अर्गला

इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका

Language: English | हिन्दी | contact | site info | email

Search:

शिखर

कुँवर नरायण

सम्मेदीन की लड़ाई

खबर है
कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध
बिल्कुल अकेला लड़ रहा एक युद्ध
कुराहा गाँव का खब्ती सम्मेदीन

बदमाशों का दुश्मन
जान गँवा बैठेगा एक दिन
इतनी अकड़पन अपने को
यह लड़ाई
ज़्यादा नहीं चलने की
क्योंकि उसके रहते
चोरों की दाल नहीं गलने की...
एक छोटे से चक्रव्यूह में घिरा है वह
और एक महाभारत में प्रति क्षण
लहूलुहान हो रहा है सम्मेदीन

भरपूर उजाले में रहे उसकी हिम्मत
दुनिया को खबर रहे
कि एक बहुत बड़े नैतिक साहस का
नाम है सम्मेदीन

जल्दी ही वह मारा जाएगा
सिर्फ उसका उजाला लड़ेगा
अँधेरों के खिलाफ़... खबर रहे
किस-किस के खिलाफ़ लड़ते हुए
मारा गया निहत्था सम्मेदीन

बचाये रखना
उस उजाले को
जिसे अपने बाद
ज़िन्दा छोड़ जाने के लिये
जान पर खेल कर आज
एक लड़ाई लड़ रहा है
किसी गाँव का कोई खब्ती सम्मेदीन

सफलता की कुंजी

दोनों के हाथों में भरी पिस्तौलें थीं
दोनों एक दूसरे से डरे हुए थे
दोनों के दिल एक-दूसरे के लिए
पुरानी नफरतों से भरे हुए थे

उस वक्त वहाँ वे दो ही थे
लेकिन जब गोलियाँ चलीं
मारा गया एक तीसरा जो वहाँ नहीं था
चाय की दुकान पर था

पकड़ा गया एक चौथा
जो चाय की दुकान पर भी नहीं
अपने मकान पर था, उसकी गवाही पर
रगड़ा गया एक पाँचवाँ जिसे किसी छठे ने
फँसवा दिया था - सातवें की शिनाख्त पर
मुक़दमा जिस आठवें पर चला, उसके फलस्वरूप
सज़ा नवें को हुई
और दसवाँ बिलकुल साफ़ छूट कर
एक ग्यारहवें के सामने गिड़गिड़ाने लगा वह
उसकी मार्फ़त
एक नई सफलता तक पहुँचने की कुँजी को
उँगलियों पर नचाने लगा...

पहला सवाल

रात भर नारे लगते रहे कि आजादी मिले
रात भर मशालें जलती रहीं कि भेड़िए भागें,
रात भर इश्तहार बँटते रहे कि सुबह क़रीब है,
रात भर जुलूस निकलते रहे कि लोग जागें

सुबह
रात भर के जागे लोग थककर
सड़कों, फुटपाथों पर सोए पड़े थे.
कैसी विडम्बना है कि जब वे जागे
उन पर गलत जगह गलत वक़्त सोने का इल्ज़ाम लगाया गया
और जनता की सुविधा के लिए
सरकारी रास्तों को साफ़ कराया गया
अब सोने और जागने का पूरा सन्दर्भ बदल चुका था-
दीवारें बदल चुकी थीं-
इश्तहार बदल चुके थे-

आज क्यों पहले से ज़्यादा और ज़रूरत से ज़्यादा लोग
सड़कों, फुटपाथों पर हैं?
अपने गर
अपने कन्धों पर:
बेकार सवालों से जूझती बेकारियाँ:
सार्वजनिक मामलों में हमारे आपसी सुलूक
एक हादसा है
जिनसे बच निकलने की तिकड़मों में
हम मुद्दत से एक हैं.
हर दस क़दम पर सामना है
किसी-न-किसी ऐसी परिस्थिति से
जो सिर्फ़ अपनी ही बोली बोलता है.

