अर्गला

इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका

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हस्तक्षेप

हिमांशु जोशी

अनिल पु. कवीन्द्र के साथ बातचीत

अनिल पुष्कर कवीन्द्र: स्वातन्त्रयोत्तर कथा साहित्य में प्रगतिशीलता किस तरह से परिवर्तित हुई संवेदनशीलता के स्तर पर? ख़ासकर वैश्वीकरण के दौर में?

हिमांशु जोशी: समय के साथ-साथ स्थितियाँ बदलती हैं. स्वाधीनता से पहले जो माहौल था, वातावरण था, चाहे वो राजनीतिक हो, साहित्यिक हो, सामाजिक हो, वो आज़ादी के बाद वैसा नहीं रहा. उसमें परिवर्तन आना स्वाभाविक था. कोई नई बात नहीं थी. समय के साथ-साथ परिवर्तन भी होगा और परिवर्धन भी होगा. इन दोनों का अस्तित्व हमारे लिए ज़रूरी है. ऐसा था कि स्वाधीनता के बाद ये अच्छा लगा कि प्रेमचन्द की परम्परा अगर ज़्यादा निखरकर उभरती तो साहित्य का ज़्यादा हित होता. लेकिन हुआ वैसा नहीं. पश्चिम के दरवाज़े खुलने से एकदम से बाढ़ की तरह वहाँ की संस्कृति, वहाँ का साहित्य, वहाँ की सोच, वहाँ की जीवनशैली, ये सब हमारे यहाँ छा गए. नयापन का जोश भी था. नएपन के जोश के अलावा नएपन का एहसास करने का जज्बा भी था. उसमें नए के नाम पर हमने बहुत कुछ नया ले लिया. बहुत कुछ ऐसा था, जो बेहद उपयोगी था. उस समय को उसे लेना चाहिए था. ऐसा नहीं है कि वो महत्त्वपूर्ण हो. उसके बिना भी काम चल सकता था. हमें रास्ता मिले या न मिले. लेकिन मिले रास्ते से हम भटक जाएँ, वो तो हमारी दूरदर्शिता या दृष्टि नहीं हो सकती. स्वाधीनता के पश्चात जो लहर होनी चाहिए थी, हमारी समस्याओं के प्रति, हम गरीब रहे, गुलाम रहे. सदियों तक. उससे मुक्त हुए. नई हवा, नए वातावरण में हमें साँस लेने का मौका मिला. और उससे हम बहुत कुछ अर्जित कर सकते थे. लेकिन अधकचरेपन और नएपन में हमने बहुत सा अच्छा तो लिया ही, लेकिन जो बहुत सा अच्छा था, वो गवाँ भी दिया. ये जो नया साहित्य था, वो नया तो होगा ही. उसमें आपके आने से नया, पुराना नहीं होगा. जो परिवर्तन की परम्परा है, परिपाटी है, वो चल रही है. लेकिन जो स्थितियाँ हैं, उसमें हमें ये देखना चाहिए था कि इस तरह से हम अपने समय के संसाधनों का सदुपयोग करें. व्यक्ति के निर्माण में, समाज के निर्माण में, और राष्ट्र के निर्माण में. अन्ततोगत्वा उसकी परिधि 19वीं सदी तक आती है. कोई बहुत बड़ी बात नहीं है. बूँद. बंूद से ही समुद्र बनता है. इसलिए छोटे से छोटा प्रयास भी मैं छोटा नहीं मानता. उससे बहुत बड़ा उसका वायुमण्डल, उसका एक महिमामण्दन कहीं व्याप्त रहता है चारों ओर. और वो सबको प्रभावित करता है, जो आज़ादी के बाद आपने कहा कि नयापन आया. नयापन लेना चाहिए. हम नए सूरज का उगते हुए स्वागत तो करते, लेकिन सब कुछ नहीं हो जाता. हम अपनी अच्छाई न भूलें. जो नये समाज से हमें कुछ नया मिल रहा है उसे भी ग्रहण करें, उनके बीच सन्तुलन रखें तो हमारा रास्ता अधिक आसान, अधिक दूर, देर तक किसी न किसी मंज़िल तक हमें पहुँचा देगा.

अनिल पुष्कर कवीन्द्र: दलित लेखन और स्त्री लेखन जैसे रचनात्मक हाशिए पर आपकी क्या राय है?

हिमांशु जोशी: इसे बड़े परिपेरक्ष्य में जब मैं सोचता हूँ तो मुझे लगता है कि दलित साहित्य के बारे में, कम से कम यदि हम एक समय समाज में जी रहे हैं तो दलित शब्द से हमें अब मुक्त होना चाहिए. और नारी का उत्पीड़न भी हम बहुत कर चुके हैं. सदियों तक, उसे पूज भी चुके हैं. जितना सम्मान नारी का भारतीय समाज में हुआ है, संस्कृतियों का पूरा अध्ययन करें तो कहीं भी विश्व में इतना नहीं हुआ. लेकिन, जितना निरादर मनुष्य का भारतीय समाज ने किया है, वो भी एक पराकाष्ठा है. आदमी को आदमी न समझना, वो तो एक मानवीय प्रवृत्ति नहीं है. यही कि प्रवृत्ति में कहीं न कहीं कुछ खोट है. और हम ये देखते हैं कि जो समस्यायें हैं. वो आर्थिक हों, सामाजिक हों, सांस्कृतिक हों, वो ऊपरवाला देता है कि नहीं देता है, मुझे नहीं मालूम. लेकिन इतना ज़रूर मैं कह सकता हूँ कि उसका श्रेय और प्रेम, उसका जो केरडिट है या उसका जो बुरा असर है, उसकी ज़िम्मेदारी हमें लेनी होगी. और आज भी समाज में दलित विमर्श की बात आती है. कभी. कभी अपने ऊपर शक होने लगता हैं कि हमने इतने हज़ार सालों में क्या यही कुछ सीखा था? आज भी लोग दलित रहें और हम उसे स्वीकार करें. और उसका प्रतिकार हम केवल नारों के रूप में करें. वो भी जिस तरह से हमने और चीजों को व्यापार बना दिया, उसी तरह से साहित्य और संस्कृति को भी व्यापार का हिस्सा मान लिया. तो इसके परिणाम दूरगामी तौर पर अच्छे नहीं होंगे. मुझे लगता है कि हमें इन छोटी. मोटी समस्याओं से विमुख हो जाना चाहिए. जो समस्यायें नहीं हैं. अछूतोद्धार की जो समस्या है, ऐसा हो सकता है किसी समाज में कि आदमी को आदमी छूने से वो अपवित्र हो जाए? मुझे तो लगता है कि हैवानियत के वातावरण में हम जी रहे हैं. इसे हम सहन कर रहे हैं. ये नहीं कि हम उसका क्रेडिट लेना चाह रहे हैं. बहुत बड़ा काम कर रहे हैं. कि हम आपके ऊपर उपकार कर रहे हैं. तो, जो समाज इतना घृणास्पद जीवन जी रहा है, उसका भविष्य क्या होगा? ऊपरवाला ही जाने !

