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इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका

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सलाहकार की कलम से

गंगा प्रसाद विमल

जुलाई 2009, संस्करण 1, अंक 3

तीसरे अंक की तैयारी में हमारे संपादकीय परिवार को जो महत्वपूर्ण सामग्री हाथ लगी है उस पर हम अपने पाठकों की लिखित प्रतिक्रिया चाहेंगे. हमारे देश के यानि सभी भारतीय भाषाओं के बड़े कवि कुँवर नारायण की कविताएँ एक तरह से नये काव्य रुझान की शिखरवर्ती कविताएँ हैं. जिनमें मनुष्य की चेतना के कुछ ऐसे अनछुए पक्ष संवेदित होते हैं जिन्हें किसी भी लिखने वाले के लिए आदर्श मानना एक तरह से अच्छे सृजन की स्वीकृति है. इस अंक में अनेक नये कवि किसी प्रयोजन में शामिल किए गए हैं कि पता चले कि हमारा नया लेखन किस अर्थ में नया है. पंजाब की क्रांतिकारी कविता के कई रूप हैं. अनेक धाराओं वाली इस क्रांतिकारी सोच का आधार बहुत मज़बूत है. इसलिए कि वह लोक से जुड़ा हुआ है, इतिहास की ओर दृष्टि डालें तो दो - ढाई सौ वर्षों के दौर में अनेक लोक आधारित टोलियों ने सत्ता के समानांतर एक प्रति सत्तात्मक आधार विकसित किया था. उसी कड़ी के एक कवि संतराम उदासी का विवरण तथा उनकी कुछ कविताएँ जो नैसर्गिक रूप से लोक साहित्य ही हैं, नये लोगों के समक्ष इसलिए प्रस्तुत किया जा रहा है ताकि हम यह उत्तर पा सकें कि साहित्य की मुख्य धारा कौन सी है. एक लिखित बौद्धिक संपदा और एक अलिखित वाचिक लोक संपदा इनमें से किसी एक को महत्वपूर्ण सिद्ध करना हमारा उद्देश्य नहीं है. परंतु यह बताना हमारा लक्ष्य है कि दोनों अंतत: मनुष्य के अनेक प्रश्नों का उत्तर देने में सक्षम हैं.

कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिन पर हमें अवश्य विचार करना चाहिए, भारतवर्ष के ज्ञान आयोग का कहना है कि भारतीय बच्चे को प्राथमिक स्तर से अंग्रेजी पढ़ाना अनिवार्य होना चाहिए ताकि वह विश्व भर में अंग्रेजी के बढ़ते दबाव के सामने टिका रह सके. ध्यान रहे यह एक प्रकार से उस मानसिकता की देन है जो यह मान कर चलती है कि अंग्रेजी में पिछड़ने का अर्थ, धन और अवसरों की दौड़ में पिछड़ना है. ज्ञान आयोग के सैम पितृदा दोहरे चरित्र के व्यक्ति हैं. कुछ वर्ष पूर्व इनसेट दो के लिए काम करते हुए सैम पितृदा भारतीय भाषाओं के समर्थक थे. ज्ञान आयोग में आने के बाद वे अंग्रेजी के समर्थक हो गये. अंग्रेजी शिक्षा भारत पर लादने के दुष्परिणाम सैम पितृदा भाँप नहीं सकते, उनकी ज्ञान संबंधी शक्ति सीमित है. इस प्रश्न पर हम अपने पाठकों की राय बेबाक ढंग से जानना चाहते हैं. इसी प्रश्न पर सर्वोच्च न्यायालय के सर्वोच्च न्यायाधीश ने भी यह टिप्पणी की है कि स्थानीय अदालतें मातृ भाषा में पढ़ाई का आदेश नहीं दे सकती. पश्चिम से आयातित सैम पितृदा और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायपुरुष उस अन्याय की तरफ नहीं देख पा रहे हैं जो वे कर रहे हैं:

1. भारतवर्ष में अंग्रेजी लादने की योजना साकार करने के लिए अकूत धन की आवश्यकता होगी.
2. ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, इंग्लैण्ड से सभी वयस्क किस्म के भाषा ज्ञानी भी यदि बुला लिए जाएँ तब भी सारे भारत को अंग्रेजी में शिक्षित करने के लिए पर्याप्त अध्यापक नहीं होंगे.
3. भारत में 80 प्रतिशत विद्यालयों के पास पर्याप्त अध्ययन कक्ष नहीं हैं. ज्यादातर विद्यालय शांतिनिकेतन शैली में पेड़ों के नीचे या खुले में काम करते हैं.
4. टाट, बोरी या अन्य बैठने की सुविधाएँ भी भारतीय विद्यालयों में पर्याप्त नहीं है.
5. खड़िया, चॉक, पेंसिल, कलम, पेन, कागज, स्लेट, तख्ती भी भारतीयों स्कूलों में पर्याप्त मात्रा में नहीं है.

श्री सैम पितृदा और न्यायाधीश महोदय वातानुकूलित कक्षों में बैठकर वास्तविकता से अंधेज्ञ हैं. इस पर भारत की अर्थव्यवस्था का बहुत बड़ा हिस्सा स्थानीय भाषाओं व उप-भाषाओं, व लोक भाषाओं में संपन्न होता है. ऐसी स्थिति में अंग्रेजी लादने के दुष्परिणामों की सूची पाठक गण स्वयं अपनी कल्पना से तैयार करें. यह प्रश्न हमने इसलिए पाठकों के समक्ष रखा है कि भारत को विखंडित करने की कोशिश चीनी से ज्यादा खतरनाक अंग्रेजीपरस्तों की कथित प्रस्तावनाएँ हैं जिन पर गंभीरता से विचार होना शेष है.

भारतवर्ष को कमजोर करना भारत को विभाजित करना, भारत पर बलात करना, भारत पर पश्चिमी तर्क लादना कुछ ऐसे बिंदु हैं जो एक साथ नए सृजन और संतराम उदासी की चिंताओं से मिलते - जुलते हैं. यह अंक इसलिए नए लेखकों की मार्फ़त तमाम नए पाठकों को समर्पित है. उम्मीद है आप अपनी सक्रिय भागीदारी व्यक्त करेंगे. ध्यान रहे हमने अभी पत्रिका की अपनी समस्याओं पर आप के विचार नहीं माँगे हैं तथापि वे भी आपकी चिंता का हिस्सा बने यह हमारी कामना है.

भारतीय प्रजातंत्र मजबूत हो हम इसी दिशा में आपके साथ कदम से कदम मिलाने को तैयार बैठे हैं.

आमीन!

- गंगा प्रसाद विमल

© 2009 Ganga Prasad Vimal; Licensee Argalaa Magazine.

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