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विमर्श

सुचेता गोइंदी

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता की सुचेता गोइन्दी से बातचीत

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: आपने अपनी इस ज़िंदगी में तमाम जन-आन्दोलन देखे, आपके पहले की पीढ़ी ने कई जन-आन्दोलनों में हिस्सा लिया. आप इन तमाम अनुभवों को और संघर्ष को किस तरह से देखती है ?

सुचेता गोइंदी: मेरे ज़्यादातर अनुभव आज़ादी के बाद के दिनों के हैं और मेरे अनुभव तो निहायत सकारात्मक रहे हैं. जब मैं शिक्षा में थी उस वक्त शिक्षण संस्थानों में बहुत अनाचार फैलने लगा था. मैं अकेली लेक्चरर थी. गुंडागर्दी बहुत बढ़ गयी थी. सन सत्तर की बात है, हमने शिक्षकों को साथ लेकर इन मुद्दों पर बात की और एक ग्रुप बनाया. जिससे इस बुरे व्यवहार वाली ताकत के खिलाफ मिलकर आवाज़ बुलंद कर सके. और तय हुआ कि हमें इस गुंडागर्दी को बर्दाशत नही करना चाहिए. इसका विरोध भी हम अहिंसात्मक तरीके से ही करेंगे. चूंकि गुंडागर्दी के पीछे प्रशासन भी था और राजनीतिक लोग भी. इन लोगों के ग्रुप ने पूरे शहर को अपनी दहशत से गिरफ्त में ले रखा था. यहाँ तक कि बिना उन्हें गुंडा टैक्स दिए कोई ट्रक नही निकल सकता था, कोई दुकान नही खुल सकती थी और कॉलेज में बिना उनकी सहमति के कोई पढ़ा नही सकता था. एक अजीब तरह की अराजकता थी. हमें समझना पड़ा कि ये गलत हो रहा है. हमारे इस संघर्ष का नतीजा यह हुआ कि कुछ पुलिस कर्मचारियों को निलंबित किया गया, कुछ के तबादले हुए. इतना ही नहीं इसमें बहुत बड़ी सफलता जिसको मैं मानती हूँ चूँकि वो एक कस्बा था जहाँ छोटे-छोटे दुकानदार थे. दस बीस रूपये जबरन उगाही करने वालों को देने के लिए मजबूर थे. उन लोगों ने हमारे संघर्ष को देख कर यह कहना शुरू किया कि जब मास्टर लोग इस तरह विरोध कर सकते हैं तो क्या हम लोग इन गुंडों से पार नही पा सकते. आज से हम भी जबरन उनकी मांगो को ठुकराते हैं. इस अहिंसात्मक संघर्ष का जनता में जो सन्देश पहुँचा, वो उनके लिए एक प्रेरणा थी. इस तरह की तमाम बातें मेरी एक किताब – ‘यह कथा नही है’ में प्रकाशित हैं. तमाम सामग्री को मैंने अमृतराय के कहने पर एक डायरी के रूप में लिखा, जो बाद में संकलित होकर