अनिल पुष्कर कवीन्द्र: आपकी कौन सी ऐसी कृति है जिससे आपका लगाव सबसे ज़्यादा रहा और क्यों?

हिमांशु जोशी: ऐसा होता है, एक आम बात ये है कि माँ. बाप का प्रेम उस बच्चे के प्रति अधिक होता है जो कमज़ोर होता है. उसके प्रति लाड़ ज़्यादा होता है. उसकी देख. रेख ज़्यादा होती है. उसके बारे में ज्यादा चिंता माँ. बाप को सताती है. और जो स्वस्थ हो, उस पर उतना ध्यान नहीं देते. लेकिन, मैं इससे आगे की बात कहूँगा. ऐसा ही नहीं होता. ऐसे भी
उदाहरण हैं. कुछ रचनायें प्रिय भी होती हैं. अगर मुझे प्रिय न होतीं तो मैं लिखता क्यूँ? और लिख भी लीं तो छपवाता क्यूँ? और छपवा भी लेता तो उसे मैं अपने पास सम्भालकर रखता क्यूँ? वही चीज रखनी चाहिए जो उपयोगी हो. जिसकी कोई अहमियत हो. जिससे हमें कुछ मदद मिले. जो रचना हमें अच्छी लगे, हम परिष्कृत करके उसे स्वीकार करते हैं. मुझे ये लगता है कि मैंने जो लिखा वो मेरी ही सन्तानें हैं. मैं ही उनका रचयिता हूँ? और सबके प्रति मेरा लगाव है जैसे माँ. बाप का बच्चे के प्रति होता है. लेकिन फिर भी कुछ रचनायें कुछ कारणों से, कुछ दूसरे कारणों से हमें अच्छी लगने लगती हैं. जैसे आपने अभी दलित विमर्श की बात कही. जब ये दलित. विमर्श शब्द ही नहीं था, तब मैंने एक उपन्यास लिखा था 'कराह की आग '.आपने नहीं पढ़ा होगा. आप उसे पढ़िए 'दलित विमर्श 'क्या होता है? शायद उसमें उसे आप देख सकें. ये 1971.72का उपन्यास है, जब दलित. विमर्श नाम आया भी नहीं था. अस्तित्व में नहीं था. जो लोहे के बरतन बनाते हैं, लोहार जिन्हें कहते हैं, उनकी दीन. हीन ज़िंदगी पर आधारित है. उसे इसलिए नहीं लिखा कि वो दलित. विमर्श का है. ऐसा कोई नारा नहीं दिया था मैंने. जो मनुष्यत्व के ख़िलाफ़ हो, मानवता के ख़िलाफ़ हो, उसका तिरस्कार करना होगा. और जो मनुष्यत्व को लेकर के चलता हो, उसका परिष्कार भी आवश्यक है. वो मैंने लिखा था. साप्ताहिक 'हिन्दुस्तान 'का रजत जयन्ती वर्ष था. उसे साप्ताहिक हिन्दुस्तान ने पूरे अंक में छापा और उसके बाद वो पुस्तक रूप में छपा. ये उपन्यास जो दलित, गरीब थे उन पर लिखा गया था. और हमारे यहाँ उनसे ज़्यादा कोई पिछड़े और समस्याओं से ग्रसित लोग होते होंगे. इसकी मैं कल्पना नहीं कर सकता. जैसे. हमारे यहाँ पहाड़ में उनकी ज़िन्दगी थी अब तक. वो उपन्यास एक लिहाज़ से ठीक रहा. लोगों ने पसन्द किया. और उसके कई संस्करण हो गए. उसकी प्रतिक्रिया बड़ी अच्छी रही. ये बात ख़ुद अपनी रचना के बारे में कहें तो अच्छा नहीं लगता. लेकिन लोगों ने पसन्द किया. उसका चीनी भाषा में अनुवाद हुआ. प्रो. ल्यूकोनार्द ने किया था. बरेली में उपाजू ने किया. भागीरथी शेष ने नेपाली में किया. निस्वत और उपागू ने नार्वेजन में विचार अभी इटैलियन में अनुवाद आया है इलाहाबाद के प्रो. पाणड़ेय श्याम मनोहर पाणड़ेय इन्होंने अपनी एक शिष्या के साथ मिलकर के उसका अनुवाद किया और उस पर पी. एच. डी. की. फिर उसके बाद भारतीय भाषाओं में अनूदित हुआ. .डोगरी, पंजाबी, गुजराती, कोंकड़ी, मराठी, उड़िया, 20-21 भाषायें हैं. वहाँ के काफी लेखक आए चूँकि नार्वेजिन में अनुवाद हो चुका था तो उन्हें पढ़ने में कठिनाई नहीं हुई. जितने भी सब राष्ट्र थे उनके भी एम्बेस्डर आए. लेखिका जो वहाँ की थी तूलिन बोए. वो वहाँ की लेखिका संघ की अध्यक्ष भी हैं. उसने वहाँ आकर अध्यक्षता की. सबने अपनी. अपनी प्रतिक्रियायें कहीं. जब तूलिन ने कहा कि 'सबने कुछ कहा, आप भी कुछ कहिए. मैंने कहा देखो !