पहला सवाल पुछते ही क.'क्यों हर उलट-फेर के बाद
केवल इन्तज़ाम बदलते हैं, हम नहीं...?'
'यह विषयान्तर है! न-चिल्लाते हुए छात्र
बिना एक भी सवाल को ठीक से पढ़े
अपनी-अपनी कक्षाओं से बाहर निकल आए

एक बार लगा कि अब धमाका होगा
और सब कुछ बदल जाएगा
लेकिन तभी
भभकते गुस्सों और मँझोली औक़ात के
संगठन-कर्ताओं ने घोषित किया कि वे जो
हमारी तरफ़ थे
अब दूसरी तरफ़ हैं
अब दूसरी तरफ़ के इतिहासों के
सबसे ऊँचे दर्ज़ों में दाखिला खोजते हुए...

एक वृक्ष की हत्या

अबकी घर लौटा तो देखा वह नहीं था-
वही बूढ़ा चौकीदार वृक्ष
जो हमेशा मिलता था घर के दरवाज़े पर तैनात

पुराने चमड़े का बना उसका शरीर
वही सख्त जान
झुर्रियोंदार खुरदुरा तना मैलाकुचैला,
राइफल-सी एक सूखी डाल
एक पगड़ी फूल पत्तीदार
पाँवों में फटा पुराना जूता
चरमराता लेकिन अक्खड़ बल बूता

धूप में बारिश में
गर्मी में सर्दी में
हमेशा चौकन्ना
अपनी खाकी वर्दी में

दूर से ही ललकारता, "कौन?"
मैं जवाब देता, "दोस्त!"
और पल भर को बैठ जाता
उसकी ठंडी छाँव में

दर असल शुरू से ही था हमारे अंदेशों में
कहीं एक जानी दुश्मन
कि घर को बचाना है लुटेरों से
शहर को बचाना है नादिरों से
देश को बचाना है देश के दुश्मनों से

बचाना है-
नदियों को नाला हो जाने से
हवा को धुँआ हो जाने से
खाने को जहर हो जाने से:
बचाना है-जंगल को मरूस्थल हो जाने से
बचाना है-मनुष्य को जंगल हो जाने से.

आधी रात

आधी रात. अपने घर में घुस रहा हूँ. चोर की तरह.
दरवाजे अंदर से बंद नहीं हैं. अन्दर मैं बेखबर सो
रहा हूँ. मेरे साथ मेरा पुरा घर बेखबर है.

मैं अपने सिरहाने खड़ा हूँ. अपने को सोते हुए देख
रहा हूँ. गौर से अपने को देख रहा हूँ. फिर उस सबको
देख रहा हूँ जो मेरा कहा जाता है. जिसे और जिन्हें
मेरे बाद भी मेरा कहा जाता रहेगा.
मैं अपने बाद अपने को देख रहा हूँ
मैं अपने बाद उस सबको देख रहा हूँ
जिसके लिए चोरों की तरह आधी रात
को अपने ही घर में घुसा हूँ

मैं अचानक जाग गया हों. मेरे सिरहाने कोई खड़ा है
आधी रात कौन हो सकता है? चोर तो नहीं?
मैं तो नहीं जो कल शाम घर से निकल गया था और
अब शायद घर लौटा हूँ?

"तुम कम हो भाई?" मैं पूछना चाहता हूँ.
"चलो मेरे साथ. यहाँ से बाहर चलो."
"नहीं, मैं यहीं रहना चाहता हूँ,
अपने घर में, अपनों के साथ."

"तुम सपना देख रहे हो. तुम सो रहे हो. यह तुम्हारा
घर नहीं है. ये तुम्हारे लोग नहीं हैं. तुम मेरे साथ चलो.
तुम्हारा घर यहाँ से बहुत दूर है."
मैं विरोध करता हूँ.
"नहीं मैं इन्हें छोड़ कर कहीं नहीं जा सकता."

"तुम्हें चलना होगा."
मुझे मालूम हो गया कि मैं क्या चुराने अपने घर में घुसा था,
आधी रात गये.