छपा. मेरा यही अनुभव रहा कि एक ऎसी अराजकता से से भरी जगह जहाँ कोई भी आदमी जाने से कतराता था, कि नौकरी करने वहाँ न जाना पड़े. इसमें हमारे संघर्ष ने अराजकता का अहिंसात्मक तरीके से सामना किया. ऐसे में टकराहट होने की गुंजाइश कम ही होती है और समझ ज्यादा पैदा होती है. कि सभ्यता, समाज, संस्कृति के लिए वाकई में सही और गलत क्या है ? मुझे संघर्ष करने पड़े लेकिन मैं इन संघर्षों में अपने पिता की बात याद करती थी कि सत्य की धार पर चलना तलवार की धार पर चलना है. ये कतई जरुरी नही कि हमेशा आपको सत्य रोचक और आनंद से भरी हुई अनुभूति दे. आप संघर्षों में आनंद लेना सीखिए. मैंने इन्ही संघर्षो में लगातार डटे रहकर खुद को बनाए रखा. मैंने सन पचहत्तर का आन्दोलन देखा. चूँकि हमारे परिवार के बहुत ही नजदीकी सम्बन्ध इंदिरा गाँधी के परिवार से थे, हमारा खानदान स्वतंत्रता सेनानी था. फिर भी इसी दौरान भ्रष्टाचार, मँहगाई इतनी ज़्यादा बढ़ी. जब कांग्रेस ने जनता से यह वादा किया था कि आज़ादी के बाद राहत देंगे, मगर राजस्व के लालच में भ्रष्टाचार नहीं रुका. उस समय मैंने देखा कि जब आपातकाल घोषित हुआ. जनता खामोश सी रह गयी. लेकिन फिर भी सन सतहत्तर तक पंजाब से लेकर अन्य राज्यों की आवाम ने यह दिखा दिया कि वो किसके साथ हैं.
अब अन्ना का आन्दोलन हमने देखा और देख रहे हैं. कोई भी आन्दोलन तत्काल सफल होगा ऐसा हम नहीं मानते. हम ये जानते हैं कि जो आन्दोलन जितना बड़ा होगा उतने ही उतार-चढाव आते हैं. लेकिन उसका कोई एक निश्चित फल नहीं आता ऐसा मैं नहीं मानती. पिछले तमाम संघर्षों का ही नतीजा है कि आज भी जनता इस पूरे भ्रष्ट माहौल में उसके विरुद्ध अपनी आवाज़ उठा रही है. युवा शक्ति जो इतनी निराशा में पड़ गयी थी कि कहीं कुछ हो ही नहीं सकता. उन्हें भी आन्दोलन में अन्ना के साथ आने का अवसर मिला. यही किसी भी आन्दोलन के लिए आशा की बात होती है.
अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: आपने अभी अन्ना की बात की है, तो मैं यही जानना चाहता हूँ कि बुनियादी जरूरतें जो होती हैं- वो हैं रोटी, कपड़ा, मकान और रोजगार. लेकिन अन्ना का आन्दोलन जोकि भष्टाचार को लेकर हुआ. जिससे जनता अभी उस रूप में नहीं जुड़ी, जिसकी बुनियादी जरूरत है?