लेखक को जो कहना होता है वो रचना के माध्यम से कह देता है और वो आप तक पहुँच रही है, आप तक कन्वे हो रहा है तब तो अच्छा है. और ऐसा नहीं है तो फिर उसमें कुछ कमी है. कि वो आपको असर नहीं कर रही. अगर कर रही है तो उसके लिए भी मैं ही सिफारिश करूँ और कहूँ कि उसमें ये सदगुण है, ये दुर्गुण है. मुझे इस तरह रचना की वक़ालत करना अच्छा नहीं लगता. रचना बोलनी चाहिए. उसने कहा. मैंने आपको एक शब्द ही कहने का आग्रह किया कुछ तो कहिए. मैंने कहा मैं तूलिन से एक सवाल पूछना चाहता हूँ. ये बताओं कि आप लोग कल्पना नहीं कर सकते. आपके पास अथाह है. इस समय दुनिया में तीसरे जब की समुद्र से पेट्रोलियम और तेल निकालने की जो गत है. वो नार्वे को मिल गया है तो पैसा और सोना पिघला हुआ बरस रहा है. उन्हें ये नहीं सूझता कि इन अरबों-खरबों रूपये से क्या करें? मैंने कहा तुम्हारा जो स्तर है जीवन का एस्तार्दीनेस व ब्लिन्किंग जिसे कहते हैं वो अमेरिकन से कहीं ऊपर है. इतना आपके पास पैसा है इतनी आपके पास सुविधायें हैं. जहाँ तक सवाल इस उपन्यास का है ये गरीब तबके की कहानी है. इससे गरीब हो नहीं सकता. कि गिरी हुई है. उसने कहा आपने सवाल बहुत अच्छा पूछा है कि हमारी ये जो सम्पन्नता है. और दूसरे मुल्कों की जो विपन्नता है. उसके कुछ कारण हैं. जो विपन्नता के कारण है उसका समाजशास्त्रीय विश्लेषण करेंगे. मैं तो यहाँ एक बात कहने आई हूँ कि आपने जो नारी का दु: ख, दर्द व्यक्त किया है. उस नारी का. जो उत्पीड़ित हो लोहे के बर्तन बनाती है. उसका दु: ख आपने उजागर किया है. ऐसा होता है. दु: ख, सुख, हंसी, प्यार, घृणा ये सारी दुनिया में होते हैं. ऐसा नहीं हैं कि हिन्दुस्तान में नहीं होती इसकी गणना. या वहाँ कोई और अवगुण नहीं होता. यहाँ और कोई अच्छे गुण नहीं हैं ऐसा नहीं है. दुनिया में ये सब जगह होता है. हर धरातल पर होता है. इसका केन्द्रीय तत्व ये है कि नारी का शोषण है और गरीबों की जो दुर्दशा है. वो दिखाने के लिए नहीं है. आपका जो दर्द है वो नारेबाजी उभारती है. मैं एक सीमा से ज़्यादा पढ़ नहीं सकती. इतनी करूणा, इतना संघर्ष है. मैं काँप जाती हूँ. आप देखिए, कि मनुष्य के गुण. दुगुर्ण या आचरण वैश्विक हैं. अगर आप यहाँ किसी को कष्ट पहुँचाएँगे. तो उसको दु: ख और दर्द होगा ही. हाथ काटेंगे तो दर्द होगा. मारेंगे तो दर्द होगा. उसने कहा कि आज की इस सम्पन्न दुनिया में नारी का शोषण होता है. और कुछ दूसरे .ढंग से होता है. लेकिन होता है उतना ही उत्पीड़न जितना आपके समाज में व्याप्त है. यहाँ पर जो बहुत सी आई नार्वेजिन महिलायें हैं, उनकी पीठ अगर आप देखेंगे तो कोड़े के निशान मिलेंगे. अच्छे कपड़े पहनने से, अच्छी किताबें रख लेने से, अच्छा भोजन करने से, अच्छे मकान में रहने से कोई आदमी सभ्य नहीं हो जाता. सभ्य होता है. संस्कारों से. दुनिया में अभी वो संस्कार नहीं आए हैं. उसमें इतने ही दरिद्र आप हैं जितने हम. आपकी गरीबी से उपजी हुई परेशानियाँ हैं. हमारी अमीरी से उपजी हुई परेशानियाँ हैं. यहाँ भी रोग है, दुख है, उत्पीड़न है. यहाँ भी शोषण है, वहाँ भी शोषण है. शोषण तो शोषण ही रहेगा. ऐसा तो नहीं होता. कहीं दु:ख की और परिभाषा हो और दु: ख को किसी और रूप में वो परिभाषित करते हों. कहने का मतलब है कि वो उपन्यास ठीक ही रहा. और सबसे ज़्यादा बिका भी. फिल्म बनी