इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका
बच के रहना
प्यारे बच्चों !
वे मार डालते हैं...
नहीं समझते वे हमें-तुम्हें
इन्सान
नाली के कीड़े-मकोड़े य़ा
जंगली जानवर समझ
वे मार डालते हैं
बच के रहना !
तुम्हारी हँसी
उनके सीने में दर्द पैदा करती है
तुम्हारा उल्लास
उन्हें बेचैन कर देता है
तुम्हारा भरपेट खाना
उनमें नफ़रत भर देता है
वे जल-भुन उठते हैं
तुम्हारी हँसी
तुम्हारी मुस्कान देख
आँखों में मचलती
तुम्हारी चमक देख
छीन लेना चाहते हैं वे
तुम्हारी हँसी
तुम्हारी मुस्कान
तुम्हारी चमक
हमेशा के लिए
बच के रहना
प्यारे बच्चों!...
वैसे
क्या तुम्हें
पत्थरों से खेलना पसन्द है...
या फिर
रोटी छीनने की कोशिश करते
कुत्ते को
बेतहासा दौड़ाना
गाँव के आखिरी छोर तक
गली के आखिरी मोड़ तक...
तुम उन्हें दौड़ा भी सकते हो
प्यारे बच्चों
पत्थरों का तुम्हारा खेल
तुम्हें बचा भी सकता है
प्यारे बच्चों..
बच के रहना!
लेकिन
क्या ज्यादा अच्छा नहीं है-
वे मार डालने वाले हाथ ही न रहें
हमेशा के लिए
या फिर
वह मानस ही खत्म हो जाय
हमेशा के लिए
क्या ज्यादा अच्छा नहीं है
विकसित करें हम
ऐसा ही कोई
तन्त्र-यन्त्र
हमेशा के लिए..
फ़िलहाल
वे ऐसा नहीं सोचते
ऐसा सोचने पर वे
मार डालते हैं
प्यारे बच्चों!
बच के रहना.
© 2012 Ashok Prakash; Licensee Argalaa Magazine.
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