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इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका

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विमर्श

आनन्द कुमार शुक्ल

अनुवाद में समतुल्यता की अवधारणा और औचित्य

दुनिया भर की भाषाओं में काव्यशास्त्र का आरम्भ इस बुनियादी सवाल से टकराते हुए हुआ कि. 'शब्द 'और 'अर्थ 'का सम्बन्ध क्या और कैसा है? इस प्राथमिक प्रश्न के बरक्स तमाम भाषाओं के काव्यशास्त्र अपने आरम्भिक दौर में बतौर दार्शनिक उपलब्धि सामने आए. यही वज़ह है कि शब्द और अर्थ के सम्बन्ध को बहुधा शरीर और आत्मा या जड़ तथा चेतन के सम्बन्ध के रूप में सोचा एवं परखा गया.
कालान्तर में शब्द और अर्थ के सम्बन्ध की व्युत्पत्ति पर आधारित इस मौलिक प्रश्न ने एक नए क्षेत्र में अपनी वाज़िब उपस्थिति दर्ज की. यह क्षेत्र था- अनुवाद. एक अनुवादक अनुवाद कर्म के दौरान लगातार इस समस्या से जूझता रहता है कि प्रदत्त पाठ में मौजूद किसी शब्द के समानान्तर वह किस सर्वाधिक अनुकूल एवं सार्थक शब्द का चयन करें. हर अनुवाद के सामने आनेवाली इस कठिनाई ने समतुल्यता की विविध अवधारणाओं की उत्पत्ति तथा विकास में महती भूमिका निभाई.
मानवीय ज्ञान एवं संवेदनाओं के सम्प्रेषण के औजार के रूप में भाषा बतौर संकेत प्रणाली कार्य करती है. मनुष्य अपने मानसिक बिम्ब को संकेत प्रणाली के माध्यम से ही लगभग ठीक-ठीक सम्प्रेषित करने की कोशिश करता है ; यानी अभिव्यक्त संकेत मानसिक बिम्ब और वस्तु जगत के बीच सेतु का कार्य करते हैं. व्यावहारिक धरातल पर देश-काल और सन्दर्भों में आए बदलाव के साथ-साथ संकेतकों की अर्थगत भूमिका भी बदलती चली जाती है.
इस बात का बहुत बड़ा उदहारण एक ही भाषा संस्कृत में कालगत अन्तर के कारण आए भाषिक अन्तर से प्राप्त दो रूपों में परखा जा सकता है. लौकिक संस्कृत में आते-आते कई वैदिक शब्दों का सम्बन्ध समकालीन समाज से कट गया. साथ ही, कई शब्द अपने विलोमार्थी रूपों में भी प्रयुक्त होने लगे थे. इस समस्या के निराकरण में लौकिक संस्कृत में शब्दों के धात्विक निर्वचन और सन्दर्भगत अर्थबोध का सहारा लिया गया. मास्क के निरुक्त के उद्भव की सम्भवत: यही पृष्ठभूमि थी. इस श्रम साध्य कार्य के कारण यह धारणा भी बलवती हुई होगी कि भाषा में शब्द का प्रयोग निश्चित नियमों के आधार पर ही होना चाहिए. इसी पृष्ठभूमि के संस्कृत के 'कठोर 'वैयाकरण पाणिन ने 'अवयध्यायी 'की रचना की.
आगे चलकर भर्तृहरि ने शब्द के व्युत्पत्तिमूलक अर्थ की कमियों को रेखांकित किया. दरसल शब्द का स्वयं का कोई यथार्थ नहीं होता, बल्कि उसके अर्थ का सम्बन्ध पाठ के द्वारा निर्धारित सन्दर्भ और अन्य शब्दों की पूर्वापरता से नि:सृत होता है. भर्तृहरि ने भाषा की आन्तरिक संरचना को सार्वभौम माना. ज्ञान प्रकार मनुष्य की विभिन्न बोलियों में पाया जाने वाला फ़र्क उनकी ऊपरी सतह का फ़र्क है.