इस पर, दिल्ली दूरदर्शन ने दिखाया था. जो इंड़ियन क्लासिक्स था उसमें चार किस्तों में दिखाया था. जब वो छपा तो उन्हीं दिनों हिन्दी साहित्य सम्मेलन हो रहा था. बहुत पुरानी बात है. उसमें हिन्दी के कुछ लेखक प्राध्यापक आए थे विदेशों से इस सम्मेलन में शामिल होने. वो लोग इस कार्यक्रम के अलावा दो तीन दिन यहाँ ठहरे. हम लोगों में चर्चा हो रही थी कि साप्ताहिक हिन्दुस्तान के लिए उनसे कुछ सामग्री साक्षात्कार के रूप में उनमें इकट्ठा कर सकते हैं. तो प्रोफेसर ल्यूकोनार्द हिन्दी के प्रोफेसर थे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में वो भी आए थे. होटल में ठहरे थे. सुबह ही उनसे मिलने मुझे जाना था. हम लोगों के बीच बड़ी सहजता से थोड़ी देर बातचीत हुई थी. मैंने कहा कि प्रो. ल्यूकोनार्द हमारे यहाँ खाली हाथ अधिकतर घरों में नहीं जाते. मैं आपके लिए कुछ ला नहीं पाया. जल्दी में ऑफिस से उठकर यहाँ आपसे मिलने चला आया हूँ. लेकिन मेरी एक किताब निकली है अभी. ज्ञानपीठ का पहला संस्करण था. वो इस तरह से था कि जैसे मुनि के आध्यात्म निबन्ध हो. पीले रंग का कवर उसमें दिया गया था. कीमत थी उसकी साढ़े सात रूपया. मैंने कहा ये किताब मैं आपको दे रहा हूँ. आपकी जो रेक है किताबों की, अध्ययन कक्ष में, उसमें एक किताब ये भी रख लीजिएगा. और ये सोचकर, कि किसी भारतीय मित्र ने मुझे दी थी. पढ़ियेगा नहीं. एक मित्र होने के नाते मेरा फर्ज़ आपको दु:ख देने का नहीं है. बल्कि आपके दु:ख, कष्ट, परेशानियाँ जो भी हों उन्हें कम करने का है. इसे पढ़िएगा नहीं, इसमें आपको पढ़ने में कठिनाई होगी. क्योंकि जो शब्द हैं वो आंचलिक हैं. हिन्दी ही समझना आपके लिए मुश्किल है. फिर आंचलिक शब्दों को आप कैसे समझेंगे? इसलिए यह बात मैं कह रहा हूँ. इसके पीछे कोई बहुत बड़ा कारण नहीं है. बात ख़त्म हो गई. चार पाँच महीने बाद भारतीय ज्ञानपीठ के अग्रवाल जी को एक पत्र मिला, वो था प्रो ल्यूकोनार्द का. उसमें लिखा था कि आपने जो न पढ़ने का आग्रह किया था मैंने अभी तक इसे पढ़ा नहीं है. किताबों की रेक में मैंने रख दिया. एक दिन ख़्याल आया कि जहाँ पर पढ़ते हुए कठिनाई आएगी, रोक दूँगा, नहीं पढूँगा. कोई मज़बूरी थोड़े ही है. कि नहीं, मुझे पढ़ना ही है. मैंने पढ़ना शुरू किया. कहते हैं कि कब मैंने शुरू किया और कब ख़त्म हुआ. कुछ पता ही नहीं चला. मैं स्तम्भित रह गया कि मेरे घर की ये कहानी आपने कहाँ सुनी और कैसे लिखी? आप चीन तो कभी आए नहीं. वो बोले कि कहानी पूर्णत: मेरे ही परिवार की है. हम लोग फ्यूड़ल सिस्टम में रहे, बहुत प्रताड़ित हुए. ज़मींदार और तमाम लोगों ने बहुत परेशान किया. हम तो गरीब थे. आज तो प्रोफेसर हूँ विश्वविद्यालय में पढ़ाता हूँ. केवल निम्नवर्गीय था.
मेरी एक भांजी हमारे यहाँ रहती थी जिस तरह से आपके उपन्यास में एक मानसिक रूप से ग्रस्त आदमी से उसकी शादी करवा दी गई. मेरी जो भांजी थी उसका पति अन्धा था. उसका भी एक बच्चा था. इसका भी एक बच्चा है. और फ़र्क यही है अन्त में, कि जहाँ उपन्यास में आपने उसकी हत्या करवा दी. पूरी की पूरी बस्ती जला दी. वहाँ ऐसा था नहीं, बल्कि फ्यूड़ल समाज ने उसके बच्चे की हत्या कर दी थी. आपकी कहानी पढ़कर मुझे लगा कि वो मरे नहीं हैं. अभी भारत में जिंदा है. मैं उनको भारत से लाना चाहता हूँ. और उसके लिए आपकी अनुमति की ज़रूरत नहीं है. और उन्होंने उसे अनूदित किया.

