.

इसके बाद ही मैं जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय चला आया. और उसके बाद जे. एन. यू. में कोई ग्रुप तो था नहीं लेकिन जो कैंपस थियेटर नाम से ड्रामा क्लब था तो उसके साथ मैंने ख़ास काम तो नहीं किया थोड़ा बहुत ही किया था. लेकिन कोरस जो ग्रुप पहले था वो 86 के बाद रहा नहीं. मैंने जो किया था इतना ज़रूर था कि थोड़ा सा अलग तरह का काम 88 में किया. एक बंग्ला थियेटर ग्रुप यहाँ पर हुआ करता था-नवयुग अपरा के नाम से. वो ज़्यादातर परफ़ॉरमेंस पूजा के दिनों में करता था. तो उन्होंने ज़्यादातर गिरीश कर्नाड का नाटक तुगलक ही परफ़ॉर्म किया. जिसमें मैंने अभिनय किया था. हालाँकि तुगलक का रोल मैंने नहीं किया था. लेकिन मैंने एक रुचिकर रोल किया था-याशित अब्बा नाम का. वो सचमुच बहुत मज़ेदार अनुभव था. क्योंकि वो यात्रा थियेटर था. हम लोग रोज़ तीन-तीन, चार-चार शो करते थे. और हाँ मुझसे शो कॉल्ड सीनियर, ऐक्टर, प्रोफ़ेसनल्स थे. उनके साथ मैंने पहलीबार बँग्ला में काम किया था. तो वो भी एक अलग तरह का थियेटर अनुभव था. यह 1988 में ही किया था. उसके बाद 1990 में सफ़दर हाशमी की मृत्यु के बाद मैंने जुगनू की तरफ़ से सफ़दर हाशमी को श्रद्धांजली के रूप में छोटा सा प्ले किया था. जिसमें मैंने सफ़दर हाशमी का रोल किया था. हालाँकि वो ज़्यादा मशक्क़त भरा नहीं था. पर हाँ उस समय मेरा अपना कोई ग्रुप तो बचा ही नहीं था. फ़िर जो नया ग्रुप बना वो 1990 में ही बना.

अभिमन्यु कुमार सिंह: सफ़दर हाशमी का जो रोल आपने किया उस नाटक का नाम क्या था?

डॉ. सौम्यब्रत चौधरी: जहाँ तक उस नाटक का सवाल है तो उसका कोई स्पेसिफ़िक नाम नहीं था. उसे उनकी मृत्यु के तुरन्त बाद ही माला हाशमी और जो नाटक, वो लोग जहाँ पर सफ़दर हाशमी को कत्ल किया गया था वहाँ से जे. एन. यू. में परफ़ॉर्म करने उनकी मृत्यु के दो तीन दिन के भीतर ही आये थे. जुगनू की तरफ़ से इतनी कोशिश थी कि श्रद्धांजलि दी जा सके. उसी कोशिश में उन्होंने मुझसे कहा था कि यह नाटक किया जाए और उसी समय मैं उस महान क्रांतिकारी की भूमिका में उतर गया. यह कोई बहुत बड़ा नाटक नहीं था. पता नहीं अब भी किसी को वो याद होगा भी या नहीं.

अभिमन्यु कुमार सिंह: ये जो यात्रा थियेटर था इसमें क्या आप दिल्ली से बाहर जाकर भी नाटक करते थे?

डॉ. सौम्यब्रत चौधरी: हम दिल्ली से बाहर तो नहीं गये लेकिन हम लोगों ने दिल्ली के अन्दर ही काफ़ी जगहों पर प्ले किया था. क्यूँकि हर पूजा पाण्डाल में ही परफ़ॉर्मेंस होती थी और उसी में हमें अवसर मिलता था हर तरह के लोगों के साथ जुड़ने का. अब तो ये यात्रा परफ़ॉर्मेंस ख़त्म ही हो चुकी है. उस समय यात्रा वाला पूरा एक प्रॉपर स्टेज़ होता था. और वहाँ जाने के लिये बस भाड़े पर ली जाती थी. जिसमें पूरा ग्रुप रोज़ दो से तीन शो करता था यानि की शो ख़त्म होते होते साढ़े तीन चार बज ही जाते थे. तो कहने का मतलब यही है कि दिल्ली के अन्दर ही यात्रा ग्रुप ज़्यादा सक्रिय था. मेरा उसके साथ रेग्युलर होना थोड़ा मुश्किल था इसीलिये उनके साथ बाहर जाकर अभिनय करने का अवसर नहीं मिल सका. वरना तमाम अन्य देशों में भी मैंने ज़रूर शिरकत की होती.

अभिमन्यु कुमार सिंह: उसके बाद आपने जो नया ख़ुद का ग्रुप बनाया उसके बारे में कुछ बतायें?

