इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका
अगर तुम्हारे होंठों पर
बाक़ी है हंसी
फूलों में खुशबू
जुगनू में चमक
तो यक़ीन मानो
ये दुनिया
अभी जीने लायक है
अगर तुम
बहरे नहीं हुए हो
सुन सकते हो
भूख से तड़पते
बच्चे का रुदन
मां की पुकार
तो यक़ीन मानो
अभी सबकुछ ख़त्म नहीं हुआ है
अगर तुम्हे गुस्सा आता है
झूठ की लूट पर
लूट की सत्ता पर
सत्ता की संस्कृति पर
तुम्हे गुस्सा आता है
अमेरिकी दादागिरी पर
इराक की तबाही पर
फिलीस्तीन में इस्राइली कब्ज़े पर
उन हाथों पर
जो अपने नहीं रहे
उन दिमाग़ों पर
जिन्हें खरीद लिया है
सरमायादारों ने/ दुकानदारों ने
अगर तुमने
एक लफ़्ज़ भी बोला है
बाबरी मस्जिद गिराये जाने के खिलाफ
गुजरात नरसंहार पर
कश्मीर में अत्याचार पर
जल-जंगल-ज़मीन
से खदेड़े जाने के खिलाफ
या उस गौरैया के लिए भी
जिसका घोंसला उजाड़
दिया गया बस यूं ही
मसलन ठहाका लगाने के लिए
अगर तुम खड़े हुए हो
इरोम शर्मिला के साथ
बिनायक सेन को दी गई
सज़ा के खिलाफ
या ऐसे ही किसी
अनाम-गुमनाम
क्रांतिकारी, मानवाधिकार कार्यकर्ता
या बेगार से इंकार करने वाले
उस गरीब मज़दूर के साथ भी
लगाया है कोई एक भी नारा
गाया है कोई एक भी गीत
नई सुब्ह के लिए
देखा है कोई सपना
इस काली रात के खिलाफ
लिखी है कोई एक कविता
कोई कहानी
बनाया है कोई एक चित्र
इस जलते हुए मौसम के खिलाफ
रोपा है गुलाब
या कोई और एक फूल
किया है प्रेम
तो यक़ीन मानो
ये दुनिया बदल सकती है
क्या ग़ज़ब करते हो तुम!
दुख को दुख लिखते हो तुम!
ज़ुल्म को कहते ज़ुलम
और सितम को भी सितम
शायरी तो ये नहीं!
ये कविता है कहीं?
तुम सहाफ़ी भी नहीं
क्या ग़ज़ब करते हो तुम!
रोटी-रोटी चीख़ते
मुट्ठियाँ क्यों भींचते
क्या भला कुछ कम दिया
हमने तुमको बम दिया
और अब क्या चाहिए?
पिज़्ज़ा बर्गर खाइए
मॉल होकर आइए
क्या ग़ज़ब करते हो तुम!
हर तरफ है रौशनी
गा रही है ज़िंदगी
तुम भी “छब्बीस” पा रहे
इसलिए इतरा रहे!
तुम भी बी-पी-एल नहीं
सच है कोई छल नहीं
आज देखो कल नहीं
क्या ग़ज़ब करते हो तुम!
लूट...भ्रश्टाचार है
ये तो सब व्यवहार है
झूठ ही व्यापार है
हमको तुमसे प्यार है
तुम बड़े कमज़र्फ़ हो
पढ़ गए दो हर्फ़ हो
अब भला क्या स्वर्ग लो?
क्या ग़ज़ब करते हो तुम!
तुम हमें क़ातिल कहो
तुम हमें बातिल कहो
जानते… हम हुक्मरां
खींच लेंगे ये ज़ुबां
जानते तुम कुछ नहीं
झूठ तुम हो सच हमीं
तुमको रहना है यहीं
क्या ग़ज़ब करते हो तुम!
ज़हर को लिक्खो दवा
आह! को लिक्खो दुआ
रात को लिक्खो सहर
वरना टूटेगा क़हर
क्या तुम्हे कुछ डर नहीं!
क्या तुम्हारा घर नहीं!
ये बचेगा सर नहीं
क्या ग़ज़ब करते हो तुम!
दुख को दुख लिखते हो तुम!
लोग सड़कों पे हैं
लोग सड़कों पे हैं
आंख में है नमी
मुट्ठियाँ हैं तनी
अपने हक़ के लिए
आज फिर है ठनी
फिर से धोखा मिला
क्या था सोचा, मिला?
कैसी जम्हूरियत?
देश भूखा मिला
गांव-देहात में
दूर जंगलात में
घिर गए हैं सभी
कैसे हालात में?
हाल...बेहाल है
उल्टी सब चाल है
आज बाज़ार में
आदमी माल है
लोग सड़कों पे हैं...
उठ गए नौजवां
बूढ़े, बच्चे यहाँ
लड़कियाँ, औरतें
चल पड़ा कारवां
कैसे दीवाने हैं !
ये तो मस्ताने हैं !
मौत के सामने
छातियाँ ताने हैं
तुम भी अपनी कहो
ज़ुल्म यूं न सहो
फ़ैसले की घड़ी
आज चुप न रहो
लोग सड़कों पे हैं...