पाश्चात्य चिंतक नोआम चॉमस्की की धारणा भर्तृहरि से काफी मिलती-जुलती है. चॉमस्की की भी मान्यता यही रही कि भाषाओं के बीच दिखाई पड़नेवाला फ़र्क उनकी तल संरचनाओं का है. अपने मूल प्रजनन बिन्दु पर ये सभी भाषायें एक ही व्याकरण द्वारा आत्मसातीकृत होती है.
नाइडा ने अपने व्यावहारिक अनुवाद कर्म में चॉमस्की के इस सिद्धान्त का सहारा लिया. मूलत: हिन्दी में उपलब्ध बाइबिल के अनुवाद के दौरान नाइडा ने अपनी दृष्टि शैलीगत और अर्थगत समतुल्यता पर केन्द्रित रखी. इसकी अपनी चुनौतियाँ थीं. बाइबिल के अनुवाद के दौरान सबसे बड़ी ज़रूरत इस बात की थी कि उसके साहित्यिक उपादानों को बरकरार रखने के साथ-साथ उसके धार्मिक मन्तव्यों में भी बदलाव न आने दिया जाए. इसके लिए नाइडा ने अपनी अनुवाद प्रविधि को क्रमागत चरणों में विभक्त किया. इनके अनुसार सर्वप्रथम स्रोत भाषा के संरचनात्मक अर्थ को लक्ष्य भाषा में प्रक्षेपित किया जाना चाहिए. यह प्रक्रिया अर्थ के निकटतम स्तर तक पाठ को ले जाती है. तत्पश्चात लक्ष्य पाठ को स्रोत पाठ की मूल संरचना के समानान्तर लाना और अन्तत: मूल पाठ के शैलीगत और अर्थगत समतुल्य को समाकलित रूप में प्रस्तुत करना. वस्तुत: नाइडा ने अर्थ और आस्वादन प्रक्रिया, दोनों को समान रूप से महत्वपूर्ण माना है.
एक शास्त्र के रूप में विकसित होने से पूर्व अनुवाद कर्म की दो सर्वाधिक मुख्य प्राथमिकतायें थीं. (पहला) प्रदत्त पाठ के अर्थ और मूल्य को अनूदित पाठ के माध्यम से ज्यों का त्यों सामने लाना और (दूसरा)स्रोत, पाठ की आस्वादन प्रक्रिया को लक्ष्य-पाठ में बरकरार रखना. यही वजह है कि अनुवाद के सभी आरम्भिक सिद्धान्ताकारों का 'समतुल्यता 'के प्रति अध्यधिक आग्रह रहा.
अनुवाद कर्म एवं उसकी प्रविधि का एक संस्था के रूप में विकास सर्वप्रथम जर्मनी में हुआ. इससे पूर्व अमेरिका के आइवा विश्वविद्यालय में अनुवाद हेतु एक विस्तृत कार्यशाला का आयोजन हो चुका था, किन्तु एक विश्वविद्यालयी अनुशासन के रूप में इसका आरम्भ जर्मनी के सारलैंड और लाइपजिग विश्वविद्यालयों से ही हुआ. जर्मन अनुवाद विज्ञान ने अनुवाद कर्म को एक विज्ञान के रूप में देखा. इस प्रकार ठोस वैज्ञानिक अनुक्रम के माध्यम से अनुवाद कर्म को सम्भव माना गया. एक सुसंगत वैज्ञानिक सिद्धान्त की तलाश में लाइपजिग विश्वविद्यालय के ऑटो कादे ने समतुल्यता का सिद्धान्त दिया. उन्होंने शब्द की समतुल्यता और उसकी समाकलित पूर्णता (इंटीग्रेटेड एब्सोल्व) को आधार बनाते हुए चार प्रकार के समतुल्य माने. (एक) पूर्ण समतुल्य (एक भाषा से दूसरी भाषा में समानान्तर रूप से एक ही अर्थ में प्रयुक्त होने वाले शब्द )(दूसरा) वैकल्पिक समतुल्य (एक ही शब्द हेतु कई समतुल्य (तीसरा) आंशिक समतुल्य (शब्द की कुछ ही सम्भावित अर्थों को धारण करने वाले शब्द) एवं (चौथा) अप्रमाणित या विफल समतुल्य (अर्थात जिस शब्द का कोई समतुल्य शब्द सम्भव न हो ;यथा संस्कृति विशेष के शब्द ).