डॉ. सौम्यब्रत चौधरी: हाँ वो 90 का दशक था. मैंने जे. एन. यू. में एक नाटक किया वो बेहद रुचिकर था क्योंकि यहीं के कई छात्र जो वैसे तो किसी थियेटर से जुड़े नहीं थे लेकिन उन्हें रुचि थी कला की तमाम विधाओं जैसे आर्ट, म्यूज़िक, वगैरह-वगैरह. " साहित्यिक गतिविधियों एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों में विशेष रुचि थी. भले ही वो छात्र अभिनय से सीधे नहीं जुड़े थे. ऐसे ही छात्रों के साथ "अइन ऐक्टर लॉफ़ ऐट द ट्रैज़िडी ऑफ़ एन्टीगॉनी" नाम से एक नाटक साथ-साथ किया था. इसे मैंने ख़ुद ही लिखा था. यह नाटक एन्तोन चेख़व के नाटक सॉन्ग सॉन्ग करके और वन ऐक्ट को मिलाकर मैंने अपना एक नाटक लिखा जिसे हमने ओपेन एयर थियेटर पार्थसारथी रॉक में और ट्रिपल एस में इसके कई शो किए थे. और वो काफ़ी बढ़िया समय था क्योंकि हम लोगों ने साथ साथ एक-डेढ़ महीना रिहर्सल की थी. इसमें भी अलग अलग छात्रों ने अपने अपने सजेसंस दिये थे. उस वक़्त जे. एन. यू. में लोगों के भीतर एक नया जोश और जज़्बा दिखाई दिया था. थियेटर करने में एक तरह का मानसिक सुकून था. यह एक नये तरह का थियेटर था जिसको क्लासीफ़ाई करने में लोगों को काफ़ी मज़ा मिला. इसमें भी जो श्रोता थे सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक या केवल मनोरंजन की दृष्टि से उन्हें भी यह सारी कैटागरी से बाहर हो रहा था पूरा का पूरा नाटक. लेकिन सबसे बड़ी बात है कि यह नाटक काफ़ी लोगों के बीच खुलेआम चर्चा और रोचक विषय बनकर उभरा और जो 1993 में मैंने काफ़ी तैयारी के बाद एक ग्रुप तैयार किया जिसे "वी" के नाम से जाना गया. याने हम लोग. उस ग्रुप के नाम को मैंने ज़िन्दा रखा भले ही वो समय बीच में इधर-उधर की व्यस्त्ताओं में बीता. और उसी दौरान कैंपस से बाहर मैंने काम शुरू किया. जब मैंने जामिया की एक फ़िल्म में अभिनय किया था 1994-95 शायद. यह एक बेहतरीन काम था इस लिहाज़ से कि इसमें लीड रोल में मैंने समा बनाए रखा. इसके बाद वॉइस वर्सा, एक दो डॉक्यूमेंट्री के लिए भी कुछ काम किए थे. लेकिन 1997 में मैंने सो कॉल्ड फ़ुल टाईम प्रोफ़ेशनली थियेटर करना शुरू किया. यह पहली दफ़ा था. इस दौरान मैंने पढ़ाई भी बहुत की और रोज़ी रोटी के लिए काम भी पार्ट टाईम किया. और तब जो काम मैंने पुन: शुरू किया था वह भी "वी" के नाम से ही किया. अगर जिसे अपना सिर्फ़ अपना ग्रुप कहें तो. इस ग्रुप की तरफ़ से 1997 में मैंने एक शोलो परफ़ॉर्मेंस की, जो कि ऑन्तनीन ऑर्तो के जीवन पर आधारित थी. जिसका नाम था "कन्वरशेसन". यह श्रीराम सेंटर ऑडीटोरियम में हुआ था. और उसके बाद 1997 से लेकर उसके कई शो दिल्ली और उसके बाहर भी कई जगह किये. और ख़ासियत यह कि "वी" नाम से ही हर जगह इसे किया गया. यह शोलो परफ़ॉर्मेंस थी फ़िर भी इसमें कई लोगों ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया. इसके बाद यह सिलसिला कभी ख़त्म नहीं हुआ और इसी "वी" नाम को लेकर आगे बढ़ा.

अभिमन्यु कुमार सिंह: यह जो "तेत्यातेत" वाला परफ़ॉर्मेंस था वो आपने ही लिखा था?

डॉ. सौम्यब्रत चौधरी: हाँ. यह मेरा ही लिखा हुआ था. भले ही वो आन्तनीन आर्तो के जीवन पर और चरित्र पर आधारित ही क्यों न हो. लेकिन कथावस्तु का सृजनकर्ता मैं ही था. जिस ग्रुप के सथ मैंने लगातार जुड़े रहकर काम किया जोकि मेरा अपना ग्रुप नहीं है. लेकिन 1999-2006 तक लगातर उसके साथ में जुड़ा रहा. जिसका नाम है "सेकेण्ड फ़ॉउन्डेसन". यह स्कॉलर प्लानिंग आर्कीटेक्चर (एस. पी. ए.) के एलुमिनाई ग्रुप का थियेटर था. उनके साथ मैंने चार प्रोडक्शन किए थे. जोकि बड़े प्रोडक्शन रहे हैं. उसके भी अनेकों शो अब तक हो चुके हैं चाहे वो इण्डिया हैबिटेड सेंटर या श्रीराम सेंटर आदि ही क्यूँ न रहे हों.

अभिमन्यु कुमार सिंह: इसमें किस तरह के नाटक आपने ख़ासतौर पर किए हैं?

डॉ. सौम्यब्रत चौधरी: पहला नाटक "शेक्सपियर ऑफ़ कॉअंटेंप्रेरी" नाम से एक किताब है युंगकॉट द्वारा लिखित. 1960 में शेक्सपियर पर कुछ निबन्ध इसी किताब में लिखे गए थे. उस ज़माने में इस किताब के निकलने से एक बड़ी सनसनी फैल गयी थी. उस किताब को मैंने एक प्लेटफ़ॉर्म दिया था इसी नाम से. यह पहला प्रोडक्शन था उसके बाद जॉर्ज पियूखर का नाटक है व्हाइट सेक, उसको भी किया. और फ़िर मोहन राकेश का नाटक "लहरों के राजहंस" किया. उसमें भी मैंने ही डायरेक्शन दिया. बीच में कुछ छोटे प्रोडक्शन भी मैंने किये. जिसमें मुक्तिबोध की कहानी "ब्रह्मराक्षस का शिष्य" उसका नाट्य रूपांतर भी मेरे द्वारा किया गया था.

अभिमन्यु कुमार सिंह: आपने जैसा कि कहा-पहले पूजा पाण्डाल में एक स्पेस रहता था जैसे कि मराठी थियेटर के लिए बॉम्बे और महाराष्ट्र में जगह है. आजकल तो यात्रा के लिए भी पूजा पाण्डाल में जगह नहीं रह गई है. थियेटर के लिए स्पेस थोड़ा घटता जा रहा रहा है?