ये रात ऐसे नहीं जाएगी
वो सुबह यूं ही नहीं आएगी
ये अंधेरा न वो अंधेरा है
कि जिसके बाद तय सवेरा है
जिस उजाले ने हमें घेरा है
उस उजाले का ये अंधेरा है
ये अंधेरा बड़ा भयानक है
और कहता है कि वही हक़ है
रौशनी ओढ़कर ये आया है
इसने सूरज को भी भरमाया है
जले मकान तो समझा
कि धूप निकली है
बहे जो अश्क तो सोचा
कि बर्फ पिघली है
फटे होंठों से ये वहम
कि हंस रहे होंगे
कहा न ग़म तो ये समझा
कि खुश रहे होंगे
कई हैं नाम, कई शक्ल, कई पैरोकार
ये अपने धर्म, सियासत और ये बाज़ार
ये धोखे बेचते हैं, खूबसूरत रैपर में
अंधेरे लाए हैं ये रौशनी के पैकर में
कुछ दीयों से न काम अब होगा
ये अंधेरा तमाम तब होगा
हमको सूरज सा निकलना होगा
अपनी ही आग में जलना होगा
ये रात ऐसे नहीं जाएगी
वो सुबह यूं ही नहीं आएगी...
हमने भी जां गंवाई है इस मुल्क की ख़ातिर
हमने भी सौ सितम सहे इस देश के लिए
ये बात अलग हम किसी वर्दी में नहीं थे
कुर्ते में नहीं थे, किसी कुर्सी पे नहीं थे
सड़कें बिछाईं हमने, ये पुल बनाए हैं
नदियों को खींचकर तेरे आंगन में लाए हैं
खेतों में हमारे ही पसीने की महक है
शहरों में हमारी ही मेहनत की चमक है
भट्टी में हम जले, हमीं चक्की में पिसे हैं
पटरी से हम बिछे, हमीं तारों में खिंचे हैं
हमने ही आदमी को खींचा है सड़क पर
बेघर रहे हैं हम मगर सुंदर बनाए घर
हर एक इमारत में हम ही तो खड़े हैं
इस देश की बुनियाद में हम भी तो गड़े हैं
रौशन किया है ख़ून-पसीने से ये जहां
क्या हमको कभी ढूंढा, हम खो गए कहां?
हमको तो रोने कोई भी आया न एक बार
दुश्मन ने नहीं, अपनों ने मारा है बार-बार
हम भी तो जिये हैं सुनो इस मुल्क की ख़ातिर
हम भी तो रात-दिन मरे इस देश के लिए...
उसने पाले हैं
कुछ मासूम चूहे
दो बिल्लियाँ
एक बंदर
कुर्सी से बांध रखा है
एक कुत्ता
पिंजरे में सजाया है
एक शेर
हर कोई है भयभीत
दूसरे से
बना ली है सुरक्शित दूरी
खेल शुरू होता है
वो उछालता है रोटी
दौड़ते हैं चूहे
झपटती हैं बिल्लियाँ
‘न्याय’ के लिए उपस्थित होता है
बंदर
भौंकता है कुत्ता...लगातार
रोटी
हमेशा की तरह
शेर के पिंजरे में जाकर गिरी है
खोल दिया गया है पिंजरा
शेर है शिकारी की मुद्रा में
देखते हैं चूहे
देखते हैं बिल्ली, कुत्ता, बंदर
सिर्फ देखते रह जाने के लिए
देखता है शेर
देखकर खा जाने के लिए
देखते हो तुम
देखते हैं हम
देखते हैं सब
सिर्फ देखने-दिखाने के लिए
देखता है वो
मुस्कुराने के लिए
तालियाँ बजवाने के लिए....
खेल जारी है
कुछ चूहे बिलों में हैं
कुछ बिल्लियों के मुंह में
कुछ अब भी डटे हैं
मोर्चे पर
बिल्लियों ने ले ली है
कुर्सी की ओट
कुत्ते के मुंह में है
बिल्लियों की पूंछ
बंदर है कुत्ते की पीठ पर सवार
जंग के मैदान में
अकेले चूहे हैं
खूंखार शेर के सामने
निडर...अविचलित
हैरतअंगेज़...
न कभी देखा, न सुना
खेल बदल गया है
हम देखते हैं
उसे देखते हुए
अब वो मुस्करा नहीं रहा
चुपके से कहता है
परदा गिराने के लिए
हमें कहता है
घर जाने के लिए
कोई दुश्मन न हो तो वह डर जाते हैं
क्योंकि तब
उन्हें देना होता है
दोस्तों से किए गए वादों का हिसाब
इसलिए वह
ढूंढ ही लेते हैं
कोई न कोई दुश्मन
वह चाहे कोई व्यक्ति हो
या महज़ तस्वीर
अभी-अभी टेलीविज़न पर
आई है ख़बर
उन्होंने ढूंढ लिया है
एक नया दुश्मन
जो छिपा बैठा है
किसी आईने में
हुक्म हुआ है
सारे आईने तोड़ देने का
जिसके पास भी
बाक़ी होगा आईना
वह दुश्मन में गिना जाएगा
वह चाहे कोई कवि हो
या तुम्हारी आंखें
मुझे फ़िक्र है उस बच्चे की
जिसके पास बची हुई है वह हंसी
जिसमें मैं अक्सर
देखता हूं तुम्हारा चेहरा
एक उम्मीद की तरह...
© 2012 Mukul Saral; Licensee Argalaa Magazine.
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