अनिल पुष्कर कवीन्द्र: साहित्य की संस्कृति और शब्दों की राजनीति पर आप क्या कहते हैं?

हिमांशु जोशी: देखिए !'राजनीति 'तो राजनीति है. शब्दों की हो, चाहे अर्थ की हो, 'चाहे वो सही अर्थ में राजनीति की ही 'राजनीति 'हो. आज तो राजनीति शब्द ही दूसरे अर्थ, दूसरे परिपेरक्ष्य में आ गया है. नेपाली में कहते हैं उसने तो हद ही कर दी. वो तो पोलिटिक्स में राजनीति ले आया है. ये जो पोलिटिक्स में राजनीति आ रही है. ये बड़ी ख़तरनाक चीज़ है. मुझे लगता है कि साहित्य समाज में तो रहता ही है और समाज में उसका दायित्व भी होता ही है. सामाजिक समस्याओं को रेखांकित करना उसका धर्म भी है, कर्म भी है, मर्म भी है. ये सब उसके लिए ज़रूरी हैं. लेकिन कहीं-कहीं इमानदारी, कहीं-कहीं सहिंष्णुता, कहीं. कहीं पदत्याग, कहीं. कहीं पदहित ही स्वनिहित है. ऐसी धारणा व्यक्ति को व्यक्ति बनाती है. आदमी को आदमी बनाती है. नहीं तो एक साधारण उसमें और आदमी में कोई फर्क नहीं रह जाएगा. आज आवश्यकता ये है कि पैसे की, अर्थ की, सामाजिक सुखों की, सामाजिक स्वीकारोक्ति की ऐसी एक अन्धी दौड़ लगी है कि आदमी कहीं लगता है बहुत पीछे चला गया है. और उसका जो बुरा पहलू है ज़िंदगी का, उसकी सोच, उसके जीने का. ये उभरकर सामने आ रहा है. शायद इसीलिए ये स्थिति हो रही है. लेखक जो है वो प्रहरी होता है. अंग्रेज़ी में बड़ा अश्लील गन्दा शब्द है वाच डाग. हिन्दी में उसे प्रहरी कह सकते हैं. आज आप देखिए कि समाज में, इस देश में, और देशों में क्या. क्या नहीं हो रहा है सभ्यता, संस्कृति के नाम पर, अपने, पराए के नाम पर. किस तरह से, एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को दण्डित कर रहा है? किस तरह से एक-दूसरे राष्ट्र को खणड़ित कर रहा है? और किस तरह से अपने आप को महामणड़ित करके वो बहुत कुछ यश भी अर्जित कर लेना चाहते हैं. अनाचार भी कर लेना चाहते है. ये सारी विसंगतियाँ हैं यहीं व्याप्त हैं. जितनी स्थितियाँ आज विषम हैं आदमी के सामने, उतनी शायद पहले नहीं थी. आदमी का जीवन ख़तरे से गुज़र रहा है. हर किसी का, एक का नहीं. .ये इसीलिए है कि राजनीति की कोई नीति नहीं है. लेखक का कोई कर्म नहीं ;धर्म नहीं क्यूँकि कहानी, उपन्यास, कविता लिख लेने से साहित्य नहीं हो जाता. साहित्य तो अन्दर से निकालता है. वो स्याही से नहीं लहू से लिखा जाता है. उतनी अगर आप में ऊर्जा नहीं है. उसमें उतनी यदि सक्रियता नहीं है. उतनी तेजस्विता नहीं है. फिर आपका लिखना महज़ कागज़ का लिखना है. वैसे ही बहुत वृक्ष कट रहे हैं. लोग कहते थे न, कि कागज़ तो वृक्ष कटने से आता है. वो इन वृक्षों की हत्या करते हैं, लेकिन उसमें लिखते क्या हैं? कुछ ऐसा होना चाहिए जो आदमी को आदमी बनाने की तरफ ले जाए. कुछ ख़तरे मोल लें. और एक बेहतर समाज के लिए प्रगतिशील रहें. आज हम, केवल हम तक ही सिमट कर रह गए हैं. और हम में भी मैं आ गया है.
मेरे अलावा कुछ नहीं. जो समाज ऐसा होगा उसकी क्या परिणति होगी? ये आप अच्छी तरह समझ सकते हैं. कि न तो वो किसी को कहीं ले जाएगा और न खुद कहीं पहुँचेगा. वो एक विडम्बना में ही इधर. उधर घूमता रहेगा.

अनिल पुष्कर कवीन्द्र: कहानी की आलोचना, समालोचना पर आलोचक का अधिकार है या पाठक की राय. अगर है तो क्यूँ?

हिमांशु जोशी: देखिए !लेखक लिखता किसके लिए हैं? आलोचक कौन होता है? आपकी लड़की है, उनका लड़का है. दोनों की हम शादी कर रहे हैं तो पुरोहित कौन होता है? उसी पण्डित किसने बनाया? हमने बनाया उसे. हम नहीं चाहते तो बिचौलिए की क्या ज़रूरत है इसमें. यानि जो स्थितियाँ हैं. लेखक की और पाठक की. वो एक 'रिलेशनशिप 'है. लेखक लिखता किसके लिए है? एक तो अपने लिए लिखता है. स्वान्त: सुखाए उसमें होता है. और ऐसा होता है कि कुछ लक्ष्य लेकर के लिखता है. तब पाठक भी नहीं होता निगाह में. आलोचक भी नहीं होता. मात्र रचना होती है. रचना के प्रति उसे न्याय करना पड़ता है. रचना के प्रति दायित्व है. आलोचक तो बुलाया हुआ अनवांटेड मेहमान है. और वो बीच में दखलदाजी देता है. कि अमुक जी अच्छी कहानियाँ लिखते हैं. अमुक जी नहीं लिखते. वो कौन होता है? हम अगर ये समझें कि जो हमारा दायित्व है और होना भी चाहिए. वो पाठक है. पाठक ही हमारे लिए सब कुछ है. आलोचक तो बिचौलिए है. वो क्या बताएगा हमें? वो तो ख़ुद ही उस ही दौर में से गुजरे. उसकी भी अपनी सीमायें हैं ;लेकिन फिर भी कर्ताधर्ता बन जाता है. कि ये प्रेमचन्द के बाद सबसे बड़ा लेखक है. ये प्रेमचन्द के बाद सबसे घटिया लेखक है.

अनिल पुष्कर कवीन्द्र: तो फिर समाज में आलोचकों की ज़रूरत क्यों पड़ी?