डॉ. सौम्यब्रत चौधरी: थियेटर के लिए स्पेस घट रहा है ऐसा तो मैं नहीं कह सकता. लेकिन हाँ कुछ फ़ॉर्म और जगहों पर घटा है. परंतु ओवर ऑल थियेटर का स्पेस घट रहा है. ऐसा कहना शायद ठीक नहीं होगा. स्कूल और कॉलेज़ लेवल पर थियेटर पहले से ज़्यादा हावी हो चुका है. सेंट स्टीफ़ेंस में बड़े बड़े उत्सव हुए हैं और नए नए फ़ेस्टीवल हो रहे हैं. कई तरह के ग्रुप को काम करने का मौका मिल रहा है. रंगमंच के समूहों की तादाद लगातार बढ़ी है. इससे भी इन्कार नहीं किया जा सकता. यदि मैं सिर्फ़ दिल्ली के ही संदर्भ में कहूँ तो यहाँ पर थियेटर का स्पेस घटा है. यह कहना ठीक कदाचित नहीं होगा. लेकिन हाँ कुछ पट्टीकुलर कल्चरल स्पेस थोड़ा कम हुआ है. जैसे दुर्गा पूजा का उत्सव बंगाली लोगों का बेहद रुचिकर उत्सव है. और बंगाली लोगों का थियेटर उनकी संस्कृति का एक बेहद महत्वपूर्ण हिस्सा है. पहले के दौर में चाहे मँझे हुए कलाकार बाहर से ही बुलाकर या बच्चों को ही तैयार कर थियेटर होता था अब उतना जोश नहीं दिखाई पड़ता. इसका एक कारण ये भी है मनोरंजन और ज्ञान के क्षेत्र में और भी तरह के साधन उपलब्ध हैं. उनकी अपेक्षाकृत बांग्ला थियेटर में उतनी रुचि नहीं बची है. इसलिए यह कहना कि थियेटर का स्पेस कम हुआ है पूरी तरह से जायज़ नहीं है. क्यूँकि थियेटर का रूप और चीजों ने थोड़ा आधुनिक तौर पर ग्रहण किया है.

अभिमन्यु कुमार सिंह: यदि बंग्ला और मराठी संस्कृति को ही सिर्फ़ लें तो वहाँ यात्रा थियेटर की संस्कृति रही है. तो हिन्दी में आपको नहीं लगता कि उस तरह का स्पेसिफ़िक कल्चर है जिसमें लोग वहाँ जाकर मनोरंजन के साथ-साथ पारिवारिक रूप से तमाम चीज़ों का आनंद ले सकें?

कलकत्ते में मैंने इस बार एक बड़े स्केल पर नाटक किया और बाद में उसकी तारीफ़ भी बहुत हुई. लेकिन थियेटर के मुक़ाबले वहाँ की ऑडियेन्स की प्रतिक्रिया इतनी ठण्डी थी. इतना पजेसिव है, लोगों की यह भावना थियेटर को लेकर इतनी सच्ची है कि थोड़ा सा उससे वो अजीब सी फ़ीलिन्ग आ ही जाती है. मराठी के बारे में मैं नहीं कह सकता. मराठी में मैंने सीधे तौर पर काम नहीं किया. मैंने हिन्दी में काम किया है और हिन्दी थियेटर में ये बात भी सही है कि इसकी वैसी कोई हिस्ट्री नहीं है. इसकी कोई वज़ह भी नहीं है. कि उसकी कोई हिस्ट्री नहीं हो सकती, बन रही है, बन सकती है क्यूँ नहीं?

अभिमन्यु कुमार सिंह: इसी संदर्भ में आप एन. एस. डी. के रोल को किस रूप में देखेंगे?

डॉ. सौम्यब्रत चौधरी: हाँ एन. एस. डी. की भूमिका इसमें ज़रूर महत्वपूर्ण है. उसका जो इतिहास अभी तक बना है ख़ासकर 1960 से लेकर अब तक. उसको तो अस्वीकार नहीं किया जा सकता. एन. एस. डी. के कारण थियेटर का एक सर्कल बना है. कुछ जो परिवार हैं दिल्ली में, जो थियेटर देखना शुरु करते हैं वो सिर्फ़ वहाँ की चार चाँद महफ़िलों की वज़ह से. उसमें भाई, भतीजा, बीवी, बहन, हस्बैन्ड, दोस्त 'एक सॉर्ट ऑफ़ कम्युनिटी' तो बनता ही है. और मैंने यह भी नोटिस किया है. कि किस तरह से कुछ लोग जो ऑफ़िस के बाद दोस्त वगैरह के साथ सामान्यत: या तो फ़िल्म या थियेटर देखने का प्लान बनाते हैं. देखिये ये तो मैंने ख़ुद अनुभव किया है. महसूस किया है. कि दिल्ली में जिनके पास कोई कम्पनी नहीं है दोस्त भी नहीं लेकिन वो ऐसे में थियेटर ज़रूर देखते हैं एक यादगार कैलेण्डर की तरह वह उनकी ज़िन्दगी से कहीं न कहीं जुड़ा हुआ है. तो कुछ भी हो एन. एस. डी. का रोल ज़रूर है. लेकिन उसकी पॉलिसी और नाटक का अपना जो कंटेंट है, एप्रोच है उसमें बहुत सारी बातें ज़रुर हो सकती हैं. एन. एस. डी. भी इतने सालों में काफ़ी बदला है. बहुत कुछ नए तरीक़े से करता है. ये सब तो हुआ ही है. फ़िर भी मैं कहूँगा एन. एस. डी. का एक जो मॉडल है बिल्कुल उसमें उसका फ़ायदा है. कि एक आधारभूत मॉडल को लोग पहचानने लगे हैं. एक तरह की ऑडिएंस जो नाटक से जुड़ती है या फ़िर नाटक देखती है. वो उस मॉडल के सहारे ही जुड़ती ज़रूर है. उन्होंने यह भी महसूस ज़रूर किया होता है कि थियेटर कहीं न कहीं सोसायटी का हिस्सा तो है ही. तो एन. एस. डी. एक तरह का इंस्टीट्यूशन है, लेकिन उसमें भी मुझे लगता है उस मॉडल में बहुत कुछ बदला जा सकता है और अब तक वो बदला नहीं है. और अब शायद बहुत देर हो चुकी है. इस बदलाव में वो बहुत कुछ नया अपने भीतर समाता भी. एक वाइड रेंज जो थियेटर की दुनिया में जिसे कह सकते हैं उनकी चीज़ों को अपने मॉडल में ही लेने की कोशिश यदि करें और वो सब करते हुए कुछ बेसिक चीज़ें हैं जो बिल्कुल साफ़ सा दिखती हैं वो है भाषा. हिन्दी भाषा के माध्यम से पूरा एन. एस. डी. चलता है. कम से कम जो फ़ाईनल प्रोडक्ट है वो तो हिन्दी माध्यम से ही होता है. और सब लोग हिन्दी भाषा बोलते हैं. और वो उतनी दिक्क़त की बात भी नहीं है उनकी पॉलिसी एक लेवल पर ट्रस्टी है. हिन्दी बोलने का अब जो मामला है पहले 15-20 सालों में ऐसा नहीं था. कोई इस तरह का इल्ज़ाम भी नहीं लगाता. कि हिन्दी ऐसे बोलो या वैसे
सब जो हिन्दी थियेटर में आते हैं उनकी अपनी अपनी मातृभाषा है. और उसकी अपनी खूबसूरती है. मैं ये मानता हूँ लेकिन ये तो बात है कि हिन्दी में आपको नाटक करने होते हैं हिन्दी जबकि एन. एस. डी. में एक लेवल पर 50 प्रतिशत आर्टिस्ट की भाषा होती ही है तो हिन्दी के माध्यम से एन. एस. डी. दुनिया भर से रीज़न को रिप्रेज़ेंट करने की कोशिश करता है. एन. एस. डी. का मतलब ही है कि जो भी जहाँ से भी आए वो एन एस. डी का ही पूरी तरह से प्रोडक्ट बन जाए. इसकी वजह से वो हिन्दी के माध्यम से हर देश का थियेटर लाने का प्रयास करता है चाहे वो 19 सवीं शताब्दी का नाटककार गोगोल का नाटक हो या कहीं पर किसी यूरोपियन, जापानी फ़ॉर्म का इस्तेमाल हो या फ़िर इण्डिया के ही कथकली या कोरियट्टम को सीख करके इस्तेमाल करने बात हो. ओ कुछ भी एक अच्छे थियेटर में हो सकता उसे लाने की पूरी कोशिश करते है. तमाम ऐसे नाटककार या आर्टिस्ट हैं जो तमाम जगहों से आते हैंकिन्तु फ़ाईनल जो भाषा होती है, वो हिन्दी में ही उन्हें करना होता है, तो हिन्दी भाषा की वजह से क्या होता है कि बहुत सारी चीज़ें उस संकीर्णता में बँध जाती हैं. मैं यह नहीं कह रहा कि भाषा ही संकीर्ण है पर किसी एक भाषा में दुनिया भर की चीज़ों को लेना है तो भाषा की संकीर्णता से जूझना ही पड़ेगा.

