इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका
विश्वभर में जन-आन्दोलन की परम्पराएँ इतना तो साबित करती ही हैं कि स्वतन्त्रता का उन्वीस सामुदायिक स्तर पर ही सर्वस्वीकृत रूप पा सकता है. आज व्यक्तिगत स्वतन्त्रता, व्यक्ति-स्वातंत्र्य आदि के आवरण तले सामुदायिकता के प्रति अविश्वास का जो वातावरण बनाया गया है यदि उसकी पड़ताल की जाए तो फल हाथ लगेगा कि यह किसी हित स्वार्थवादी मस्तिष्क की उपज है. और उसका सीधा सम्बन्ध व्यापारिक प्रतिस्पर्धा से जुड़ा हुआ है. अतः समुदाय और व्यक्ति के बीच तनाव का एक रास्ता खोजने का काम हमेशा व्यावसायिक मस्तिष्क करते हैं. सामुदायिक स्तर पर समुदाय और व्यक्ति के हितों की सुरक्षा के लिए कानूनों का निर्माण किया जाता है. किन्तु षड्यन्त्रकारी मस्तिष्क इसमें भी कोई छेद ढूँढ लेते हैं. और वे नई दुरभिसन्धियों की ओर कूच कर डालते हैं. मुख्य विषय यह है कि क्या जन-आन्दोलन केवल बहुसंख्य की आवाज़ है? या वे समूचे समाज को अपने आगोश में लेने में सक्षम हैं. इसकी परीक्षा सैद्धान्तिक रूप से उन मूल विषयों का विश्लेषण कर ही किया जा सकता है जिसके लिए जन-आन्दोलनों की नींव डाली गयी है. अर्थात मान लो हम किसी ऐसे लोकतन्त्र की स्थापना का विषय लेकर जनता को अपने साथ ले चले हों जिस जनतन्त्र में दूसरों के लिए प्रवेश वर्जित हो. यहाँ तक तो ठीक है कि एक भौगोलिक राष्ट्रीय इकाई की सुरक्षा के लिए हमने उस घेरे के लोकतन्त्र को सुरक्षित रखने के लिए दूसरों के प्रवेश पर पाबंदी लगाई हो. किन्तु क्या वह सच्चे अर्थों में लोकतन्त्र है? जिसमें दूसरी भौगोलिक इकाइयाँ और राष्ट्रीय पहचानों का प्रवेश वर्जित हो. स्पष्ट है कोई लोकतन्त्र इतना संकीर्ण नहीं हो सकता.कि वह दूसरी लोक-इकाइयों का निराधार प्रवेश वर्जित करे. यह केवल काल्पनिक उदाहरण है. किन्तु हम आज के महादेशों में राष्ट्रीय इकाइयों और लोक-ईकाइयों में वर्जना की लक्षमन रेखाएँ खींचकर फिर भी अपने लोकतन्त्र को लोकतन्त्र कहते हैं. आज जनाधार पोषित जा-आन्दोलनों और संकीर्ण मतवाद निर्दिष्ट तथाकथित लोकतन्त्रों को आमने –सामने रखकर यह निष्कर्ष तो निकाल सकते हैं कि सच्चे लोकतन्त्र की स्थापना में समूचे लोक और मानव इकाइयों को सामान रूप से स्वीकार करना पडेगा. अन्यथा आज एक जन-आन्दोलन दूसरे निर्वाचित जनसमूह के सामने खड़ा होकर कैसे सिद्ध कर सकता है कि और स्थापित लोक-इकाइयों में कौन सी इकाई वास्तविक है? और कौन सी फर्ज़ी. मोटे तौर पर सवाल असमानता, गैरबराबरी, अन्याय, शोषण और हिंसा के सहारे सत्ता पर काबिज रहने वाली इकाइयों को भी अपने गिरेबान में झांककर देखना होगा कि जनसमर्थन के तौर-तरीके आज के सन्दर्भ में संगत नहीं हैं. अतः यह स्वीकारना ही होगा कि जनता को अपने अधिकारों के लिए सतत संघर्षरत रहना पडेगा.
बुद्धिजीवियों के विलास की सामग्री तो बड़े प्रश्नों की छोटी विषंगातियों तक ही सीमित रह जाते हैं किन्तु भारतीय राष्ट्र के सामने आज जन-आन्दोलन का वर्त्तमान स्वरूप विचारणीय है और इस पर राय दिए बिना किसी प्रकार के व्यावहारिक कार्यक्रम की कल्पना भी असम्भव होगी.
