इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका
अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: हम आपको ध्यान दिलाना चाहेंगे कि अन्ना के आन्दोलन में दो चीजें हुईं- एक, अन्ना और उनके सहयोगी मिलकर के काम कर रहे थे. दूसरा ये जो लोग उनके साथ में आये कई लोग ऐसे थे जो अन्ना को नहीं जानते थे. आप भी शायद इसके पहले नाम नहीं जानते रहे होंगे हम तो बिलकुल भी नहीं जानते थे. छोटे-छोटे पर्चे बांटे गए थे कि अन्ना कौन हैं. उसमें कुछ पंक्तियों में आना का परिचय था. और सबसे बड़ी बात ये पर्चे बड़ी संख्या में बांटे गए थे जो भी एनजीओ इसमें शामिल हैं उनहोंने बड़े स्तर पर यह प्रचारित किया इससे आपका अंतर्विरोध भी हो सकता है कि एक व्यक्ति को बाकायदा खड़ा किया गया. अन्ना राजनीतिक रूप से प्रबुद्ध व्यक्ति नहीं हैं कई बार उनहोंने ऐसे बयान दे दिए कि उनकी टीम को बचाव करना पड़ा. हमें लगता है कि अन्ना को जिस तरह खड़ा किया गया उसके पीछे तमाम शक्तियाँ शामिल थीं. अन्ना उनके लिए एक प्रतीक मात्र थे. जनता के लिए उनहोंने संघर्ष किया है. ऐसे लोग कम ही देखने को मिलते हैं और इस तरह के लोग तो और भी कम देखने को मिलते हैं जो दूसरों के लिए काम करने को तैयार हों. कई बार अन्ना जैसे बुजुर्ग को ये भी लग सकता है कि जो छवि इन सत्तर बरसों में बनाई है वो एक गलती से कहीं धूमिल न हो जाये. इसके बावजूद भी अन्ना ने तय किया कि वो ऎसी टीम में शामिल होंगे जो ठीक अन्ना के पीछे लगी थी और बेहद मजबूत थी. जिसमें अगर आप देखें अन्ना की ताकत सबसे कम थी. टीम में जो लोग शामिल थे उनके एनजीओ भारत भर में फैले हुए हैं. यहाँ पर भी हमने देखा कि जो लोग एनजीओ में कार्यरत हैं उनके पास से हमारे पास बाकायदा बुलावे आये. हमें अन्ना ने नहीं बुलाया था. लेकिन एनजीओ की ताकतें जो उस एनजीओ में लगी थीं उनहोंने बुलावा भेजा था. देश भर से तकरीबन ३६० एनजीओ इस कार्यक्रम में सक्रिय रूप से शामिल थे. यह आन्दोलन एनजीओ समर्थित और एनजीओ पोषित तरीके से चलाया गया. आप भी उसमें शामिल हुए थे तो आप बताएं की यह जन-आन्दोलन होने की बजाय एनजीओ का प्रोजेक्शन योजना एजेंडा था ? एक चीज और कि जो लोग इस आन्दोलन में साथ आये वो वास्तव में पीड़ित लोग थे. ठीक इसी समय में तमाम झूठी आवाजें भी सुनाई देती हैं. लोगों को इसी बात से लगा कि शायद अन्ना आन्दोलन में कुछ तो राहत मिलेगी. लोग इसी से साथ में इकट्ठे हुए. लोग वास्तव में इतनी पीड़ा और दंश झेल रहे हैं कि उसका कोई सही निदान अभी तक नहीं मिल पाया है. हाँ इतना जरूर है कि आन्दोलन वही चल पाया जिसमें मुखिया की छवि खराब नहीं रही. ये बात और है कि मायावती और मुलायम की जन-सभा में लोग जुटते हैं शायद कभी कोई इस रोजमर्रा की पीड़ा से निजात दिलाए. मगर जहाँ उन्हें जरा भी लगता है कि उनके इस मर्ज़ की दवा वहाँ मिल जायेगी और खर्चा कुछ नहीं होना है तो लोग वहाँ इकठ्ठा हो ही जाते हैं. इस हद तक लोग परेशान हैं. लोगों का जाना इस बात का सूचक है कि वो हद से ज्यादा आहत, पीड़ित, परेशान हैं. और बहुत जबरदस्त भ्रष्टाचार है. ये आन्दोलन तकरीबन दस बारह दिन का मामला था. लोगों का हुजूम बना रहा. ज़ाहिर है लोग परेशानी से छुटकारा पाना चाहते थे और कहीं न कहीं अपनी मुक्ति का रास्ता अन्ना में देख रहे थे. यदि ऐसा नहीं भी देख रहे थे तो उन्हें लग रहा था कि इतना बुज़ुर्ग आदमी जो इस आन्दोलन की अगुवाई कर रहा है मतलब कुछ लोग जो ईमानदार हैं वो अपनी जान जोखिम में डाल रहे हैं. क्योंकि अब तक कभी भी भ्रष्टाचार राजनीतिक मुद्दा नहीं बना था कुछ वाम दलों ने भले ही कालाबाजारी और भ्रष्टाचार की बात को समय-समय पर उठाया जरूर, लेकिन वो हासिये की बात होकर रह गयी. कभी मुख्य धारा में शामिल नहीं हो सकी. इन्हीं दो मुद्दों पर हम जानना चाहते हैं कि एक पूरा का पूरा एनजीओ पोषित आन्दोलन, दूसरा जनता की भागेदारी एक अलग स्तर पर रही इस पर आप क्या सोचते हैं ?
प्रणय कृष्ण: जब से भूमंडलीकरण आया है तब से एनजीओ को ब्यूरोक्रेसी में लाया गया. धीरे-धीरे वो सेमी गवर्मेंट में भी शामिल किया गया. अब स्थिति ये है कि चाहे वर्ल्ड फोरम वाला सोसल ऑर्गनाइजेशन हो, बहुत सारी ह्यूमन राइट्स की ऑर्गनाइजेशन हों ज्यादातर संस्थाएं एनजीओ ही हैं. लेकिन आप देखिये कि अन्ना को लोगों ने एप्रीसिएट किया है. इससे बहुत सारे लोग जुड़े भी. जैसे मान लीजिए, भ्रष्टाचार के विरुद्ध न्यायाधीश मल्होत्रा भी इससे जुड़े. तो आन्दोलन शुरू चाहे जिस बिंदु को लेकर हो जब वो मास एग्रेशन ले लेता है ऐसे में अच्छी बुरी सभी तरह की चीजें जुड़ ही जाती हैं. सवाल ये है कि ऐसे किसी भी आन्दोलन में सोचने वाले लोग जो ये मानते हैं कि वे सही सोच रहे हैं. या इस तरह के संगठनों को शिरकत करके बहस चलानी चाहिए. अगर आप शिरकत न करके बहस चला रहे हैं तो इसका मतलब है कि आप उन बुरी शक्तियों के जिन्हें आप चाहते हैं कि इस तरह के आन्दोलनों में शामिल न हों. उनको आप एक स्पेस दे देते हैं. इस आन्दोलन को भी मैं ऐसे ही देखता हूँ. सत्ता विरोधी तमाम आन्दोलन इस देश में पहले भी होते रहे हैं और उनमें से कई लोग ऐसे हैं जो बड़े-बड़े एनजीओ चलाते हैं. यकीनन व्यक्तिगत तौर पर उनके काम भी अच्छे रहे हैं. एनजीओ के चरित्र को हम लोग जानते हैं. वो बुनियादी परिवर्तनों के जरिये नहीं आये. और जो बिल था इस आन्दोलन का मुख्य बिंदु, उन लोगों द्वारा प्रस्तावित उनमें एनजीओ और कॉर्पोरेट को भी लोकपाल के दायरे में लाना चाहिए.
अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: इस आन्दोलन को संगठित करने में कोई बड़ी तैयारी नहीं करनी पडी. मात्र चंद समय में ही अपने तैयार रूप में ये सामने आया. जबकि जमीनी संघर्ष से जो भी आन्दोलन उठे हैं वो बर्षों से चल रहे हैं, युगों से चल रहे हैं, वो अभी तक अपना निश्चित स्पेस नहीं ले पा रहे हैं. अरुंधती ने स्पष्ट किया है कि अन्ना आन्दोलन को करोड़ों रुपये फोर्ड फाउन्डेशन से मिले और बड़ी संख्या में एनजीओ जो देश भर में चल रहे हैं उनहोंने इसका साथ दिया ?
प्रणय कृष्ण: दो बातें हैं – एक तो किस ऐतिहासिक जन्क्चर पर कोई आन्दोलन शुरू होता है. दूसरी बात, क्या वो कोई कॉमन डीनोटर सारे लोगों के लिए निकाल के ला पाता है. हमारे देश में इससे कहीं ज्यादा रेडिकल आन्दोलन जगह-जगह पर चल रहे हैं लेकिन वो स्थानीय बने हुए हैं. फिर ये है कि आन्दोलन चलाने का तरीका लोग जिसमें शिरकत कर पायें, उसके लिए आन्दोलन क्या करता है? उदाहरण गांधी का आन्दोलन, गांधी को तो बिड़ला प्रश्रय देते थे लेकिन बहुत सारे लोग उनके आन्दोलन में शरीक होते थे. यूँ कहिये कि एक कॉमन चीज थी आजादी. उससे एक अपील बन जाती थी. उसमें भी जो लोग शरीक हुए इस समय कांग्रेस एक बड़ा प्लेटफार्म बन रहा था यहाँ तक कि कम्युनिस्ट ने भी उस प्लेटफार्म के साथ मिलकर शिरकत की थी. क्यूंकि उन्हें जो बात कहनी थी वो इस प्लेटफार्म से बाहर रहकर नहीं कह सकते थे. ये स्थिति उस वक्त बनी हुई थी. हमारी ये समझ बनती है कि अन्ना के आन्दोलन को या ऐसे किसी भी आन्दोलन को ये सच बात है कि हम उसकी कमजोरियों के प्रति बहुत सतर्क रहें. हमें इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि इस आन्दोलन को चलाने वाले लोग कहीं किसी वेस्टेज इंटरेस्ट के साथ तो नहीं कर रहे हैं. कहीं लोग ठगे तो नहीं जायेंगे वगैरह-वगैरह.. लेकिन ये जरूर है कि कोई भी आन्दोलन अगर मास मोबलाइजेशन लिए हुए तो आपको उसमें शरीक होना ही होगा. चाहे आप उस पर बहस ही क्यूँ न चलायें. ये बात किसी भी आन्दोलन में दुर्भाग्य से नहीं हुई.
मुझे ज़्यादातर लेफ्ट ऑर्गनाइजेशन की भूमिका पर ऐतराज है. अब प्रकाश करात कह रहे हैं कि हमसे गलती हुई. लेकिन येचुरी जी उस समय लिख रहे थे कि जनता से क्या होगा? आडवानी जी भी तो रथ यात्रा लेकर चले थे. अब अन्ना के आन्दोलन की आडवानी की रथ यात्रा से तुलना करना याकि लेफ्ट के द्वारा बार-बार ये कहना कि संसद सर्वोच्च है. आप बताइये मार्क्स से लेकर माओ तक ने कब कहा कि संसद सर्वोच्च है. जनता सर्वोच्च है. सोचिये हमारा ये जो संविधान है वो तक शुरू होता है- वी द पीपुल से. सीधे-सीधे ये जो बुर्जुआ रिपब्लिक है उसमें भी जनता को ही सर्वोच्च माना गया है. दूसरी चीज ये है कि अरुंधती जो बातें कह रही हैं तो हमारा सीधे ये कहना है. ऐसे बहुत सारे आन्दोलन हुए हैं ईराक और साम्राज्यवाद के हमलों सहित जिसमें कि इन आन्दोलनों की बहस में अरुंधती राय जैसे लोग शामिल होते रहे हैं. इश्यू बेस्ड मूवमेंट में जब आप जायेंगे, अपनी बात उस प्लेटफार्म से कहेंगे. लेकिन आप ये नहीं कह सकते कि ये-ये लोग उसमें नहीं शामिल होंगे. आप अपनी बात कहेंगे और अगर उस बात से कोई आपके मंतव्य को ले ले तो ये अच्छी बात होगी. मगर आप ये नहीं कह सकते कि इस आन्दोलन में कौन रहेगा, कौन नहीं रहेगा. जब बैनर बेस्ड मूवमेंट चल रहा है तो ये स्पष्ट है कि आप किस बैनर पर जाकर अपनी बात नहीं कहेंगे. संघ भी ऐसे बैनर बेस्ड आन्दोलन में शिरकत करेगा. तब आप मत कहियेगा कि संघ इस आन्दोलन को आपके हाथ से ले लेगा.
अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: आप कह रहे थे कि जब कोई भी आन्दोलन होता है तो उसमें तमाम शक्तियाँ भागीदारी करती हैं. जैसा की प्रकाश करात और येचुरी.. यदि इसमें जाते और इसे अपने तरह से प्रायोजित करते, मगर उनहोंने ऐसा भी नहीं किया. बजाय इसके वे आलोचना करके उससे अलग हट गए. हम ये कह रहे हैं कि आपने बहुत से आन्दोलनों को पढ़ा, लगातार पढ़ रहे हैं. ऐसा कोई आन्दोलन आपकी जानकारी में है जो कुछ लोगों ने शुरू किये हों और बाद में कोई और शक्तियों वाले लोगों ने उसे अपने हाथ में लेकर उसका नेतृत्व किया ?
प्रणय कृष्ण: दुर्भाग्य से नकारात्मक शक्तियों ने ज्यादा कोऑप्ट किया. लेकिन बहुत से आन्दोलन ऐसे भी हैं- खासकर लैटिन अमरीका में आप देखिये कि जहाँ भी लेफ्ट की सरकारें आयी हैं ये जरूरी नहीं कि उन आन्दोलनों को लेफ्ट ने शुरू किया हो. बहुत सी जगहों में ग्रास रूट के आन्दोलन आदिवासियों के आन्दोलन थे. जहाँ लेफ्ट ने उनकी मांगों को सपोर्ट किया और उस आन्दोलन को गाइड करके एक तयशुदा लक्ष्य तक ले गया. राष्ट्रीय आन्दोलन के बहुत से आन्दोलनों को मैं जानता हूँ जिसमें अगर लेफ्ट ने हस्तक्षेप न किया होता तो वे राष्ट्रवादियों के ही आन्दोलन बनकर रह जाते. जैसे कार्वीस क्रॉप बाद में सस्टेन नहीं कर पाया. लेफ्ट ने उसमें हस्तक्षेप किया. ये जानते हुए भी ये एक नॅशनल मूवमेंट है और किसी भी लेफ्ट पार्टी के लिए राष्ट्रवादी आन्दोलन चलाना बहुत मुश्किल वाला काम है. वो उसे एक स्तर तक ले गया और उसे आटोनोमस क्षेत्र में ले जाकर सौंप दिया. लेकिन अभी फिर वहाँ एक संकट है, संकट ये है कि वहाँ बहुत सारी ताकतें मौजूद हो गयी हैं. जोकि एंटी लेफ्ट हैं. ये प्रयोग है, ऐसे प्रयोग तो किसी भी आन्दोलन में चलेगे. आप देखिये जेपी मूवमेंट, इस आन्दोलन में भी बहुत सारे गांधीवादी एनजीओ लगे हुए थे. उसके बाद सुधार आयोग बैठाकर के इंदिरा गांधी ने उसकी समीक्षा कराई. इस आन्दोलन को अगर आप देखें तो कम्युनिस्ट पार्टी कमोबेस उसके साथ खडी हुई थी. जय प्रकाश को इंदिरा ने फासिस्ट कहा. ये अजीब बात है कि जो सरकार इमरजेंसी लगा रही है उसके खिलाफ आन्दोलन हो रहा है. जिसको सत्ता सरकारें कहेंगी कि ये फासिस्ट आन्दोलन है. मैं यह सुनकर दंग रह जाता हूँ. अभी मैं एक जगह गया था जहाँ किसी महिला ने कहा – अन्ना का आन्दोलन फासिस्ट आन्दोलन है. मेरा कहना है कि शब्दों के अर्थ खत्म हो जाते हैं अगर आप शब्दों को जहाँ-तहाँ हलके ढंग से इस्तेमाल करने लग जाते हैं. अगर अन्ना फासिस्ट हैं तो आप फासिस्टों को क्या कहेंगे ?
अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: इसमें हम एक चीज जोड़ेंगे कि जब अन्ना का आन्दोलन शुरू हुआ, तब ९ अप्रैल २०११ तिथि रही और २८ अप्रैल तक उत्तर प्रदेश में ग्रेटर नोएडा जैसी जगह पर भट्टा पारसौल गाँव में जबरन भूमि अधिग्रहण हुआ, तमाम जानें गयीं. वहाँ गांववासियों पर जुल्म, अत्याचार, प्रताडना, हत्या, तमाम औरतों, बच्चों पर गंभीर प्रताड़ना दी गयी. इस मामले को दबाये रखने के लिए प्रशासन की मशक्कत व भागीदारी खूब रही. और अन्ना इस घटना के खिलाफ सक्रिय तौर पर कहीं भागीदारी में नहीं दिखे. १६ अगस्त २०११ को अन्ना पुनः अपने आन्दोलन के दूसरे चरण में भट्टा पारसौल के किसानों के साथ होने का मौखिक रूप से बयान देते हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि जब यह आन्दोलन अपने पहले चरण में खूब समर्थन बटोर रहा था. उसी दौरान भट्टा पारसोल की नृशंस हत्याओं वाला कांड आखिर उनसे कैसे अछूता रह गया?
प्रणय कृष्ण: ठीक बात कही आपने, मगर हम ये तो कह ही नहीं रहे हैं कि अन्ना का आन्दोलन सारे जनांदोलनों का मंच बन गया है. वो एक सीमित एजेंडे के साथ एक बड़ा आन्दोलन करने में सफल हुए. दूसरी बात जैसा मैंने पहले भी कहा कि उससे भी बड़े रेडिकल आन्दोलन देश भर में चल रहे हैं, पोस्को के खिलाफ आदि-आदि. इन सारे आन्दोलनों को आप इससे तय नहीं कर सकते. जो भी आन्दोलन चल रहा है वो अभी प्रयोग की अवस्था में है कि कैसे देशव्यापी आन्दोलन मल्टीनेशनल के खिलाफ एक रूप में आये. ये सब कुछ तमाम आन्दोलनों के नेतृत्वकर्ता सोच रहे होंगे. या फिर आलोचकों को सोचना चाहिए. लेकिन यह कहना कि कोई आन्दोलन जो किसी एक मुद्दे को लेकर चल रहा है. आप ये कहें कि ये अन्य घटनाओं, मुद्दों पर क्यूँ नहीं बोलेंगे. मुझे लगता है कि ये उस आन्दोलन से कुछ ज्यादा ही अपेक्षा करने जैसा है. जोकि गलत है.
अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: अगर स्थितियाँ ऎसी बन रही हों कि आप भ्रष्टाचार व अत्याचार के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं. इसी दरम्यान ऎसी ही कोई घटना हो जाती है और आप कहीं ज्यादा दूर इस घटना से नहीं बैठे हैं तो जाहिर है कि आपको उस स्थान तक पहुँचना चाहिए. उसकी सच्चाई को जानना चाहिए. आप क्या कहेंगे ?
प्रणय कृष्ण: इसमें कोई दोराय नहीं, मगर सवाल ये है कि ऐसे में अगर किसी संकुचित विचार, पोलिटिकल मेच्योरिटी के साथ चला जाता तो ऎसी अपेक्षा की जा सकती थी. लेकिन मैंने आपसे कहा कि किसी नेतृत्व से आप किसी आन्दोलन को मत आंकिये. नेतृत्व उसका कमजोर भी हो सकता है. स्वयं गांधी का जो आन्दोलन था गांधी की जो भी विश्व दृष्टि थी. ये तो सभी लोग जानते हैं कि उस विश्व दृष्टि में क्या खामियाँ थीं. लेकिन अन्य तमाम विश्व दृष्टियों वाले लोग उनके साथ थे. गांधी भी हर मुद्दे पर नहीं बोलते थे. सोचिये भगत सिंह की फांसी जैसे गंभीर फैसले पर गांधी ने क्या किया? लेकिन उस जमाने में उनहोंने जिन आन्दोलनों का नेतृत्व किया और जो बहुतायत जन भागीदारी रही. इतिहास में इस बात से उसका महत्व कम नहीं होता है. तो ये चाहे भट्टा पारसोल की घटना हो, कलिंगनगर की घटना हो, बहुत अच्छा हो कि लोग ऎसी घटनाओं पर बोलें और अपने भीतर इस तरह की चेतना, ध्वनि को ग्रहण करें. लेकिन अगर इसे एक मुद्दे का भी आन्दोलन मानकर चलें तो भी वो आन्दोलन है. लोग उसमें शामिल हैं. अब ऐसे में हमें ये देखना होगा कि लोग उसमें हैं क्यूँ ?
अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: कई बार ये लगता है कि दृष्टिकोणों का फर्क है जैसे यदि हम लेफ्ट के हैं तो चाहे अन्ना के आन्दोलन से हम अपने लिए सकारात्मक निकाल लें, चाहें तो नकारात्मक निकाल लें. यहाँ पर कई बार ऐसा लग रहा है कि ये हमारे अपने दृष्टिकोणों पर निर्भर है. ये जो वस्तुस्थिति है इसी पर आपसे जानना चाह रहे हैं कि एक स्थिति है वहाँ पर, और लोगों पर उसका क्या असर पड़ रहा है. गांधी का ही उदाहरण लें, गांधी ने कई आन्दोलन चलाये, गांधी को कई बार ब्रितानिया हुकूमत ने बाकायदा स्पेस दिया और ये दिखाने के लिए स्पेस दिया कि देखो, हम कितने डेमोक्रेटिक हैं. बावजूद इसके कि हम बाहर से आये. आप हमें औपनिवेशिक सत्ता कहते हैं. अब बात ये है कि आखिर गांधी जैसे लोगों के लिए उनके पास स्पेस था. मगर भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों के लिए तनिक भी छूट नहीं थी. आखिर भगत सिंह उनके लिए आतंक का पर्याय है ये सन्देश तो देना चाहा ब्रिटिश सत्ता ने ? इस बात को सही तरीके से तभी समझा जा सकता है जब तक कि वामपंथी दल सामने आकर ये न कह दें कि देखो हर आन्दोलन में इतनी चीजें सही हैं, और तमाम चीजें गलत हैं. जब तक ये बातें न निकाली जाएँ आन्दोलन की समीक्षाएँ सही-सही कैसे होंगी? अन्ना राज्यपोषित भी हो सकते हैं. क्योंकि भट्टा पारसोल वाली घटना में जनता को गाँव में घुसने पर पाबंदी लगा दी गयी थी. जबकि राहुल गांधी वहाँ गए. भले ही इसे जबरदस्ती से जाना ही क्यूँ न कहा जाए. और बावजूद इसके वहाँ की घटना पर कोई हस्तक्षेप नहीं किया. और अन्ना को इसी समय में ही खूब स्पेस दिया गया. क्या आपको ऐसा नहीं लगता?