अभिमन्यु कुमार सिंह: आपके कहने का मतलब है हिन्दी में जो उनकी नाटक करने की पॉलिसी है वो कुछ हद तक सही नहीं है?

डॉ. सौम्यब्रत चौधरी: ये बात आप उनसे पूछिए, तो वो कहेंगे कि क्या कर सकते हैं? जहाँ तक भाषा का इस्तेमाल है हिन्दी ही बोलनी पड़ेगी; क्यूँकि वह आम लोगों की भावनाओं को रिप्रेज़ेंट करती है. मैं पॉलिसी के लेवल पर उस बहस में नहीं जा सकता. मैं कह रहा हूँ कि मैंने जो देखा है उसका जो रिज़ल्ट है. उसमें बड़ी दिक्क़तें हैं. उसमें एक बनावटीपन जहाँ हर आर्टिस्ट डायरेक्टर में दिखता है. फ़िर भी उनमें इतनी तो क्षमता है कि वो सीख रहे हैं और ढँग से मेहनत कर रहे हैं. और इतिहास को बराबर बनाए रखने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं. उनमें वो सब कुछ है लेकिन फिर वही चीज़ें हैं जो कहीं न कहीं एक संकीर्णता में बाँधती हैं उनमें एक चीज़ आ ही जाती है जिसके चलते वो सब कुछ बनावटी लगने लगता है. कुछ भी स्वाभाविक या ताज़ा नहीं दिखता है. उसमें थोड़ा सा अटपटापन आ ही जाता है. और मुझे जो लगता है कि कुछ उसमें से काफ़ी खो सा जाता है. वास्तविकता कहीं धुँधली सी पड़ जाती है. और एन. एस. डी. में मैंने ये बात ज़रूर देखी है. लेकिन मैं उसके पढ़ाने-लिखाने, सिखाने के बारे में कुछ नहीं कह सकता. क्योंकि मैं कभी भी वहाँ का छात्र नहीं रहा. मेरे कई दोस्त रहे हैं. थोड़ा बहुत मैंने उनके साथ वर्कशॉप भी किया है. लेकिन जैसा कि मैंने कहा मैं वहाँ का छात्र नहीं रहा तो वहाँ के बारे में अन्दर की चीज़ों को लेकर कुछ भी कहना ठीक नहीं होगा.

अभिमन्यु कुमार सिंह: आपने चूँकि इन्डीपेंडेंटली थियेटर किया है तो एन. एस. डी. के अन्दर से जो एक खास तरह का पैटर्न निकलता है और खास तरह के लोग निकलते हैं उनके बारे में आप क्या कहेंगे?

