इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका
19 जुलाई, 2009 के जनसत्ता में अविनाश की टिप्पणी छपी है. यह बहुत ज़रूरी लेख है जिसे पढ़कर हिंदी के लेखकों को अपने ऊपर कुछ विचार अब कर लेना चाहिए. उन्हें शायद यह नहीं मालूम है कि उदय प्रकाश बनने में एक जमाना लगता है और उदय प्रकाश को किसी विवाद में घसीटकर या हस्ताक्षर-अभियान चलाकर मिटाया नहीं जा सकता. उदय प्रकाश जैसे लेखक बनने की ललक किसी के भी मन में हो सकती है, उनके लेखन से एक स्वस्थ ......
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कोई भी साहित्य समय और समाज-सापेक्ष होता है. समय और समाज के विविध यथार्थों का अभिज्ञान कराना साहित्य का मूल उद्देश्य होता है. समय परिवर्तनशील है और यह उसकी नियति भी है जिससे समाज में भी परिवर्तन आता है. इस परिवर्तन से साहित्य में भी बदलाव सहज एवं स्वाभाविक रूप में आ जाता है और ऐसी स्थिति में मूल्यांकन के मानदण्डों में बदलाव अथवा साहित्यिक कृति की सम्यक पहचान स्थापित मानदण्डों के आधार पर नहीं की जा सकती है. वास्तव ......
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