कादे की शब्द आधारित समतुल्य प्रणाली की अपनी ख़ामियाँ रहीं. मूलत: साहित्यिक अनुवाद के सिलसिले में जहाँ पाठ की 'ध्वनि 'महत्वपूर्ण होती है, ये ख़ामियाँ अधिक उभर कर सामने आईं. शब्द के अर्थ को केवल वैयाकरणिक रूप से नहीं प्राप्त किया जा सकता. अर्थ की सम्भावना शब्द की उत्पत्ति, सामाजिक ग्रास्यता और सन्दर्भ के मिले-जुले प्रभाव से ही आँकी जा सकती है. इसीलिए लाइपजिग विश्वविद्यालय के ही उनके एक अन्य सहयोग फिलीपेक ने शब्द आधारित समतुल्यता से हटते हुए 'संरचनात्मक समतुल्यता 'की अवधारणा प्रस्तुत की.
फिलीपेक ने वाक्य को एक संरचनात्मक इकाई के रूप में देखते हुए माना कि वाक्य में शब्द अकेले महत्तवपूर्ण नहीं होता, बल्कि पूरा पाठ एक आवयविक तथा समाकलित इकाई के रूप में कार्य करता है. वस्तुत: यह बहुत बड़े विमर्श का विषय है कि वाक्य और शब्द में कौन अधिक महत्त्वपूर्ण हैं अनुवाद कर्म के दौरान प्रत्येक अनुवादक का सामना इस प्रश्न से अवश्य होता है. ऑटो कादे ने अपनी अवधारणा में शब्द को अधिक महत्त्वपूर्ण माना और इसकी समतुल्यता का सिद्धान्त प्रस्तुत किया, जबकि फिलीपेक ने वाक्य को मुख्य माना, शब्द को गौण. अपने पक्ष में तर्क देते हुए फिलीपेक ने कहा कि किसी भी भाषा की सरंचना उसके वाक्य द्वारा निर्धारित होती है, न कि इसके शब्द द्वारा. एक ही शब्द कई भाषाओं में प्रयुक्त हो सकता है. अत: शब्द के आधार पर भाषा के सार तक पहुँच पाना सम्भव नहीं है.
दरासल शब्द बनाम वाक्य का विमर्श अंश बनाम अंशी के विमर्श से मिलता-जुलता है, यानी अंश महत्त्वपूर्ण है कि अंशी. किसी व्यक्ति को अंगों के गठजोड़ के माध्यम से पहचाना जाएगा या उसकी पहचान एक सम्मिलित इकाई के रूप में होगी. निश्चित रूप से व्यक्ति महज अंगों का गठजोड़ नहीं है, वह इन सबसे अन्यथा भी कुछ है. इस सम्मिलित इकाई की सम्पूर्णता के भव को व्यक्त करने के लिए प्रयुक्त होने वाले जर्मन शब्द 'गेस्टाल्ट '(जी-अस्ताल्ट )को अंग्रेज़ी में हू-ब-हू स्वीकार कर लिया गया है. 'गेस्टाल्ट 'किसी भी निकास को हिस्से में देखने की बजाय एक आवयविक इकाई के रूप में देखने की वकालत करता है. निश्चित तौर पर किसी भी विकास को विविध हिस्सों में बाँट कर उसकी आत्मा तक नहीं पहुँचा जा सकता. इस बँटाई प्रणाली में तो हाथी कभी सूँड होगा तो कभी पैर.
भाषा संस्कृति का प्रवाह भी है. अपने ऐतिहासिक विकास के क्रम में भाषा संस्कृति के विविध तत्वों को अपने में घोलती चलती है. अत: आवयविक समतुल्यता का एक आवश्यक पक्ष सांस्कृतिक समतुल्यता भी है. जर्मन अनुवाद विज्ञान के दूसरे महत्त्वपूर्ण केन्द्र सारलैण्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर बोल्फ्रेम विल्स ने अनुवाद कर्म के आवश्यक पक्ष के रूप में सांस्कृतिक समतुल्यता को आधार बनाते हुए कहा कि अनुवाद. विज्ञान को किसी बद्ध निकाय के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए. वस्तुत: यह एक प्रकार का अन्ता: प्रजात्मक. अनुवर्ती विज्ञान है. इसकी वजह यह है कि मनुष्य की विभिन्न भाषाओं में अर्थगत साम्यता है. यह मानवीय प्रवृत्तियों एवं अनुभव का सामूहिक अन्तवर्ती आभ्यन्तरीकरण है.