डॉ. सौम्यब्रत चौधरी: जो वहाँ से खास तरह के प्रोडक्ट निकलते हैं उनमें कुछ विशेषता तो होती ही है. वो हर मायने में न सही पर तमाम मामलों में खास तो हैं ही. लेकिन वो लोग ख़ुद भी एक पहचान लिए वहाँ आए भी हैं. फ़िर एन. एस. डी. के पैटर्न से जुड़कर उस पहचान में वहाँ की चीज़ों के साथ अपनी एक अलग पहचान बनाते ही हैं. पर जहाँ तक वर्तमान स्थिति की बात है तो चाहे एन. एसड़ी हो या पोलैण्ड, अमेरिका का थियेटर स्टूडियो हो या कोई भी विख्यात थियेटर हो. कुछ हद तक तो ए मैटर ऑफ़ प्रिन्सिपल, सेट ऑफ़ मैथड, एप्रोच, अगर कोई ये कहे कि थियेटर में एक खास तरह के पैटर्न में थियेटर की क्यूरॉसिटी बरकरार रहती है तो वो भी कुछ हद तक मैं मानता हूँ. दरसल ये केवल थियेटर की बात नहीं है. ये सारी चीज़ें ज़िन्दगी की अलग-अलग एक्टीविटी से जुड़ी हुई बातें हैं. कहीं न कहीं एक खास वस्तु-स्थिति से लोग एक ही सूत्र में बँधे हुए हैं. लेकिन ऐसी तमाम अलग-अलग स्थितियों में अपने आप को सही दिशा में खड़ा करने से थोड़ी हिम्मत तो ज़रूर आती है. इतना मैं दावे के साथ कह सकता हूँ. बाकी सिर्फ़ एन. एस. डी. के बारे में पट्टीक्युलर आलोचना करना मेरा कोई ऐसा मक्सद नहीं है. बाकी तो मैंने आपको बोला ही, बहुत सारी समस्याएँ भाषा से जुड़ी हुई हैं. हिन्दी बोलने को लेकर जो सीख है, उनको जो पढ़ाने की भाषा की सादगी और तमीज़ है, उसे सिखाने का जो भी प्रयास है, एन. एस. डी. में उससे उनकी अभिनय क्षमता और शैली भी कहीं न कहीं प्रभावित होती है. मुख्यत: तीन तरह की ऐक्टिंग वहाँ सिखाई जाती है.
1 यथार्थवादी अभिनय. जो सेनिस लवव्यस्की वगैरह से प्रेरित है. वो इस स्कूल के कलाकार हैं और सिखाते भी हैं. ये बहुत अच्छा है. उसके बाद हिन्दुस्तान की पारंपरिक अभिनय तकनीक का इस्तेमाल वो करते हैं. नाट्यशास्त्र से जो चीज़ आप उससे ले सकते हैं. ये दोनों तरीके हैं लेकिन जो आप इसके बावज़ूद प्रैक्टिकली सिखाने को मज़बूर हैं कि क्या चीज़ ऐक्टिंग से करवानी है उसमें मुख्य है बोलना. भाषा को किस तरह से बोलना है और वो जो एक बोलने की संस्कृति है-वह हिन्दी बोलने के साथ जुड़ा हुआ है. उसमें एक तो यह कि हिन्दी बोलने के तरीके या शैली को लेकर उसे आधुनिक परिवेश की तरह उपयोग में नहीं लाना चाहते हैं. लेकिन कहीं न कहीं तो यह करना उनकी मज़बूरी बन जाती है. उस कोशिश में कहीं पर एक न एक नई शैली या तरीका विकसित हो ही जाता है. बोलने, व्यावहार का तरीका. यह उस संस्था के सिखाने के कुछ तरीके हैं. कि पूरी चीज़ एक खास तरह के पैटर्न में आ ही जाती है. यह कभी-कभी तो बेहद अच्छा भी है, किसी बड़े प्रोडक्शन में उसका कभी कभी इस्तेमाल भी होता है. किन्तु छोटे प्रोडक्सन वहीं पर अर्टीफ़िशियल लगने लगते हैं और ऐसे में एक ऐक्टर के भीतर वो जो बोलता है और भीतर जो अनुभूति से बोलना चाहता है उसके बीच द्वन्द्व आ जाता है.

अभिमन्यु कुमार सिंह: ये जो स्पॉन्टेनिटी का सवाल है ये जो यथार्थवादी अभिनय है या इसका जो तरीका है उसके अगर दूसरी तरफ़ हम पेश करते हैं वरसेस नहीं लेकिन एक तरह से " अदर " होगा स्पन्टेनिटी. तो उसमें आपको क्या लगता है कि कौन सा ज़्यादा उपयोगी होगा. किसी भी संस्था के लिये अनुकरण करना?

डॉ. सौम्यब्रत चौधरी: देखिये " स्पॉन्टेनिटी कोई मैथड नही होता. एक क्वालिटी है. जो कुछ लोगों में एक तरह से अपने आप को अभिव्यक्त करता है.कुछ लोगों में स्पॉन्टेनिटी होते हुए भी वो चेहरे पर बोलने में व्यवहार में उस तरह से कलाकर का जहाँ तक सवाल है-स्पॉन्टेनिटी को गलत तरीके से समझना वाकई में गलत है. स्पॉन्टेनिटी का मतलब है-जो कलाकार है और जो अभिनय की दक्षता से भरा है. उसमें स्पॉन्टेनिटी ज़्यादा होती है. ऐसा भी नही है. स्पॉन्टेनिटी हर इन्सान में होती है. इन्सान की पर्सनालिटी का एक हिस्सा स्पॉन्टेनिटी है. वह कैसे और किस तरह से अपने आप को अभिव्यक्त कर ही लेता है. यह निर्भर करेगा आप कैसे समाज, किन हालात, कैसी संस्था में अभिनय किन स्थितियों में कर या सीख रहे हैं. वो स्पॉन्टेनिटी और टीचिंग ऑफ़ ऐक्टिंग चाहे वो रियलिस्टिक हो या कोई और दूसरी चीज हो. ये दोनों चीज़ें एक दूसरे के ख़िलाफ़ नहीं हैं. यह एक दूसरे के ख़िलाफ़ इसलिये भी जाती हैं क्योंकि आप अभिनय और टीचिंग में अभिनय पर ज़ोर कम और टीचिंग पे ज़ोर ज्यादा देते हैं. आपको लगता है कि किसी चीज़ को खाने की बज़ाए अगर उसे आप पढ़ाने लगें तो इस पढ़ाने को मुझे ट्रांस्क्रिप्ट करना है. या इसको ही स्टूडेंट को समझना और उसकी नकल उतारना है तब तो ज़ाहिर है कि स्पॉन्टेनिटी कहीं न कहीं मर गयी. लेकिन जो चीज़ आप पढ़ा रहे हैं-चाहे वो समाज विज्ञान, अर्थशास्त्र या कुछ और हो और वो जो विषय है, उसमें जो ज्ञान है या जानकारी है.बात है कि आपका ध्यान चीज़ की अंतर्वस्तु पर न होकर उसे पढ़ाने पर ज़्यादा ज़ोर हो या सिखाने की जो ऐक्टीविटी है, उसे लेकर आपको उतना परेशान नहीं होना चाहिए. तो फ़िर ज़ाहिर है कि इस चीज़ की अपनी एक डिमाण्ड होगी. आपके पास जो पर्सनालिटी है उससे वो चीज़ जुड़ेगी और जो चीज़ आपको उस विषय से चाहिए वो विषय आपको उसे उपलब्ध करायेगा. इससे उसमें कुछ इज़ाफ़ा होगा. उसमें एक नयापन आएगा. लेकिन अगर आप स्वच्छन्दता को एकतरफ़ रखकर केवल यह कहें कि केवल कुछ-कुछ मैथड्स को लेकर ही सीखना है तो ज़ाहिर है स्पोन्टेनिटी मर जाएगी. वो एक प्रैक्टिकल रिलेशन है. ये कोई इसेंसियल या फ़िनल तो है नहीं. और अपोज़ीसन और डिपेन्डेन्स हाईरारकी ये चीज़ प्रईमरी है. और वो चीज़ सेकेन्ड्री है तो बात यह है कि स्पॉन्टेनिटी प्राईमरी है या मैथड अक्टिन्ग सेकेन्ड. वो एक टैक्टिकल रिलशन है. वो संबंध किस तरह से, किन हालात में आत्मसात करता है. उस पर डिपेन्ड करता है. कहा जाता है कि ऐक्टिन्ग सीखी जा सकती है, तो सिखायी भी जा सकती है. वो तो आप ही अपने में स्पॉन्टेनिटी के माध्यम से हो सकता है, लेकिन अगर उसी से सीख सकें. तो बेहतर है-स्पॉन्टेनिटी के साथ आप सीधे अभिनय करते ही हैं. और आप तभी सीख पाते हैं जब स्पॉन्टेनिटी कहीं न कहीं आपको सपोर्ट करती है. और कुछ चीज़ों को आप अपने अभ्यास से सीखते हैं. या 'ट्राइ एण्ड एरर्स' से सीखते हैं. लेकिन वही अगर आप सिखाने की कोशिश करेंगे और ये कहें कि मेरे पास एक ऐसी चीज़ है जिससे मैं अभिनय सिखा सकता हूँ तब ये दिक्क़त वहीं आ जाती है. मैं नहीं मानता कि स्पॉन्टेनिटी और मैथड दोनों का अलग-अलग कुछ खास महत्व है. इन दोनों का एक मोबाइल रिलेशन है. ये चीज़ आर्टीकुलेट कैसे होती है. कैसे वो एक दूसरे को अंतर करे कि क्या स्पोन्टेनियस है? और क्या मैथड है. हमें कई बार यह नहीं समझ आता कि नाटक है या ऐक्टिन्ग है, वो स्पोन्टेनिअस है या मैथड से हो रही है. क्यूँकि संपूर्णत: में ही इन चीज़ों का आप आनन्द ले सकते हैं.