सुचेता गोइंदी: इसको इस तरह से आप देखें, कि जनता की बुनियादी जरूरतें पूरी होतीं अगर हमारी राजनीतिक व्यवस्था, नौकरशाही इमानदारी से इसे लागू करती. जितनी हितकारी नीतियाँ थीं. भ्रष्टाचार की वजह से ही किसी भी आदमी को बुनियादी सहूलियतें मिलें या न मिलें. इस बात की तरफ किसी का ध्यान नहीं रहा. नौकरशाह और राजनीतिक दलों की सोच तो ये होती गयी कि कितना अधिक पैसा विदेशी कंपनियाँ, अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार दे जाए. हर नौकरशाह और कर्मचारी इस होड़ में लगे रहे कि कैसे निजी हित साधे जा सकें? कैसे व्यक्तिगत पूँजी को बढ़ाया जा सके? किसी भी देश की व्यवस्था को तो राजनीतिक दल या नौकरशाह ही प्रभावित करते हैं. इन सभी का इस तरफ कोई ध्यान न रहा कि गरीब जनता किस तरह से जीने के लिए संघर्ष कर रही है? गरीब किस तरह से और अधिक गरीब होता जा रहा है? उनका ध्यान इन बातों से हटकर गया तो किधर – कि हमारे पास पूँजी का भण्डार कैसे हो? हमारे बच्चे किस तरह से सत्ता में रहें ? हमारी युवा पीढ़ी राजघराने की पुश्तें किस तरह से राजसुख भोगे. मैं इस मुद्दे को इस नजरिये से देख रही हूँ.
अगर ये ध्यान होता कि हम देश सेवा के लिए आये हैं. जो असंगठित मजदूर वर्ग की परेशानियाँ हैं. उन्हें कैसे दूर किया जा सकता है? अगर ये सोच होती तो भ्रष्टाचार नहीं होता. चूंकि इन नौकरशाहों का ध्यान भ्रष्ट तंत्र को बढ़ावा देने की तरफ था. इसलिए आज ये स्थिति यहाँ तक पहुँच गयी. ‘कन्फेशन ऑफ इकोनोमिक हिटमैन’ एक छोटी सी पुस्तक है इसमें जान बर्किंस लिखते हैं कि वह अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का बड़ा ठेकेदार रहा है और किस तरह से दुनिया के तमाम प्रगतिशील देशों में जाकर वहाँ के राजनेता, नौकरशाह को अपनी नई-नई नीतियों से लुभाते हैं. पिछड़े देशों की गरीबी दूर करने के लिए कैसी योजनाएँ उनके पास हैं. इन योजनाओं को लागू करने के लिए किन-किन तरीकों का इस्तेमाल करते हैं. कभी व्यक्तिगत फायदे देकर, कभी रिश्वत देकर, कभी काले धन का लोभ दिखाकर उन्हें अपने लिए उपयोग किया जाता है. ध्यान जब इस तरफ होगा. पूँजी का विनिवेश होगा. जो वो कह रहे हैं उसे हम रटने लगेंगे कि विदेशी पूँजी निवेश होगा तो साधारण देश का विकास तेज गति से होगा. दुनिया की गति से पिछड़ते जा रहे देश समानधर्मी रूप से भाग लेंगे. विकास की यह अवधारणा ही भ्रष्टाचार को कई गुना बढाने वाली है. इसलिए ज़मीनी स्तर पर गरीब आदमी का विकास नहीं हो पा रहा है. जिन कंपनियों ने यहाँ १९९१ के बाद प्रवेश किया. उनका इरादा ही यह था कि इन देशों पर कर्जा लादते जाएँ और पैसा हमारी ही कंपनियों के पास लौटकर दुगुना वापस आता रहे. वो पैसा मॉनीटरी ढंग से किसी अमरीकी, जापानी, जर्मन कंपनी को हमारे जरिये मिलता रहे. देश पर जब कर्ज इतना बढ़ जाएगा कि वो कर्जा लेकर ही जीवित रह पाने में समर्थ हो सके. ऐसे में हम जब विकास की बात करते हैं तो ध्यान यहाँ होता है कि हमारे पास कितनी तकनीकी सुविधाएँ, और कितनी गैरजरूरी चीज़ें सुविधाभोगी रूप में आ जाएँ. किसी का गाँव अगर हमारी इस बिजली की खपत से उजड़ता है तो उजाड़ जाए. इससे हमें क्या? आखिर किसी को तो सेक्रीफाई करना होगा.
ऐसे में मैं कहूँगी अगर इस बड़े आलीशान बंगलों को उजाड़कर यदि तुम्हें कहीं छोड़ दिया जाए और इससे हमारा विकास होता है. तब क्या होता ? गाँव विकसित होता तो क्या होता? मेरा कहना यही है कि अगर व्यवस्था भ्रष्टाचार में लिप्त न होती तो इस बात पर ध्यान देती कि गरीब आदमी का क्या हाल है ? लोग भ्रष्ट होते गए और नई-नई नीतियों के नाम पर दुनिया को चमत्कृत करने लगे. साधारण गाँववासी भी इस भ्रम में भ्रमित हो गया. कि बड़ा कारखाना हो गया तो बड़ी प्रगति हो जायेगी. वो यह भूल गया कि एक बड़ा कारखाना तुम्हारी जमीन को खा जाएगा. अगर एक मशीन लगने से कई हाथ बेरोजगार हो जाएँ तो आखिर क्या होगा? यह एक विशेष तंत्र है जो विकास के नाम पर गलतबयानी किये जा रहा है. इनसे उनके स्वार्थ सधे हैं. यही वजह है कि ऎसी स्थिति में गरीब और गरीब होता जा रहा है. अमीर और अधिक अमीर हो रहा है.

