इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका
अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: इस समय भारत सहित दुनिया भर में वो कौन से मुद्दे हैं, जिन पर प्राथमिक स्तर पर लड़ा जाना चाहिए? आपका क्या नजरिया है?
बनवारी लाल शर्मा: इस समय दुनिया में जो मूल समस्या है, उसके खिलाफ लड़ना चाहिए ही नहीं, लड़ाई शुरू हो चुकी है. ये शुभ लक्षण है. पिछले चार साल में पश्चिम ने संयुक्त राष्ट्र अमरीका में जो मंदी का दौर शुरू हुआ. आर्थिक लोन का भी संकट चला. इससे तीन-चार सौ बैंक बंद हो गए, बड़े-बड़े उद्योग बंद हो गए. गाढ़ी मंदी आयी. फिर उसका असर यूरोप में पड़ा. और अब धीरे-धीरे इसका असर पूरी दुनिया में पड़ रहा है. उस मंदी के दौर में जो हमें समझ में आया कि मूल समस्या क्या है? भारत जैसे देश तो मूल समस्या समझ ही रहे थे. लेकिन पश्चिम के लोग उस समस्या को नहीं समझ पा रहे थे. समस्या ये है कि जो जीवन और आजीविका को साधने वाले पूरी दुनिया में संसाधन हैं, उन पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का पूरा कब्ज़ा हो चुका है. पहले तो कुछ ऐसा था कि पूँजीवादी देशों में तो बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ थीं. कुछ क्षेत्र थे जैसे सोवियत यूनियन, चीन, जहाँ संसाधनों पर राज्य सरकार का अधिकार था. राज्य सरकार किस हद तक जवाबदेह होती है. तो संसाधनों का कुछ लाभ आम जन को भी मिल जाता था. लेकिन सोवियत संघ के विघटन के बाद चीन ने अपनी नीति बदल दी. इसके बाद कॉर्पोरेट का इन देशों पर भी प्रभाव पड़ गया. उसमें भारी संख्या में लूट्खोरी के लिए कॉर्पोरेट घुस गए हैं. जो संसाधन हैं वो आम जन से छीन कर के कुछ मुट्ठी भर कॉर्पोरेट घरानों और उसके समर्थक देश, कुछ समर्थक प्रतिष्ठान, कुछ दस-पन्द्रह प्रतिशत लोग होंगे पूरी दुनिया में, उनके हाथ में पूरे संसाधन सिमट गए हैं. आज का आँकड़ा ये है कि – दुनिया की १५ फीसदी आबादी इनके तथाकथित जो विकसित औद्योगिक देश हैं, जिसको जी-७ देश कहते हैं. उनके यहाँ भी बहुसंख्यक लोग संकट में रहते हैं. हमारे यहाँ भी इन सभी की आबादी १५-२० फीसदी के बीच में है. और ये १५-२० फीसदी आबादी वाले लोग दुनिया के ८५ फीसदी संसाधनों पर कब्ज़ा किये हुए हैं. ये विश्व के आँकड़े हैं. और परिणाम क्या है? जो ८०-८५ फीसदी दुनिया की आबादी है, उसके हाथ में १५-२० फीसदी संसाधन भी नहीं हैं. इसलिए किसी न किसी बहाने से लोगों का जो छोटा-मोटा उद्योग था आजीविका को चलाने के लिए, जीवन जीने के लिए, वो छीन गए हैं. और परिणाम तो आप जानते ही हैं कि दुनिया में करीब साढ़े छः अरब से सात अरब आबादी है. उसमें एक अरब से ज्यादा लोग रात को भूखे सोते हैं. ये आँकड़े संयुक्त राष्ट्र के एक प्रोफ़ेसर पोलिबियर, जोकि कानून पढ़ाते हैं. वो बार-बार आँकड़े दे रहे हैं. कि आज जो व्यवस्था बन गयी है, जो कॉर्पोरेट व्यवस्था हावी है. इसने दुनिया को भूख, बेरोजगारी के दलदल में ढकेल दिया है. किसी भी देश में यकीनन अन्न की कमी नहीं है. हर पिछली फसल का असंख्य टन अन्न खुले आसमान में पड़ा सड़ रहा है. दुनिया भर में कहीं भी अन्न की कमी नहीं है. लेकिन अन्न होने का क्या मतलब है? उसको खरीदने के लिए लोगों के पास साधन होने चाहिए. वो साधन छिन गए हैं. क्रय-शक्ति नहीं है.
ये है विश्व का मूल संकट. इससे जुड़े हुए ही संकट हैं. जो मूल संसाधन हैं, जो लोगों की जरूरत पूरी करने के लिए पर्याप्त हैं. यदि इससे दुगुनी जनसँख्या भी हो जाए तो संसाधन इतने इफराद हैं. तब भी लोगों को भरपूर खाना-पीना मिल जाएगा. बशर्ते जो इस तरह से दुनिया हो गयी है. कुछ ही लोग चोटी पर हैं, जो संसाधनों को अपनी मुट्ठी में किए हुए हैं वो संसाधन.
अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: ‘आजादी बचाओ आन्दोलन’ के बारे में थोड़ा संक्षिप्त में हम जानना चाहेंगे कि कहाँ से इसकी शुरुआत हुई? कैसे आपने सोचा कि इस तरह का आन्दोलन होना चाहिए? किस तरह से ये दिमाग में आया कि एक लड़ाई शुरू करनी चाहिए और एक लड़ाई आपने शुरू की. साथ ही यह बताएँ कि यह मूलतः किन मुद्दों के लिए लड़ रहा है? और किन तरीकों से लड़ रहा है?