अभिमन्यु कुमार सिंह: एब्सर्ड अगर अनरीजन को अभिव्यक्त करता है और अगर अनरीजन सिर्फ़ मौन में अभिव्यक्त होता है (देरीदा) तो आप अपने नाटकों में जैसे "हैमलेट" में एबसर्ड एलीमेंट के बारे में क्या कहेंगे?

डॉ. सौम्यब्रत चौधरी: जहाँ तक थियेटर करने की प्रक्रिया की बात है तो उसमें नयी परेशानियाँ और उनके नये समाधान का सिलसिला लगा रहता है. कहीं कुछ संदेह होता है तो कहीं शुद्धता भी आती है. जहाँ तक थियेटर में एब्सरडिटी का सवाल है तो मेरे खयाल से एब्सर्ड एलीमेंट पुश द रीजन. "हैमलेट इन फ़रीदाबाद" इज़ प्रीमरिली अ का एंड ऑफ़ "डाक्यूमेंटरी थियेटर" दुनिया की एक तस्वीर उपस्थित होती है. इस नाटक का अमुख किरदार है अजय जो कि एक इन्डस्ट्रियल वर्कर है और अपने खाली समय में "मजदूर समाचार को" चिट्ठियाँ लिखता है. नाटक जैसा कि हम जानते है. न कि उन्हीं चिट्ठियों पर आधारित है. इस नाटक में जो एबसर्ड एलीमेंट है. न वो अजय की इस उक्ति में निहित है कि "मेरा किसी बैंक में कोई एकाउंट नहीं है." एब्सर्डिटी लाइज़ इन द एचोनोमिच ओर्बिट नाटक इसी बात को थियेटर की भाषा में अभिव्यक्त करता है. अजय का यह कहना कि उसका कोई बैंक अकाउंट नहीं है, एक अजीब बात है. उसकी बात सुनकर आपको लगता है कि ऐसे कैसे हो सकता है. कि एक आदमी का जो कि काम करके पैसे कमाता है. और अपना पेट पालता है उसका कोई अकाउंट न हो.

अभिमन्यु कुमार सिंह: इससे आप क्या कहना चाहते है. न?

डॉ. सौम्यब्रत चौधरी: दिस स्टेटमेंट रिफ़्यूज टू फ़िट इन टू दि डॉमिनेंट ओफ़ रीजन इन द वर्ल्ड. आपके लिये यह एक एब्सर्डिटी बन जाती है. अगर आप चाहते है कि मैं इसका कोई सल्यूसन दूँ, तो मेरे लिये वह मुश्किल है. दिस एब्सर्डिटी ऑल्सो पुसेज़ माई फ़ॉर्म. जहाँ तक अनरीज़न और भाषा की बात है तो फ़ोकांल्ट अपनी किताब "मैडनेस एन्ड सिविलायीजेसन" में भाषा का इस्तेमाल कर रहा है. वह "मैडनेस" दर्शाने की कोशिश कर रहा है. हम जानते हैं कि "मैडनेस. " एक ट्रिओलज़्जी का हिस्सा है. ("आर्किओलॉज़ी ऑफ़ एसायिलम"). भाषा को अगर रीजन और अनरीज़न में बाँटा जा सकता है तो उसे उसी तरह रिस्क और सहूलियत की जो थ्योरी है जिसके अनुसार भाषा एक तरह का खेल है और उसके अपने नियम हैं यह खेल जो है वो खुद में एक तरह का रिस्क है. जो कवि और दार्शनिक अपने काम में उठाते हैं. अवश्य ही एक सीमा के बाद भाषा की सीमायें उभर कर सामने आने लगती हैं और चीजों को रीजनेबली अभिव्यक्त करना मुश्किल हो जाता है. ऐसे ही स्टेट के बारे में सैमुअल बैंकिट कहते हैं कि - "आई कान्ट स्पीक बट आई मस्ट स्पीक. आई कान्ट गो ओन बट आई मस्ट गो ऑन." भाषा एक तरह का पल्सेशन है. एक वाईब्रेसन. अर्तान्द और होल्डरेन जैसे आर्टिस्ट उस पल्सेसन से आग और खून निकाल लेने में समर्थ हैं देलुज की एक किताब आयी थी 90 के दशक में "द लऑज़िक ऑफ़ सेन्स" जिसमें वो कहते हैं कि "व्हेन वी सी ए हऑर्स, इट पासेज़ बिटवीन अवर लिप्स फ़स्ट" पागल भी भाषा का इस्तेमाल करते हैं खासतौर पर भाषा के खिलाफ़ उनके पास भाषा एक डोमेन ओफ़ रिप्रेज़ेंटेसन होने के बजाय एक सिमटम ऐन ऊटोलोजिचल सीरीज या फ़िर इनकंडेनस की तरह होती है. उनकी भाषा में नियम ओपेक या रिडन्डेन्ट हो जाते हैं जो कि देरीदा अपनी " मैडनेस. " की आलोचना में कहते हैं द गेम प्लेस अगेन्स्ट इटसेल्फ़ हेयर.