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: आप ये कह रही हैं कि ग़रीबों का जो शोषण है उसे हम नए रूप में भ्रष्टाचार कह सकते हैं. अगर ऐसा है तो गाँधी ने अपने आन्दोलनों के समय में एक चीज कही थी कि वर्ग संघर्ष नहीं वर्ग समन्वय चाहिए, जबकि मार्क्स का मानना है कि वर्ग संघर्ष से ही सर्वहारा अपने हक, अपनी जरूरतें, अपने अधिकार को पा सकते हैं. अगर आप समन्वय की बात से सहमत हैं तो गाँधी ने मालिक मजदूर के समन्वय की बात की. आखिर जो आदमी शोषण कर रहा है, उत्पीड़न कर रहा है, वो मालिक है. और जो इसे सह रहा है वो मजदूर है, सर्वहारा है. इनके बीच आखिर समन्वय कैसे हो सकता है ?

सुचेता गोइंदी: गाँधी जी के मुताबिक़ ये अंग्रेजी राज की जो व्यवस्था है ये तो मिट जायेगी. तब निश्चित रूप से हम अपनी नीतियाँ लागू कर पायेंगे. और उन नीतियों में विकेन्द्रीकृत अर्थ-व्यवस्था की नीतियाँ थीं, उसमें एक आदमी के पास या आदमी के समूहों के पास बहुकेंद्रित धन होगा. विकेन्द्रित अर्थ व्यवस्था में स्वतः ही धन विकेन्द्रित होता जाएगा- भीख के माध्यम से नहीं, काम के माध्यम से. जो अपनी सरकार बनेगी. गाँधी जी की यही कल्पना थी. उनकी एक किताब ‘मेरे सपनों का भारत’ में स्पष्ट हो जाता है कि वो क्या चाहते थे. आज़ादी के बाद इसे आप सौभाग्य कहें या दुर्भाग्य. आप कुछ भी मान सकते हैं. हमारी व्यवस्था ने ही गाँधी को चलता किया. ताकि उनकी कोई बात लागू न करनी पड़े. मेरे सपनों का भारत में स्पष्ट है कि उन्होंने ऎसी कोई कल्पना नहीं की थी कि जिसमें एक आदमी बहुत बड़ा पूँजीपति हो जाए और तमाम आदमी बेरोजगार हो जाएँ. ग्राम्य समाज की परिकल्पना उन्होंने इसीलिए की थी कि गाँव के संसाधन गाँव में रहेंगे, वहीं पर रोजगार के अवसर मुहैया कराये जायेंगे. जिन्हें अंग्रेज़ों ने नष्ट किये हैं. किन्तु आज़ादी के बाद ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. इसलिए वर्ग बने रहे. गाँधी की कल्पना में वर्ग समन्वय इसलिए था जिसमें ट्रस्टीशिप की बात थी. इसमें यह बात शामिल थी कि यदि मैं ज्यादा प्रतिभाशाली हूँ तो मैंने ज्यादा धन कमा लिया. मेरे मन में यह भाव रहेगा मैं इतना अपनी आवश्यकताओं के लिए रखूँ और बाक़ी जरूरतमंद लोगों में वितरित कर दूँ. क्योंकि एक आदमी के संपन्न होने में कम से कम दो सौ आदमियों के अथक श्रम का योगदान होता है. उस योगदान को याद करके मैं उसे वापस दूँगा. ऎसी कल्पना स्वस्थ रूप से लागू ही नहीं की गयी. मेरा मानना है जहाँ तक गाँधी की नीतियाँ हैं. उन्हें लागू ही इमानदारी से नहीं किया गया. पूँजीपति, सत्ता, सभी खादी को उद्योग बनाने लगे. गाँधी जी की जबकि कल्पना थी कि एक साधारण आदमी जितनी देर के लिए खाली बैठता होगा, वो उतनी देर तक सूत कात लेगा. उसके समय का उतना ही सदुपयोग होगा. इससे कपड़ा बनाने में लगे हर तरह क लोगों को काम मिलेगा. मगर ऐसा हुआ कहाँ? हुआ यह कि हमने कमीशन बना दिए. मुझे यकीनन कहना पड़ता है कि जानबूझकर गाँधी की नीतियों को सरकार ने लागू नहीं किया. चूंकि उस समय हमारे जो भी तथाकथित रहनुमा थे वो बाहरी विदेशी विकास से बेहद प्रभावित थे. पहले रूस का विकास फिर अमेरिका का विकास देखा. जब हमें दूसरों के विकास की अवधारणा के अनुसार ही चलना है तो क्या उम्मीद की जाए? जबकि गाँधी की अपनी ही एक अलग विकास की अवधारणा है. जोकि स्वावलंबन पर आधारित है, अपने सीमित संसाधनों पर आधारित है. लोगों को अपनी ही जगह पर रोजगार और शिक्षा देने की अवधारणा थी. आज आप बेकारी-भुखमरी, बेरोजगारी, आपस में द्वेष, कटुता, हिंसा कितना कुछ देख रहे हैं. दर्द में हिंसा फल फूल रही है.

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: जैसे समाजवादी व्यवस्था एक मार्क्स की थी एक समाजवादी व्यवस्था गाँधी ने दी थी इसमें कौन सी समाजवादी व्यवस्था अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है?

