इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका
यह बात उन दिनों की है जब मैं एम. फिल. के दौरान अपना तथ्य संग्रह करने में लगा था. गुरुवर, मैनेजर पांडेय से सलाह-मशवरा कर मैंने यह तय किया कि विष्णु प्रभाकर जी से मिला जाये. संपूर्ण हिंदी जगत में एक विष्णु प्रभाकर जी ने ही शरतचंद्र पर वृहद अध्ययन किया है. अत: उनसे मिले बगैर मेरा इस विषय पर काम करना असंभव सा लग रहा था. इस बीच गुरुवर प्रो. मैनेजर पांडेय लगातार दूरभाष से विष्णु जी से संपर्क करने की कोशिश कर रहे थे. एक लम्बे अंतराल के बाद सौभाग्यवश मुझे यह अवसर मिला. पांडेयजी ने कहा कि तुम खुद एक बार उन्हें फोन कर फिर मिलने जाना. उसी रोज़ मैंने शाम करीब 8 बजे फोन किया, अत्यंत मधुर स्वर में किसी की आवाज मेरे कानों में गूँज रही थी, मैंने अपना परिचय दिया ओर साथ ही मिलने की इच्छा भी व्यक्ति की. विष्णु जी बोले, "मुझसे क्या चाहते हो? शरतचंद्र पर मुझे जितना पता है वह सब मैंने पाठकों के सामने रख दिया है." मेरे अत्यधिक निवेदन के बाद वह मिलने को तैयार हुए साथ ही अपनी अस्वस्थता का हवाला देते हुए अधिक समय न लेने की गुज़ारिश भी की.
मेरी लिए वह रात एक हसीन सपने की तरह थी, इतने बड़े व्यक्ति से बात करना मेरे लिए एक बड़ी उपलब्धि सी प्रतीत हो रही थी. साथ ही पूरी रात यह सोचता रहा कि जब मुखामुख होंगे तो क्या करूँगा? क्या कहूँगा? मन में कई ख्याल आते रहे. दो दिन बात मुझे उनसे मुखामुख होने का अवसर मिला. जे. एन. यू. से करीब एक घंटा सफर करने के पश्चात मैं उनके घर पर था. घर के अंदर एक अद्भुत वातावरण था, जगह-जगह साहित्यकारों और बड़े-बड़े समाज सुधारकों की तस्वीरें टंगी थी जो घर की शोभा को चार-चाँद लगा रहीं थीं. अंदर एक छोटे से कमरे में विष्णु-प्रभाकर किताबों से घिरे हुए बैठे थे. 94 साल के एक व्यक्ति की कर्मठता को देख कर मैं दंग रह गया. वह पीठ के दर्द से जूझ रहे थे, किंतु फिर भी एक मेज सामने लिये न जाने कितनी देर से लिख रहे थे. चारों ओर किताबें बिछी हुई थीं, चीज़ों को जानने-पढ़ने की जिज्ञासा उनमें शिशु की भांति प्रतीत हो रही थी.
बातचीत शुरू होते ही उन्होंने उन दिनों को याद करना शुरू किया जब वह तथ्यों की तलाश में बंगाल और भागलपुर घूम रहे थे. साथ ही स्वाधीनता आंदोलन के उन दिनों को भी याद कर रहे थे जो उन्होंने कुछ क्रांतिकारी व्यक्तियों के साथ बिताए थे. उनकी बातों में मैं मंत्रमुग्ध होकर खो गया और ध्यान ही नहीं रहा कि मैं कब विषय से विषयांतर हो गया. मैंने अपने विषय से संबंधित कुछ पूछना उस वक्त मुनासिब नहीं समझा बस मैं उनकी बातों को सुनता ही चला गया. एक अद्भुत कशिश थी उनकी बातों में, वह अपने बचपन से लेकर जवानी तक की बातें मानों एक क्रमबद्ध तरीके से मेरे सामने रख रहे थे, स्वाधीनता आंदोलन के दौरान उनके साथ घटित घटनाएँ, कविवर रवीन्द्रनाथ से उनकी बातें आदि-आदि... मैं सुनता चला गया, कब शाम हो गयी पता ही नहीं चला, चाय आ चुकी थी, और चाय पीते-पीते एकाएक मुझे स्मरण आया कि, मैंने अपने विषय से सम्बंधित तो कुछ पूछा ही नहीं. एक पन्ने में मैं कुछ प्रश्नों को लिख कर ले गया था पर उसे निकालना मुनासिब नहीं समझा, ख़ैर मैंने सोच लिया था कि चाय पी कर अब मैं उनसे शरतचंद्र पर कुछ सुनूँगा..... चाय पीने के बाद न चाहते हुए भी मैं उनसे शरतचंद्र पर कुछ पूछने लगा.