अभिमन्यु कुमार सिंह: आज के समय में जब पोस्ट मऑर्डनिज़्म थ्योरी ने सारे मेटा नरेटिव्स यूटोपियाज़ खासतौर से जो राजनीति से संबंधित थे, को खारिज़ कर दिया है आपको राजनीतिक रंगमंच कितना प्रासंगिक दिखता है?

डॉ. सौम्यब्रत चौधरी: राजनीति बदल रही है नये नये सवाल पैदा हो रहे हैं अवश्य ही आज से 15 साल पहले राजनीतिक रंगमंच एक डॉमिनेंट रूप में था. थियेटर को होने के लिये पालिटिकल होना ज़रूरी था. आज ऐसा नहीं है. आज अगर यूटोपिया खत्म हो चुका है. मेटा नरेटिव्स ख़ारिज किये जा रहे हैं एक ऑब्लीगेशन ख़त्म हो चुका है. तो वहीं पर एक दूसरा ऑब्लीगेशन भी शुरू हो जाता है और वो यह है कि ये ऑब्लीगेशन न हो कि पॉलिटिकल थियेटर नहीं करना है. क्यूँकि यूटोपिआज़ मेटा नरेटिव्स खारिज़ किये जा रहे है. न पोलिटिक्स इज़ ए फ़ील्ड ऑफ़ ट्रांस्फ़र्मेशन. इतिहास भी बदल रहा है. जो फ़ंडामेंटल सवाल है. न हमारे लिये जो पॉलिटिक्स करने का जो मतलब है वो है कि पॉलिटिक्स कैसे हो, ये नहीं कि पॉलिटिक्स क्यूँ हो? रंगमंच राजनीति से कहाँ जुड़ा है. यह तो परिवर्तन कि तरफ़ एक संकेत है. राजनीति का विषय पैदा होता है. अगर पहले राजनीति का विषय निश्चित था तो आज हम राजनीतिक रंगमंच के ज़रिये नये विषय पैदा कर सकते हैं. दिस इज़ एनदर टाइप ऑफ़ अन्डरस्टैंडिंग. आज हमारे पास नये तरीके से चीजों को विचार करने का मौका है. नये विषय पैदा करने की चुनौती है. पुराने के जाने के बाद नया आता है. यह एक समानांतर प्रक्रिया है. अन्यसेसरी, इर्रिलिवेंट थिंग्स आल्सो एसिस्ट एन्ड इट्स फ़ॉर्म दैट "बींग" दैट दे गेन रेलेवेंस पॉलिटिक्स इज़, टू मी, अन्सिंसबिली रियल. "हैमलेट इन फ़रीदाबाद" में अगर एब्सर्ड एलीमेंट हैं तो वो उसके राजनीतिक अंतर्वस्तु को सामने लाती है. दोनो चीजें एक दूसरे से जुड़ी हैं. हमारे सामने जो चुनौती है वो नयी नहीं है. बल्कि यह नये का चैलेंज है. इट्स अ चैलेंज ऑफ़ दि नियू " कम्युनिस्ट पॉलिटिक्स आज भी नयी चुनौती का सामना कर रही है. इट इज़ रेस्पॉन्डिंग टू दि नियू पॉलिटिकल डेवेलपमेंट. जब "हैमलेट" का अजय कहता है कि उसका कोई बैंक अकाउंट नहीं है, हमारे लिये, आज के समाज की नज़र में ऐसा आदमी इर्रेलेवेंट हो जाता है. इत्स ए जेनेरिक पोसीबिलिटी टू एक्स्प्लोर दिस इर्रेलेवेंस. और ये सारी बातें सिर्फ़ कम्यूनिस्ट पोलिटिक्स के संदर्भ में ही लागू नहीं होती दिस रेलेवेंज इज़ "रियल" बिकॉज़ इट एन्ट्स अ होल इन द "रेयालिटी", इट क्रिएट्स अवॉइड.

अभिमन्यु कुमार सिंह: "आउटसाईडर" का रंगमंच में रोल?

डॉ. सौम्यब्रत चौधरी: "आउटसाईडर" जैसे चरित्र सार्त्र के नाटकों में, कामस के उपन्यसों में सामने आते हैं. "अंटीगोनी" भी एक तरह का आउटसाईडर है. एक ऐसा शख्स जो स्टेट मशीनरी के बाहर खड़ा है. बीसंवी शताब्दी में यह एक दिलचस्प संभावना थी, लेकिन हम साथ ही यह न भूलें कि आउटसाईडर भी एक तरह का मेटा नरेटिव है. उसका भी "डिसमेंटल्ड" होना उतना ही ज़रूरी है. आज का आउटसाईडर और भी फ़ेसलेस हो गया है. दुनिया समाज के साथ उसका रिश्ता "बाईनरी" के बजाय "डिफ़रेंसियल" है. "आउट्साइड" की खोज अनसीन की खोज की तरह हो गयी है. उसकी "एलीनेसन" में सिर्फ़ "पैथोस" ही नहीं है. थिएटर के माध्यम से "आउटसाईडर" का स्पेस तलाशना ज़रूरी है. मैंने भी अपने काम और जीवन में यह कोशिश की है. इस "स्पेस" में "एक्स्क्लूशन" से ज़्यादा ज़ोर "एंद्यूशन" पर है. ये एक टोप्पोग्राफ़िकल स्पेस है.