प्रणय कृष्ण: नहीं, मैं ऐसा नहीं मानता कि उनहोंने स्पेस दिया. सीधी बात ये है चाहे मुद्दों के कारण, चाहे जनसभाओं के कारण हो. सरकार को एक समय तक आन्दोलनों से पीछे हटना पड़ा था. जब अन्ना आन्दोलन शुरू हुआ तब बहुत से लोगों ने ये कहा था कि सरकार की मिली भगत है. अगर मिली भगत ही होती तो ये सब करने की क्या जरूरत थी? जो सरकार ने आन्दोलन के साथ किया. क्या जरूरत थी सरकार को वोटिंग करवाने की? बिना जहमत उठाये ही बिल पास करवा देती. एक तो मैं ये नहीं मानता कि किसी भी आन्दोलन को देखने का नजरिया ऐसा होना चाहिए. कि उसके षडयंत्र क्या-क्या हैं? क्योंकि षडयंत्र भी अगर होता हो, तो जब मार्क्स ने कहा कि अब तक का सारा इतिहास जन-संघर्षों का इतिहास है. वहीं महलों के भी षडयंत्र को वर्गीय दृष्टि से देखने की बात कही थी. वी हैव टू सी इट. कि उसके अंदर की बुनियादी अंतर्वस्तु क्या है? हम इस विश्लेषण से सहमत हैं. दूसरी बात- अमरूद कैसा है? ये उसको खाकर ही पता चलता है. कोई उसके रंग को लेकर गुणवत्ता का बखान कर सकता है. कोई उसके आकार को लेकर, कोई उसके रंग को लेकर, लेकिन वास्तव में अमरूद क्या है ? ये उसे खाकर ही पता चलेगा. मेरे कहने का मतलब है कि बगैर शिरकत किए कुछ नहीं मिलता. भगत सिंह राष्ट्रीय आन्दोलन में शिरकत कर रहे थे. उन्हीं सवालों पर लड़ रहे थे जिन सवालों को लेकर के गांधी लड़ रहे थे. इसीलिए वो प्रतिपक्ष निर्मित कर पाए. मतलब साफ़ है कि आप अन्ना के ही आन्दोलन में उतरिये. आखिर आप किसी व्यक्तिगत बैनर के तले भी कोई आन्दोलन क्यूँ नहीं कर रहे हैं? ये इंडीपेंडेंट बैनर लेफ्ट पार्टी में भी है और अलग-अलग भी. अगर ठीक इसी मुद्दे पर आन्दोलन करेंगे तो मजबूत आप भी होंगे और वो भी. इससे सहयोग ले सकेंगे, जोकि अन्य बैनर से लड़ रहे हैं. तात्पर्य है कि इस तरह के आन्दोलन सिखाते क्या हैं? आप देखिये कि जब डंकन प्रस्ताव आया था तो पांच लाख लोगों की रैली कम्युनिस्ट पार्टी की हुई थी. लाठियाँ भी चलीं थीं. हवा में गोलियाँ भी चली थीं. तब का दिन और आज का दिन है अलग-अलग पार्टियों ने रैलियाँ की हैं. स्थिति ये कि उन रैलियों की अगले रोज खबर तक नहीं छपती. जिस तरह का मीडिया है. आप पूछेंगे कि मीडिया ने अन्ना के आन्दोलन को फिर इतनी हाइप क्यूँ दी? लेकिन मेरे लिए ये सोचने का विषय नहीं है. मीडिया के अपने तर्क हो सकते हैं. अपने फायदे हो सकते हैं. सत्ता के अपने-अपने फायदे हो सकते हैं. हमारा कहना है कि इसमें जनता का क्या फायदा है? जनता यहाँ जा रही है पहले तो हम इस बात को समझें ये हम तभी कर सकते हैं जब हम किसी एक इंडीपेंडेंट बैनर से जो शक्तियाँ ये समझती हैं कि वो सही कर रही हैं. क्यूंकि एक बात बता दूँ अगर आप लोगों को विकल्प नहीं देते हैं तो लोग सही या गलत किसी भी रास्ते से लड़ेंगे जरूर.
भारत में अनेक जन-आन्दोलन चल रहे हैं. और ये कतई जरूरी नहीं है कि कोई क्रांतिकारी शक्ति ही उनको नेतृत्व दे. जिनकी जान पर बनी हुई है, जिनके गाँव उजाड़े जा रहे हैं, जिनको विस्थापित करके हटाया जा रहा है, वो लड़ेगे जरूर. आप सही रास्ता नहीं देंगे तो वो गलत रास्ते से लड़ेंगे. और हम यहाँ बैठकर उनको सही रास्ता दिखाएँ तो ये नहीं होगा. कहने का मतलब है कि जो अपने को सही समझते हैं पहले वो ही इस लड़ाई को लड़ने का बीड़ा उठावें. उसके बाद सही-गलत का निर्णय होगा. आप तो ये कह रहे हैं कि हम तो सही हैं इसलिए हम उसमें शामिल नहीं हैं. जो गलत हैं वो सभी उसमें शामिल हैं. जो शामिल होगा वो गलत होगा. मैं उन शक्तियों की बात कर रहा हूँ जो ये मानकर मुद्दे से बाहर हैं कि वो एकमात्र सही हैं और जो आन्दोलन चला रहे हैं वो गलत लोग चला रहे हैं. मैं नागार्जुन की बात करूँ तो जेपी आन्दोलन में वो साथ थे जेल गए. और जब बाहर निकले तो यही कहा कि खिचडी-विप्लव देखा हमने. जेपी आन्दोलन की जो सबसे बड़ी विफलता रही कि किसान भी निहारते रहे समझ नहीं पाए कि क्या हो रहा है? मजदूरों का साथ नहीं लिया. उसमें मैं क्या करता बूढा बेचारा? नौजवानों ने साथ दिया. बुजुर्गों ने मारा. किसान देखता रहा, मजदूर का साथ नहीं लिया. पूरे तौर पर उस आन्दोलन का जो हश्र होना था हुआ. बट ही नाट सेईंग ही इस आउट साइडर. ही इस गोन थ्रू इट. हम किसी चीज में शरीक होकर उसके स्वरूप को तो जान सकते हैं. लेकिन हम उससे अलग रहके ये दावा नहीं कर सकते. आप शरीक कैसे हो रहे हैं ये बात भी आप आप पर ही निर्भर है. क्योंकि मैं जो शरीक होने की बात कर रहा हूँ, उसमें ये है कि अगर आप इंडिपेंडेंट होकर पांच लाख की भीड़ इकठ्ठा करें तो हो सकता है कि दोनों के बीच सही-गलत याकि तमाम मुद्दों को लेकर बातचीत हो. एक नया कार्यक्रम बने कि अब सारा काम आगे कैसे बढे? हो सकता है जो संसद के लोग हैं जिन्होंने अन्ना की दृष्टि को आखिर में ड्राफ्ट के रूप में लिया. अन्ना के सदस्यों को बुलाया. और टीम ने जाकर अपनी बात रखी मगर आगे फिर वही ढाक के तीन पात. मैं कह रहा हूँ कि एक नया खमीर तो पैदा होता. उससे उसकी कैपासिटी चेंज होती. खैर...
इन आन्दोलनों के साथ ऎसी बहुत सारी ‘इट’ और ‘बट’ हैं. और ‘ओक्यूपाइड मोनेस्टर’ के साथ भी यही है. ये मत मानिए कि ओक्यूपाइड मोनेस्टर में विखंडन नहीं होता. कि वो एक दूसरे को तोड़ नहीं सकते. एक दूसरे को यूटिलाइज नहीं कर सकते. उनके अंदर भी ये सब कुछ हो सकता है. सबसे बड़ी बात ये है कि अभी तक सारा का सारा जो निजाम है उसके ऊपर एक बड़ा दायित्व है इतनी बड़ी मंदी के बावजूद भी. ये काम (तोड़ने का) आसान नहीं है लेकिन मंदी ने जगह-जगह अवसर दे दिया है. जहाँ पर इस्टैबल फोर्सेस हैं. वो जनता को कन्विंस नहीं कर पा रही हैं. ये भूमंडलीकरण की नीतियाँ, ये नई आर्थिक व्यवस्था उनको कुछ दे रही हैं. वो सोसल सिक्योरिटी देने में नाकामयाब हैं. और जनता ये भी नहीं महसूस कर पा रही है कि ये सरकार जिसको उसने ही चुना है वो उससे सहमत है. इसके लिए वो तमाम राजनैतिक रास्ते तलाश कर रहे हैं. वो शहरी जनता भी, नए किस्म के मजदूर भी बने हैं जो इस विश्व व्यवस्था के चलते ही नौकरी पा रहे हैं. ये सब इस तरह के आन्दोलन में आयेंगे. अंतर्विरोध तो उस व्यवस्था के चलते ही हो रहे हैं. उस सिस्टम के अंदर जो लोग पहले को-ऑप्ट किए जा चुके थे. उसके अंदर जो खामियाँ हैं. उनसे बाहर निकलने को भी तैयार हैं. ये सब चीजें आज के दौर में पूरे विश्व में आन्दोलन की भूमि तैयार कर रहे हैं. रूस में आप देखिये जो कुछ भी हो रहा है. जिसे आप कहेंगे पूरी की पूरी पूँजी के संकट से हल प्राप्त करने के लिए जो नई आर्थिक नीतियाँ लाई गयीं. उनकी विफलता एकदम स्पष्ट दिख रही है. मार्क्स ने कहा था इस संकट को हल करने के जो उपाय लिए जाते हैं जितने समय तक उनको हल करते हैं अगला उपाय उससे भी कम समय में उसे हल कर पाता है. जब से नई आर्थिक नीतियाँ चल रही हैं आप तब से इसे देख परख सकते हैं, भूमंडलीकरण चल रहा है. अगर हम ये मान लें कि इस समय एक विफलता की स्थिति है पूँजी खुद अपना संकट दूर नहीं कर पा रही है, तो अलगाव होगा ही. आउटसोर्सिंग होगा ही. इसका मतलब हिल्स वाक् ने जितने समय तक पूँजी के संकट को हल किया उससे भी कम समय तक भूमंडलीकरण की नीतियाँ हैं. अब इसके आगे पूँजी का क्या रेस्पोंस होता है? हरदम जिस तरह के आर्थिक संकट होते हैं विश्वव्यापी आन्दोलन खड़े होते हैं. युद्ध भी हो जाते हैं. दो-दो विश्व युद्ध इसके प्रमाण हैं. ट्रेड वार भी हो सकते हैं. मान लीजिए जैसे, युद्ध हो रहे हैं वैसे ही ट्रेड वार भी हो सकते हैं. करेंसी वार भी हो सकते हैं. और उसी समय बड़े-बड़े आन्दोलन भी होंगे. ये दौर वैसा ही है. देश के अंदर जब देशव्यापी संकट था तब नक्सलबाड़ी आन्दोलन हुआ. आज भी संकट कम नहीं है लेकिन जो शासक वर्ग है, उसने आइडेनटटी पॉलिटिक्स के नाम पर अपना जनाधार बढ़ाया. और सोशल सिक्योरिटी के नाम पर कुछ चीजें कंसीव की हैं- मनरेगा वगैरह... ताकि जिससे लोग तात्कालिक ढंग से थोड़ा थमें रहें. इस ढंग से देखिये तो भारत का शासक वर्ग ज्यादा लचीला है. एक कदम आगे बढाता है तो दो कदम पीछे भी खींच लेता है. और इस तरह के रिफार्मेशन भी करता है. जैसे राईट टू इन्फार्मेशन आदि. ये सारे उपाय हैं जिससे लोगों का उबाल एक स्तर से ऊपर न उठ सके. मैनेज कर रहे हैं. अब ये उनके अंदर का मैनेजमेंट सक्सीड करेगा कि उसके चलते आन्दोलन सफल होंगे याकि वो आन्दोलन को अपने तरीके से अपने हाथ में लेंगे. ये इतिहास का डायनामिक प्रोसेस है. जिसके बारे में हम अभी नहीं तय कर सकते कि क्या होगा? लेकिन ये मुझे जरूर लगता है कि जो आन्दोलनों का तौर तरीका पहले से रहा है. नए दौर के ये जो आन्दोलन हैं. ये गैरदलीय और गैरविचारक रूप से उभर रहे हैं. जो उनकी शक्ति भी हैं और सीमा भी. इनके साथ हमें गहरे इंटरेक्शन में जाना होगा. और कोई रास्ता नहीं है. माओवादी आन्दोलन फिलहाल जिस तरह से संकट में फंसा हुआ है समूचा वामपंथ भी गहरे संकट में फंसा हुआ है. लेकिन माओवादी आन्दोलन से बहुत सारे लोग बहुत सारी उम्मीदें कर रहे हैं. स्थिति ये हो गयी है कि उनके यहाँ भयानक रूप से सरेंडर मुखबिरी सब हो रही है. इसके अलावा आन्ध्र प्रदेश में मान लीजिए जिस तरह रेड्डी ने उनको साफ़ किया. पहले वार्ता में बुलाया और वार्ता करने के लिए जो पुलिस की जीपें जंगलों में गयीं तो वे खाली वार्ता करने थोड़े ही गए हैं. ये तो साफ़ दिख रहा है. अब आपको ये सोचना पड़ेगा कि आन्दोलन हमें कैसे चलाना है? माओवादियों के बड़े बड़े नेता मुखबिरी के चलते मार दिए जा रहे हैं. लंबा समय लगता है उन लोगों को तैयार करने में. दीज आर नोट माइनर लॉसेज. लेकिन ये तो देखना पड़ेगा हमें कि आखिर आंध्र प्रदेश में कहाँ हमसे गलती हुई? क्या हमें करना चाहिए जो पॉपुलर अनरेस्ट है एंगर है. वो गलत शक्तियों के हाथ में न जाए. वामपंथियों के साथ यही चुनौती तो हिटलर के समय में थी. हुआ क्या ? पॉपुलर एजेंडा का फायदा तो हिटलर उठा ले गया. वामपंथी बहादुरी से लड़े. रोजा लग्जमबर से लेकर तमाम साथी शहीद हुए. पर ये तो सही है न कि उस समय देखना होगा कि का गलतियाँ थीं. क्यूँ एक पॉपुलर एंगर को फासिस्ट दिशा में उड़ा ले जाने में हिटलर साफक हुआ? कम्युनिस्ट को सोचना चाहिए कि तब हमन क्या करना चाहिए था? किस किस्म का मोर्चा बनाना चाहिए था? गलतियों से कैसे लड़ना चाहिए था? चाहे वो ग्राम्सी हों, तमाम लोगों ने इस पर विचार किया है. कि गलतियाँ हमने कहाँ की थीं. हमको यही लगता है कि ये जो नए समय के आन्दोलन हैं जोकि हमारी ही गिरफ्त में हैं.हमें इसका अध्ययन करना चाहिए. और बिना आन्दोलन कि व्यवहारिक भागीदारी, सक्रिय हिस्सेदारी के आप उसका अध्ययन नहीं कर सकते. ये जरूर है कि सारे आन्दोलनों को जो देश भर में चल रहे हैं इन्हें एकसाथ कैसे नत्थी किया जाए? आदिवासियों के आन्दोलन, सामाजिक न्याय के आन्दोलन, मजदूरों किसानों के आन्दोलन जो चल रहे हैं उनको कैसे एकसूत्र में बांधा जाए? और रूलिंग क्लास के हाथों हड़प लिए जाने से बचाया जाए? ये ही दरअसल हम लोगों के सोचने की बात है. हमारे पास अब मौका है.
अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: वैश्वीकरण के बाद जो नए तरह के आन्दोलन देख रहे हैं जो भारत में नब्बे के दशक और बाद के आन्दोलन भी कह सकते हैं. भूमंडलीकरण के पहले और बाद के आन्दोलनों में आप मुख्य अंतर क्या पाते हैं? इनके स्वभावगत अंतर क्या रहे? वैश्वीकरण के पहले एक अलग तरह का प्रभाव था बाद के आन्दोलन में दूसरी तरह का प्रभाव रहा. पहले के मुद्दे और अब के मुद्दे, पहले की भागीदारी अब की भागीदारी, में मुख्य अंतर क्या है? भूमंडलीकरण के पहले पूँजी का एक अलग तरह का प्रभाव था भूमंडलीकरण, वैश्वीकरण के बाद बिलकुल उलट और तीखा प्रभाव आया. इस दोनों में आप किसे कैसे देख रहे हैं?
प्रणय कृष्ण: एक तो कुछ नए सोशल क्लासेज अस्तित्व में आये हैं. मेरा सोशल क्लासेस से मतलब ये है कि बहुत लोग जो नए तरह के पेशे, जोकि भूमंडलीकरण के बाद आये हैं. जैसे पैरामेडिक्स, पैराटीचर्स, आशा बहनें, आदि. जोकि अपने-अपने एनजीओ के साथ हैं. इनमें कहीं भी ट्रेड यूनियन नहीं है. जबकि पहले ये तबके थे ही नहीं. ये किसी किस्म की सोशल सिक्योरिटी देने के नाम पर ही भूमंडलीकरण के बाद अस्तित्व में आए हैं. जब आपने सब्सीडी से लेकर सब चीजें विड्रा की हैं. और कई क्षेत्रों में इन्वेस्टमेंट कम हुआ है. उसको थामे रखने के लिए शिक्षामित्र, कोंट्राक्ट टीचर्स, आदि, मोटिवेटर टाइप के लोग हैं. यहाँ तक कि उनहोंने सेविंग का जो तरीका बनाया. उनमें महिलायें काम करती हैं सेल्फ हेल्प. ये सब एक किस्म के कामगार लोग हैं. और इसी तरह के कामगार लोग वो भी हैं जो आउटसोर्सिंग के चलते मल्टीनेशनल कंपनियों में आ गए हैं. जैसे पूरी इन्फार्मेशन टेक्नालाजी के लोग, जो रात दिन मजदूर की तरह काम कर रहे हैं.
अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: लेकिन आईटी कर्मचारी तो खुद को कामगार मजदूर मानते ही नहीं हैं?
प्रणय कृष्ण: समस्या ये है कि उनमें से तमाम लोगों ने आत्महत्याएं की हैं. क्योंकि उनको इकट्ठे बड़ा पॅकेज मिला, मकान,लोन, क्रेडिट कार्ड आदि सुविधाभोगी सामन जुटा लिए. अब जब रिटर्न करने की बारी आई तो मंदी आ गयी या अन्य कारण... लोगों ने ऐसे में आत्महत्याएं की हैं. कि इतना कर्ज वापस कैसे करेंगे. किसान ही आत्महत्या थोड़े कर रहे हैं. ऐसे में ये जो नए कामगार मजदूर हैं इनकी नयी तरह की समस्याएँ हैं. सबसे बड़ी बात ये है कि इनमें से किसी के पास जॉब की पर्मानेंस नहीं है. किसी को पेंशन नहीं है. किसी को उस तरह के अधिकार नहीं हैं जो पहले के मजदूर वर्ग को हुआ करते थे. फिर ये जितने लोग सेज में काम करेंगे. इस तरह के इलाकों में काम करेंगे. वो बहुत सारे किसान आप देखिये कि नोएडा और गुडगाँव में भयंकर क्राइम रेट बढ़ा है. उसका कारण ये है कि किसानों ने जमीनें तो बेंच दी क्योंकि उस समय बहुत महंगी बिकी. उनकी आजीविका का एकमात्र साधन तो जमीन ही थी. उसके बाद उनके पास और कुछ भी नहीं है. बहुत सारा क्राइम तो इसलिए बढ़ा है कि कोई रेवेन्यू ही नहीं है जो पैसा उन्हें मिला. उसका निवेश नहीं किया उसे तो जहाँ-तहां उड़ा दिया.
अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: लेकिन बड़ी कीमत पाने वाले किसानों की संख्या कम है जो पूँजी के शिकार हुए हैं तमाम बड़ी जमीनों वाले किसानों के साथ छोटी जमीनों वाले किसान या मुख्य नक़्शे पर जमीन सड़क किनारे न आ पाने के कारण उनके दाम बिलकुल कौडियों में गए जिसे सरकार ने औने-पौने दामों में खरीदा और पूँजी पतियों को बड़े मुनाफे के लिए बेंच दिया. आप इस पर क्या राय रखते हैं ?
प्रणय कृष्ण: देखिये, ये सही है कि जो रेट किसानों को जमीन के दिए जा रहे थे, किसानों को लगा कि खेती घाटे का सौदा है और जो दाम मिल रहा है वो बड़ा है. लेकिन निवेश क्या रहा? वो किसान कोई पूँजीपति तो बन नहीं गए. उनहोंने कंज्यूम कर लिया. ये सारी ऎसी ही समस्याएँ हैं. अब इन सारे लोगों को संघबद्ध करना और सारे ही सेक्टर्स में कैजुअलाईजेशन हुआ है. ईंट के जितने बड़े भट्ठे अब खुले हैं आप देखिये कि बहुत सारी महिलाएं काम करती हैं. वहाँ उन्हें कोई अधिकार नहीं मिले हैं. भूमंडलीकरण के चलते जब से खेती घाटे का सौदा हुई है तब से ऎसी स्थितियाँ तेजी से बढ़ी हैं. इनपुट्स का दाम बहुत बढ़ गया आउटपुट कहीं है ही नहीं. समर्थन मूल्य गायब है. जो लोग खेती से जा रहे हैं. किसी भी किस्म की मजदूरी कर रहे हैं. ज्यादातर किसान अब ईंट निर्माण मजदूर का काम कर रहे हैं. ये जो कन्वेंसिकल ट्रेड यूनियन है ये किसी भी ईंट भट्ठे के मजदूरों के लिए कोई काम ही नहीं करती है. अस्पतालों में जो वार्ड ब्वायज हैं, जो छोटे-छोटे कम्पाउन्डर हैं. इनकी कोई यूनियन नहीं है. नर्सेज की कोई यूनियन नहीं है. कामगारों का बहुत बड़ा वर्ग है जो संगठित है ही नहीं. चूंकि जो वामपंथी आन्दोलन था उसने संगठित क्षेत्र में ही काम किया है. असंगठित क्षेत्र में अभी भी वामपंथ की मौजूदगी बहुत कम है. और किसी अन्य की भी नहीं है. बाक़ी लोगों को कुछ करना नहीं है सिवाय इसके कि उनको वोट के लिए इस्तेमाल करना है. उनके लिए लड़ना तो है ही नहीं. इसीलिए ये असंगठित क्षेत्र बहुत बढ़ गया है. इस पर किसी का दखल नहीं है. यहाँ तक कि वैचारिक मतभेद भी नहीं है. अब ये अपनी अभिव्यक्ति, अपनी राजनीति का क्या-क्या रूप लेगा? ये एक सवाल है. एक गंतव्य मुझे ये दिख रहा है नए वर्ग का बनना, नए पेशों का बनना. दूसरी बात ये है कि आपकी बहुत सारी चीजें जो पहले सुरक्षित थीं. उनमें और सुधार की माँग आप करते. वो सारी चीजें अब हट गयी हैं. इसलिए माँग भी आपको बिलकुल अलग ढंग से करनी होगी. यहाँ तक कि ट्रेड यूनियन तक की भी माँग. उसके लिहाज से जो रूलिंग क्लास ने किया है वो है भारत में भूमंडलीकरण. उसमें नाइंटी आन्वर्ड्स मूलभूत मुद्दों पर तो राजनीति करने ही नहीं दी. न रोजगार पर, न महंगाई पर, न सोसल सिक्योरिटी पर. उनकी राजनीति का मतलब ही है कि जो या तो मंदिर है या जातियाँ हैं. इन्हीं पर कुल मिलाकर राजनीति होनी है. और लोगों को उसी में उम्मीदें होती हैं. कुछ-कुछ लोग कभी-कभी कह देते हैं कि सड़क बनवाएंगे, विकास करेंगे आदि-आदि. ये पूरा का पूरा ट्रेंड ही अस्सी के दशक के बाद का है. ये जो आइडेनटेटी की राजनीति हो रही है वो एक खास किस्म के क्राइसिस के कारण था. क रूलिंग क्लास मूल मुद्दों को लेकर राजनीति नहीं कर सकता था. जोकि बुनियादी मुद्दे थे. इसलिए उसने रिप्लेस किया. सेक्युलरिज्म बनाम कम्युनलिज्म. और जातियों का जो पूरा गणित है. जिसे सोसल इंजीनियरिंग कह सकते हैं. ये सारी की सारी राजनीति में गिनाने वाली बातें बन गयी हैं. आप देखिये कि लोहिया के समय में भी जाति की राजनीति होती थी. लेकिन यह थोड़ी था कि वोट खाली जाति पर ही पड़ते थे. पिछडी जातियों के सभी लोग उस समय भी चौधरी चरण सिंह को वोट देते थे. यहाँ के यादव जाति के लोग पहले इन्हीं को पिछड़े किसान के रूप में देखते थे, एक बात जरूर थी सिर्फ पिछड़ी जाति के रूप में अपने को नहीं देख रहे थे. और पिछड़ी जाति में भी फिर अपनी जाति. तो जाति का फैक्टर तब भी था. संसद में कभी बहस भी हो जाया करती थी. काला हांडी में किसानों की मौत होती थी. कृष्ण पटनायक उस समय ये बात संसद में खड़े होकर बोल सकते थे. पूरा देश उस पर बात कर सकता था. आज ये सारी चीजें विमर्श से बाहर हैं. भूख से मौत हो रही है, किसानों की आत्महत्या पर एक दिन संसद रुक नहीं सकती. उस पर बहस नहीं हो सकती. किसी भी मूर्खतापूर्ण बात पर जबकि संसद पच्चीस बार रुक सकती है. किसान की आत्महत्या पर संसद एक दिन भी विचार करने को तैयार नहीं है. ये जो सारी चीजें बाहर कर दी गयी हैं. ये सब अब राजनीति की बात नहीं रह गयी. तब इन मुद्दों पर बात करने वाले लोग कहाँ जायेंगे? किस जगह जायेंगे? वो भी नए आन्दोलन का निर्माण करेंगे. क्योंकि राजनीति का दायरा छोटा