हिमांशु जोशी: क्यों पड़ी? पुरोहितों की जरूरत क्यों पड़ी? लड़की मेरी, लड़का आपका हो? फिर पुरोहित को क्यों ले जा रहे हो? मन्त्र आप ही पढ़ लीजिए. किताब में लिखे रहते हैं. आप ही बताइए किसान ने अपनी हड़ड़ियाँ तोड़ी, पसलियाँ तोड़ी, पसीना बहाया, खून बहाया, दिन रात खेतों में काम किया, फसल उगाई और उस फसल को उसने अपने पूरे श्रम से, त्याग से, बलिदान से अनाज पैदा किया. तो उसने कुछ सृजन किया. सृजन का श्रेय या जो श्रेय नहीं है वो लेखक पर जाता है. लेखक जो कुछ व्यक्त करना चाहता है और व्यक्त करता है उसमें आलोचक की भूमिका कोई बहुत सृजक वाली नहीं होती. सृजनात्मक हो सकती है, थोड़ी बहुत अगर वो निष्पक्ष है. लेकिन हर आदमी तो आलोचक नहीं हो सकता. टॉल्सटॉय के उपन्यास की आलोचना एक साधारण आदमी करने लगे तो कैसे होगा? बाल्मीकि रामायण में जो लिखा हुआ है या कालिदास ने जो लिखा है या रॉबर्ट फॉस्ट का जो लिखा हुआ है. चेखव, गोर्की का जो लिखा हुआ है. इसके लिए भी उतनी बड़ी टावारिंग पर्सनालिटी चाहिए, तब तो होगा. तो आलोचक की कोई भूमिका मेरे हिसाब से नहीं है. मियाँ- बीबी के बीच में और किसी की ज़रूरत नहीं रहती.

अनिल पुष्कर कवीन्द्र: 21वीं सदी में कहानियों में हो रहे परिवर्तन. वाह्य एवं आन्तरिक संरचना, रूप, अन्तर्वस्तु पर आपके क्या विचार हैं, कि ये परिवर्तन कहानी की प्रगतिशील धारा के सापेक्ष हैं या फिर विरूद्ध होकर कोई नई धारा के घटक?

हिमांशु जोशी: देखिए !बात ये है न, कि पहले तो रचना पढ़ी जाए. रचना में इतना गुण तो होना चाहिए, कि वो अपने को पढ़ा ले. पहली शर्त है रचना की. फिर निर्णय लेंगे कि ये अच्छी थी या बुरी थी. तो आज जो कुछ परिवर्तन आप देख रहे हैं साहित्य में भी, सोच में भी. मैं उससे आतंकित नहीं हूँ. मुझे वो बुरे नहीं लगते. वो सवाल अच्छे सवाल हैं. यदि हम उसकी तह में जाना चाहें तो पहली बात मैं मानता हूँ कि जो भी लिखा जाता है, वो पढ़ा जाए, वो अपने को पढ़वा ले. अच्छी किताब उसे कहता, मानता हूँ मैं, जोकि पूरी अपने को पढ़वा ले और आपको पता ही न चले कि कब ख़त्म हो गई. और क्यों खत्म हो गई? पहली शर्त है कि आपको पढ़ने में सहयोग दे या आपको सहयोग न भी दे तो जैसे जल रास्ते में आप कहीं गिराते हैं तो पानी प्रवाहित होता हैं. कोई बताता नहीं है इंजीनियर, कि पानी अब कहाँ जाएगा? पानी अपनी जगह ख़ुद ढूँढ लेता है. ऐसे ही पाठक जो है, यदि लेखक में दम है तो वो पाठक से पढ़वा लेता है. पहली चीज़ है. उसकी 'पठनीयता '.और आज बहुत कम रह गई है 'पठनीयता '.पढ़ने से पहले ही आलस आने लगता है. हम जिस पाठक के लिए लिख रहे हैं उसे भूल जाते हैं. कहीं तो अपना पाणड़ित्य बघारने लगते हैं, कहीं उपदेश देने लगते हैं, उसकी जो वस्तुस्थिति है, जो उसकी समस्यायें हैं, जो उसके संघर्ष हैं, उनको हम छूते छेड़ते नहीं है, उनसे बच के निकल जाते हैं. अब साहित्य के लिए अक्सर लगता है हिन्दी में पठनीयता कम हो गई है. या तो उसे आप बहुत ही निचले धरातल पर ले आए हैं, नहीं तो उसका सही मूल्यांकन कैसे हो? इसका निर्णय आप ले ही नहीं सकते. क्योंकि निर्णय और के हाथ में है . आप कुछ और है, हो कुछ और रहा है. जाना कहीं और, वे पहुँच कहीं और रहे हैं. इस तरह का एक भ्रम है. कैसे वो निकले उसी में से? एक ही शर्त है लेखन की, कि लेखन लेखन होना चाहिए. अपने को पढ़वा ले. और लेखन का अपना एक अर्थ भी है. पोथा पढ़ लिया आपने, उसके पीछे आपको मिला क्या है? आपके समय की क़ीमत है. आपकी शक्ति की कोई सीमा है. वो अगर आपमें है, आप उसका दुरूपयोग तो नहीं करेंगे. अब पठनीयता ख़त्म हो रही है. ये आकर्षित करती है आपको, कि आप पढ़ने बैठें तो पढ़ते ही चले गए. दूसरा उसका कोई लक्ष्य भी हो. आपको ले भी जाए कहीं, किसी मंजिल तक. ऐसा नहीं, कि केवल मनोरंजन के लिए साधन मात्र होना चाहिए. मनोरंजन भी होना चाहिए. उसमें उद्देश्य भी होना चाहिए, उसकी सार्थकता भी उसी में है. कि कहीं वो आपको कोई रास्ता भी सुझाए. आपको उकसाए कोई अच्छा काम करने के लिए. इससे एक सार्थकता हो गई लेखन से.

अनिल पुष्कर कवीन्द्र: कुछ विख्यात कवियों को बेहतरीन कहानीकार मानने से इंकार किया गया जैसे निराला व अन्य. आप किस तरह से इसे देखते हैं? क्या कहानी कला की विशेषतायें एक मात्र मानदणड़ हो सकती हैं, केवल और केवल कथासृजन में या फिर कथा सृजन में बदलाव ज़रूरी है?