बनवारी लाल शर्मा: हममें से बहुत सारे लोग आरम्भ में गांधी के सर्वोदय में काम करते थे. लोगों की समस्याएँ, जमीन का बँटवारा आदि है. जय प्रकाश नारायण का जो आन्दोलन था, उससे गांधी के विचारकों को एक नया आयाम मिला. इसमें हमें सीधे संघर्ष करने का मौका मिला. हम उस वक्त विश्वविद्यालय में अध्यापन में थे. मगर पूरी तरह से आन्दोलन में सक्रिय थे. और अपने शहर के संयोजक भी थे. ये १९७४ का समय था उस समय हमारी आयु ३५-३६ बरस रही होगी. हमारा डेढ़ साल का एक बेटा भी था. उस आन्दोलन के बाद हमारे मन में बड़ी हताशा निराशा हुई कि किस तरीके से व्यवस्था बदलने के लिए आन्दोलन चला. हमने जयप्रकाश जी को मना किया था कि कोई पार्टी मत बनाइये. किन्तु शायद कोई विवशता रही होगी. इंदिरा गांधी को हटाने के लिए कोई तो राजनीतिक दल होना चाहिए. तो जनता पार्टी बनाकर के जो उनहोंने गंदे काम किए. सारे आन्दोलन को समाप्त कर दिया. आपस में लड़े. और फिर से वही पुरानी व्यवस्था आ गयी. इससे हम युवकों के मन में बड़ी हताशा हुई. तब हम कुछ आदिवासी क्षेत्रों में शंकरगढ़ की ओर काम कर रहे थे. एक दिन तमाम चीजों को लेकर सोचते-सोचते हम इस नतीजे पर पहुँचे कि देश में सारे साधन हैं, फिर भी यहाँ विपन्नता क्यूँ है? क्यूँ यहाँ के लोग इतनी दयनीय हालत में हैं? ५ जून १९८९ को मैं नया-नया गांधी भवन का औनरेरी डायरेक्टर बना था. वहाँ हमने एक मीटिंग बुलाई. ५ जून को हम लोग सम्पूर्ण क्रान्ति दिवस मनाते हैं. उसी दिन गांधी और जेपी ने पटना में घोषणा की कि सम्पूर्ण क्रान्ति के लिए आन्दोलन और पूरी व्यवस्था बदलनी है. तो तमाम बड़े-बड़े विद्वानों के बीच हमने एक ही सवाल रखा कि ऐसा क्यूँ है? तो सोचे-सोचते ख्याल आया कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि इस देश की संपत्ति और संसाधन बाहर जा रहे हैं? वहीं से माथे में खटका अरे! ये जो बड़ी कंपनियाँ हैं हिन्दुस्तान लीवर है, पेप्सी है, कोका कोला है, कहीं ऐसा तो नहीं है कि ये सब कंपनियाँ हमारे देश की संपत्ति संसाधनों पर कब्जा कर रही हैं? उस वक्त आजादी बचाओ आन्दोलन नहीं था. लोक स्वराज अभियान था. सेवाग्राम आश्रम में हमने दो वर्ष बाद १९९१ में एक राष्ट्रीय सम्मलेन किया. जिसमें शिक्षाशास्त्री, पर्यावरणविद, वकील, कुछ राजनीतिक दलों के लोग भी शामिल थे. इसमें आजादी बचाओ आन्दोलन नाम तय हुआ. हम लोगों को लगा कि ये जो भारत की कंपनियाँ हैं यही अंग्रेजों की नीति अपनाकर लूट की जमीन तैयार कर रही हैं. हमने जुलाई में एक प्रयोग किया इस समय हमें इस बात पर पूरी तरह से नहीं था. कि हमारी बात इन देशी कंपनियों के खिलाफ आन-आदमी सुनेगा. १९८९ में पहला प्रयोग हमने विश्वविद्यालय के छात्रावास केपीयूसी में किया. जोकि उस वक्त नामी हॉस्टल हुआ करता था. सबसे अधिक छात्र इसी हॉस्टल में रहते थे. हम वहाँ ८-९ जुलाई को गए भीषण गरमी के दिन थे दो घंटे हमने वहाँ व्याख्यान दिया. और छात्रों ने इन बुनियादी बातों, सवालों, समस्याओं को एकदम शांतिपूर्ण ढंग से सुना. और सभी छात्रों के बीच तय हो गया कि अगले रोज से यहाँ कोलगेट का ब्रश, और पेस्ट नहीं आएगा. धीरे-धीरे कोका-कोला पर भी नकारने का प्रयोग चला. हम लोगों का शुरू से लक्ष्य ये था कि जैसे अंग्रेजों के आने से, ईस्ट इंडिया कंपनी के आने से यहाँ पर राज्य उपनिवेशवाद बढ़ा. ब्रिटिश स्टेट कौलिनिज्म शुरू हुई. ठीक उसी पैटर्न पर उसके उत्तराधिकारी के रूप में अब राज्य उपनिवेशवाद नहीं, कॉर्पोरेट उपनिवेशवाद आ गया है. उस समय में ये धारणा हमारी पक्की हो गयी थी. क्योंकि अंग्रेजों ने भी संसाधनों पर धीरे-धीरे ही तो कब्ज़ा किया. १७५७ की प्लासी की लड़ाई से शुरू हुआ. १८५७ में पहला मुकम्मिल मौका मिला. सौ बर्षों तक कंपनी का राज रहा. अब विक्टोरिया का राज आया. हमको इसी तरह से लगा कि अब हमको कॉर्पोरेट उपनिवेशवाद से लड़ना है. ये आजादी की दूसरी लड़ाई है. हम लोग तो चाहते थे कि नई आजादी आन्दोलन इसका नाम रखा जाय. लेकिन सेवाग्राम में लोगों ने कहा कि आजादी कोई पुरानी नहीं होती है. जो भी है आजादी, उसको बचाने की बात करें. वही आजादी की नई लड़ाई होगी. तभी से बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खिलाफ, नीतियों के खिलाफ और उत्पादन के खिलाफ बहुत बड़ी मानव श्रंखला खड़ी की गयी. इतनी बड़ी मानव श्रंखला इतिहास में नहीं बनी थी. पहली बार सन २००१ में इलाहाबाद से बनारस, बनारस से जौनपुर, जौनपुर से