अर्गला के इस अंक में सृजनात्मक प्रतिभाओं और उनके समर्थक पाठकों की आपसी विचार-विनिमय प्रणाली आविष्कृत किए बिना एकतरफा लगेगा. यदि हम खुलेमन से इन प्रश्नों पर विचार करने के लिए आगे न आयें. हमारी तरफ से हुई देर में आ रहे इस अंक की सामग्री पर आपके विचारों की तात्कालिक प्रतिक्रिया की हमें तत्काल प्रतीक्षा रहेगी.
- गंगा प्रसाद विमल
© 2012 Ganga Prasad Vimal; Licensee Argalaa Magazine.
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नाम: गंगा प्रसाद विमल
उम्र: 85 वर्ष
जन्म स्थान: उत्तरकाशी, उत्तरांचल
शिक्षा: पी-एच. डी. पंजाब विश्वविद्यालय
अनुभव: उस्मानिया विश्वविद्यालय में 1963 से अध्यापन, हैदराबाद.
संप्रति: कई समितियों, संस्थाओं के सलाहकार एवं पत्रिकाओं में संपादकीय योगदान.
कविता संग्रह: विज्जप (1967), बोधि बृक्ष (1983), इतना कुछ (1990), तलिस्मा (काव्य एवं कथा) 1990, सन्नाटे से मुठभेड़ (1994), मैं वहाँ हूँ (1996), अलिखित-अदिखत (2004), कुछ तो है (2006),
कहानी संग्रह: कोई शुरुआत (1972), अतीत में कुछ (1973), इधर उधर (1980), बाहर न भीतर (1981), चर्चित कहानियाँ (1983), खोई हुई थाती (1994), चर्चित कहानियाँ (1994), समग्र कहानियाँ (2004),
उपन्यास: अपने से अलग (1969), कहीं कुछ और (1971), मरीचिका (1978), मृगांतक (1978)
लेख: अनेकों लेख तमाम पत्रिकाओं में प्रकाशित.
संपादित पुस्तकें: अभिव्यक्ति (1964), अज्ञेय का रचना संसार (1966), मुक्तिबोध का रचना संसार (1966), लावा (1974), आधुनिक हिंदी कहानी (1978), क्रांतिकारी समूहगान (1979), नागरी लिपि की वैज्ञानिकता (नागरी लिपि परिषद नई दिल्ली), वाक्य विचार (2002).
अंग्रेज़ी अनुवाद: हेयर एण्ड देयर एण्ड अदर स्टोरीज़ (1978), मिरेज़ (उपन्यास) 1983, तलिस्माँ (काव्य संग्रह) 1987, हू लीव्स व्हेयर एण्ड अदर पोएम्स (2004).
हिन्दी अनुवाद: गद्य-समकालीन कहानी का रचना विधान (1968), प्रेम चंद (1968), आधुनिक साहित्य के संदर्भ में (1978).
अन्य भाषाओं से अनुवाद: दूरंत यात्रायें (एलिजाबेथ बाग्रयाना) 1978, पितृ भूमिस्च (हृस्तो वोतेव) 1978, दव के तले ( ईवान वाज़ोव का उपन्यास) 1978, प्रसांतक (विसिलिसी वित्सातिस की कविताएँ) 1979, हरा तोता(मिको ताकेयामा का उपन्यास) 1979, जन्म भूमि तथा अन्य कविताएँ (एन. वाप्तसरोव की कविताएँ) 1979, ल्यूबोमीर की कविताएँ (1982), लाचेज़ार एलेनकोव की कविताएँ (1983), उद्गम (कामेन काल्चेव का उपन्यास) 1981, बोज़ीदोर बोझिलोव की कविताएँ (1984), स्टोरी ऑफ़ योदान योवज्कोव (1984), पोएम्स ऑफ़ योदान मिलेव (1995), तमामरात आग (1996), मार्ग (पोएम्स ऑफ़ जर्मन दूगन ब्रूड्स)2004.
सम्मान एवं पुरस्कार: तमाम राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित.
संपर्क: 112, साउथ पार्क अपार्टमेंट, नई दिल्ली - 110019