प्रस्तुत लेख में मेरे द्वारा पूछे गये कुछ प्रश्नों को ही पन्नों की बंदिश में बाँधने की कोशिश की है. इससे पहले मैं इस साक्षात्कार को अपने एम. फिल. के परिशिष्ट में देने वाला था, किंतु गुरुवर पांडेय जी ने कहा कि इसे बाद में किसी पत्रिका में दे देना. विष्णुजी के साथ मेरी इस मुलाकात का जिक्र मैंने किसी से नहीं किया, कई दिनों तक इस कैसेट को मैं खुद ही सुनता रहा, उनकी आवाज, अदा, सब कुछ का मैं दिवाना हो गया था. मन में ठान लिया था इसको मैं किसी को न दूँगा. यह विष्णु जी की अमानत है, इसे मैं हमेशा अपने पास ही रखूँगा. विष्णु जी अब नहीं रहे, मैं किस स्थिति में हूँ इसका वर्णन मैं यहाँ नहीं कर सकता हूँ. 'मर्माहत हूँ', 'शोक में डूबा हूँ', आदि ऐसे शब्दों का उल्लेख मैं नहीं करना चाहता क्योंकि पिछले दो महीनों में करीब एक दर्जन पत्रिकाओं में मेरा सामना इन शब्दों से हुआ है. ऐसा प्रतीत हो रहा है कि संपूर्ण हिंदी जगत के आलोचक एकाएक गहन शोक में डूब गये हों. अच्छा लग रहा है, जो इंसान सदा आलोचकों की आलोचना के घेरे में रहा हो उनकी सराहना की जा रही है.
इसके छपने की दास्तान भी अजीब है, पत्रिका के मुख्य सम्पादक कवीन्द्र, जे. एन. यू. में मेरे 'रूममेट' रहे हैं. विष्णु जी के साथ हुई मेरी इस बातचीत के बारे में उन्हें पता था. एक ही कमरे में रहते हुए भला यह बात उनसे कैसे छुप सकती थी. एक लंबे अंतराल के बाद उनके भगीरथ प्रयास ने मुझे यह साक्षात्कार पाठकों के समक्ष लाने के लिए मजबूर किया. श्रीमान कवीन्द्र जी कहने लगे कि आवारा, दिशाहारा के लेखक की निजी ज़ुबानी सुनने की टक उनके प्रेमी को है ही, यह बात श्रद्धा की है, अगर आपको विष्णु जी से श्रद्धा है तो आप अवश्य चाहेंगे कि संसार का प्रत्येक साहित्य प्रेमी उनके प्रति श्रद्धा रखे. विष्णु जी नहीं रहे, पर वो हमारी यादों में हमेशा रहेंगे.
© 2009 Jotimay Bag; Licensee Argalaa Magazine.
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नाम: जोतिमय बाग
उम्र: 45 वर्ष
शिक्षा: बी. ए. (कोलकाता विश्वविद्यालय), एम. ए., एम. फिल. (जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली)
अनुभव: चार साल से हिन्दी साहित्य का प्रशिक्षण
संप्रति: पी-एच. डी. (अध्ययनरत; जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली)
अभिरूचियाँ: पढ़ना, समाज सेवा