सुचेता गोइंदी: मुझे यकीन है कि हिंसा पर आधारित जो भी संघर्ष होगा. अंततः वो उनके हाथ में चला जाएगा जो बड़ी हिंसा के सौदागर हैं. जो छोटे-छोटे तबके के लोग होंगे फिर पीड़ित के पीड़ित रह जायेंगे. जैसा कि अभी आप देख रहे है. और बेईमानी भी खूब हुई क्योंकि ‘स्टेट’ कंट्रोलर हो गया. अगर हमारा देश अहिंसा से संचालित हो, जोकि होना चाहिए, एक दिन होना पड़ेगा. जब समाज के लोग एक दिन जागृत हो जायेंगे. जो गाँव का आदमी है उसे गाँव में रोजगार की जरूरत है, जब गाँव छोड़कर वो विस्थापित जीवन राजधानी में बिताएगा. एक टूटे छप्पर के तले उसकी क्या इज्जत रहेगी. उसका कोई स्वत्व नहीं होगा. उसकी कोई सहभागिता नहीं रहती. वो एक मजदूर बनकर रह जाता है. अगर इस स्थिति में उसे कोई वाहन खुले आसमान के नीचे कुचलकर चला भी गया तो कोई पूछने वाला नहीं है. मैं यह मानती हूँ कि पुनः सही रास्ते पर आना पड़ेगा जिससे भोगवादी व्यवस्था इसका लाभ न उठा सके. हमसे तमाम बार लोग पूछते हैं मैं यही कहती हूँ कि अभी हम १८५७-१९३० के बीच ही जी रहे हैं. १८५७ में रानी लक्ष्मी बाई से लेकर अन्य योद्धाओं ने आज़ादी की लड़ाई लड़ी और हारे भी. मगर कोई न कोई दीप जलता रहा कि आज़ादी चाहिए. ये तमाम छोटे-छोटे दीप हिन्दुस्तान के कोने-कोने में जलते रहे, जब गाँधी जी हिन्दुस्तान आये उन्होंने इन दीपों को इकठ्ठा किया और १९३१ में इतना बड़ा आन्दोलन खड़ा कर दिया कि अँगरेजी वस्त्रों का बहिष्कार करो और तमाम लोग जो अंग्रेज़ों के लिए काम करते थे. उन्होंने अपनी नौकरी तक छोड़ दी. इन आन्दोलनों में हज़ारों की संख्या में हमारी माएँ और बहनें भी थीं. मुमकिन है इस तरह का वक्त वापस लौटकर आएगा. देर से ही सही उसका आना तय है. हमें लगे रहना चाहिए. ये अर्थ व्यवस्था हमारे देश के श्रमिक वर्ग के लिय जो भ्रम पैदा कर रही है ये जो झूठ बोला जा रहा है. इस वर्ग को जितनी जल्दी हो सके. इन झूठे बहलावों से बाहर आना होगा.

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: १९०६ में जब अंग्रेज़ों ने कांग्रेस से प्रथम विश्व युद्ध के लिए सहायता मांगी थी तब शर्त के मुताबिक़ गरम दल के नेतृत्व करने वाले लोगों की सदस्यता खारिज कर दी गयी थी. १९१६ में पुनः कुछ शर्तों के साथ उन्हें वापस बुला लिया गया. गरम दल ने आज़ादी के लिए कुर्बानियाँ दी. फांसी के तख्ते पर झूल गए. स्वतंत्रता संग्राम में जो गाँधी का अहिंसात्मक आन्दोलन था इन दोनों को आप किस दृष्टि से देखती हैं?

सुचेता गोइंदी: मैं इसे इस तरह देखती हूँ कि लोगों ने प्राणों तक की आहुति दी. उससे बढकर क्या कोई आहुति दे सकता था. गाँधी स्वयं ही स्वतंत्रता के बहुत बड़े प्रेमी थे. लेकिन मैं ये भी मानती हूँ जो भगत सिंह ने कभी कहा था उस वक्त हमारे पिताजी बहुत छटी उम्र के थे और स्वतंत्रता सेनानी, क्रांतिकारी भी रहे. उनको जब अंग्रेज़ों ने जेल में डाल दिया. आपको बता दूँ कि इसके खिलाफ ६४ दिन का उन्होंने व्रत रखा. जेल में ही पिताजी की मुलाक़ात हुई. भगत सिंह के एक तरफ चरखा था और दूसरी तरफ बम. पिताजी ने जिज्ञासावश पूछ लिया कि चरखा और बम साथ-साथ ऐसा क्यूँ ? उन्होंने जवाब में कहा कि गाँधी जी का रास्ता सही है लेकिन हम में उतना सब्र नहीं है. हम इस हुकूमत की गुलामी में नहीं जी सकते.

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: यह किसका कथन है ?