इलाहाबाद तीन सौ किलोमीटर की मानव श्रंखला बनाई. जिसमें चार लाख विद्यार्थी शामिल थे. आँखों को विश्वास ही नहीं था. ये १ फरवरी २००१ की बात है. लोगों ने ये कहा कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के तीन जिले इन्होंने ले लिए हैं. यहाँ पर सबसे ज्यादा गरीबी है. वहाँ के लोग इनकी बातों में आ गए. जहाँ संपन्न इलाके हैं वहाँ आपकी बात कोई माने तो हम समझें. इसके बाद हम लोगों ने पश्चिमी उत्तर-प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और राजस्थान के ऊपरी जिले यानी दिल्ली से १०० किलोमीटर के दायरे में जितने भी जिले आये, तकरीबन २०-२२ जिले होंगे. हरियाणा से चार-पांच जिले थे, पश्चिमी उत्तर प्रदेश से सबसे अधिक जिले थे, दो जिले राजस्थान के थे, और दो जिले चंडीगढ व पंजाब के थे. बारह सौ किलोमीटर लंबी मानव श्रंखला हम लोगों ने बनाई. जिसमें दस लाख विद्यार्थी और गाँव वाले शामिल थे. अब तक हम लोग आठ-दस हजार स्कूलों में अपना सन्देश लेकर जा चुके हैं. तब से आन्दोलन चल रहा है. इधर ६-७ बर्षों से आन्दोलन में नए मोड़ आये हैं. लोगों को बड़े पैमाने पर जानकारी दी जा रही है. और देश में कोई संगठन नहीं है जो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विरुद्ध बात कर रहा हो. पहले-पहल लोग हमारा मजाक उड़ाते थे कि क्या बहुराष्ट्रीय कंपनी, अरे ! बढ़िया सामान मिलता है. यहाँ के लोग तो ठग हैं. वो लोग हमारे देश में जब आते हैं अच्छी तकनीक उपलब्ध कराते हैं. लोगों को रोजगार मिलता है. ये सारी बातें हमें खूब लोग-बाग सुनाते थे. लेकिन धीरे-धीरे हम लोगों ने तर्क दिया, विचार जोड़े. अब २०-२२ साल में इतना तो हो ही गया है कि लोग ये मानने लगे हैं बहुराष्ट्रीय कंपनी एक गंभीर मुद्दा है. हम कल अगर बहुराष्ट्रीय कंपनी को रोक लें तो भी हमारी समस्या हल नहीं होगी. जाति प्रथा जो हमारे देश में है, क्या वो हल हो पाएगी? जेंडर प्रॉब्लम है, क्या ये खत्म हो जायेगी? क्या ये धर्म के कट्टरपंथी विचार, कार्य खत्म हो जायेंगे? जो क्षेत्रीय विषमताएं हैं क्या वो खत्म हो जायेंगी? ये जो आपसी लड़ाइयाँ हैं खत्म हो पाएंगी? एक बड़ी श्रंखला है जिनके हाथ में कोई रोजगार नहीं है. क्या ये खत्म हो जाएगा? नहीं होगा. लेकिन हम ऐसा मानते हैं कि ये एक भी समस्या हल नहीं होगी, जब तक ये बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ रहेंगी. मैं विस्तार में नहीं जाना चाहता. इन समस्याओं को बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ बल दे रही हैं.
अगला कदम हम लोगों ने यह उठाया जिसमें हम लगे हुए हैं कि जो संसाधन हैं, उन पर बहुर्राष्ट्रीय कंपनियों को हटाओ. लेकिन किसको लो? आखिर शक्ति और निर्णय की क्षमता तो होती है- सरकार के हाथ में, और सरकार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की एजेंट बन गयी है. किसी भी पार्टी की सरकार हो. अति दक्षिणपंथ से वामपंथ तक जितने भी दल हैं. बहुराष्ट्रीय सरकारें बहुराष्ट्रीय कंपनियों के चंगुल में आ गयी हैं.
अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: क्या आप समें एक्सट्रीम लेफ्ट को भी कह सकते हैं?
बनवारी लाल शर्मा: कह सकते हैं, जो सत्ता में हैं. ये नहीं, कि जो राजनीतिक दल मैदान में लड़ रहे हैं. मैं इनकी बात नहीं कर रहा हूँ. पश्चिम बंगाल को आप देख लीजिए, केरल को देख लीजिए, इन्हें आप एक्सट्रीम लेफ्ट न कहके लेफ्ट कह सकते हैं. लेफ्ट-राईट सभी कारपोरेट के चंगुल में फँस गए हैं. अब तक दो व्यवस्थाएँ पूरी दुनिया में चलीं- एक पब्लिक सेक्टर, दूसरी प्राईवेट सेक्टर. हम लोगों ने सोचा कि लोगों के लिए तो दोनों व्यवस्थाएँ निकम्मी साबित हुईं. ये लोग तो आक्यूपाई वालस्ट्रीट के लिए लड़ रहे हैं. और एक सेक्टर को हमने अपने देश में देखा. सोवियत रूस में देखा. पब्लिक सेक्टर के लोग तो पूरी तरह से भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैं. अतः हमारा मानना है कि आज के युग में वही सेक्टर चलेगा, जो है पीपुल सेक्टर. या कहें कि कम्युनिटी सेक्टर. ये जो कम्युनिटी है, जो आम जन हैं. व्यक्ति नहीं, लोगों के समुदाय, उनके हाथ में संसाधन जाने चाहिए. उसका प्रयोग अपने हितों विकास के लिए, बुनियादी जरूरतों के लिए, करना चाहिए. हम तीन-चार जगह प्रयोग कर रहे हैं. झारखंड के हजारी बाग जिले में सुन्दर इलाका, चारों ओर पहाडियाँ हैं , पानी की वहाँ बहुतायत है. वहाँ सामान्य स्थिति