इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका
सप्त रंगी फूल खिले उपवन में, एक फूल निराला था
मीठी मीठी खुशबू देता, मंद मंद मुस्कराता था
इक लड़का भोला भाला सा, रोज उपवन में आता था
उसी फूल के आगे आकर, रोज खड़ा हो जाता था
एक दिन ज़ोर की आँधी आई, फूल टूट कर बिखर गया ......
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ज़िंदगी गुजर गयी
नसीब खोजते रहे
कभी धूप और छाँव
चल पड़े हैं पाँव पाँव
आशियाँ मिला नहीं ......
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नेह-निमंत्रण तुम बिसरा गए,
फिर आस खोई, तो क्या हुआ?
सपनों के बिना भी, हम जी लेंगे,
मेरा दिल टूटा, तो क्या हुआ?
मुस्कान तुम्हारी, मेरा चहकना, ......
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तम का एकाकीपन कैसा लगता है?
जीवन का नीरस सुख कैसा लगता है?
जब भी गोद हरी होती है अँधियारे की,
निशा सिमट खो जाती है उजियारे में.
विवश चाँदनी रातों को रोना पड़ता है, ......
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डाल पर खिलते रहे जो
फूल भी मुरझा गये वो
साथ में जो चल रहे थे
राह में ही खो गये वो
डाल...........
......
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