हिमांशु जोशी: नहीं, एक बात और होती है कि हम उसे कितनी गहराई से समझ पाते हैं. पहली बात जो मैंने कहा कि पठनीयता होनी चाहिए. कवितायें और कहानियाँ ये तो दो माध्यम हैं. बात तो साहित्य की है. साहित्य में दोनों आते हैं. दोनों के अतिरिक्त कुछ और भी आता है. तो निराला जी के सन्दर्भ में है कि निराला को तो बहुत मिला. उससे बड़े लेखक, कवि कितने हुए होंगे हिन्दी में? दो. चार ही होंगे. इतना बड़ा उनको गौरवशाली पद मिला, स्नेह मिला, आदर मिला लेकिन एक बात होती है मूल्यांकन में या तो आप जयशंकर प्रसार हो जाइए, रविन्द्रनाथ टैगोर हो जाइए कि आप अनेक विधाओं में पारंगत हैं. अनेक छवियों में आपके अनेक स्वरूप हैं. रविन्द्रनाथ टैगोर बहुत अच्छे नाटककार और अभिनय भी करते थे, अद्भुत चित्रकार, बहुत अच्छे उपन्यासकार, बहुत अच्छे चिंतक, उनकी बहुत सी दिशायें थी. उनकी उपेक्षा तो किसी ने नहीं की. जिस तरह से जयशंकर प्रसाद और टैगोर की उपेक्षा नहीं हुई, अब आप पन्त को कहानीकार मानें तो मैं स्वीकार करने को बिल्कुल तैयार नहीं है. महादेवी वर्मा ने संस्करण लिखे, कुछ उन्होंने कवितायें लिखीं और बेहद विख्यात हुईं. उनकी उपेक्षा कहाँ हुई?

अनिल पुष्कर कवीन्द्र: महाकाव्यों से लेकर उपन्यासों के दौर तक कथा का सबसे महत्वपूर्ण बिंदु किस समय में रहा? और क्यूँ?

हिमांशु जोशी: देखिए !कथा हमेशा से ही एक आकर्षण का केन्द्र रही. जब हम बच्चे थे तब पक्षियों की कहानियाँ, परियों की कहानियाँ सुना करते थे. हम ही नहीं सुना करते थे, वो अशिक्षित समाज ही सुनाया करता था. जो विद्यारस नहीं जानता था. ये जितनी हमारी लोकथायें हैं. ये लोगों में लोक से छन. छना कर के दुनिया का चक्कर काट कर यहाँ तक आईं. इनकी यात्रा लिखित नहीं थी, मौखिक है. और मौखिक में भी ये कालजयी हैं. लोककथायें मरती नहीं हैं. एक क़िताबी, क़ागज़ी साहित्य मर जाता है. और उनमें कोई बड़ी भारी टेकनिक होती हो ऐसा भी नहीं होता. मैं दावे के साथ कह सकता हूँ, कि जितना ये सब पढ़ा गया उतना और कुछ नहीं पढ़ा गया. ये तब भी रहा, जब संस्कृति अलग थी. घर. घर पहुँच गया और आज भी है, तो साहित्य उसे कहते हैं. साहित्य बाकी नहीं होता. आप एक आग की तीली में झण्डा टाँगकर खड़े हैं और कहें कि झंड़ा फहरा रहे हैं. कुछ नहीं कर रहे हैं. कोई दिखा दीजिए ऐसी रचना, जिसे आप कहें कि साहब !दिला दीजिए इसे हम दोबारा, तिबारा, चौबारा पढ़ना चाहेंगे. किताब की चोरी करें, ऐसा नहीं है. साहित्य की कसौटी उसकी उपयोगिता है. और उसकी पठनीयता है. कथातत्त्व तो हमेशा प्रबल रहा है. ऐसा होता है न, दो चीज़ से साहित्य को अमरत्त प्राप्त होता है. एक तो कथा तत्वों से. इससे 'गेय 'होने की वज़ह से. सामवेद, ऋगवेद से लेकर अब तक वो सब गेय थे, गाए गए थे. गाए जाते थे. तुलसीदास की चैपाइयाँ गाई जाती थीं. सूरदास गाए जाते थे. जितने भी थे. ये 'गेय 'होने से कविता में यदि 'शब्द 'ढलता है, तो उसे अमरत्व मिलता है. यानि मुझे तारीख़ याद नहीं रहती, लेकिन आप मुझसे पूछें कि तुलसीदास का देहान्त कब हुआ मैं बता सकता हूँ.
'संवत सोलह सौ अस्सी अस्सी गंग के तीर, श्रावण, शुक्ल सप्तमी तुलसी तज्यौ शरीर.
अब इन चार पंक्तियों ने जोड़कर शब्दों को जो गेयता बनाई, इससे वो अमर हो गई. वैसे आप किसी से भी पूछें, निराला या कोई और. .उसे उसका जन्मदिन याद नहीं होगा. साहित्य में गेय होना और उसमें कथा. तत्व का होना, उसे अमरत्व प्रदान करता है, जी जाता है. ये जो गाँव में कहानियाँ चलती हैं, आल्हा. ऊदल की कहानियाँ हैं. बहुत सा ऐसा साहित्य है, जो आप भूल नहीं सकते. वो बिल्कुल इल्लितारेट लोगों ने रचा है.

अनिल पुष्कर कवीन्द्र: आपने आगे के मेरे सवाल पर भी पूर्ववत ही काफी टिप्पणी कर दी, मेरा कहना यही था कि कहानी कहने की अपनी एक उपयोगिता थी. क्या आप दादी नानी की कहानियाँ, जो अपने बच्चों को सुनाती थी. आप किस रूप में इसे देखते हैं?