के लोग हैं. बहुत अमीर नहीं हैं. गरीबी ज्यादा है. लेकिन वो किसी तरह से अपनी गुजर कर रहे हैं. वहाँ जमीन के बीच कोयला निकल आया तो सरकार ने पैंतीस कंपनियों को ठेका दे दिया. लाइसेंस दे दिया. जिसमें अमरीकी कंपनियाँ, एनटीपीसी है, आस्ट्रेलिया की कंपनियाँ हैं. उन्होंने कहा कि जगह का मुआवजा लोग लें और यहाँ से हटें. सात साल से हम लोग वहाँ झंडा गाड़े हुए हैं. कोई जमीन नहीं देगा. किसी कंपनी को काम नहीं करने दिया जाएगा. वहाँ सरफेस माइनिंग है और लोगों ने हाथ में कोयला लेकर के संकल्प लिया कि जमीन हमारी है, कोयला हमारा है, इस पर बाहरी किसी आदमी का अधिकार नहीं है. न सरकार, न अन्य बहुराष्ट्रीय कंपनियों का. इस जमीन से कोयला हम निकालेंगे. बिजली हम बनाएंगे. हम लोग वहाँ थर्मल पावर प्लांट भी लगा रहे हैं. लोगों की मलकीयत में, देश में ये पहला प्रयोग होगा. कि लोगों की मालकियत में पचास मेगावाट का प्लांट लगाया जा रहा है. इसके पहले भी छोटे-छोटे यानी पचास किलोवाट के उससे भी छोटे प्लांट लगाए जा चुके हैं. हम भले ही थर्मल पावर प्लांट के समर्थक नहीं हैं. उसके विरुद्ध हैं. ठीक है, मगर ये दिखाने के लिए कि वहाँ इसी काम के लिए पैंतीस कंपनियाँ आ रही हैं. और हम बिना किसी सरकार की सहायता के बहुराष्ट्रीय कंपनी के सहयोग के भी थर्मल पावर प्लांट लगा सकते हैं. व्यवस्था को सुचारू तरीके से चला सकते हैं.
अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता क्या उस कम्युनिटी में ये ताकत है कि वो इसे कर सके?
बनवारी लाल शर्मा: हाँ बिकुल है, तभी तो सरकार को ये चुनौती दे रहे हैं. फिर हम सौरी ऊर्जा से बनाएंगे, बायो मॉस से बनेंगे. हमारे पास अन्य तमाम साधन हैं जिन पर हमें पूरा यकीन है बिजली न्यूक्लियर या थर्मल से बने ये हमारा विश्वास नहीं है. लकिन यहाँ तो एक टक्कर देना है. कि तुम कहते हो ये गाँव के लोग अनपढ़, अकुशल, पिछड़े हैं. हम कहीं से भी पिछड़े कतई नहीं हैं. हम लोग जानकार हैं, हमारी अपनी एक समझदारी है. यही हम सरकार को दिखाने के लिए यह प्लांट खुद लगाने जा रहे हैं. अब यकीनन मालकियत का सवाल है. बहुराष्ट्रीय कंपनियों को देश के बाहर करो. सरकार को हटाओ. और जन-जन की मल्कियत के संसाधन हों, उनकी वही पूँजी हो, इसका उपयोग कैसे हो? इसका निर्णय का अधिकार भी उनके ही पास हो.
अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: जिस विषय पर आप चर्चा कर रहे हैं भारत के जो मूलभूत संसाधन हैं जिन पर मल्टीनेशनल का कब्जा होता जा रहा है
बनवारी लाल शर्मा: मल्टीनेशनल (देशी-विदेशी दोनों). मल्टीनेशनल की कोई राष्ट्रीयता नहीं होती है.
अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: इस देश के भीतर तमाम आन्दोलन चल रहे हैं, ऐसे जोकि संसाधनों पर कब्जे के खिलाफ हैं. छत्तीसगढ़, बस्तर, उडीसा आदि जगहों पर चल रहे हैं. जहाँ पर लगातार इस बात के लिए, जो वहाँ के मूल निवासी हैं, जो पिछड़े हैं, ये स्वाभाविक बात है जहाँ इस तरह के संसाधन हैं, वो गाँव-देहात के क्षेत्र हैं, वहाँ शिक्षा-स्वास्थ्य नहीं है. जब शहरों में पूरी तरह से नहीं हैं तो वहाँ कैसे होंगी? ऐसे में जो भी संसाधन हैं लोगों के पास, उनमें उनकी इतनी समझदारी है कि उनके पास जो कुछ भी है वो ही एकमात्र संपत्ति है, उस संपत्ति को बचाए रखने के लिए भले ही सरकार न लड़े. मगर लोग लड़ रहे हैं. जैसे उड़ीसा में ये आन्दोलन लगातार चला कि हम कोयला किसी को नहीं देंगे. कारण था मल्टीनेशनल वहाँ का समूचा कोयला खोदकर लिए जा रहा है. और बेहद नाममात्र की लीज पर, या नाममात्र पैसे का लाइसेंस फीस पर वो लोग ले जा रहे हैं. ऐसे ही लोहे की बात है. ऐसे ही तमाम संसाधनों की बात है. खनिज की बात है. लोग हर जगह इन्हें बचाने के लिए लड़ रहे हैं. और आपको बता दें कि अपने बचाव में उन्हें सरकार क्या दे रही है आखिर ? आपको तमाम आन्दोलनों की जानकारी है कि आन्दोलन कई नाम पर तोड़े जा रहे हैं. दमन किया जा रहा है. कहा जा रहा है कि आदिवासी तो हथियार उठा रहे हैं, आदिवासी मार रहे हैं, आदिवासी गलत तरीके से हिंसात्मक रवैये अपना रहे हैं. और कुल मिलाकर के मुद्दा चाहे जो भी हो, लेकिन जो लोग लड़ रहे हैं उनका दमन करके, और संसाधन मल्टीनेशनल के हाथ में दिए जा रहे हैं. हम आपसे जानना चाहते हैं कि जहाँ इस तरह के आन्दोलन हैं जिन पर हिंसा दमन सरकार की ओर से किया जा रहा है. ऐसे आन्दोलनों के बारे में आपकी क्या राय है?