विल्स ने अनुवाद कर्म की विफलता के दूसरे खतरे की ओर आगाह करते हुए कहा कि समानता की तलाश में हम सिर्फ़ संरचनात्मक बाहरी ढाँचे तक पहुँच सकते हैं, पाठ की आत्मा तक नहीं. अर्थ की वास्तविक समतुल्यता को प्राप्त करने के लिए हमें अन्ता: प्रज्ञा के स्तर पर उतरने की ज़रूरत है.
यह खतरा साहित्यिक अनुवाद के दौरान अधिक मँडराता है. प्रत्येक रचना में रचनाकार के अवबोध के संरचनातन्त्र की विशिष्टता होती है. अनुवाद कर्म के दौरान इसे समझे बग़ैर कोई भी अनुवादक रचना के साथ न्याय नहीं कर सकता. विल्स ने इसीलिए कहा कि टुकड़ों में हम सच्चाई की आत्मा तक नहीं पहुँच सकते. इसके लिए अन्तत: अन्ता: प्रज्ञा की शरण लेनी होगी. रचना की आत्मा उसका सारतत्व है और उसे प्राप्त करने के लिए कोई ठोस वैज्ञानिक नियम नहीं है. वस्तुत: रचना एक जीवित सच्चाई के रूप में मनुष्य पर घटित होती है और मनुष्य को भी जीवित बनाती है.
उपर्युक्त वर्णित सभी सिद्धान्तों की अपनी ख़ामियाँ थीं. जेम्स होम्स ने इन्हें अतिवादी सिद्धान्त कहा. उनके अनुसार अनुवाद में न तो भाषा विज्ञान की ज़रूरत है और न ही साहित्य के सिद्धान्तों की. इन दोनों अतिवादों से बचते हुए अनुवाद हेतु एक बेहतर सिद्धान्त विकसित किया जा सकता है. चॉमस्की की गहन संरचना किसी भी तरीके से प्रमाणित नहीं हो सकती. अत: होम्स ने अपना ध्यान तल संरचना पर केन्द्रित रखा. होम्स एमस्टरडम में अनुवाद अध्ययन के प्रवर्तक माने जाते हैं. इनका विचार था कि मूल रचना और अनुवाद में फ़र्क होता है. मूल रचना का सन्दर्भ वास्तविक संसार होता है, जबकि अनुवाद का सन्दर्भ प्रदत्त रचना. अपनी किताब ‘पोएट्स एंड मेताफर्स’में उन्होंने अनूदित पाठ को अधिपाठ माना. अपने समतुल्यता के सिद्धान्त 'साहित्यिक प्रकार्य समतुल्यता 'के विमर्श में उन्होने अनुवाद को एक तरीके का भाष्य माना. मूल साहित्य की आलोचना अधिसाहित्य है. यह व्याख्या स्वीकार करते हुए होम्स ने अनुवाद को भी अधिसाहित्य कहा. दरसल अनुवाद भी एक आलोचनात्मक व्याख्या है ओर इसकी भाषा अधिभाषा.
होम्स के सिद्धान्त को समझने के लिए रूसी रूपवाद को समझना आवश्यक है. साहित्य में मूलत: दो पहलुओं पर विचार होता है. अन्तर्वस्तु और रूप. रूसी रूपवाद के अनुसार जो विशिष्टता किसी रचना को साहित्य बनाती है, वह है उसका रूप. साहित्यिकता का अर्थ अलग ढंग से 'कम्पोज़ 'करना है. विशिष्ट पुनर्संयोजन के माध्यम से साहित्यिक रचना देखे, सुने, परखे और जाने गए संसार का अपरिचितीकरण करते हुए साहित्यिक अभिरूचि की व्युत्पत्ति करती है. रचनाकार रचना में अन्तर्मुक्त संवेदनाओं तथा वस्तुओं को रूपगत नवीनता प्रदान करता है. अत: साहित्य का अर्थ वास्तविक संसार का विशिष्ट पुनर्संयोजनीकरण है.