वह मेरे साथ चल रहा है.
वह धीरे-धीरे कुछ सोचता हुआ चल रहा है.
"तुम इसी तरह मेरे साथ चुपचाप चलते रहो तो छुरे का
आतंक हटा लूँ."
और मैनें हम दोनों के बीच से मौत की धमकी हटा ली.
"हम कहाँ जा रहे हैं?"
"तुम्हें जल्दी मालूम हो जायेगा."
"क्या मेरी हत्या होगी?"
"तुम पर निर्भर है."
"कैसे?"
"तुम चाहो तो मुझे मार कर अपने घर लौट जाओ.
मैं विरोध नहीं करूँगा."
"पर तुम मुझे मारना क्यों चाहते हो. मैं किसी को नहीं
मारना चाहता. तुम मुझे क्यों मजबूर कर रहे हो कि
मैं तुम्हें मारूँ?"

"मैं तुम्हें मजबूर नहीं कर रहा. एक मौका दे रहा हूँ
कि मुझे मार कर खुद को बचा लो. मैं तुम्हारा
जानी दुश्मन हूँ और जानी दोस्त भी."
"पर मैं तो तुम्हें जानता ही नहीं."

"पर मैं तुम्हें अच्छी तरह जानता हूँ. मुझे गौर से देखो
बिल्कुल तुम्हारी तरह देखता हूँ, तुम्हारे दुश्मन की
तरह नहीं, इसलिए तुम हमेशा धोखे में रहोगे कि मैं
तुम्हारा दुश्मन नहीं हूँ, और धोखे से मारे जाओगे.
अपने को बचाना चाहते हो तो अपने हमशक़्लों से
सावधान रहना."
"अगर मैं तुम्हें मारने से इंकार करूँ तो?"
"मैं तुम्हे मारकर तुम्हारी जगह तुम्हारे घर लौट जाऊँगा.
वे मुझे पहचानेंगे नहीं. समझेंगे तुम्ही हो. मैं उनके
बीच छिप जाऊँगा."

आधी रात. अपने घर में घुस रहा हूँ. चोर की तरह.
मैं नहीं जानता कि मैं हत्यारा हूँ या मेरी हत्या हुई है.
जब भी आइने के सामने पड़ता हूँ चौंक जाता हूँ.
मेरी सूरत कभी एक से तो कभी दूसरे से मिलती है.

एक जले हुए मकान के सामने

शायद वह जीवित है अभी, मैंने सोचा.
उसने इन्कार किया-
मेरा तो क़त्ल हो चुका है कभी का!

साफ़ दिखाई दे रहे थे
उसकी खुली छाती पर
गोलियों के निशान.

तब भी-उसने कहा-
ऐसे ही लोग थे, ऐसे ही शहर,
रुकते ही नहीं किसी तरह
मेरी हत्याओं के सिलसिले.

जीते जी देख रहा हूँ एक दिन
एक आदमी को अनुपस्थित-
सुबह-सुबह निकल गया है वह
टहलने अपने बिना
लौटकर लिख रहा है
अपने पर एक कविता अपने बरसों बाद
रोज़ पढ़ता है अख़बारों में
कि अब वह नहीं रहा
अपनी शोक-सभाओं में खड़ा है वह
आँखे बंद किए-दो मिनटों का मौन.

भूल गया है रास्ता
किसी ऐसे शहर में
जो सैकड़ों साल पहले था
दर असल कहीं नहीं है वह
फिर भी लगता है कि हर जगह वही है
नया-सा लगता कोई बहुत पुराना आदमी
किसी गुमनाम गली में
एक जले हुए मकान के सामने
खड़ा हैरान
कि क्या यही है उसका हिन्दुस्तान?

सोच में पड़ गया है वह
इतनी बड़ी रोशनी का गोला
जो रोज़ निकलता था पूरब से
क्या उसे भी लील गया कोई अँधेरा?

© 2009 Kunwar Narayan; Licensee Argalaa Magazine.

This is an Open Access article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution License, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original work is properly cited.