हिमांशु जोशी: जिस तरह से माँ का दूध बच्चे के लिए ज़रूरी है, उसी तरह उसके संस्कार बच्चे के लिए ज़रूरी हैं. संस्कार के लिए हम जो कहानियाँ पढ़ते हैं, कि इस तरह से वो वहाँ पहाड़ भाँप गया और हर कहानी में इस तरह से राक्षस का ही अन्त होता है. कभी भी, कहीं भी, कोई रामायण महाभारत ऐसी नहीं लिखी गईं, जहाँ रावण विजयी हुआ हो. जहाँ कौरव विजयी हुए हों. आप देखेंगे, कि हमेशा रावण ही पराजित हुआ है. हमेशा बुरा ही पराजित हुआ है. इस अर्थ में संस्कार आते हैं. अच्छे के प्रति आदर भाव, स्नेह भाव, अपनापन झलकता है. यही बच्चों में होता है. बच्चे भी अपने को आइडेंटीफाई करते हैं.

अनिल पुष्कर कवीन्द्र: लेकिन जिन जगहों पर कथाओं में जैसे शम्बूक का वध हुआ और राम विजयी हुए. वहाँ पर आपके क्या विचार होंगे?

हिमांशु जोशी: देखिए !ऐसा है मैं उनकी बात नहीं कर रहा कि कैसे युद्ध जीता गया. इंदिरा गान्धी कैसे चुनाव जीत गई. यदि एक महिला प्रधान मन्त्री ये पूछती है कि ये हमारा राष्ट्रपति का चुनाव लड़ेगा और अपना कैन्डीडेट खड़ा करती है बाद में आत्मा की आवाज ये कहती है कि दूसरे आदमी को खड़ा करके उसे लाओ. और राष्ट्रपति घोषित कर दिया. ऐसी छोटी. मोटी कमियाँ राजनीति में चलती हैं. लेकिन, ऐसा नहीं होता अधिकतर हमारा जो साहित्य है, उसकी सार्थकता ही इसमें है कि वो अज्ञेय होता है. वो पराजित हो जाएगा. हम पराजित हो जाएँगे. रावण तो इस मोहल्ले में है. हर घर में है. हर घर में बलात्कार और हर घर में चीरहरण होता है. हर जगह महिलायें जलती हैं, बच्चे पिटते हैं, सब कुछ होता है. शोषण खत्म थोड़े ही हुआ है.

अनिल पुष्कर कवीन्द्र: समकालीन साहित्य में 'किन कथाकारों के कथा. साहित्य को समाजशास्त्रीय दृष्टि से देखने की ज़रूरत है?

हिमांशु जोशी: देखो !ऐसा है कि साहित्य में दो फैसले होते हैं. एक तो हम करते हैं और एक आप कर रहे हैं, एक समय करता है. हम सभी फैसले कर लें तो नहीं चलेगा. लेकिन कुछ होते हैं जैसे रेणु का साहित्य, समय के साथ. साथ भी स्वीकृत हुआ और अभी भी प्रासंगिक है. रेणु ने जो लिखा है या जो प्रेमचन्द ने लिखा है या ख़लील जिब्रान ने जो लिखा है या मण्टो ने जो लिखा है या बंगला में और बड़ी विभूतियाँ हुई हैं, जिन्होंने जो कुछ लिखा वो समय सापेक्ष भी था. उस समय भी पढ़ा गया, उस समय भी लोगों को काफी प्रेरित किया. अच्छा जीवन जीने के लिए, लड़ने के लिए, आगे बढ़ने के लिए बहुत कुछ दिया समाज को इसीलिए तो हम उनकी पूजा करते हैं. लेकिन आज दु: ख की घड़ी ये है कि जो प्रहरी थे साहित्य के, समाज के, गरीब लोगों की ही चिंता के, वो कहीं पीछे चले गए. केवल आगे उनके मुखौटे आ गए हैं. वो अन्दर से क्या हैं? मालूम नहीं पड़ता. उन्होंने भी बहादुर लोगों के कपड़े पहन लिए हैं. अन्दर से वो कितने कायर हैं मालूम नहीं पड़ता न मुखौटों से. ये नहीं होना चाहिए. और आप लेखकों का सम्मान इसलिए करते हैं कि लेखक हमारे लिए जीवित रहता है, ये उम्मीद करते हैं. वो उन लोगों की लड़ाई भी लड़ता है जो कहीं मर रहे हैं. बुराइयों से परास्त हो रहे हैं, उनके लिए भी लड़ता है. दुगुना लड़ाई लड़ता है. लेखक अपना अस्तित्व कायम रखने के लिए भी लड़ता है और उन मूल्यों के लिए भी लड़ता है, क्योंकि वो नहीं रहेंगे तो उसका ये अस्तित्व भी नहीं रहेगा. आज के लेखन में वो जुझारूपन नहीं है. जो जुझारूपन है वो शाब्दिक है. शाब्दिक केवल नहीं होना चाहिए. भगत सिंह अगर 22)साल में फाँसी पर लटक गए वो शाब्दिक नहीं था. उसका त्याग गान्धी के त्याग से कम नहीं है. आपने किस रूप में लिया मैं नहीं जानता. लेकिन वो गान्धी से भी बड़ा गान्धी था. ये बात ठीक है कि एक तो जीतेगा, एक हारेगा ही. एक तो सफर करना ही है और दूसरी बात अन्त में ये है कि मरना तो आख़िरकार सभी को है. अगर भगत सिंह एक सौ दो साल भी जी लीं और साधारण दुकान में नमक तेल बेचते. तो कुछ बनना नहीं था. वो आदमी, जिस वक्त फांसी पर लटके साढे बाइस वर्ष उम्र थी, तो वो प्रेरणा के रूप में हमारे साथ हैं. उसका चित्र आज भी घर में रखो तो एक प्रेरणा देता है, लेकिन औरों के नहीं देते. जो लोग सत्ता पद पर हैं उनका चित्र प्रेरणा क़तई नहीं देगा क्योंकि सत्ता तो दानवी लोगों की है. जो लोग मनुष्य कम हैं और व्यक्तिगत हितों का चिन्तन अधिक करते हैं उनका क्या संघर्ष है?

© 2011 Himanshu Joshi; Licensee Argalaa Magazine.

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