बनवारी लाल शर्मा: देखिये ऐसे आन्दोलनों में कहीं-कहीं कई विषंगतियाँ हैं. जोकि आन्दोलन के लोग खुद स्वीकार करते हैं. लेकिन मूलतः उनकी लड़ाई जो खासतौर पर आदिवासियों के संसाधन हैं उनको बचाने की है. ये जो हिंसा का चक्र है वो कुछ ऐसा है, जैसी आज व्यवस्था है. जिसे सरकार चला रही है वो हिंसा उत्पन्न करती है. इसकी प्रतिक्रया में दो तरह के आन्दोलन खड़े हो गए हैं. एक तो यह है कि हिंसा का जवाब हिंसा से दिया जा रहा है. और दूसरा सरकार द्वारा हिंसा का जवाब अहिंसा से दिया जा रहा है. कि चाहे हमें जान से मार दो हम ये संसाधन किसी दमनकारी शक्ति को नहीं देगे. ये जो हिंसक अहिंसक प्रतिकार हो रहा है ये जो व्यवस्था में हिंसा भरी हुई है, जहाँ लूट होती है , जहाँ संसाधन छीने जाते हैं, वहीं हिंसा है. उसी को हम हिंसा मानते हैं. ये दूसरी बात है कि `कोई एक तरह के आन्दोलन तो कोई दूसरी तरह के आन्दोलन में भरोसा रखता है. लेकिन जरूरत है उसके आगे कदम उठाने की. कारण है जब हम लोग प्रतिकार करते हैं तो सरकार अपने प्रचार-तंत्र से ये प्रदर्शित करने की कोशिश करती है कि देखिये, ये विकास विरोधी है. ये देश को तेरहवी-चौदहवीं शताब्दी में ले जाने वाले लोग हैं. अगर हमारे यहाँ से कोयला नहीं निकलेगा, बिजली नहीं बनेगी, लोहा नहीं निकलेगा, बाक्साइड नहीं निकलेगा तो हमारी औद्योगिक वृद्धि कैसे होगी? आजकल विकास का पैमाना ग्रोथ यानी वृद्धि हो गया है. जीडीपी बढ़नी चाहिए. ये हमारी मान्यता है कि जीडीपी चाहे जितनी बढ़ जाए, इससे आम लोगों पर उनकी जीवन शैली पर, कोई प्रभाव नहीं पडेगा. एक शराबखाना बनाने से भी जीडीपी बढ़ सकता है लेकिन उससे देश तो बर्बाद हो जाएगा. कई देश हैं जिनके जीडीपी बहुत अच्छे हैं आम आदमी की हालत बहुत खराब है. कुछ देश हैं जिनकी जीडीपी बहुत खराब है लेकिन उनके आम आदमी बड़े आराम से ज़िंदगी जी रहे हैं. ये जो जीडीपी का पागलपन है. उसका प्रचार किया गया है. पढ़े-लिखे लोगों में यही धारणा बन रही है कि जीडीपी बढ़ेगा तो देश तरक्की करेगा. लोगों की सहानुभूति अभी इन आन्दोलनों में पूरी तरह से नहीं है. एक प्रचार-तंत्र का अभाव, सूचना-प्रसार की कमी, दूसरा विकास के मार्ग में बाधक बनाने वाले तर्क. एक तो आम जन को यह समझाने की जरूरत है कि सीमित क्षेत्रों में संसाधन कंपनियों के हाथ में देकर वृद्धि जरूर हो जायेगी. लेकिन लोगों की खुशहाली नहीं आ पायेगी. दूसरा जो बड़ा कारण है वो यह कि विकल्प खड़ा करना चाहिए. शंकर दोआनोव से मेरी मुलाक़ात नही हो सकी जिस वक्त मुझे उनसे मिलने जाना था उनकी ह्त्या हो गयी. शंकर दोवानोव एक अच्छी बात कहता था कि संघर्ष के साथ निर्माण बहुत जरूरी है. गांधी ने भी उस जमाने में , जब लोगों के पास कोई सहारा नहीं था. एक चरखा और तकली देकर सूट काटने का जज्बा दिया अगर देखें तो इस चरखा तकली से क्या होता है मगर कोई ये सोचे कि उसमें यह बात निहित थी कि हम अपना थोड़ा बहुत काम कर सकते हैं. कम से कम हम एक कतरन सूट का कपड़ा तो हाथ से बना ही सकते हैं. जबकि अंग्रेजों का बना हुआ माल हम नहीं लेंगे. इस संघर्ष को टिकाए रखने के लिए निर्माण बहुत जरूरी है. इसलिए जो हिंसा में विश्वास रखने वाले जमीनी संघर्ष कर रहे हैं. उनको भी और जो अहिंसक तरीके से जैसे ‘आजादी बचाओ आन्दोलन’ काम कर रहा है. उनको भी ये जरूरी है कि लोगों के सामने विकल्प आये. तब आम जन कहेगा कि ये निर्माण के विरोधी नहीं हैं, निर्माण खुद चाहते हैं. इसीलिए हम लोग हजारी बाग में लोगों की कंपनियाँ बनाकर स्वयम सरकार का मुंह बंद कर देंगे. किसी भी बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनी को घुसने नहीं देंगे. भले ही हमारी छोटी कंपनी है, मगर रजिस्टर्ड है. कंपनी अंतिम लक्ष्य नहीं है. ये सिर्फ अभी बीच का एक रास्ता है अंत में इस पर और भी शोध करने की जरूरत है. लेकिन जो हमारे माओवादी क्षेत्र हैं वहाँ भी थोड़ा सा मैं कहूँगा कि वो विकल्प खड़ा करें. केवल रोकने से बात नहीं बनेगी. लोगों को भरोसा दिलाना होगा.
अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: मैंने तो सुना है कि विकल्प खड़े हो रहे हैं माओवादी छोटे-छोटे बाँध बना रहे हैं , छोटे-छोटे तालाब बना रहे हैं ,अस्पताल की बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध करा रहे हैं, पढ़ाई करवा रहे हैं?
बनवारी लाल शर्मा: ये सब तो ठीक है, किन्तु मुद्दा है कि कमाई होनी चाहिए. गाँव के आदमी को केवल पढ़ाई नहीं चाहिए. अस्पताल की सुविधा बाद में चाहिए. उसको पहले रोटी चाहिए. काम चाहिए. हम लोग भी कह रहे हैं- वही बात, मल्टीनेशनल भी कह रहे हैं. कि वो हमें रोजगार के साधन मुहैया करायेंगे. कि अस्पताल बनवा रहे हैं. सड़कें बनवा रहे हैं. स्कूल खुलवा रहे हैं, ये सारी चीजें तो बाद की हैं. यहाँ तो लोग भूखों मर रहे हैं. उन्हें रोजी रोटी चाहिए. लोगों के पास यदि संसाधन की ताकत होगी तो वो खुद ही अपने लिए स्कूल, अस्पताल खोलेंगे. ये कंपनियाँ और सरकार तो उन्हें दबाये रखना चाहती है. उन्हें तोड़ना चाहती है.
अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: ये जो आप कह रहे हैं कि हिंसा का जवाब हिंसा से देने वाले, थोड़ा सा हम इसमें यह जानना चाहेंगे, जो हमने सुना है कि अपने ऊपर जो हिंसा हो रही है उसको रोकना संभव है?
बनवारी लाल शर्मा: मैंने कहा न, कि ये व्यवस्था हिंसा पैदा कर रही है.
अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता जैसे ये पीएसी पूरी की पूरी गाड़ियां गोले बारूद से भरी उस क्षेत्र में घुसेड़ रहे हैं, इसके लिए स्पेशल टास्क फ़ोर्स बने हुए हैं. उनकी गाड़ियां बाकायदा मशीनगनों के साथ गोले-बारूद, लादे उन क्षेत्रों में क्या करने जाती हैं? और जब आदिवासी इन्हें क्षति पहुंचाते हैं तो खबर आती है कि इतने सैनिक पुलिसबल के जवान आदिवासियों द्वारा मार दिए गए. लेकिन मेरा सवाल है कि ये इतने हथियारबंद दस्ते वहाँ क्या करने जाते हैं?
बनवारी लाल शर्मा: दरअसल ये सब एक चक्र बन गया है ये जो व्यवस्था का दुष्चक्र है. यही हिंसा पैदा कर रहा है. और प्रतिक्रया में हिंसा होती है. अब ये समझना मुश्किल है कि ये मूल हिंसा की प्रतिक्रिया की हिंसा है. ये स्वयं में हिंसा नहीं है. ये खालिस प्रतिक्रया की हिंसा है. तो प्रतिक्रया की हिंसा को रोकने के लिए जो मूल हिंसा है उसे आप समाप्त कर दीजिए व्यवस्था को बदली, लोगों के अधिकार लोगों को दीजिए तो कौन भला बंदूक उठाएगा. ये बंदूकें गिर जायेंगी. लेकिन वो हो नहीं रहा है. ये जितने भी माओवादी क्षेत्र है, ये वो क्षेत्र हैं जो सबसे ज्यादा भुखमरी के मारे हैं. जहाँ मल्टीनेशनल कम्पनियाँ घुस चुकी है. उनकी संख्या और माओवादियों की संख्या में सम्बन्ध है. अगर आप संसाधनों का अवैध खनन बंद कर दें. तो ये हथियार अपने आप गिर जायेंगे. वो न करके, इस प्रतिक्रियावादी हिंसा को कानून और व्यवस्था के विरुद्ध की हिंसा मानकर के सरकार दूसरे तरह की हिंसा करती है. इसलिए ये हिंसा से शुरू हुआ और फिर यहाँ हिंसा पर ही जाकर के खत्म होता है. यही क्रम टूटना चाहिए. इसीलिए सन २०१० में हम लोगों ने बड़े-बड़े विद्वानों को लेकर के दंतेवाडा तक गए और यही कहा कि ये जो सरकारी मूल हिंसा है, इसे बंद होना चाहिए. लोगों के जो संसाधन हैं वो लोगों के हाथ में जाने चाहिए. यही सन्देश हमने दिया. हमारा खूब विरोध हुआ. इन कांग्रेसियों ने और भाजपा के लोगों ने जमकर विरोध किया.
अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: एक चीज ये भी कही जाती है कि जहाँ पर लोग लड़ रहे हैं. प्रचार-तंत्र उनके खिलाफ चुन-चुनकर बोलते हैं. यानी जिसके खिलाफ जो भी बोला जा सकता है, वो बोलकर के असली लड़ाई लड़ने वाले लोगों को बदनाम करते हैं. जैसे गांधीवादियों के लिए वो लोग कहते हैं कि अब ये प्रासंगिक नहीं है. आपका क्या विचार है?
बनवारी लाल शर्मा: अब तो ये लोग गांधीवादियों को भी माओवादी कहने लगे हैं.
अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: जैसे ये प्रचार तंत्र कहता है कि ये तो पिछड़ी सदी में ले जायेंगे. ये दरिद्र मानसिकता से भरे हुए लोग हैं. अब तो समाज में विकास के नए-नए संसाधन, वस्तुएँ, उत्पादन हो चुके हैं. माओवाद ह्त्या और आतंक में विश्वास रखता है. दूसरी चीज ये है कि हम जब पहले लड़े थे – गांधीवादी तरीकों से कि ठीक सामने हम आपके सीना खोलकर खड़े हैं. आप गोली चला देंगे तो हम सह लेंगे, लाठी खाने को हम सामने खड़े हैं. लेकिन किन सरकारों से ऐसे लड़ें. क्या सरकारों में इतना नैतिकता-बोध बचा है ? क्या वो अपने लोगों पर लाठियाँ, गोलियाँ नहीं चलाते? लखनऊ में दृष्टिहीनों का प्रदर्शन हुआ था उस पर भी दमन के लिए हथियार उठाये गए.