सुचेता गोइंदी: मेरे पिता यतीन्द्र दास जी का, माँ की बात पिता जी के एक मित्र बताते हैं कि जब यतीन्द्र की माँ से कहा गया, आपके बेटे को जेल में डाला गया है. आप मिलना नहीं चाहेंगी. आप अंतिम भेंट कर आओ. माँ ने कहा जिसका बेटा ६४ दिनों से भूखा हो, कमजोर हो गया हो, जिस तरह से हँसता हुआ वो अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ने गया था. मैं वही चित्र अपने ह्रदय में रखूँगी. भगत सिंह ने बम की बात की, सब कुछ किया. लेकिन किसी भी जगह उन्होंने किसी निर्दोष, कमजोर, अस्सहाय, निरपराध आदमी को नहीं मारा. न ही इस इरादे से बम असेम्बली में फेंका. आजकल के जो तथाकथित क्रांतिकारी हैं. हम उनसे इस नौजवान की तुलना नहीं कर सकते. क्योंकि ये एक सच्ची बात है कि जो निरीह जानें लेते हों. वो भला क्रांतिकारी कैसे हो सकते हैं? गाँधी जी का जो असहयोग आन्दोलन हुआ. इसमें बहुत सारी महिलाओं, युवाओं, छात्रों, मेहनतकश जनता ने भागेदारी की. हमारे पिताजी के एक मित्र श्याम सुन्दर शुक्ल जोकि अंग्रेजी हुकूमत के आला अफसर थे- एक सब इन्स्पेक्टर. उन्होंने नौकरी छोड़कर आन्दोलन में हिस्सा लिया. उनसे मैंने सुना कि जन नमक आन्दोलन हुआ तो किस तरह जहाँ दांड़ी में गाँधी जी थे, वहाँ पर समुद्र किनारे नमक था. नमक बनाना नहीं था, सिर्फ कानून तोड़ना था कि देखो, हम तुम्हारा कानून नहीं मानते. गलत है ये कानून. जनहित में नहीं है. हम हिंसा भी नहीं करेंगे. उस आन्दोलन में वो जिस जिस गाँव से गुजरते वहाँ के गाँववासी उनके साथ होते जाते. और गाँधी जी उन्हें बताते जाते कि क्यूँ ये आन्दोलन कर रहे हैं. पहले उन्होंने लार्ड इरविन को खत लिखा था कि तुम ये टैक्स हटा लो वरना मैं इस समय के बाद जनता को जागरूक करूँगा और इस टैक्स का विरोध करूँगा. हम टैक्स नहीं देंगे. आखिर गरीब आदमी नमक रोटी से ही पेट भरता है, उस पर भी ये टैक्स. मगर आज आप देखिये क्या-क्या हो रहा है विकास के नाम पर.
हमें याद है, १९३० में जहाँ पर समुद्र नहीं था वहाँ की जनता इस कदर जागरूक हुई कि खाली कढाहे लेकर उसमें मिट्टी भर- भरकर के उसमें पानी डालकर नमक निकाला. बात सिर्फ यह थी कि हमें अंग्रेजी राज का गलत नियम नहीं मानना. और हम जेल से भी नहीं ड़रते. उस वक्त गाँधी के आन्दोलन कहीं से भी हिंसक नहीं थे. जिसमें जन-जन की भागीदारी हो जाए. जबकि हिंसक आन्दोलन में कुछ ही लोग रहेंगे. और जब कुछ ही लोग होंगे तो सत्ता के लिए उन्हें कुचलना भी आसान होगा. क्योंकि सत्ता के पास हमेशा ही विरोधियों से कहीं बड़ी ताकत हिंसा के रूप में मौजूद है.

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: ये जो जलियावाला कांड है जिसमें क्रान्तिकारियों को जान गंवानी पड़ी. अगर गाँधी चाहते तो क्या उन्हें बचाया नहीं जा सकता था ?

सुचेता गोइंदी: मेरे पिताजी ने जो बाते १९१९ के बारे में मुझे बताईं उसके अनुसार उन्हें बचाने का कोई तरीका नहीं था. क्योंकि फांसी का कोई नोटिस नहीं था. बैसाखी का मेला था मेले में लोग एकत्र थे. मेले से बाहर निकलने का एक ही रास्ता था. वहाँ कोई बैठक करने क्रांतिकारी इकठ्ठा नहीं हुए थे. ये भी एक भ्रम है. मेला था तो उन्होंने सोचा कि ये लोग बैठक जरूर करेंगे. और जनरल डायर ने सोचा कि वो अक्लमंद है और इन्हें यहीं कुचल दिया जाए. क्योंकि उस वक्त ऐसा था कि जहाँ चार लोग इकठ्ठा हो जाते थे वहाँ ब्रिटिश राज की चर्चा तो होती ही थी. कि ब्रिटिश राज कैसे घिनौने अत्याचार कर रहा है. डायर इस बात से ड़रा था कि ये लोग तो चर्चा करेंगे ही. उन्होंने एक तरफ तोपें लगा दीं. इस समय उन्हें बचाने का कोई उपाय नहीं था.