रूसी रूपवाद के आलोक में होम्स ने अनुवाद की प्रक्रिया को अपने सिद्धान्त में प्राथमिक प्रश्न बनाया. अनुवाद को अधिसाहित्य मानते हुए उन्होंने प्रक्रिया के आधार पर अनुवाद के चार प्रकार बताए.
(एक) रूप का अनुकरण
(दो) रचना और अनुवाद में प्रभावगत साम्यता
(तीन) शाब्दिक अनुवाद
(चार) रचना को समझकर उसके आधार पर लक्ष्य भाषा में नयी रचना (छायानुवाद )
इन सभी अनुवाद के सिद्धान्तकारों ने अनूदित रचना को लक्ष्य भाषा में मूल रचना की समतुल्य रचना माना तथा समतुल्यता की विविध अवधारणाओं को विकसित किया. उनके लिए समतुल्यता अनुवाद हेतु अपरिहार्य थी. किन्तु विखण्डनवाद ने समतुल्यता की सम्भावना को सिरे से नकारते हुए, इसे अनुवाद के लिए महत्त्वपूर्ण माना. इस प्रकार विखण्डनवाद द्वारा समतुल्यता की विविध अवधारणाओं पर बुनियादी सवाल उठाया गया.
विखण्डनवाद अवबोध की प्रणाली को अपने विमर्श का आधार बनाता है. इसके अनुसार प्रत्येक भाषा स्वयं में संकेतों का एक निकाय है, जिसमें प्रत्येक संकेत (शब्द )का अर्थ से सम्बन्ध यादृच्छिक या मामानी होता है. यह भाषा की प्रकृति के अन्तर्गत ही है. सामाजिक सहमति के आधार पर यह मान लिया जाता है कि इस शब्द का अर्थ यह होगा. किन्तु एक शब्द का अर्थ सामाजिक सहमति के आधार पर भी एक ही नहीं होता. खुद या अर्थ या संकेतित अपने लिए कई संकेतों की सम्भावना के लिए या संकेतित अपने लिए कई संकेतों की सम्भावना के लिए हुए होता है. अत: संकेतक और संकेतित के मध्य निश्चित एकता सम्भव नहीं है. एक अर्थ अन्य कई सम्भव अर्थों की ओर से आँख मूँद कर ही प्राप्त होता है. यह एक प्रकार का व्याख्यागत प्राप्त होता हैं यह एक प्रकार का व्याख्यागत अन्धत्व है. साथ ही, अर्थ में एक तरह की निषेघात्मकता भी है. संकेतक आम का अर्थ संकेतित आम इसलिए भी है, क्योंकि इसका अर्थ संकेतित आलू, बैगन या गोभी नहीं है.
यही वजट है कि देरिदा ने अनुवाद को एक बेमानी और असम्भव विधा माना. उन्होंने अनुवाद की धारणा बदलकर उसे 'नियन्त्रित रूपान्तरण 'कहा. अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए देरिदा ने वाल्टर बेंजामिन के अनुवर्ती. जीवन की अवधारणा का संघर्ष लिया. बेंजामिन का विचार था कि जिस प्रकार एक बच्चा अपने माता. पिता का 'बाइप्रोडक्ट 'होने के बावजूद उनसे अलग है (और ऐसा होना मानव जाति के अस्तित्व के लिए अनिवार्य भी है ),उसी प्रकार अनूदित रचना भी मूल से जुड़े होने के बावजूद मूल से अलग होती है. खलील ज़िब्रान की एक कविता में एक बच्चा अपने पिता से कहता है.
"मैं तो एक बाण हूँ
जो आप छोड़ चुके हैं. "
निश्चित तौर पर आदर्श समतुल्यता प्राप्त करना सम्भव नहीं है. इस मामले में पाडली के 'इलेक्ट्रॉनों के लिए अद्वितीयता का सिद्धान्त 'काफी समानार्थक है, जिसके अनुसार कोई भी दो इलेक्ट्रॉन एक ही समय में एक ही जगह पर नहीं हो सकते. और अज्ञेय की मानें तो हर वस्तु, हर घटना स्वयं में अद्वितीय है.