हुआ है. इंडक्शन की जगह एक्शक्लूशन बढ़ा है. सोसल एक्शक्लूशन की हम लोग बात करते हैं तो यहाँ पोलिटिकल एक्शक्लूशन बढ़ा है. खाली वोट देने से एक्शक्लूशन नहीं मिट जाता. उनके मुद्दे ही बाहर चले गए हैं. ये सारे मुद्दे, ये सारे आक्रोश आखिर कोई तो रूप लेंगे. इसलिए भी इन आन्दोलनों को मैं इस रूप में समझता हूँ. अभी प्रकाश सिंह जो नक्सल ऑपरेशन के करता-धर्ता रहे हैं. उनहोंने कहा कि यदि वोटिंग प्रतिशत घटा यूपी के चुनाव में तो माओवादी हो जायेंगे. मुझे लगता है कि वो कह रहे हैं कि इन्चेंमेंट इतना ज्यादा है लोगों का, सबसे बड़ा फ़्ला ये है कि मैं वोट के प्रतिशत को व्यवस्था के विशवास या अविश्वास से जोड़कर देखता ही नहीं. वो व्यवस्था पर कोई जनमत संग्रह नहीं है. इसलिए न वोट बहिष्कार का कोई मतलब है, न वोट के प्रतिशत बढ़ जाने का कोई मतलब है. लोग वोट दे रहे हैं. विभिन्न कारणों से दे रहे हैं या नहीं दे रहे हैं. सीधे व्यवस्था से जोड़कर ऐसा करने वाले बहुत कम लोग हैं. दूसरी बात मुझे ऐसा लगता है कि प्रकाश सिंह को जो सता रहा है नक्सलियों का भूत, उसकी जगह ज्यादा संभावना ये है कि नए किस्म के जन-आन्दोलन हुए हैं. जैसे पोस्को, यह आन्दोलन अपने शुरुआत में स्वतः स्फूर्त आन्दोलन था. बाद में कुछ एक विचारधारा के लोग उसमें दाखिल हुए हैं. मछुवारों के ऐसे बहुत सारे आन्दोलन हैं. इसमें क्या है कि ये आन्दोलन किसी एक मुद्दे को लेकर चलते हैं संगठित नहीं रहते. किसी विचारधारा या किसी संगठन को लेकर नहीं चलते. और कभी-कभी ज्यादातर लोकलाइज रहते हैं. और कभी-कभी ये ऐसे भी हो सकते हैं जोकि स्थानीय न होकर रास्ट्रीय फेनोमिना इख्तियार कर लें. जैसे अन्ना का आन्दोलन था. दोनों आन्दोलन चाहे वो स्थानीय मुद्दों को लेकर हुए हों, या राष्ट्रीय दोनों ही तरह के आन्दोलनों के बढ़ने की संभावना ज्यादा है. बजाय कि रिसर्जन औफ़ माओइस्ट. व्यवस्था से डिसइन्चेंत्मेंट क्या रूप लेगा? ये आप नहीं कह सकते हैं.
अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: जो नए समीकरण होंगे, कोई प्रडीक्ट तो नहीं करता लेकिन अनुमान तो सभी लगाते हैं. तमाम लोग अपने अध्ययन के हिसाब से.... तो अब नए समीकरण क्या लग रहे हैं? कि लड़ाई के दो पाले हैं, कौन किस पाले में होगा या कहें कि इधर के पाले में कौन लोग होंगे और उधर कौन? आपने तमाम सारी चीजें गिनाई हैं. आपसे और थोड़ा फौर्मुलाइज कराने की बात कर रहे है. ये प्रडीक्शन नहीं है लेकिन इसके बावजूद अनुमान होते हैं.
प्रणय कृष्ण: साफ़ तो स्थिति है नहीं, और आप हद से हद ये कह सकते हैं कि जो मध्यवर्गीय लोग हैं वो किसी न किसी तरफ झुकेंगे. बीच के वर्ग बहुत हैं. पोल्स तो दो ही होंगे - कॉर्पोरेट होंगे और सर्वहारा होंगे. सर्वहारा वाला पोल थोड़ा कमजोर है, कमजोर इसलिए है कि राजनीतिक चेतना इधर कम है. तो जो दूसरा पोल है ये जो बड़े मध्यवर्गीय लोग हैं, वो अपनी तरफ ज्यादा आकर्षित कर लेता है.
संध्या नवोदिता , अनिल पुष्कर: यानी प्रोजेक्टेड आन्दोलन बढ़ने की संभावनाएं ज्यादा हैं?
प्रणय कृष्ण: बिलकुल, ये जो आकर्षित कर रहे थे इनके पास एकल चुम्बक है. उनमें आकर्षण की क्षमता कम होती है. अब ये है कि जो दूसरा वाला चुम्बक है वो अगर मजबूत हो जाए, तो जो नहीं कर पा रहे हैं यही दूसरी तरफ चला जाएगा. कम्युनिस्ट लोगों को यही करना होगा कि उस कमजोर वाले चुम्बक को मजबूत करें. और जो डिस इन्चेनटमेंट वाले लोग बढ़ रहे हैं उनको आकर्षित करने का सवाल भी अपनी जगह है. वो तब तक है जब तक कमजोर वाला पोल मजबूत नहीं है. ये बीच में पड़े रहेंगे और नाकामयाब से नए-नए मूवमेंट का दौर आंका जा सकता है. आये और चले गए मूवमेंट. हासिल कुछ नहीं हुआ. क्योंकि वो पोल तो मजबूत है ही नहीं.
अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: लिहाजा गोल-गोल चीजें घूमकर वहीं वापस आती रहेंगी?
प्रणय कृष्ण: हाँ बिलकुल होंगी. ये आन्दोलन कैपिटल क्लास के और शासक वर्ग के क्राइसेस को बतला रहे हैं. लेकिन ये नहीं बतला रहे हैं कि ये किसी बड़े परिवर्तन को संभव कर सकते हैं या नहीं? क्योंकि उसके लिए जो आधारभूत शर्त है- वो है कि जो सर्वहारा वाला पोल है वो मजबूत हो. जोकि इस मध्यवर्ग को आकर्षित कर पाए. विश्व में हर जगह ये पोल कमजोर है. हिन्दुस्तान में तो ये पोल निहायत कमजोर है ही. और हर स्तर पर कमजोर है.
अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: हमने तमाम लोगों से बात की है इस मुद्दे पर. उनमें से कुछ वामपंथी रहे हैं कुछ गांधीवादी. इन्हीं दो के आन्दोलन भी रहे हैं. और तीसरा तो कोई दीखता भी नहीं है. कई लोगों का ये सवाल है की फलाँ-फलाँ सन में इस देश में कम्युनिस्ट पार्टी बनी. और दस साल बाद क्रान्ति हो गयी. फलाँ-फलाँ देश में इस समय बनी और बीस-पच्चीस बरस में क्रान्ति हो गयी. उनहोंने कई तिथियाँ कई उदाहरण बताए. हिन्दुस्तान में वो स्थिति कब आयेगी? जब ऎसी सफल क्रान्ति होगी. क्रान्ति का आना या हमारी लड़ाई का इस मुकाम तक पहुँचना कब संभव होगा? कि चीजें ठीक-ठीक देखीं जा सकें. तमाम देशों के इतिहास को देखते हुए,तमाम देशों की क्रान्ति को देखते हुए आप इस पर क्या कहेंगे?
प्रणय कृष्ण: क्रान्ति बताकर थोड़े ही कभी आई. न आयेगी. न ही निश्चित समय तयकर उस समय लायी जा सकती है. देखिये हर देश में जो क्रान्ति हुई है उसमें मार्क्सवादियों ने उस क्रान्ति के संभव होने की परिस्थितियों का सूत्रीकरण किया है. लेकिन ये भी कहा कि जहाँ साम्राज्यवादियों की कड़ी सबसे कमजोर होगी वहाँ क्रान्ति होने की संभावना ज्यादा मजबूत होगी. रूस में उनहोंने इसको किया. रूसी क्रान्ति को ही अगर आप देखें तो उसमें इतनी मुश्किलें थीं. क्योंकि शुरू में लेनिन और अन्य यह मान रहे थे कि रूस कुछ और नहीं एक प्लेटफार्म है. जिसके माध्यम से हमें पूरे यूरोप में क्रान्ति संपन्न करनी है. वो किसी एक देश में क्रान्ति संपन्न करने के ख़्वाब के साथ सक्रिय नहीं थे. जो मार्क्स मानते थे. क्रान्ति की वही बात रूस में लेनिन ने की है. एक देश में क्रान्ति को टिकाये रखने की बात एक मजबूरी के तहत आई. क्योंकि लेनिन वगैरह जो भी सोचते थे, ट्राटस्की सोचते थे कि अन्य अन्य देशों में भी ऐसा ही हो जाएगा. मगर ऐसा तो हुआ नहीं. जब इतने बड़े-बड़े लोग अपनी प्रत्याशा में विफल हो सकते हैं तो ये अंदाज लगाना कि हमारे देश में कब क्रान्ति हो जायेगी ? ये बड़ा ही मुश्किल है. बहुत सी चीजें करने की होती हैं, कहने की नहीं होती हैं. और कहकर करेंगे भी क्या? इतिहास है, इतिहास में व्यक्तिगत लोगों की भूमिका है, पार्टियों की भूमिका है, कब वो मौका आएगा, कब रूलिंग क्लास की क्राइसिस होगी, कि सर्वहारा इतना मजबूत होगा क्रान्ति कर सके.
अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: गोरख का वो गीत है समझदारों का गीत. कि जब-जब ऐसा ऐसा होगा तो समझदारों को ये सारी चीजें देखायी देती हैं लेकिन लोगों के सवाल फिर भी हैं. आपको उसका एक समुचित जवाब भी देना होगा?
प्रणय कृष्ण: सवाल दो तरह के हैं – एक सवाल ये है कि आप इन विषयों पर क्या कर रहे हैं? वो तो फिर भी आप बता सकते हैं. कि क्या कर रहे हैं और आगे क्या करने जा रहे हैं. लेकिन ये सवाल मेरे ख्याल से कि क्रान्ति कब होगी ? अब तक क्यूँ नहीं हुई?
अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: आखिर वामपंथी बड़े पैमाने पर लोगों को अब तक संगठित क्यूँ नहीं कर पाए? क्योंकि ये वाम की अपनी खामियों की ओर इशारा हो शायद? आखिर जब आप सब समझते हैं, सब जानते हैं लेकिन आप संगठित नहीं कर पा रहे हैं क्यूं ?
प्रणय कृष्ण: मगर मैं तो ये मान ही नहीं रहा कि लोग संगठित हो ही नहीं रहे हैं.
अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: ऐसे में ये सवाल है आखिर लोग बड़े आन्दोलन क्यूँ नहीं कर पा रहे?