बनवारीलाल शर्मा: मुझ जैसे आदमी ने भी तमाम बार लाठियाँ खाई हैं. टेहरी बाँध पर जब बाँध बन रहा था, जुलूस ले जाया गया. वहाँ हमने यही कहा कि अगर हमने कुछ गलत किया तो हमें गिरफ्तार करो. उन लोगों ने गिरफ्तार न करके लाठी मार-मार करके तमाम युवा साथियों को लहुलुहान, अधमरा करके छोड़ा था.
अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: जैसे गांधीवादी तरीका तो यही है कि नैतिक रूप से सरकार, तंत्र, व्यवस्था को झुकाया जाय. उसे थोड़ा शर्म महसूस हो, उसे थोड़ी लज्जा आये, लेकिन क्या सरकारों में ज़रा भी शर्म बची है?
बनवारी लाल शर्मा: हमें ऐसा लगता है कि हृदयहीन सरकारें हैं, हिंसक सरकारें हैं. लोगों की ताकत उनकी सांगठनिक एकता में है. संयम और संघर्ष में है. आम आदमी और भूख से मर रहे लोगों की ताकत बंदूकें कैसे हो सकती हैं? कहाँ से वो बंदूकें खरीदेगा? खाने को तो है नहीं – बंदूक कहाँ से आयेगी. उड़ीसा में एक माँ निहायत छोटी उम्र के बेटे (जिसका नाम गणेश है) को एक हजार रुपये में बेंच रही थी. वो यह कह रही है कि मेरे साथ रहकर मेरा गणेश भूखा मर जाएगा. हजार रुपये में तो थोड़ा खाना-पीना घर में आ जाएगा. और गणेश को जो भी ले जाएगा उसे खिलाएगा-पिलाएगा. जिस देश में ऎसी स्थिति हो, वहाँ माओ की बात इस तरह से नहीं चलेगी कि सत्ता बंदूक की नली से निकलती है. तो जो बंदूक लेगा वो आम आदमी नहीं हो सकता. ऐसा इतिहास में हुआ है. जिन्होंने बंदूक उठाई उनकी एक अलग ही मुख्य-धारा से हटकर पहचान बनी है. वो तरीका ढूँढना चाहिए जोकि आम आदमी की ताकत को बढाए. इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिए कि आज की जो भी सरकारें हैं ये बड़ी नृशंस हैं. ये कुछ नहीं कर सकती हैं. अमरीका ने ईराक में क्या किया? कह दिया कि ये तो अपराधी हैं. कानून और सरकार को इसे फांसी पर चढ़ा दिया जाना चाहिए. लेकिन जब ये माओवादी तैयार हों तभी लोकशक्ति बढ़ेगी. क्योंकि बंदूक उठाने से इस दमनकारी तंत्र की ताकत बढ़ती है.
अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: अभी तो स्थिति ये है कि सद्दाम लड़ा इसलिए मारा गया. लादेन नहीं लड़ा तो भी मारा गया. सईद हाफिज वहाँ पर बैठा है तो भी मारा जाएगा. मतलब जो लोग लड़ेंगे वो भी मारे जायेंगे, जो नहीं लड़ेंगे वो भी मारे जाएंगे?
बनवारी लाल शर्मा: देखिये, लड़े तब भी मारे जाएंगे. न लड़ें तब भी मारे जाएंगे. क्योंकि व्यवस्था का अभिशाप हमको भुगतना पडेगा ही. मैं कल की मीटिंग में यही कह रहा था कि जेल और मौत से डरो नहीं. तभी आप व्यवस्था से लड़ पाएंगे. वो लोग जो मारे गए, वही रास्ता भी निकाल सकते थे. मगर हुआ क्या? आखिरकार वो मारे गए. हम लोगों को भी जान देनी पड़ेगी. उससे बचने का उपाय नहीं है. लेकिन बंदूक से ही हम लड़ पाएंगे ऐसा कुछ लोगों को लग सकता है. हम ये नहीं कहते कि वो गलत हैं लेकिन ऐसा हमको नहीं लगता है. हजारों गरीब और कमजोर पसलियों के ढांचे भरी औरतें, बूढे, भला ये बंदूकें कैसे उठाएंगे. उनके लिए ताकत लोगों का हौसला है. सत्ता जो चाहे करे. हमने एक जगह देखा कि जनसभा में जनता चारो ओर से घेरकर अपनी बात कह रही थी. वहाँ भीड़ में खड़ी एक महिला की अधिकारी से झड़प हो गयी और अधिकारी ने उसे अपशब्द बोल दिया. उसके बगल में एक कम उम्र लड़की खड़ी थी उसने तपाक से एक झापड़ अधिकारी को रसीद दिया. दरोगा दौड़ता हुआ आया और उस लड़की को दो थप्पड़ जड़ दिए. उसके बगल में खड़ी महिला को डांटना चाहिए और तुम हमें डाट रही हो. उस वक्त तमाम पुलिसवाले और अधिकारी भीड़ का तनाव देखकर भाग खड़े हुए. करीब आधी रात को गाँव में घुसकर पुलिस ने चार युवाओं को उठा लिया जैसे ही पूरे गाँव में खबर फैली. दो घंटे के अंदर ही चक्का जाम कर दिया. हम उस समय इसी काम के लिए मौजूद थे. हम चुपचाप पीछे से जाकर देख रहे थे एक महिला खड़ी हुई और बोली- चार लड़कों ने जो अपराध किया इसीलिए आपने पकड़ा है. वो अपराध हम सबने किया है. हम जमीन नहीं देंगे. सुन लीजिए, आपके कानून की खिलाफत हम कर रहे हैं. चार वो ही नहीं हम सभी को जेल ले जाओ. बुलाओ अपनी गाड़ियां. मैंने देखा वो भली महिला मालूम पड़ती है. जिसने सिविल ओबिडीएंस कभी नहीं सुना. लेकिन सिविल लॉजिक दे रही है. कि हम नही देंगे अपनी जमीन. तमाम सारे लोग वहाँ यही कह रहे थे कि हम कोयला नहीं देंगे अगर तुमको लगता है. ये गलत है तो हमें भी गिरफ्तार कर लो. यही भाषा लोगों को सिखानी होगी. जब ये भाषा लोगों में आ जायेगी तो बड़ी से बड़ी हिंसक ताकतें भी झुक जाएंगी.
अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: आपको क्या लगता है आगे आने वाले समय में चूंकि लड़ाई की शुरुआत हो चुकी है, तमाम जगहों पर लड़ाई चल रही है और जब से आजादी मिली है तब से जनता की लड़ाई कभी रुकी नहीं. आने वाले समय में क्या कोई ऐसा संघ बनेगा, जो तमाम लोग काम कर रहे हैं आजादी बचाओ आन्दोलन की तरह. या जो जनपक्ष के आन्दोलन हैं. जनता के अपने आन्दोलन हैं. क्या उनका कोई एक संघ बन पाएगा?
बनवारी लाल शर्मा: अभी और थोड़ा सा समय लगेगा. अभी अपने देश की कुछ मनोवैज्ञानिक कठिनाइयाँ हैं. हमारे देश में हमारी अपनी व्यक्तिगत कमजोरियाँ हैं. अगर आजादी बचाओ आन्दोलन को छोड़ दीजिए तो भी बहुत सारे जनपक्षीय संगठन हैं जो इन मुद्दों को उठा रहे हैं. अगला कदम भले ही न तय कर पा रहे हों. अभी थोड़ा और अधिक दमन होगा, दमन के बाद फिर लोग मिलेंगे, उसमें सरकार तो बाधक रहेगी. लेकिन ये जो एनजीओ हैं ये बहुत बाधक बनेंगे. और बहुत ज्यादा नुकसान करेंगे. क्योंकि ये जितने भी जनपक्षीय आन्दोलन हैं इनके पास पैसा तो होता नहीं है. क्यों ? क्योंकि सरकार और पूँजीवादी ताकतों से लड़ने के लिए आपको पैसा कैसे मिलेगा? हम लोगों को ही बहुत आर्थिक संकट रहता है. ऐसे में लोग तमाम बार एनजीओ का साथ ले लेते हैं. कहीं न कहीं से देसी विदेशी पैसा भी इकट्ठा कर लेते हैं. उसकी वजह से वो धारदार आन्दोलन नहीं बन पा रहा है. थोड़ा सा दमन और होगा. जिसमें एनजीओ वगैरह भी छंट जायेंगे या भाग जायेंगे. जो सचमुच लड़ाकू होंगे वो लड़ेंगे. ऐसे लोगों को साथ में लेकर चलने के लिए हम लोग भी एक समन्वय बनाकर आगे लड़ाई ले जाना चाहते हैं. हम एक संघ बनाने की बात नहीं करते. मगर एक समन्वय बने. वही मनोवैज्ञानिक कठिनाई को ध्यान में रखते हुए हम जबरदस्ती दूर नहीं कर सकते. सभी अपना-अपना आन्दोलन चलाएं और जनता के मुद्दों को लेकर आगे जाएँ. लेकिन कुछ मुद्दों को लेकर हम, सभी को एक साथ लड़ाई लड़ने को प्रेरित करते हैं.
अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: सबसे बड़ी उम्मीद क्या लगती है?
बनवारी लाल शर्मा: यही उम्मीद है कि चार-पांच साल के भीतर ही एकदम बदलाव आ जाएगा. अब बहुत ज्यादा समय नहीं रह गया है. अब हमें लोगों को समझाने की जरूरत नहीं पड़ती. अब तो एक्शन की जरूरत है. कि हम इस व्यवस्था में बदलाव लाकर दिखाएँगे. हम अभी उत्तराखंड में लगे हुए हैं. कि बड़े बाँध न बनने देंगे. गाँव के लोग वहाँ खूब इस बात से राजी हैं. हमारा लक्ष्य है कि गाँव-गाँव में बिजली हो. सरकार की बनाई हुई बिजली नहीं चाहिए. हमारे पास पूरा मॉडल तैयार है. उसको थोड़ा समझने की जरूरत है. ये जो पूरा मॉडल चल रहा है उसके केन्द्र में उद्योग है. उद्योग के चारों तरफ हथियार उद्योग है. बड़े-बड़े उद्योग चूंकि बिना हथियारों के चलते नहीं. और इस पूरी व्यवस्था की रक्षा के लिए राज्य और सेना लगी हुई है. यदि उद्योग को कोई ज़रा भी नुकसान करने की कोशिश करता है तो केन्द्र या राज्य तुरंत हथियारबंद दस्ते वहाँ भेज देती है. हम लोगों का लक्ष्य है कि केन्द्र में कृषि हो. उसके साथ जुड़े हुए छोटे-छोटे उद्योग होंगे. छोटे-छोटे उद्योग मसल पावर से नहीं चलेंगे. उसके लिए बिजली चाहिए. और बिजली के संसाधन हमारे पास बिपुल मात्रा में हैं. इसको छोड़कर के हमारे पास बायो-मॉस सबसे ज्यादा है. सौर-ऊर्जा, पवन ऊर्जा, पहाड़ों से पानी और समुद्र किनारे नहरों से पानी लेकर तमाम बुनियादी जरूरतें आसानी से पूरी की जा सकती हैं. जैसे तमाम गाँव खाने की व्यवस्था के लिए आत्मनिर्भर हैं. वैसे ही बिजली सबसे बड़ी ताकत होगी.
© 2012 Banwari Lal Sharma; Licensee Argalaa Magazine.
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