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: तमाम लोगों का मानना है कि जब भगत सिंह को फांसी हुई तब गाँधी चाहते तो अंग्रेज़ों को फैसला बदलने पर मजबूर कर सकते थे. आप इस पर क्या राय रखेंगी?

सुचेता गोइंदी: मुझे इस बात में यकीन नहीं है कि गाँधी जी चाहते तो ऐसा हो जाता. मेरे पास इसका कोई खास उत्तर भी नहीं है. लेकिन वो ऐसा नहीं चाहते थे, उन्होंने इसे रोकने का कोई प्रयास नहीं किया, ऐसा मैं नहीं मानती. यकीनन प्रयास किए होंगे. मगर मेरे पास इस बात के कोई ठोस प्रमाण नहीं हैं. स्पष्ट कारण उस क्या रहे होंगे मैं नहीं कह सकती. मुझे कहीं धुंधला सा याद आता है कि शायद उन्होंने कोई पत्र लिखा था या इस बारे में अंग्रेजी हुकूमत से बात की थी. पर अंग्रेज भला कहाँ मानने वाले थे. इस बारे में मैं कोई पुख्ता जानकारी नहीं दे सकती. पक्के यकीन से कह सकती हूँ यह इल्जाम बिलकुल गलत है कि गाँधी जी उन्हें बचाना नहीं चाहते थे. वो तो क्रांतिकारियों की इतनी इज्ज़त करते थे और स्वयं कहते थे क्रांतिकारियों का बेशक रास्ता हमसे अलग है और गलत है. क्योंकि वो जनता का रास्ता नहीं बन पायेगा. इसीलिए आप जानते ही होंगे कि विश्व का सबसे बड़ा जन-आन्दोलन गाँधी जी का था. क्योंकि वो अहिंसात्मक था. आप देखिये कि इतना बड़ा सेक्रीफाईस कम नहीं होता. जिन्होंने अपने परिवार के बारे में नहीं सोचा, अपनी ज़मीनें ज़ब्त होने दीं, नौकरी छोड़ दी. मुझे लगता है कि ये फांसी से कहीं ज्यादा सेकरीफाईस वाली बात थी. कि हमारी पीढ़ी भी भूखी मरती रहे इनको कौन पूछेगा. हालांकि ऎसी तुलनाएँ हमें नहीं करनी चाहिए. सेक्रीफाईज़ इज सेक्रीफाईज़. और वो दोनों तरीके से हो सकती है. हम इसे एक पॉलिसी भी मान सकते हैं. मगर गाँधी का तो आध्यात्मिक रास्ता भी यही था कि अहिंसा ही एकमात्र उपाय है. और सत्याग्रह उन्होंने इसीलिय चलाया. कि व्यापक और सामाजिक स्वरूप है अहिंसा का.

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: नवउदारवादी नीति का जो अहिंसात्मक रूप शोषण के बतौर देखने को मिल रहा है. इससे भविष्य में किस तरह के जन-आन्दोलनों की छवि आप देख रही हैं ?

