अर्गला

इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका

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कथा साहित्य


ब्रज कुमार मित्तल

'स्वर्ग जाना चाहते हो?
'नहीं देव! केवल उस पाप से छुटकारा. 'कांपते हुए शेट्टी ने कहा जो महापुजारी के सामने हाथ जोड़े खड़ा था.
महापुजारी का त्रिपुण्डयुक्त चौड़ा मस्तक सिलवटों से भर गया, वे किसी गहरी चिंता में डूब गए और पाप-मुक्ति का विधान खोलते हुए बोले, 'ठीक है, तुम्हें देवार्चना के लिए एक मधुर स्वर इस मंदिर को देना होगा.'
'मैं समझा नहीं देव'
'देवालय को देवदासी भेंट करके तुम पाप-मुक्त हो सकते हो, अन्यथा....' ......
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सुधा भार्गव

'सोच रही हूँ कुछ माह के लिए बेटी के घर हो आऊँ?'
'कुछ माह के लिए या कुछ दिनों के लिए?'
'कुछ माह को.'
'दीदी के ससुराल वाले क्या समझेंगे? फिर आप भी तो कहती थी कि बेटी के घर बड़ा अजीब लगता है, संकोच के दायरे में रहती हूँ.'
'ठीक कहा पर उसका आधार अतीत था, वर्तमान तो कुछ और ही कहता है. जिसे देखो बेटी के इर्द गिर्द घूमता है. बेटी माँ बाप के ......
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गोपाल रंजन

अब वे सारी चीजें सहेजने का मन करता है जो हमेशा इर्द गिर्द बिखरी रहीं पर कभी उनकी ओर देखने का मन नहीं हुआ. वक्त ने कभी थकने नहीं दिया. अश्वमेध के घोड़े की तरह मन दौड़ता रहा. पिछले पच्चीस साल कैसे गुजर गये, पता ही नहीं चला. पीछे मुड़कर देखने की नौबत ही नहीं आयी. सामने इतनी सारी जिम्मेदारियाँ दिखती रहीं कि एक के बाद एक, परत दर परत उभरते रहे सवाल और उन सवालों का जवाब ढूँढ़ने में ......
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वीरेन्द्र कुमार मैसी

अब मैं बहुत बूढ़ा हो गया हूँ. मेरी आँखों की ज्योति लगभग समाप्त होती जा रही है. पर वह राज़ जो मैंने अपने सीने में 60 वर्षों से छुपाये रखा, जिसे पुलिस तथा कोटि के जज, पुलिस की यातनायें, सामाजिक कार्यकर्ता तथा बाल सुधार गृह संस्थायें भी न उगल पायीं, मैं मृत्यु पूर्व अपने मस्तिष्क से निकाल कर अपने दिल का बोझ कुछ हल्का कर इस संसार से जाना चाहता हूँ ताकि मेरी आत्मा इस बोझ रहित ईश्वर के पास ......
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आशा उसमान

चौबीस जनवरी एक अत्यंत शीतली भोर. घड़ी में अभी नौ भी नहीं बजे थे कि नीलिमा के पति किसी वार्ता से इतने क्रोधित हुए कि उन्होंने उसे घर छोड़ने क.'अल्टीमेटम' दे दिया. नीलिमा सोच में पड़ गयी कि जीवन के लगभग तीस वर्ष जिस व्यक्ति के साथ एक छत के नीचे रहकर व्यतीत करके मैंने अपने उस घर संसार की आधार शिला रखी, यह एक ही झटके में कैसे बिखर सकता है. परंतु होनी को जो मंजूर होता है वही ......
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मनमोहन भाटिया

किस्से कहानियों में चंदगीराम ने पढ़ा था, सुना था कि राजा भी रंक बन जाते हैं. आज हकीकत में महसूस होने लगा कि सच्चाई को स्वीकार कर लेना चाहिए. सहारनपुर में धनी व्यक्तियों की श्रेणी में गिनती होती थी. अच्छा खासा धन था, जो दो तीन पीढ़ियों के आराम से गुजर बसर के लिए काफी समझा जा सकता था. दो तीन वर्षों से व्यापार में आमदनी कम होने लगी और कुछ नुकसान भी हो गया. बढ़ते खर्चों पर नियंत्रण नहीं ......
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