प्रणय कृष्ण: आपका सवाल अपनी जगह बिलकुल दुरुस्त है. सच बात ये है कि अगर हम सब जानते ही होते तो भारत के लेफ्ट मूवमेंट में इतनी दिक्कतें क्यूँ आतीं? और एक के बाद एक पार्टीस क्यूँ बनतीं? सही रास्ते पर इतने टकराव क्यूँ होते? सही रास्ता क्या है क्रान्ति का ? कमजोरियाँ नहीं हैं वाम में, ये तो कोई कह ही नहीं सकता. वो स्पष्ट भी हैं. लोग भी जानते हैं. जो इन आन्दोलनों को चला रहे हैं वो भी इस बात को जानते है. ये एक बात है उसका हल भी जानना ये दूसरी बात है. चलते-चलते राह मिलती है. यू कांट सेय कि कुछ नहीं अनुमान लगा सकते. कि अब ये होगा. मुझे अच्छी तरह से याद है जो आनंद स्वरूप वर्मा की एक पुस्तक आयी हुई है उसका दिल्ली में लोकार्पण था. संचालन कर रहे थे डीपी त्रिपाठी, मंच पर थे सीताराम येचुरी और अमर सिंह. नेपाल के एक दूत जो भारत में रहे है प्रो. मनोरंजन मोहंती थे और भी कई लोग थे. तमाम लोगों ने कहा कि जो नेपाल की क्रान्ति है. कम्युनिस्ट मूवमेंट के जो बड़े-बड़े सवाल थे उनको हल कर लिया है. जैसे कि राष्ट्रीयता का सवाल, मध्य एशिया से लेकर तमाम देशों के लोगों को उनहोंने एक कर दिया है. अब ये सारी बातें इतनी आती-जाती टर्म्स में हो रही थीं तो जब वर्मा जी को बोलना हुआ. उनहोंने कहा यहाँ तो कुछ इस तरह से कहा जा रहा है कि कम्युनिस्ट मूवमेंट के डेढ़ सौ साल के इतिहास में जितने प्रश्न थे, जिनके हल बड़े-बड़े लोगों ने निकालने की कोशिश की और अंततः नहीं निकाल पाए. आज भी वो अनुत्तरित सवाल थे, जिन्हें नेपाल के क्रांतिकारियों ने निकाल लिए हैं. वो इसी बात को कहते हुए थोड़ा हँसे भी. थोड़ा कटाक्ष भी किया. उनहोंने थोडा डीपी वगैरह को ध्यान में रखते हुए कहा कि अपने दुश्मन तो सब जानते हैं. अपने मित्रों को भी जरा जानना चाहिए. फिर बात जारी रखी कि अभी तो नेपाल में परेशानियाँ शुरू हुई हैं. कहने का मतलब है कि कब वो किताब आयी और कितना परफेक्ट था वो बयान. तब तक माओवादी सत्ता में नहीं आये थे. वो कह रहे थे कि अभी तो नेपाल के वामपंथ की, माओवादियों की परेशानियाँ शुरू हुई हैं. ये सारे अभी युवा लोग है. काफी संघर्ष इन्होंने किया है. कई मामलों में साफगोई भी हैं, लेकिन समस्याएं कैसे-कैसे स्प्रिंग करती हैं? जब वो शासन करने की प्रैक्टिस में उतरेंगे तब उनके सामने एकदम नए सवाल होंगे. अतः कम्युनिस्ट आन्दोलन की जो विफलताएं हैं आपस में ही लोगों ने इतनी समीक्षाएँ की हैं. इतना लिखा गया है. उसी को अगर कोई पढ़ ले तो समझ पायेगा कि क्या-क्या कमजोरियाँ थीं?
अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: वाकई में कई बार ये कटाक्ष ही होते हैं जोकि वामपंथ के बाहर के लोग इन कमजोरियों पर जो भी कहते हैं वो कटाक्ष ही होते हैं. आप इतने गंभीर विचार दे रहे हैं, गंभीर लेखन कर रहे हैं , गंभीर होकर समस्याओं पर बात कर रहे हैं, गंभीर से कम तो कुछ होता ही नहीं है ये कटाक्ष ही होते हैं लोगों के ?
प्रणय कृष्ण: दूसरी बात है क्रान्ति आप किसको कहते हैं? बाक़ी लोगों से तो नहीं पूछा जाता कि आप कब क्रान्ति कर रहे हैं. कांग्रेस से नहीं पूछा जाता भाजपा से नहीं पूछा जाता, कम्युनिस्ट से ही क्यूँ पूछेंगे? आप कब क्रान्ति कर रहे हैं. है न.
अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: क्रान्ति का विचार तो वामपंथ की ही देन है ?
प्रणय कृष्ण: क्रान्ति हमारा लक्ष्य है. लेकिन हर रोज सुबह उठते ही आप हमसे ये नहीं पूछ सकते कि आप कब क्रान्ति कर रहे हैं. एंड यू आर नोबडी टू आस्क मी कि आप कब.... क्योंकि आपका तो लक्ष्य ही नहीं है. तो आपको चिंता क्यूँ है इस बात की? कि कब होगी क्रान्ति ? क्यूँ आपके पेट में मरोड़ उठती है कि कब क्रान्ति करेंगे हम. आपको तो खुश होना चाहिए कि कम्युनिस्ट हमारे मित्र हैं और कहते हैं कि क्रान्ति होगी. और क्रान्ति कर भी नहीं रहे हैं. आप होते कौन हैं पूछने वाले? क्रांतियाँ कब कब होती हैं? क्या १९१७ के बाद कोई क्रान्ति हो गयी ? या १७८९ के बाद फ्रांस में हो गयी ? याकि चीन में हो गयी?
अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: एक संभावना और कि जहाँ-जहाँ वामपंथी आन्दोलन सफल होते देखे गए, जहाँ-जहाँ सत्ता पलटी. तमाम जगहों पर यही था कि उसके पहले की सत्ता या तो सामंती थी या शासक वर्ग होते थे, या सैनिक शासन होता था. दोनों ही शासकीय पद्धतियों में प्रजातंत्र कहीं नहीं था. वहाँ पर सत्ता पलटने में वामपंथी ताकतें सफल हुई. भारत ब्रिटेन अमेरिका में जहाँ संसदीय लोकतंत्र है वहाँ एक हद तक लोक की तरह नहीं है, हमारा देश बांग्लादेश पाकिस्तान भूटान की तरह नहीं है. नेपाल की तरह हमारा देश नहीं था. ये बताइए जहाँ संसदीय लोकतंत्र है, लड़ाईयाँ वहीं लंबी खींचती दिख रही हैं. बहुत लम्बी खींचती जा रही हैं. जहाँ दूसरी तरफ सैन्य या शासक सत्ता रही है वहाँ पर तेजी से बदलाव हुए हैं. इस चीज को आप कैसे देखते हैं?
प्रणय कृष्ण: इसका उलटा भी आप देख सकते हैं. जहाँ पर सैन्य शासन होने के बाद भी कहीं कुछ नहीं हुआ. पाकिस्तान इसका उदाहरण है. उतने ही दिन से हम भी आज़ाद हैं, जितने दिन से पाकिस्तान. वहाँ तो लोकतंत्र ही आना मुश्किल है. क्रान्ति होने की तो बात ही छोडिये. इसका कोई नियम नहीं है. संसदीय लोकतंत्र में कठिनाई तो हो ही जाती है. खासकर किसी देश का बुर्जुआजी कितना लचीला है? इस कारण. यहाँ तो गवर्मेंट आफ इंडिया एक्ट १९३५ में आ रहा है. उसके पहले ही मान्तेग्यु चेम्स फोर्ट के साथ ही १९१९ से ही आपको सीमित मताधिकार है. जो एडल्ट फ्रेंचाइजी है वहाँ तक आने की राह बहुत पहले ही शुरू हो गयी है. रिप्रेजेंटेटिव इंस्टीट्यूट का बनना. तो हमारे यहाँ की स्थिति चीन की तरह नहीं थी. ये सही बात है कि संसदीय लोकतंत्र के अंदर ही जज्ब करने की क्षमता है. असंतोष को जज्ब कर लेने की क्षमता है. बरगलाने की क्षमता है. कुछ अपने ही क़दमों को पीछे खींच लेने की क्षमता है. ऎसी लचीली जगहों पर आप ये भी नहीं कह सकते कि आपके यहाँ जो क्रान्ति होगी वो रूस और चीन वाली क्रान्ति की तरह ही होगी. आप ये भी नहीं कह सकते कि जो वेनेजुएला में हो रहा है वो भी तो कोई उस तरह की क्रान्ति नहीं थी. जिसको आप रूस में, चीन में, देख रहे थे. इसलिए बहुत से लोग उसे क्रान्ति कहना भी नहीं चाहते. खुद वो भी उसे पूर्ण क्रान्ति नहीं समझते. रेवोल्यूशन इज नाट अ फिनिश थिंग. वो तो सतत चलने वाली चीज है. माओ और अन्य वामपंथ के लोगों ने भी कहा कि क्रान्ति कोई फिनिश चीज नहीं है. कि वो हो गयी. और अब सभी सुख चैन से बैठें. क्रान्ति एक प्रक्रिया है. क्रान्ति के बाद तुरंत प्रतिक्रांति भी होती है. इसलिए क्रान्ति शब्द का उपयोग कभी-कभी बहुत भ्रामक होता है. हो सकता यदि आप कोई ऎसी चीज एचीव कर लें जिसको आप क्रान्ति न कह पायें. लेकिन आपकी स्थिति में वही क्रान्ति के रूप में उभरती है. जैसे वेनेजुएला में जो लोग आये हैं. वो दस साल से टिके हुए हैं और राईट टू रिकाल जैसी चीज जो लाई गयी. उनहोंने उसे भी सर्वाइव किया. और चारों तरफ से घिरे हुए हैं. एक नयी तरह की यूनिटी पूरे लैटिन अमेरिका में वो लोग स्थापित कर रहे हैं. तो मुझे लग रहा है कि एक क्रांतिकारी प्रक्रिया वहाँ चल रही है. भले ही वहाँ रूस या चीन जैसी क्रान्ति न हो. अब आप समझिए हमारे यहाँ कैसी क्रान्ति होगी? इसके बारे में हम कुछ नहीं कह सकते. यह भी हो सकता है कि जैसे नेपाल में जो हुआ उसे क्या कहेंगे”? क्रान्ति कहेंगे याकि नहीं. हम आपसे ही पूछें कि माओवादी आज नेपाल की सत्ता में हैं. वो आज मल्टी पार्टी डेमोक्रेसी के लिए तैयार हैं. उनके यहाँ अर्थ व्यवस्था कोई सोसलिस्ट नहीं हो गयी है. आप इस चीज को क्रान्ति कहेंगे कि नहीं कहेंगे? राजशाही के सन्दर्भ में देखेंगे तो आप कह सकते हैं कि ये एक लोकतांत्रिक रेवोल्यूशन है. लेकिन बावजूद इसके आप ये नहीं कह सकते कि ये वामपंथी क्रान्ति है. लोकतांत्रिक क्रान्ति वामपंथ से ही आना संभव है. फिर क्रान्ति के जो तमाम लक्षण हैं. जो बीसवीं सदी की क्रांतियों में पाए जाते हैं. वो अब क्रान्ति में नहीं पाए जाते. इसलिए क्रान्ति कैसी होगी. उसका स्वरूप क्या होगा? न्यास क्या होगा? इसके बारे बहुत सारी चीजें नई होनी बाक़ी हैं. मार्क्सिज्म इज एवर हैज बीन फिनिश प्रोजेक्ट. मार्क्स का सिस्टम कोई ग्रोथ का सिस्टम नहीं है. इसलिए कई लोगों में ऐसे लोग जो लिख रहे हैं कि हम लोगों को एक ऎसी व्यवस्था लानी चाहिए, जिसमें जो एसोसिएटेड प्रोड्यूसर हैं, उन्हीं के हाथ में पावर हो. जैसे कि सोवियत के हाथ में थी. अभी भी लोग आलोचना करते हैं कि जो सोवियत के हाथ से पावर लेकर पार्टी के हाथ में केंद्रित कर दी गयी. वो कहते हैं कि ये गलत हुआ. यहाँ तक कि जो क्रांतियाँ संपन्न हो चुकी थीं. एक समय बाद उन पर यही बातें हुई. क्रान्ति के प्रोसेस के बारे में गहरी बहसें हैं. ये आप नहीं कह सकते कि रूसी क्रान्ति जिस तरह से संपन्न हुई उस तरह से ही संपन्न हो सकती थी. कई लोग ये कहते हैं काउंटर अटैक करते हुए कि क्रान्ति दूसरे ढंग से भी संपन्न हो सकती थी. चीन के बारे में भी यही कहते हैं. ऐसा होता तो क्या होता? पर ये तो ठीक है कि ये काउंटर फैक्चुअल तर्क हैं. ऐसा होता तो क्या होता? जैसे हम अतीत के बारे में कहते हैं कि हम गलत हैं. भारत में अँगरेज़ न आये होते तो क्या होता? याकि लेनिन ने उस तरह से क्रान्ति न की होती तो किस ढंग से की होती? ठीक इसी तरह से भविष्य के बारे में भी हमें ऐसे ही नहीं सोचना चाहिए. कि ये होगा तो क्या होगा? क्योंकि क्या होगा ये तो हम यहाँ बैठे हुए नहीं बता सकते.
अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: भारत में वाम महासंघ जैसी किसी चीज़ के बारे में आप क्या सोचते हैं ?
प्रणय कृष्ण: हो सकता है, वाम महासंघ तो बन ही सकता है. मुश्किल जरूर है राह, लेकिन कोशिश जरूर की जानी चाहिए. और उसमें मैं सबको इम्पोर्ट करता हूँ. यहाँ तक कि माओइस्ट भी इस पर विचार करें तो अवश्य हो सकता है. क्योंकि मुझे व्यक्तिगत तौर पर खुद ही बहुत अफ़सोस होता है. आप देखिये- जो भी सोचते हों वो लोग. अंडरग्राउंड होने के फायदे कहीं ज्यादा हैं खतरे सिर्फ ये नहीं कि स्टेट के साथ आपका क्या है? मुखबिरी सबसे बड़ा खतरा है. व्हेन यू आर नो दी पीपुल. आप ऊपर हैं तब बहुत से खतरे हैं जो आपके साथ नहीं हैं. लड़ाई तब भी होगी, मारे आप तब भी जायेंगे. और एक बहुत बड़ा दायरा उसको छोड़ देने का औचित्य मुझे समझ नहीं आता. ये खाली मैं अपनी पार्टी की लाइन की बात नहीं कर रहा हूँ क्योंकि संसदीय रास्ते पर हम लोगों को ही कोई बहुत बड़ी सफलता थोड़े ही मिल गयी है.
अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: इस समय तो लेफ्ट के जितने फोरम हो सकते हैं, सब अस्तित्व में हैं. और अपने-अपने तरीके से लड़ रहे हैं. आप अंडरग्राउंड सोच सकते हैं, आप कुछ यूजी, कुछ ऊपर सोच सकते हैं. कुछ फोरम ऐसे हैं जिनका कुछ हिस्सा यूजी है और बाक़ी हिस्सा खुलेआम मार्च भी करता रहता है. तमाम संगठन ऐसे हैं, जो पूरी तरह से गोरिल्ला युद्ध में लगे हुए हैं. तमाम ऐसे जनसंगठन भी हैं और अन्य भी. मतलब जितने संगठन सोचे जा सकते हैं. वो सब भारत के अंदर सबसे ज्यादा देखने को मिल सकते हैं ?
प्रणय कृष्ण: बट दे आर नोट कोआर्दिनेतेद.
अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: लेकिन क्या ये नही हो सकता, जहाँ वाम एक मेलजोल के साथ नहीं बन रहा. वहाँ एक बात ये सही नहीं कि आपस में तीखी आलोचना करने की बजाय एकत्व की भावना से कार्य किया जाय. जो आप सही समझें आप करें. हम तीखी आलोचना की बजाय सहयोगी भावना से काम भी करें कोई जंगल में काम करे, कोई शहर में, कोई छोटे तबके में, कोई किसानों के बीच, करेगा, फर्क सिर्फ इतना कि सेन्ट्रल लीडर शिप नहीं रहेगी. हमारी डी सेंट्रलाइज लीडरशिप अगर हम मान लें. जहाँ लोगों के भले के लिए तमाम लोग काम कर रहे हैं. अंततः लक्ष्य तो एक ही है. तो क्या एक दूसरे की तीखी आलोचना के बजाय सपोर्टिव होकर हम काम करें क्या ये संभव है?
प्रणय कृष्ण: आलोचना भी तो यही मानकर ही होती है कि कोई कैटागोरिक अंतर्विरोध तो है नहीं. हम वर्ग शत्रु से बहस नहीं कर रहे हैं. न हम उन्ही से बहस कर रहे हैं जो उसी लक्ष्य के लिए काम कर रहे हैं. तो कहने के तरीके में, दोष हो सकता है. लेकिन जो उद्देश्य है, उसमें ये नहीं होता है कि हम उन्हें दुश्मन समझ के बहस कर रहे हैं. ऎसी बहस बहुत लाभप्रद होती है. वो बहस वाम महासंघ बनाने में तनिक भी नुकसानदायक नहीं है.
अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: अभी तक तो इस तरह की दोस्ती वामदलों चल रही है कि जब हम मिलें तो हम बताएं कि आपकी पांच गलती क्या हैं? और आप कहें कि हमारी दस कमियाँ क्या हैं? अब अगर ये मान ही लिया कि ठीक है हमारे अंदर आठ और आपके अंदर पांच कमियाँ हैं. इसके साथ ही चलना क्या संभव नहीं है ?
प्रणय कृष्ण: मेरे ख्याल से कुछ-कुछ जगहों पर इस तरह से मैत्री भाव का प्रभाव हो भी रहा है. लेकिन अभी तक वो इलेक्टोरल एलीना में या ट्रेड यूनियन के स्तर पर ही हो रहा है. अभी बाक़ी मॉस फ्रंट्स में ये हो भी नहीं पाएगा. क्योंकि देखिये सिर्फ वाम के रूप की बात नहीं है, वो बात है तो विचारधारा और प्रैक्टिस की ही. जिसके चलते आप कोई एक रूप लेते हैं या दूसरा रूप लेते हैं. क्योंकि जब आप आलोचना करते हैं तब दूसरे को कुछ कहते हैं. एक टर्म भी उसके लिए होगा कि फलाना एनार्किस्ट है. आप कहेंगे फलाना संशोधनवादी है. दरअसल जब आप ऐसा कह रहे हैं तो आप विचारधारात्मक आलोचना भी कर रहे हैं. आप खाली रूप की आलोचना ही नहीं कर रहे हैं. कि वो खाली हथियार बंद कार्य कर रहा है. या आप संसद में ही क्यूँ कार्य कर रहे हैं. भारत में जो वर्ग है उनका चरित्र क्या है? उसके आधार पर आपने पार्टी प्रोग्राम कैसा बनाया है? सत्ता में हस्तक्षेप करने के आपके तरीके क्या हैं? ये इन सभी चीजों पर निर्भर करता है कि उसमें भी जिस हद तक कॉपरेशन हो सकता है विचारधारा को छोडकर. विचारधारा में सब मानते हैं, देखिये कि उसमें कोई समझौता नहीं होता. लेकिन कार्य में हो सकता है.
अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: जैसे सीएलआई के कई धड़े हैं, जो मजदूरों के बीच में काम कर रहे हैं. मगर किसानों के बीच में काम ही नहीं कर रहे हैं. सीएलआई के ही कई धड़े हैं, जो कॉर्पोरेट के बीच मजदूरों के साथ काम करने में लगे हुए हैं. किसानों के बीच उनका काम ही नहीं है. ये उनकी संघर्ष क्षमता समझ लीजिए, उनकी ताकत, उनकी सीमा कहिये. हो सकता है कि विचार में वो और बड़े तबके को संगठित करना चाहते हैं. मगर फिलहाल सभी लोग जिनकी ताकत की आप सीमा मान लीजिए. आस्पेक्ट चाहे जितना बड़ा क्यूँ न हो. मगर चाहे अनचाहे एरिया सबका बंट ही गया है. जहाँ दोनों तरह के लोग जो नहीं पहुँच रहे हैं. शहर के तमाम हिस्से, आखिर वो हमारे ही आन्दोलन हैं. किसी शत्रु के नहीं. किसी विरोधी के आन्दोलन नहीं हैं. अगर शहर को हम संगठित कर रहे हैं तो हम किसान विरोधी काम नहीं कर रहे हैं. अगर हम मजदूर संगठित कर रहे हैं तो शहर के विरोध में काम नहीं कर रहे हैं. एक ही समय में दोनों ये मान सकते हैं कि उनकी उचित ताकत कौन सी हो सकती है? हो सकता है कि कोई माने उसकी ताकत मजदूर है. और कोई माने उनकी ताकत किसान है यह मानते हुए भी अपने-अपने काम में लगे हुए हैं. इसी स्तर पर हम बात कर रहे हैं क्या ये संभव है?
प्रणय कृष्ण: वो तो होता नहीं है. किसी का दमन होता है. किसी भी पार्टी, चाहे वो यूजी हो, ओपन हो, ये तो हो भी रहा है.
अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: अगर हम अलग भी हैं तो आपसी सहमति से, न कि आपसी दुश्मनी से. अगर बाहरी आक्रमण भी हो जाए तो क्या हमें एक सूत्र में नहीं बाध जाना चाहिए?