सुचेता गोइंदी: मैं जन-आन्दोलन की छवि तो नहीं देख रही हूँ. मैं ये देख रही हूँ कि झूठे-लुभावने प्रलोभन वाली जो नीतियाँ चल रही हैं. उनसे किस तरह से भुखमरी और बेरोजगारी की संभावनाएँ बढ़ रही हैं. ये महामारी सी फैलती जा रही है. एक दिन असंख्य बेरोजगार खुद ही इकट्ठे हो जायेंगे और ये अहिंसात्मक रूप से ही संभव है. जिसका एक नमूना आपने अभी हाल ही में दिल्ली में देख लिया है. अब ये सभी इस बात पर नहीं जायेंगे कि कौन सी पार्टी उनके साथ है. अब वो इस बात पर जायेंगे कि कौन आदमी उनका नेतृत्व कर रहा है. कि वो कौन सा नेतृत्व हो, जो हमारे देश की नीतियाँ बदल सकता है. जोकि हमारे हित में है. हमें इन भ्रष्ट तंत्र की नीतियों को बदलना चाहिए. जो हज़ारों हज़ार गुना भ्रष्टाचार को बढ़ा रही हैं. उदारवादी नीतियाँ लुभावनी हैं. सभी पढ़े-लिखे वर्ग को लग रहा है कि हर आदमी करोड़पति हो सकता है. लेकिन वो समय भी जल्दी ही आएगा. जब यह समझ आ जाएगा कि ये नीतियाँ झूठी हैं, बेमानी हैं. जान बर्किंस खुद लिखता है कि ये छल-छद्म ये झूठ-फरेब सब हम करते हैं. स्वयं जब उसकी आत्मा बोल सकती है, जो उच्च स्तरीय पदों पर रहकर लुभावनी नीतियाँ बनाता रहा है. भला आप ही कहिये कि जो दमन शोषण सह रहे हैं, वो कब तक इस भ्रम में रहेंगे. जब ये ठोकरें खाते दर-दर भटकेंगे, तब अपने आप ही इकट्ठे नहीं हो जायेंगे. आप ही बताइये. और ये भारत भूमि है. इसमें आशा रखती हूँ मैं. कोई न कोई नेतृत्वकर्ता प्रकट होगा.

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: ये उस थ्योरी से मेल नहीं खाता कि ज्ञान एक सामाजिक उत्पाद है उसका सार्वजनीकरण होना चाहिए?

सुचेता गोइंदी: ज्ञान एक सामाजिक उत्पाद तो जरूर है, जहाँ ये अंग्रेजी पढाई वाली लुभावनी नीतियाँ डिग्रियाँ लेने वाले जरूर देखेंगे कि जो उनके साथ हो रहा है. वो आगे उनकी पीढियाँ न देखें. विषमता इसीलिए बढ़ती है. कि कुछ साधन संपन्न लोगों को तो रोजगार मिला जाएगा. कुछ को थोड़ा संघर्ष से ये मिलेगा. लेकिन एक आदमी जो प्रेम जी और टाटा हो जायगा. उसकी तरफ दिखा-दिखाकर हमें लुभाया जा रहा है. वो भ्रम थोड़े दिनों में स्वयं ही समाप्त हो जाएगा.

अनिल पु. कवीन्द्र एवं संध्या नवोदिता: एक बात यहाँ कहना चाहूँगा ये जो अन्ना का आन्दोलन है, अन्ना ने अब तक जो कुछ भी सत्ता के खिलाफ किया. इस समय में जब हमें अन्ना की वास्तव में जरूरत थी या उनके विचारों की, अन्ना ने यह कहा भी था कि हम भ्रष्ट तंत्र, सरकार, दल, के खिलाफ दुष्प्रचार करेंगे. वो जो जन जागरूकता का अभियान था मेरा ख्याल है कि अब कहीं दिखाई नहीं दे रहा है खासकर इस चुनाव के समय में?

सुचेता गोइंदी: अन्ना कर रहे हैं, अन्ना अभी थोड़ा बीमार हैं उनका जो १३ दिनों की भूख हड़ताल थी वो उनके स्वास्थ के लिए बेहद हानिकारक साबित हुई, लेकिन उस वक्त उन्हें कोई मना भी नहीं कर सकता था और ये सरकार तो अंग्रेज़ों से भी ज्यादा बदतर निकली ऐसा सोचा नहीं गया था. वो अस्वस्थ हैं तो भले ही उनके कार्य आपको दिख न रहे हों मगर आन्दोलन भीतर-भीतर चल रहा है. जागरूकता आ रही है. क्योंकि वो जो हमारा मुख्य नेतृत्वकारी था अभी शारीरिक विराम में है मैं आपसे यह स्पष्ट कह रही हूँ कि अगर आप अन्ना को थोड़ी देर को भूल भी जाएँ तो भी लोग इस नीति के खिलाफ, इस भ्रष्ट तंत्र के खिलाफ अपने आप ही उठ खड़े होंगे. पक्का विशवास है मुझे. क्या करेगी सरकार. . . कितने दिन और. . . मुझे पता है कि अहिंसात्मक रूप से लोग खड़े हों ये उनके लिए लाभप्रद होगा. सत्ता की हिंसा ही साधारण जन को अहिंसात्मक जन-आन्दोलन की तरफ अग्रसित कर रही है. हिंसा में तो जो ज्यादा ताकतवर होगा वही हावी होगा.

© 2012 Sucheta Goendi; Licensee Argalaa Magazine.

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