इन प्रबल तर्कों के बावजूद विखण्डनवाद की अपनी सीमायें और कमियाँ हैं. इसका समतुल्यता की अवधारणा को बेमानी और औचित्यहीन कहना, मानवीय ज्ञान के प्रसार के इतिहास में औचित्यहीन है. अगर दो भाषाओं के संकेतकों के मध्य किसी भी प्रकार की समतुल्यता सम्भव नही है तो मानव ज्ञान का प्रसार और विकास नहीं हो सकता था. ऑटो कादे जिन अर्थों में पूर्ण समतुल्यता की चर्या करते हैं, उन्हें ख़ारिज नहीं किया जा सकता. वैज्ञानिक विषयों को अनुवाद के माध्यम से ठीक वैसे ही समझा जा सकता है, जैसे कि वे मूल रूप में हैं हाँ, ऐसा सम्भव है कि कभी. कभी किसी भाषा में मानक शब्दावली के अभाव में पूर्ण समतुल्य न मिल रहे हों. यह समस्या उन समस्याओं की भाँति नहीं है, जिनकी ओर देरिदा ने इशारा किया है. ज़रूरत पड़ने पर लक्ष्य भाषा का समाज या तो उस अभीष्ट शब्द के लिए नया मानक शब्द गढ़ लेता है, या फिर स्रोत भाषा से प्रदत्त शब्द को ज्यों का त्यों उधार लेकर अपनी भाषा का ही शब्द बना लेता है. यदि ऐसा नहीं होता तो मानक शब्दावली में समतुल्यता के अभाव में मानव ज्ञान. विज्ञान अभी तक दुधमुँहा बच्चा ही रहता. कल्पना कीजिए कि ठीक समतुल्य के अभाव में भारतीय खोज 'दशमलव 'और 'शून्य 'भारत में ही रह रहते और वह भी सिर्फ़ संस्कृत भाषा में, फिर क्या होता? सचमुच कल्पना नहीं की जा सकती.
हाँ, देरिदा की आपत्तियों को साहित्यिक अनुवाद के विकास में प्रभावी माना जा सकता है. अपनी नवनवोन्मेष. शालिनी प्रतिभा के बल पर एक साहित्यिक रचना हर पाठक के मन में अलग. अलग अर्थ छवियों को उद्घाटित करती है. अर्थ छवियाँ जितनी गहरी और महीन होंगी, रचना उतनी ही अच्छी मानज जाती रही है. मध्ययुगीन कवि तुलसीदास तक ऐसी कविता की श्रेष्ठता का पक्ष पोषण करते हैं, जिसमें. 'अरथु अमित अति आखर थारे '.इन अनन्त अर्थों में से पाठक अपने सामाजिक और मानसिक सन्दर्भों के हिसाब से कुछ विशिष्ट अर्थों को आत्मसात करता है. अनुवादक भी सबसे पहले पाठक की ही भूमिका निभाता है. यही वजह है कि एक ही साहित्यिक रचना के विविध अनुवादों से अलग. अलग ध्वनियाँ निकलती हैं और हर अनुवादक मूल रचना के नए जीवन के तलाश करता दिखायी देता है.
इन तमाम आपत्तियों के बावजूद आज तक किसी भी अनुवाद की सफलता बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करती है कि वह मूल रचना से किस स्तर तक जुड़ा है. अनुवाद का आकलन करते हुए एक आलोचक या पाठक उसकी रचना प्रक्रिया, आस्वादन एवं अर्थ. बोध की पडताल तो करता ही है, साथ ही मूल रचना से तुलना करते हुए वह यह भी समझने का प्रयास करता है कि अर्थ. बोध और भाव. बोध के स्तर पर अनूदित रचना तथा मूल रचना में कितनी समतुल्यता है. अनुवाद के मूल्यांकन की कसौटी में ही समतुल्यता की विभिन्न अवधारणाओं की औचित्य छिपा है.

© 2011 Anand Kumar Shukla; Licensee Argalaa Magazine.

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