अभिमन्यु कुमार सिंह: आदर्श परिस्थितियाँ, जो आप किसी नये काम को शुरू करने के पहले चाहेंगे?

डॉ. सौम्यब्रत चौधरी: हर काम की परिस्थितियाँ अलग होती हैं. सब कुछ उन पर निर्भर करता है. मैं काम पर पनी माँगें थोपना पसंद नहीं करता.अपने काम के भाव के साथ मैं आगे बढ़ सकता हूँ. आई वांट टू बी एबल टू सरेन्डर टू दि सिंगुलरली ऑफ़ दि सब्ज़ेक्ट.

अभिमन्यु कुमार सिंह: जे. एन. यू. में थियेटर के बारे में?

डॉ. सौम्यब्रत चौधरी: आजकल जे. एन. यू. में थियेटर बहुत प्रगतिशील है. थियेटर जे. एन. यू. में मीडिया का रोल अदा करता है. जब मैं स्टूडेंट था तो राजनीतिक पर्चे मीटिंग्स की एक "थिएट्रिकल रियालिटी" थी. लोग जब भाषण देते थे तो आपको प्रोवोक करते थे. इनमें से जो मंझे हुये लोग होते थे वो आपको इस तरह मूव कर देते थे कि आप सारी ज़िंदगी के निर्णय ले सकते थे. रंगमंच के प्रति एक लगाव देखने को मिलता था. क्लासिकल पॉलिटिकल प्लेस का मंचन किये जाने की परंपरा थी.मैं कभी जे. एन. यू. में थियेटर देखना मिस नहीं करता था. अभी जे. एन. यू. में थियेटर का एक नया स्पेस बना है.

अभिमन्यु कुमार सिंह: इप्टा के बारे में?

डॉ. सौम्यब्रत चौधरी: इप्टा भारतीय थियेटर के इतिहास में एक बड़ा कर्णधार रहा है. अब इस परिस्थिति में कुछ बद्लाव आया है. मात्र कुछ इन्डिविजुअल्स बचे हैं उस थियेटर के कुछ एलीमेंट बदल चुके है. न. पहले वाला फ़ोर्स नहीं रहा है. जो मज़बूत एक परंपरा थी वह ख़त्म हो चुकी है. इप्टा एक फ़्री स्पेस की दिशा में बढ़ रहा है. एक अन्कंस्ट्रक्चर्ड सिचुएसन पैदा हो गयी है. अगर पहले सिर्फ़ एक खास क़िस्म के लोग इप्टा से जुड़े थे तो आज अलग-अलग तरह से लोग इप्टा में आ रहे हैं. यह हमें नयी चीजों को कोशिश करने का मौका देता है. मैं इपटा पटना को काफ़ी एडमायर करता हूँ. 70 से 90 के अंतराल में उनका काम कमाल का है. सिर्फ़ प्रोसेनिअम थियेटर ही नहीं उन्होंने अलग-अलग भाषाओं में और फ़ोकस के साथ प्रयोग किया है.

अभिमन्यु कुमार सिंह: थियेटर के माध्यम से प्रोवोक करने के बारे में?

डॉ. सौम्यब्रत चौधरी: प्रोवोकेशन थियेटर में अभी भी हो रहा है. ज़रूरी है उसको सही दिशा देना. बहुत सारी चीज़ें हमारी नाक के नीचे हो रही हैं. कॉलेज़ लेवल के थियेटर को लें-मैं अक्सर उनके उत्सवों और प्रतियोगिताओं में ईवैलूवेसन के लिये जाता हूँ वहाँ मुझे काफ़ी सारी सुंदरता और संदेह साथ-साथ दिखता है. कोई भी ओवर आर्चींग निर्णय पास करना गलत बात है. कुछ करने से कुछ निकलता है. जो हो रहा है उसको पिकप करना और रिकॉग्नाइज़ करना चाहिये. लाइक ए रिएली रेस. प्रोवोकेशन पहले से ही हो रहा है. बैदिएस्ट थियेटर के जमाने से. नयी चीजें हो रही है. न इससे ज़रूर कुछ बदलेगा.

अभिमन्यु कुमार सिंह: आपका अगला काम?

डॉ. सौम्यब्रत चौधरी: 1860 के दशक में मेंटल इलनेस के थीम पर एक नावेल आया था बायी बुकर लेंज. उसको मैं और मेरा दोस्त वैभव जिसके साथ मैंने पहले भी काम किया है. एक नाटक में बदलने की सोच रहे हैं. इसमें हम मैडनेस, मेंटल इलनेस, और ट्रुथ का रिश्ता एक्स्प्लोर करना चाहते हैं. यह एक इंसान की अपनी कहानी है. जो यह नहीं जानता कि वह कौन है. जिसको वह अपना सत्य बता सके. अ काइंड ऑफ़ कन्वर्सेशन ऑफ़ दि ह्यूमन सफ़रिंग इज़ ट्रुथ. साथ ही सत्ता जो रोल अदा करती है इंटर पर्सनल रिलेसनशिप में, यह उसका भी एक्सप्लोरेशन होगा. इन्डीविजुअल हिस्ट्री कैन आलसो बी रियल ऐज कलेक्टिव हिस्ट्री. ये नाटक भी आउटसाइड की खोज का एक हिस्सा है. क्यूँकि मैडनेस इंसान के अंदर नहीं है. हम उसको उसके चारो तरफ़ फ़ैले स्पेस में देखते हैं इसमें एक नया विषय निकलेगा. फ़ोकान्ल्ट का इंस्टीट्यूसंस को लेकर जो सारा काम है. उसे हम थियेटर के माध्यम से इंटरपरेट करेंगे.

© 2009 Soumyabrata Choudhury; Licensee Argalaa Magazine.

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