प्रणय कृष्ण: देखिये, एक दूसरा उदाहरण में देना चाहूँगा- सिंगूर और नंदीग्राम. अब इन दोनों में हम चाहकर भी सीपीएम के साथ भाईचारा नहीं निभा सकते. क्योंकि वहाँ पर तो आपने बुनियादी वर्ग पर ही हमला कर दिया है. जिसको आप ही ने संगठित किया था. हमने कब कहा कि हमने संगठित किया. साफ़ तौर पर एक पूँजीपति आ रहा है, वो कह रहा है कि हम तो ऊसर बंजर जमीन नहीं लेंगे. हम तो चार फसली जमीन लेंगे. क्योंकि आसानी से वहाँ पहुँच पायेंगे हमको परिवहन मिल जाएगा. और आप औद्योगीकरण के नाम पर उसको दे रहे हैं. किसान आपके खिलाफ खड़ा हो रहा है तो आप उसको मार दे रहे हैं. वहाँ पर अगर किसी भी वैराइटी का लेफ्ट ही आलोचना नहीं करेगा. ये प्रैक्टिस ही तो लेफ्ट की प्रक्टिस मानी जाती है. अभी इनको उसका एलेक्टोरली फायदा मिला है. क्योंकि सीपीएम ने वहाँ अन्य किसी लेफ्ट को कभी पनपने ही नहीं दिया. अलोकतांत्रिक तरीके से क्रस किया है
एक बड़ा आन्दोलन जैसे ‘आक्यूपाइड वालस्ट्रीट’ चल रहा है. इसमें सीधे-सीधे उन लोगों ने प्रत्यक्ष आन्दोलन का रास्ता चुना. प्रत्यक्ष आन्दोलन मतलब किसी रिप्रेजेंटेशन के जरिये नहीं. जिस तरह से वो निर्णय ले रहे हैं, जितने भी उनके भागीदार हैं, सभी की उसमें मीटिंग करके बहुमत से प्रस्ताव पास करते हैं. कोई पार्टी अब तक उनहोंने नहीं बनाई है. एक तरह से वो भी गैरदलीय आन्दोलन है. कहें कि वो आन्दोलन आम-आदमी का है. लेकिन उसने अपना कोई संगठित दल नहीं बनाया है. उसके बरक्श आप देखें कि जो अन्ना का आन्दोलन यहाँ चलाया गया वह भी अपने स्वरूप में गैरदलीय रहा. उससे भी निकलकर कोई पार्टी नहीं आई. बुर्जुआ लोकतंत्र की व्यवस्था जो अभी चल रही है उसमें भाग लेने लायक कोई इकाई उनहोंने नहीं बनाई. तीसरी तरह के आन्दोलन मध्यपूर्व में चले हैं लेकिन उसमें भी सब जगहों के आन्दोलनों का अलग-अलग विन्यास रहा है. जैसे गद्दाफी के खिलाफ जो आन्दोलन चल रहा था उसमें अमरीका ने उस आन्दोलन को सपोर्ट किया है. लेकिन अभी जो सीरिया में आन्दोलन चल रहा है अमरीका चाह रहा है कि वो आन्दोलन क्रस हो जाए. एक तो जो राष्ट्र-राज्य की चौहद्दी में भी जितने आन्दोलन चल रहे हैं आप ये नहीं कह सकते कि उसके अंतर्राष्ट्रीय आयाम नहीं हैं. कहीं न कहीं से किसके पक्ष में जा रहा है. इस पर अंतर्राष्ट्रीय ताकतों की निगाह है. वो उसको इन्फ्लुएंस करना भी चाहते हैं. आक्यूपाइड वालस्ट्रीट इस मामले में बेहद सिग्नीफिकेंट है. इसलिए कि वो अमरीका को चुन रहा है. और मंदी में जो वहाँ पर बेरोजगारी फैली है कॉर्पोरेट लूट के बाद लगातार बेलोंट पैकेजेस दिए गए हैं कॉरपोरेट्स को. जनता की सोसल स्टैंडिंग कम की गयी है. वो आन्दोलन सीधे-सीधे ये कह रहा है कि कॉर्पोरेट लूट में आम जनता के खिलाफ सरकार उसको बढ़ावा दे रही है. ९९बे फीसदी हम हैं. और एक फीसदी आन्दोलन के खिलाफ नारा दे रहा है. अभी भी बहुत सारी बातों पर वहाँ स्पष्टता नहीं है. मसलन जो संगठित या ट्रेड यूनियन हैं. उनके साथ उसका क्या सम्बन्ध होगा? दूसरी बात संगठन का वो कोई पार्टी के साथ मेमोरेंडम बनाए कि न बनाए. इन सब विषयों को अभी उनहोंने खुला छोड़ दिया है. और वो आन्दोलन चल रहा है. इस मामले में वो विलक्षण है. कि पहली बार ये हो रहा है सीधे पूँजी के गढ़ में, पूँजी के सवाल पर जबरदस्त संयम के खिलाफ आन्दोलन चल रहा है. इसके पहले विकसित दुनिया में बहुत सारे आन्दोलन चले. लेकिन सीधे-सीधे पूँजीवाद को चोट करता हुआ मुझे ये पहला ही आन्दोलन दिखाई दे रहा है. यहाँ पर जो आन्दोलन चला है वो सीधे पूँजी पर चोट नहीं कर रहा था. भ्रष्टाचार पर चोट कर रहा था. एक दिक्कत उसमें थी कि जो कॉर्पोरेट की लूट है, उसको इसमें केंद्रित नहीं किया. जबकि सरकारी लूट को तो केंद्रित किया. दूसरा ये था कि स्वतः स्फूर्त वह भी था, लेकिन उसने दो-तीन चीजें जरूर की हैं. अन्ना के आन्दोलन ने पहली बार राजनीति को मुद्दा बनाकर मंडल, मंदिर के बाद पेश किया है. ये उसने एक तरह से लोगों के सामने रख दिया. दूसरी बात ये है कि उसने संसदीय लोकतंत्र की जो सीमाएं हैं उसको काफी हद तक एक्सपोज किया है. लगातार ये कहा जाता रहा है कि संसद सर्वोच्च है और संसद में तीनों बिंदुओं पर जो सहमति बनाई गई, उन सबको वाईलेट करते हुए उनहोंने बिल लाया. और अंततः सभी पार्टियों ने ये किया कि वो विकलांग बिल पास न हो सके. तो मुझे लगता है कि इस आन्दोलन की और कोई देन हो न हो, दो ही चीजें मुख्यतः रही हैं एक तो संसदीय व्यवस्था का बड़ा एक्सपोजर और दूसरा भारतीय राजनीति में मंडल के आगे का एजेंडा सेट करना. वो भी अभी पूरी तरह से सेट नहीं हुआ है. यहाँ भ्रष्टाचार भी पर्याप्त अमूर्त शब्द है. जिसको लेकर कोई राजनीति कर सकता है या नहीं भी कर सकता है. तो इस आन्दोलन के खिलाफ जो बातें प्रचारित की गयीं, उसमें बड़ी बात ये थी कि ये जो आन्दोलन है. समाज के सभी तबकों को लेकर नहीं चल रहा है. इसमें पिछड़े वर्ग की जनता, मुसलमान, दलित आदि-आदि नहीं हैं. इलाहाबाद का मेरा अनुभव ये है कि सभी तबकों के लोग बाकायदा शामिल थे. और यहाँ पर जो बड़ी सभा हुई थी, सलोरी में बड़ी संख्या में छात्र शामिल थे. मेरा ख्याल है कि राजेन्द्र यादव जी उसका संचालन कर रहे थे. वो सीटू के छात्र रहे हैं. जिस तरह से छात्र सलोरी में असुविधाओं में रहते हैं. आप ये अनुमान लगा सकते हैं कि किस वर्ग और जाति के छात्र उसमें शामिल रहे होंगे. मीडिया में वो भले ही ब्राडकास्ट नहीं हुआ. ऐसे बहुत से लोग जगह-जगह सक्रिय थे. जो मीडिया में आर्टिकुलेट है उसकी बात आती है. जो लोग मीडिया के माध्यम से उस आन्दोलन को देख रहे थे. उनको लग रहा था कि निचले तबकों की शिरकत इसमें उस स्तर पर नहीं हुई है. अभी मुश्किल से १५-२० दिन पहले ही अमर उजाला में हेडलाइन थी – अन्ना के आन्दोलन में शामिल लोग अब अपनी-अपनी जातियों के पीछे लगे हुए हैं. मुझे याद है उसमें जिन नेताओं का नाम लिया था दो मुस्लिम, एक दलित, एक कायस्थ का नाम और किसी एक अन्य जाति का नाम लिया गया था. इस नेगेटिव खबर से भी जाहिर है कि इस आन्दोलन में बाकायदा इन तबकों के नेता शामिल थे. जब पहली बार हम उस आन्दोलन में गए, जहाँ भूख हड़ताल पर अन्ना बैठे थे. मैंने बाल्मीकि समाज का पूरा एक बैनर देखा. आरबीआई के लोग वहाँ आये हुए थे. जब उनहोंने आन्दोलन का समापन किया. लोनिया समाज के बैनर हमने वहाँ देखे थे. लोनिया भी एक निचले तबके की जाति होती है. अतः ये आन्दोलन पहली बार राजनीति को मंडल मंदिर के आगे ले जा रहा था. एक एजेंडा था जो उससे अलग था. वो तमाम शक्तियाँ जो ये चाहती थी. कि अभी भी राजनीति उन्हीं दायरों में होती रहे. उनहोंने उसी दृष्टीकोण से आन्दोलन पर हमला किया कहा, यह कोई पोपुलर मूवमेंट नहीं है. इसके अंदर इन-इन तबकों की कोई रिप्रेजेंटेशन नहीं है. जोकि गलत है. मैं अन्ना की जाति तो नहीं जानता लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि शायद वो मराठा हैं. मराठा कौम क्षत्रिय और पिछडी जातियों को मिलाकर ही एक अलग समूह बनता है. और अब उसमें से वो किस जाती के हैं? ये मुझे नहीं मालूम. अतः एक तर्क जो उस आन्दोलन के खिलाफ दिया गया था वो पूरी तरह से गलत था. दूसरा तर्क जोकि कांग्रेस दे रही थी ये आन्दोलन सीधे-सीधे आरएसेस स्पॉन्सर्ड है अब कोंग्रेस के पास क्या जवाब है कि जब आर एस एस ने अपना एक प्लेटफार्म बना लिया है भ्रष्टाचार के सवाल पर , जिसमें गुरूमूर्ति, स्ब्रमंयम, गोविन्दाचार्य, बाबा रामदेव हैं इन लोगों ने नॅशनल फोरम बना लिया है. जाहिर है ये फोरम इसलिए बनाया कि उनको इस आन्दोलन में वो जगह नहीं मिली जिसके चलते वे इसका इस्तेमाल कर पाते. इस्तेमाल करने के लिए रथयात्रा लेकर आडवानी जी निकले, कोई समर्थन नहीं मिला. और यू पी का चुनाव बताएगा कि बीजेपी को इसका कोई फायदा नहीं मिला. अब ये जरूर था कि अन्ना की टीम छोटी थी. अन्ना हजारे स्वयम राजनीतिक रूप से बहुत प्रबुद्ध व्यक्ति नहीं हैं. नैतिक आधार पर एक बल है. जिसके कारण उन्हें इस आन्दोलन का नेता बनाया गया. इसके अलावा उस टीम के एक-एक व्यक्ति को टारगेट करके चाहे वो प्रशांत भूषण हों, किरण बेदी हों, केजरीवाल हों. उनके खिलाफ सत्ता ने अभियान चलाया. इन सब के बाद भी हमको लगता है कि उस आन्दोलन ने एक चीज़ की, कि इस देश में लोग वोट देते हैं लेकिन डिसएम्फेस्साईजड हैं. वोट देने के बाद भी उनको लगता है इस देश में उनका रिप्रेजेंटेशन नहीं हो रहा है. तो वह जो अनरिप्रजेंटेड एंगर है, इस आन्दोलन में निकला. लोग वोट देते जरूर हैं और कई बार ऐसे तर्कों से मतदान करते हैं कि जिसे आप सत्ता परिवर्तन का तर्क नहीं कह सकते हैं. लेकिन इसके बावजूद भी उन्हीं लोगों में व्यवस्था परिवर्तन की इच्छा बची रहती है. और उन्हें लगता है कि वोट देने के बाद भी वे अनरिप्रजेंटेड हैं. यह जो टीस है, एंगर है, वो इस तरह के आन्दोलन में निकला. ये बहुत सारे क्रांतिकारी दलों को सीखने की बात है कि पूँजीवादी व्यवस्था, लोकतंत्र होने के बावजूद भी आखिर क्या चीज है ? जो लोगों को सड़क पर खींच लाती है वो है उनका अपने-आप में डिस एम्फेचाइज महसूस करना. भारत में ये चीज सबक लेने वाली है. और यही डिस एम्फेचाइजमेंट व आक्यूपाएड मोनेस्ट्री में भी है. वहाँ भी लोकतांत्रिक प्रणाली है, लोग वोट देते हैं, अपना प्रधानमंत्री चुनते हैं. उसके बाद भी उनको लगता है कि दे आर नॉट प्रेजेंटेड. चुनाव हो भी जाए तो भी वो एक फीसदी के हित में ही काम करेगा. इसलिए जनता सीधे सड़कों पार उतरी है. ‘इट इज ए ग्रोइंग ट्रेंड इन वर्ल्ड ओवर.’ चूंकि मंदी का समय चल रहा है. इसलिए जोरों पर है. जो बुर्जुआ लोकतंत्र में सत्ता की स्टैब्लिस्ड दल हैं, हम ये नहीं कह सकते कि उनका इन दलों से इस हद तक मोह भंग हो गया है कि लोग उन्हें वोट नहीं देंगे. उनका बहिष्कार करेंगे. लेकिन ये ग्रोइंग डिस इन्चेंमेंट जो उनसे है, वो इन आन्दोलनों के माध्यम से एक तरीका चुनते हैं. वोट बहिष्कार भी एक तरीका हो सकता है. मगर वही एकमात्र तरीका नहीं है. हाँ, एक तरीका हो सकता है. दूसरी चीज ये है कि ऐसे आन्दोलन जिससे जनता सीधे-सीधे जुड़ सके, उसमें लोग निकल आते हैं. उसमें फिर लोग जात-धर्म नहीं देखते. वोट देने में एक बार को ये चीजें देख लेते हैं, मगर ऐसे आन्दोलन में नहीं देखते. हमको लगता है कि ये एक तरह की स्थितियाँ सभी जगहों पर चल रही हैं. यहाँ तक कि जो पाकिस्तान में स्थितियाँ हैं उसमें आप देखेंगे कि अगर कहीं आन्दोलन की सुगबुगाहट भी होती है तो लोग सड़कों पर निकल आते हैं.
© 2012 Pranay Krishna; Licensee Argalaa Magazine.
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